अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक में अमीर देशों की उपस्थिति के बावजूद यदि स्थानीय मुद्राओं में ही व्यापार, विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं में निवेश, ब्रिक्स बैंक की स्थापना और ब्रिक्स देशों के बीच आपसी कारोबार को बढ़ाने संबंधी सुझावों को धरातल पर उतारा जाये तो अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विकसित और अमीर देशों का एकाधिकार खत्म होना तय है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स असरदार, संगठित और नेतृत्वकारी ताकत बन कर उभर सकता है। क्या ब्रिक्स देशों का एक साथ खड़ा होना पश्चिमी वर्चस्व की मौजूदा विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है? नयी दिल्ली में आयोजित चौथे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में उठे मुद्दों पर गौर किया जाये तो सबसे प्रमुख तथ्य यह उभरकर आता है कि वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव की बात पहले सम्मेलन से हो रही है। लेकिन विडंबना यह है कि वैश्विक संस्थाओं खासकर आर्थिक मामलों से जुड़ी संस्थाओं पर पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने के अपने घोषित मंसूबों के बावजूद ब्रिक्स देश पिछले साल आइएमएफ के अध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति से कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सके। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार चुनने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। आइएमएफ से डोमिनिक स्ट्रॉस कान की विदाई के बाद आइएमएफ प्रमुख पद के लिए भारत के योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का नाम सामने आया था। अमेरिका ने भारत को समझाया और यूरोप ने चीन को। इस तरह से चीन भारत का समर्थन करने से पीछे हट गया। नयी दिल्ली में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में यह बात दोहरायी गयी कि विश्व बैंक और आइएमएफ जैसी संस्थाओं के शीर्ष पदों के लिए चयन प्रक्रिया खुली और पारदर्शी होनी चाहिए। लेकिन विश्व बैंक के अध्यक्ष पद पर एक और अमेरिकी का नामांकन यही दर्शाता है कि चीजें बदली नहीं हैं। आइएमएफ के प्रमुख पद के लिए मैक्सिको के ऑगिस्टन कास्टेंस की जगह क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया गया, क्योंकि अमेरिका और यूरोप समेत तीन ब्रिक्स देशों ने फ्रांस की क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया था। यह विडंबना है कि ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के भाषणों में एकता की बात होती है लेकिन जहां बदलाव का अवसर आता है, वहां सब अलग-अलग राग छेड़ने लगते हैं। ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था का आकलन किया जाये तो यह जरूर दिखता है कि पश्चिमी देशों की तुलना में इन देशों ने आर्थिक संकट का सामना बेहतर ढंग से किया है। वैश्विक जीडीपी में इन पांच देशों की हिस्सेदारी 25 फीसद है और दुनिया की 43 फीसद आबादी ब्रिक्स देशों में रहती है। पिछले साल ब्रिक्स देशों का आपसी कारोबार 230 अरब डॉलर का था, जिसे वर्ष 2015 तक बढ़ाकर 500 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा गया है। ब्राजील और रूस उन वस्तुओं के निर्यातक हैं, जिनकी जरूरत भारत और चीन को है। चीन का विनिर्माण, भारत का सर्विस सेक्टर, रूस का तेल-गैस भंडार, ब्राजील का आधारभूत संरचना में विकास और दक्षिण अफ्रीका का मानव और प्राकृतिक संसाधन आपसी कारोबार के आधार स्तंभ हैं। इनके बलबूते विकसित देशों को चुनौती दी जा सकती है। आज विकसित देशों में जहां बाजार परिपक्व होने के कारण मांग में पिछड़ते जा रहे हैं, वहीं ब्रिक्स देशों में तेजी से बढ़ रही युवा आबादी के कारण मांग उफान पर है। इन सकारात्मक चीजों के साथ अगर स्थानीय मुद्रा में व्यापार और ब्रिक्स बैंक की स्थापना की बात धरातल पर उतरती है तो यह पूरे विश्व के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। फिलहाल दुनिया के 18 फीसद कारोबार और 53 फीसद विदेशी पूंजी प्रवाह पर ब्रिक्स देशों का नियंत्रण है। विकसित देशों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए ब्रिक्स देश आपसी कारोबार और निवेश बढ़ाने के लिए रियाल, रूबल, रुपये, युआन और रेंड में व्यापार कर सकते हैं। यूरोपीय जोन के संकट ने दुनिया को यह बता दिया है कि साझा मुद्रा के रहते हुए मुद्रा का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। कर्ज संकट में फंसे किसी एक देश को जब आर्थिक सहायता देकर उबारने की कोशिश की जाती है तो उसी समूह का दूसरा देश कर्ज संकट में फंस जाता है। धीरे-धीरे एक ही मुद्रा का इस्तेमाल करने वाले समूह के सारे देश संकट में फंस जाते हैं। इसे "डोमिनो प्रभाव' कहा जाता है। डोमिनो प्रभाव से बचने के लिए स्थानीय मुद्रा कारगर साबित होती है। इससे डॉलर और यूरो जैसी मुद्राओं पर ब्रिक्स देशों की निर्भरता कम हो जायेगी। लिहाजा स्थानीय मुद्रा में कारोबार से विनिमय के उतार चढ़ाव और मुद्रा के अवमूल्यन की समस्या से निजात मिलेगी। ब्रिक्स बैंक की स्थापना से समूह देशों को आधारभूत संरचना के निर्माण जैसी परियोजनाओं के लिए सस्ता धन मिलेगा। इससे कारोबार सुविधाजनक होगा, लेन-देन की लागत भी घटेगी। लेकिन इसकी सफलता के लिए राजनीतिक स्थिरता की आवश्यकता है, जिसका रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में अभाव दिखता है। साथ ही इन दो सुझावों के सफल होने के लिए ब्रिक्स देशों की आपसी टकराहट को कम करना आवश्यक है ताकि दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने की पश्चिम की क्षमता न बढ़े। पश्चिमी देशों में बहुआयामी और लगातार संपर्क का एक लंबा इतिहास रहा है। चाहे युद्ध का समय हो या शांति का दौर, पश्चिमी देशों ने आपसी संपर्क के जरिये एक दूसरे और उनके कामकाज के तौर-तरीकों के प्रति भी अच्छी समझ विकसित की है। लेकिन जहां तक ब्रिक्स देशों का सवाल है, वहां भौगोलिक दूरी के साथ-साथ मानसिक दूरियां भी बढ़ी हैं। भारत और चीन के बीच संपर्क और व्यवहार का एक समृद्ध इतिहास रहा है। लेकिन आज की तारीख में यह लगभग नहीं के बराबर है। ब्रिक्स देशों में राजनीतिक विचारधाराओं का अंतर भी इस समूह की एक बड़ी कमजोरी बन कर उभरा है, खास कर जब विचारधारा के तौर पर ज्यादा संगठित पश्चिमी देशों से इसकी तुलना होती हो। ब्रिक्स देशों में सैन्य और सामरिक मोर्चे पर भी आपसी अविश्वास है। ब्रिक्स के आलोचक चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का मुद्दा उठाते हैं। इसी तरह मध्य एशिया या साझा सीमा पर चीन के इरादों पर रूस की शक भरी निगाह आपसी विश्वास की कमी दिखाता है। ब्रिक्स देशों की कमजोर कड़ी के रूप में भारत की अर्थव्यवस्था भी है। सन् 2001 में ब्रिक्स शब्द गढ़ने वाली टीम के प्रमुख गोल्डमैन सैस के जिम ओ'नील ने कहा था कि ब्रिक्स देश वैश्विक ताकत की परिभाषा बदलेंगे और भारत इस बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम होगा। लेकिन पिछले एक दशक बाद ओ नील ने कहा कि ब्रिक्स देशों में भारत कमजोर कड़ी बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार और नीति निर्माण के क्षेत्र में भारत की कमजोरी खुलकर सामने आ रही है। "द इकोनॉमिस्ट' ने हाल ही में राजकोषीय स्थिति के आधार पर देशों को रैकिंग प्रदान की है। भारत को इस सूची में नीचे से दूसरा स्थान मिला है। निस्संदेह दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत बाकी तीन ब्रिक्स देशों से काफी पीछे है। ब्रिक्स देशों की अगुवाई करने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को नौ फीसद की विकास दर पर लाना होगा। बहरहाल, यह माना जा सकता है कि व्यावहारिक सहयोग के मामलों में ब्रिक्स देश अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि सामूहिक तौर पर ये राजनीतिक और आर्थिक ताकत हैं और दुनिया में बेहतरी के वाहक बन सकते हैं।
Sunday, 14 July 2013
ब्रिक्स : एक विवेचना
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक में अमीर देशों की उपस्थिति के बावजूद यदि स्थानीय मुद्राओं में ही व्यापार, विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं में निवेश, ब्रिक्स बैंक की स्थापना और ब्रिक्स देशों के बीच आपसी कारोबार को बढ़ाने संबंधी सुझावों को धरातल पर उतारा जाये तो अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विकसित और अमीर देशों का एकाधिकार खत्म होना तय है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स असरदार, संगठित और नेतृत्वकारी ताकत बन कर उभर सकता है। क्या ब्रिक्स देशों का एक साथ खड़ा होना पश्चिमी वर्चस्व की मौजूदा विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है? नयी दिल्ली में आयोजित चौथे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में उठे मुद्दों पर गौर किया जाये तो सबसे प्रमुख तथ्य यह उभरकर आता है कि वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव की बात पहले सम्मेलन से हो रही है। लेकिन विडंबना यह है कि वैश्विक संस्थाओं खासकर आर्थिक मामलों से जुड़ी संस्थाओं पर पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने के अपने घोषित मंसूबों के बावजूद ब्रिक्स देश पिछले साल आइएमएफ के अध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति से कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सके। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार चुनने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। आइएमएफ से डोमिनिक स्ट्रॉस कान की विदाई के बाद आइएमएफ प्रमुख पद के लिए भारत के योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का नाम सामने आया था। अमेरिका ने भारत को समझाया और यूरोप ने चीन को। इस तरह से चीन भारत का समर्थन करने से पीछे हट गया। नयी दिल्ली में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में यह बात दोहरायी गयी कि विश्व बैंक और आइएमएफ जैसी संस्थाओं के शीर्ष पदों के लिए चयन प्रक्रिया खुली और पारदर्शी होनी चाहिए। लेकिन विश्व बैंक के अध्यक्ष पद पर एक और अमेरिकी का नामांकन यही दर्शाता है कि चीजें बदली नहीं हैं। आइएमएफ के प्रमुख पद के लिए मैक्सिको के ऑगिस्टन कास्टेंस की जगह क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया गया, क्योंकि अमेरिका और यूरोप समेत तीन ब्रिक्स देशों ने फ्रांस की क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया था। यह विडंबना है कि ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के भाषणों में एकता की बात होती है लेकिन जहां बदलाव का अवसर आता है, वहां सब अलग-अलग राग छेड़ने लगते हैं। ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था का आकलन किया जाये तो यह जरूर दिखता है कि पश्चिमी देशों की तुलना में इन देशों ने आर्थिक संकट का सामना बेहतर ढंग से किया है। वैश्विक जीडीपी में इन पांच देशों की हिस्सेदारी 25 फीसद है और दुनिया की 43 फीसद आबादी ब्रिक्स देशों में रहती है। पिछले साल ब्रिक्स देशों का आपसी कारोबार 230 अरब डॉलर का था, जिसे वर्ष 2015 तक बढ़ाकर 500 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा गया है। ब्राजील और रूस उन वस्तुओं के निर्यातक हैं, जिनकी जरूरत भारत और चीन को है। चीन का विनिर्माण, भारत का सर्विस सेक्टर, रूस का तेल-गैस भंडार, ब्राजील का आधारभूत संरचना में विकास और दक्षिण अफ्रीका का मानव और प्राकृतिक संसाधन आपसी कारोबार के आधार स्तंभ हैं। इनके बलबूते विकसित देशों को चुनौती दी जा सकती है। आज विकसित देशों में जहां बाजार परिपक्व होने के कारण मांग में पिछड़ते जा रहे हैं, वहीं ब्रिक्स देशों में तेजी से बढ़ रही युवा आबादी के कारण मांग उफान पर है। इन सकारात्मक चीजों के साथ अगर स्थानीय मुद्रा में व्यापार और ब्रिक्स बैंक की स्थापना की बात धरातल पर उतरती है तो यह पूरे विश्व के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। फिलहाल दुनिया के 18 फीसद कारोबार और 53 फीसद विदेशी पूंजी प्रवाह पर ब्रिक्स देशों का नियंत्रण है। विकसित देशों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए ब्रिक्स देश आपसी कारोबार और निवेश बढ़ाने के लिए रियाल, रूबल, रुपये, युआन और रेंड में व्यापार कर सकते हैं। यूरोपीय जोन के संकट ने दुनिया को यह बता दिया है कि साझा मुद्रा के रहते हुए मुद्रा का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। कर्ज संकट में फंसे किसी एक देश को जब आर्थिक सहायता देकर उबारने की कोशिश की जाती है तो उसी समूह का दूसरा देश कर्ज संकट में फंस जाता है। धीरे-धीरे एक ही मुद्रा का इस्तेमाल करने वाले समूह के सारे देश संकट में फंस जाते हैं। इसे "डोमिनो प्रभाव' कहा जाता है। डोमिनो प्रभाव से बचने के लिए स्थानीय मुद्रा कारगर साबित होती है। इससे डॉलर और यूरो जैसी मुद्राओं पर ब्रिक्स देशों की निर्भरता कम हो जायेगी। लिहाजा स्थानीय मुद्रा में कारोबार से विनिमय के उतार चढ़ाव और मुद्रा के अवमूल्यन की समस्या से निजात मिलेगी। ब्रिक्स बैंक की स्थापना से समूह देशों को आधारभूत संरचना के निर्माण जैसी परियोजनाओं के लिए सस्ता धन मिलेगा। इससे कारोबार सुविधाजनक होगा, लेन-देन की लागत भी घटेगी। लेकिन इसकी सफलता के लिए राजनीतिक स्थिरता की आवश्यकता है, जिसका रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में अभाव दिखता है। साथ ही इन दो सुझावों के सफल होने के लिए ब्रिक्स देशों की आपसी टकराहट को कम करना आवश्यक है ताकि दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने की पश्चिम की क्षमता न बढ़े। पश्चिमी देशों में बहुआयामी और लगातार संपर्क का एक लंबा इतिहास रहा है। चाहे युद्ध का समय हो या शांति का दौर, पश्चिमी देशों ने आपसी संपर्क के जरिये एक दूसरे और उनके कामकाज के तौर-तरीकों के प्रति भी अच्छी समझ विकसित की है। लेकिन जहां तक ब्रिक्स देशों का सवाल है, वहां भौगोलिक दूरी के साथ-साथ मानसिक दूरियां भी बढ़ी हैं। भारत और चीन के बीच संपर्क और व्यवहार का एक समृद्ध इतिहास रहा है। लेकिन आज की तारीख में यह लगभग नहीं के बराबर है। ब्रिक्स देशों में राजनीतिक विचारधाराओं का अंतर भी इस समूह की एक बड़ी कमजोरी बन कर उभरा है, खास कर जब विचारधारा के तौर पर ज्यादा संगठित पश्चिमी देशों से इसकी तुलना होती हो। ब्रिक्स देशों में सैन्य और सामरिक मोर्चे पर भी आपसी अविश्वास है। ब्रिक्स के आलोचक चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का मुद्दा उठाते हैं। इसी तरह मध्य एशिया या साझा सीमा पर चीन के इरादों पर रूस की शक भरी निगाह आपसी विश्वास की कमी दिखाता है। ब्रिक्स देशों की कमजोर कड़ी के रूप में भारत की अर्थव्यवस्था भी है। सन् 2001 में ब्रिक्स शब्द गढ़ने वाली टीम के प्रमुख गोल्डमैन सैस के जिम ओ'नील ने कहा था कि ब्रिक्स देश वैश्विक ताकत की परिभाषा बदलेंगे और भारत इस बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम होगा। लेकिन पिछले एक दशक बाद ओ नील ने कहा कि ब्रिक्स देशों में भारत कमजोर कड़ी बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार और नीति निर्माण के क्षेत्र में भारत की कमजोरी खुलकर सामने आ रही है। "द इकोनॉमिस्ट' ने हाल ही में राजकोषीय स्थिति के आधार पर देशों को रैकिंग प्रदान की है। भारत को इस सूची में नीचे से दूसरा स्थान मिला है। निस्संदेह दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत बाकी तीन ब्रिक्स देशों से काफी पीछे है। ब्रिक्स देशों की अगुवाई करने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को नौ फीसद की विकास दर पर लाना होगा। बहरहाल, यह माना जा सकता है कि व्यावहारिक सहयोग के मामलों में ब्रिक्स देश अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि सामूहिक तौर पर ये राजनीतिक और आर्थिक ताकत हैं और दुनिया में बेहतरी के वाहक बन सकते हैं।
दक्षिण एशिया:बदलते सन्दर्भों की विवेचना
दक्षिण एशिया में वे सभी देश शामिल है, जो कि चीनी जन गणराज्य के दक्षिण में हैं और हिन्द महासागर के देश, जैसे- भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भुटान, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यान्मार, इन्डो-चीन के देश, जैसे वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाइलैण्ड और इस बेल्ट के दक्षिण में मलेशिया, सिंगापुर, इन्डोनेशिया और फिलिपिन्स इसमें आते हैं। चीन और ताइवान इसकी उत्तरी सीमा है। विश्व का यह वह हिस्सा है, जो यूरोपियन उपनिवेशवादी देश जैसे ब्रिटेन, पुर्तगाल, हाँलैन्ड आदि के शोषण का शिकार रहे हैं, भारत सबसे बडा देश है और उसका भूतकाल बडा शानदार रहा है। औपनिवेशिक काल में उपनिवेशकारियों के हाथों में विश्व का यह हिस्सा कठपुतली की भांति था और वे इसके भाग्य विधाता थे। औपनिवेशिक काल में इन देशों की अन्तरराष्ट्रिय राजनीति में मुश्किल से ही काई स्वतन्त्र भूमिका रही हो।
भारत के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात, इन देशों में स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड गए और लगभग दो शताब्दियों के समय में इस क्षेत्र के लगभग सभी देश स्वतन्त्र हो गए। आज के बदलते समय में विश्व राजनीति में इन देशों की प्रमुख भूमिका हो चली है। राष्ट्रों के समुदाय में इनकी आवाज का काफी महत्व है। जहाँ यूरोप ने हमें दो महायुद्ध दिए, इस क्षेत्र में हमें आशा है कि इन देशों द्वारा अनेक प्रयास किए जा रहे है। दक्षिण एशिया के देश संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई मंचों पर शान्ति के लिए पैरवी करते रहे हैं। सन 1947 में दिल्ली में एशियन्स रिलेशन्स कान्पमेंस का आयोजन हुआ था। इस के पश्चात 1955 में एशियन देशों के इण्डोनेशिया में काँन्पमेंस हुई । इन सम्मेलनों ने विश्व का ध्यान शान्ति की या एक देश से दूसरे देश की शोषण समस्या पर केन्द्रित करने का प्रयास किया और एक नयी एवं न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के लिए आह्वान किया। उससे पूर्व सन् 1954 में, भारत और चीन ने संयुक्त रुप से शान्ति के प्रसिद्ध पाँच सिद्धान्तों, पंचशील का प्रतिपादन किया। ये सिद्धान्त इस प्रकार हैं- अनाक्रमण, समानता एवं पारस्परिक लाभ, दूसरे की सम्प्रभुता एवं प्रादेशिक अखण्डता का आदर, एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना एवं शान्तिमय सह-अस्तित्व। इस क्षेत्र के किसी देश ने यूरोपियन राजनीति के अरवाडे में लडी गई जैसी किसी लडाई में अपने को नहीं लगाया।
दक्षिण एशिया ने गुटनिरपेक्षता के आन्दोलन को र्सार्थकता प्रदान करने के लिए बहुत प्रयास किया है। भारत ने इस धारणा को जन्म दिया। जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में इस आन्दोलन में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अनेक देश शामिल होते गए। कुछ युरोपीय देशों, विशषकर युगोस्लाविया ने गुटनिरपेक्षता के दर्शन एवं अभ्यास को अंगीकृत कर लिया। सन् 1961 तक, जबकि बेलग्रड में प्रथम गुटनिरपेक्ष सम्मेलन आयोजित हुआ, विश्व के 25 देश गुटनिरपेक्ष देशों के भातृत्व में शामिल हो गए थे। अब तक लगभग 120 देश इस समुदाय के सदस्य बन चुके हैं। यह दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के आह्वान एवं प्रभावी नेतृत्व के कारण सम्भव हो सका है। युद्ध से संत्रस्त विश्व को गुटनिरपेक्षता की देन दक्षिण एशिया ने दी है। इन देशों ने दोनों महाशक्तियों के बीच विश्वास और सद्भाव के सेतु बनाने का भी प्रयास किया है और विश्व शान्ति पारस्परिक सहयोग की नींव को मजबूत करने के लिए प्रयत्न किया है। सोवियत यूनियन के विखण्डन से विश्व शक्ति ढाँचे के एक ध्रुवीय हो जाने के बावजूद भी विश्व का यह भाग गुटनिरपेक्षता आन्दोदलन की प्रासंगिकता पर जोर डालता है।
ये देश बराबर यह आवाज उठाते रहे हैं कि हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बना देना चाहिए। इस प्रकार का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में श्रीलंका की पहल पर पारित हुआ। इस क्षेत्र की जनता एवं नेताओं ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने के लिए आवाज उठाई और इस पृथ्वी से उपनिवेशवाद के अन्तिम अवशेषों को समाप्त करने के लिए आह्वान किया। इन्होंने आपस में आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग के सम्बन्ध स्थापित किए हैं। सन् 1957 में एशियान की स्थापना एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना थी। राष्ट्रों के इस समुदाय में शामिल हैं, इण्डोनेशिया, सिंगापुर, थाइलैण्ड, फिलिपीन्स, मलेशिया, ब्रुनेई, वियतनाम और लाओस। क्षेत्रीय सहयोग की अन्य बहुत ही महत्वपूर्ण घटना सार्क की स्थापना है, जिसमें भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालद्वीव समूह है। इन देशों ने क्षेत्र के विकास और अपनी जनता के कल्याण के लिए व विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग स्थापित करने के लिए अपने को समर्पित किया है। इससे इस क्षेत्र एवं विश्व में तनाव को कम करने एवं शान्ति को बढ़ावा देने में सहायता मिलेगी।
फिर भी यह क्षेत्र पूरी तरह तनाव से मुक्त नहीं है। भारत-चीन का सीमा विवाद, भारत-पाकिस्तान के कटु सम्बन्ध, श्रीलंका में तमिल मूल के लोगों की समस्या और वियतनाम और कम्बोडिया के खराब सम्बन्ध की वजह से चिन्ता होना स्वाभाविक है। भारत-श्रीलंका सम्बन्धों में भी उष्णता की कमी है। क्योंकि श्रीलंका अपने यहाँ के जातीय संर्घष में भारत के हाथ होने का संदेह करता है। पाकिस्तान का पंजाब, जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद के समर्थन में हाथ होना भारत के लिए सिर्रदर्द बना हुआ है। उत्तरी कोरिया को अभी तक अंतर्राष्ट्रीय आचरण की परिपक्वता प्राप्त नहीं हुई है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद में तथाकथित लिप्तता के कारण अमेरिका को इसी बुर्राई की धुरी में शामिल करने हेतु विवश होना पडा है, फिर भी विश्व के इस भाग के द्वारा उठाए गए कष्ट इन देशों को भाई-चारे, न्याय, शान्ति एवं प्रगति पर आधारित विश्व व्यवस्था की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त करने हेतु बाध्य कर देंगे। भारत एशिया पेसिफिक इकाँनोमिक काँपोरेशन संगठन में प्रवेश पाने का इच्छुक है। इससे इन देशों से सौहार्दता के सम्बन्ध ही नहीं विकसित होंगे अपितु व्यापार, वाणिज्य, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सहयोग में वृद्धि करने के आयाम खुलेंगे। पश्चिमी देशों से और अधिक सहयोग करने में ऐसी गंध आती है कि भारत इन देशों के आर्थिक षडयंत्रों के प्रति आत्मर्समर्पण कर रहा है। किन्तु दक्षिण एशिया के देशों से बढते सम्बन्ध इस श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। बल्कि यह भारत की इस इच्छा का द्योतक है कि इन देशों से घनात्मक फायदे उठाए जाएँ। विश्व का भविष्य यूरोप की ओर नहीं बल्कि दक्षिण एशिया, जिसमें दक्षिण-पूर्वी एशिया सम्मिलित है कि ओर दृष्टि लगाए हुए हैं। इस क्षेत्र में मेकाँग गंगा सहयोग परियोजना जिसमें दक्षिण एशिया के कई देश शामिल हैं, अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दिशा में एक अनूठा कदम है। इन देशों में एक नयी गतिशीलता का संचार हो रहा है। दक्षिण कोरिया तो विकसित देशों की श्रेणी में सम्मिलित हो ही चुका है। मलेशिया और भारत बड़ी तेजी से इसमें शामिल होने हेतु आगे बढ रहे हैं..........
सार्क:सफल या असफल
वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के देश विभिन्न साझा बाजारों, आर्थिक समुदायों अथवा इकोनॉमिक ब्लॉक्स के जरिए विश्व अर्थव्यवस्था में अपना भविष्य बेहतर बनाने की होड़ में लगे हुए हैं। इसी का परिणाम है कि थोड़ी-बहुत भिन्न प्रकृति के साथ आसियान, नाफ्टा, यूरोपीय संघ, इकोसाक, बिम्सटेक, शंघाई सहयोग संगठन, सेकु, कैरीकाम, सेमैक, ईएसी......जैसे तमाम सहयोग संगठन या साझा बाजार पूरी दुनिया में उपस्थित हो चुके हैं और आगे भी ऎसे ही नए मंचों के निर्माण की संभावना बनी रहेगी। दक्षिण एशिया के देशों ने भी कुछ इसी तर्ज पर आज के लगभग ढाई दशक पहले दक्षेस (सार्क) का गठन कर विश्व अर्थव्यवस्था में अपना भविष्य सुनिश्चित करने की कोशिश की, लेकिन दक्षिण एशिया के देश अपने मकसद में उतने कामयाब नहीं हो पाए, जितने कि आसियान या नाफ्टा जैसे ब्लॉक्स के सदस्य हुए।
सवाल उठता है कि आखिर ऎसा क्यों हुआ?
इसलिए कि ढाई दशक का सफर तय करने के बाद भी दक्षेस देश अपनी पुरानी मैकेनिज्म को बदलने का जज्बा पैदा नहीं सके या फिर कोई और कारण इसके लिए जिम्मेदार रहा? दक्षेस की अब तक प्रगति पर तो 17 शिखर और उपलब्धि सिफर जैसे शीर्षक भी इजाद हो गए। इसका मतलब तो यह हुआ कि दक्षेस देश अपनी मैकेनिज्म को परिवर्तित करने में नाकाम रहे। इसी के चलते दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे ज्यादा गरीबों का निवास स्थान बन गया। युवाओं और महिलाओं में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है और यह लगातार बढ़ रही है। इस क्षेत्र के 1.64 अरब लोगों में से 60 करोड़ लोग प्रति दिन 1.25 डॉलर से कम पर गुजारा कर रहे हैं। कुपोषित बच्चों की तादाद 25 करोड़ हैं और अधिकांश महिलाओं का प्रसव घर में ही होता है। और तो और इकोवास (इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीका) जैसे संगठन, जिसके सदस्य देशों में बेनिन, बर्किनाफासो, केपवर्डे, कोट ड आइवरी, घाना, माली, नाइजर, सिएरा लियोन....दुनिया के सबसे पिछड़े देश आते हैं, के बराबर ही दक्षिण एशिया की प्रतिव्यक्ति आय है। फिर ऎसा लगता है कि यहां कुछ ऎसा है, जो तमाम देशों को आकर्षित कर रहा है। आज चीन, ईरान, म्यांमार और इंडोनेशिया ही नहीं, बल्कि रूस जैसे देश भी इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं। गौरतलब है कि चीन दक्षेस की सदस्यता प्राप्त करने संबंधी अपनी इच्छा काफी पहले ही प्रकट कर चुका है और पाकिस्तान तथा बांग्लादेश इसकी सदस्यता का समर्थन भी करते हैं। यद्यपि भारत इसका विरोध करता है, लेकिन ढाका सम्मेलन (2005) के दौरान भारत इसे जापान के साथ पर्यवेक्षक का दर्जा देने पर सहमत हो गया था। इंडोनेशिया और म्यांमार की भी स्थिति ऎसी ही है। ईरान जो इसमें स्थान पाने के लिए यह तर्क देता है कि उसके सार्क के दो देशों- पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान, के साथ सशक्त सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संबंध हैं और दक्षेस से जुड़कर वह पूरब तथा पश्चिम के साथ इसे जोड़ने की सुविधा प्रदान कर सकता है। यही नहीं, रूस भी पर्यवेक्षक का दर्जा चाहता है और भारत इसका समर्थन कर रहा है। अगर इतने देशों की निगाहें दक्षेस की ओर लालायित हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि इस क्षेत्र में कुछ ऎसा जरूर है, जिससे इन देशों का लाभ हो सकता है।
आखिर उनके कौन से लाभ यहां छुपे हुए हैं?
आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक या फिर सभी? शायद 1.6 बिलियन से ज्यादा लोगों का विशाल बाजार और प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के साथ दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था की संभाव्यता, जुड़ाव की इच्छा का पहला कारण है। एक यही कारण दक्षिण एशिया में निहित नहीं है, बल्कि दक्षिण एशिया में कई रणनीतिक समीकरणों का हल भी निहित है। अफगानिस्तान, हिंद महासागर रिम, खाड़ी क्षेत्र, इराक से अमेरिकी सेना की विदाई के बाद मध्य-पूर्व की स्थिति और एशिया प्रशांत में जो नए रणनीतिक समीकरण निर्मित हो रहे हैं, वे दक्षिण एशिया को महत्वपूर्ण बना रहे हैं। दक्षिण एशिया के लिए यह जरूरी है कि वह पहले आर्थिक रूप से समृद्ध बने, जिसकी संभावनाएं अपार हैं। इस क्षेत्र में उभरती हुई आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ सबसे बड़ा देश होने के नाते भारत को बिग ब्रदर की भूमिका निभानी है और पाकिस्तान को अपना चरित्र बदलने की जरूरत है। गौर से देखें तो दक्षिण एशिया रीजन में आर्थिक सहयोग की वृहत्तर संभावना के लिए तीन क्षेत्र हैं- सेवा व्यापार, ऊर्जा सहयोग और लॉजिस्टिकल कनेक्टिविटी। बहुत सी दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं सीधे भारत से सेवाओं को प्राप्त कर सकती हैं, खासकर प्राथमिक चिकित्सा सेवा और शिक्षा जो बाहर के देशों से लेने के कारण उनके लिए अधिक खर्चीली साबित हो रही हैं। जहां तक पर्यटन का की बात है तो विशेषकर अफगानिस्तान और नेपाल के लिए इसे विकास के एक प्रमुख अवसर के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन वहां सुरक्षा समस्या आड़े आ जाती है। गैर परंपरागत क्षेत्रों में ऊर्जा और बिजली सहयोग व्यापार संबंधों को विकसित करने की दिशा में बेहतर ट्रैक साबित हो सकता है। इस क्षेत्र में भूटान और भारत का उदाहरण लिया जा सकता है, विशेषकर हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर के क्षेत्र में। इसी तरह की संभाव्यता बांग्लादेश और नेपाल में भी निहित है। दक्षिण एशिया में इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड को आपस में जोड़ने से ने केवल ऊर्जा कीमतों में कमी आएगी, बल्कि इससे दक्षेस देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र सशक्त प्रतियोगी बन कर उभर सकते हैं। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और भारत इस दिशा में संभावनाओं के महान क्षेत्र हैं।
दक्षिण एशिया के सीमावर्ती देशों, जैसे- म्यामार, ईरान और तुर्कमेनिस्तान ....के पास भी प्राकृतिक गैस की क्षमता आधिक्य में है। इसलिए अखिल-दक्षिण एशियाई संकल्पना को पाइपलाइन इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरिए साकार किया जा सकता है। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो दक्षिण एशिया को आर्थिक हब बनने से कोई नहीं रोक सकता। यह तभी संभव हो सकता है, जब पाकिस्तान भारत के प्रति अपना नजरिया पूरी तरह से बदल ले और आतंकवाद को समूल नष्ट करने की पूरी ईमानदारी से जिम्मेदारी निभाए। यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान और नेपाल चीनी चंगुल से बचे रहें।
असियान:एक विवेचन
दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन (आसियान) दस
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का समूह है, जो आपस में आर्थिक विकास और
समृद्धि को बढ़ावा देने और क्षेत्र में शांति और स्थिरता कायम करने
के लिए भी कार्य करते हैं। इसका मुख्यालय इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में है। आसियान की स्थापना 8 अगस्त, 1967को थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में की गई थी। इसके संस्थापक सदस्य थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस और सिंगापुरथे। ब्रूनेई इस संगठन में 1984 में शामिल हुआ और 1995 में वियतनाम। इनके बाद 1997 में लाओस और बर्मा इसके सदस्य बने। 1976 में आसियान की पहली बैठक में बंधुत्व और सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किए गए। 1994 में आसियान ने एशियाई क्षेत्रीय फोरम (एशियन रीजनल फोरम) (एआरएफ) की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य सुरक्षा को बढ़ावा देना था। अमेरिका, रूस, भारत, चीन, जापान और उत्तरी कोरिया सहित एआरएफ के 23 सदस्य हैं।
अपने चार्टर में आसियान के उद्देश्य के बारे में बताया गया है। पहला
उद्देश्य सदस्य देशों की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता को
कायम रखा जाए, इसके साथ ही झगड़ों का शांतिपूर्ण निपटारा हो।
सेक्रेट्री जनरल, आसियान द्वारा पारित किए प्रस्तावों को लागू करवाने और
कार्य में सहयोग प्रदान करने का काम करता है। इसका कार्यकाल पांच वर्ष का
होता है। वर्तमान में थाईलैंड के सूरिन पिट्स्वान इसके सेक्रेट्री जनरल है। आसियान की निर्णायक बॉडी में राज्यों के प्रमुख होते हैं, इसकी वर्ष में एक बार बैठक होती है।
यो
तो दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने 60 के दशक में जब आसियान नाम से अलग गुट
बनाया था, उस समय भारत को भी इसमें आमंत्रित किया गया था, परंतु
गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के कारण भारत ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था।
सोवियत संघ के पतन के बाद शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई और राजनीति व
अर्थनीति, दोनों में विभिन्न देशों ने उदारवादी रवैया अपनाया। इस बीच
आसियान के देशों ने मुख्यत: अमेरिका और यूरोप को अपनी उपभोक्ता वस्तुओं का
निर्यात करके बेशुमार पैसा कमाया। वैसे भी शुरू से अर्थनीति में उदारवादी
रवैया अपनाने के कारण इन देशों में जमकर आर्थिक प्रगति हुई थी, जबकि भारत
में लाइसेंस राज के कारण आर्थिक प्रगति अवरुद्ध हो गई थी, परंतु 90 के दशक
में जब भारत ने तत्कालीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में देश
में उदारवादी आर्थिक नीति पर चलना शुरू किया तबसे भारत की आर्थिक विकास दर
में वृद्धि शुरू हो गई। इस बीच भारत ने आसियान का सदस्य बनने का कई बार
प्रयास किया, पर हर बार संगठन के कुछ सदस्यों ने यह कहकर टाग अड़ा दी कि
भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी आसियान का सदस्य बनाना पड़ेगा और तब आए
दिन आसियान के मंच पर भारत और पाकिस्तान का झगड़ा उठता रहेगा, जिससे संगठन
की शांति भंग हो जाएगी। फिर मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया और थाईलैंड ने
भारत का साथ दिया। इन दिनों भारत आसियान का आमंत्रित सदस्य है और शीघ्र ही
इसे पूर्ण सदस्यता मिल जाएगी। हाल ही में 13 अगस्त,2009 को भारत ने आसियन के संग बैंगकॉक में सम्मेलन किया, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण समझौते हुए थे। भारतीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला 2008, नई दिल्ली में
आसियान मुख्य केन्द्र बिन्दु रहा था। नई व्यापार ब्लॉक के तहत दस देशों की
कंपनियों और कारोबारियों ने मेले में भाग लिया था। थाइलैंड, इंडोनेशिया,
मलेशिया, म्यांमार, वियतनाम, फिलिपींस, ब्रुनेई, कंबोडिया और लाओस आसियान
के सदस्य देश हैं, जिनके उत्पाद व्यापार मेले में खूब दिखे थे।आसियान भारत का चौथा सबसे बडा व्यापारिक भागीदार है। दोनों पक्षों के बीच 2008 में
47 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था। फिक्की के महासचिव अमित मित्रा के अनुसार
भारत और आसियान के बीच हुआ समझौता दोनों पक्षों के लिए उत्तम होगा। समझौता
जनवरी 2009 से लागू हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि अब एशियाई देशों में मंदी
का दौर समाप्त होने वाला है। उसने कहा है कि एशियाई देशों में औसत आर्थिक
विकास दर 1.2 प्रतिशत होगी और 2020 में 4.3 प्रतिशत। पिछले दशक में एशियाई
देशों का आर्थिक विकास 6.7 प्रतिशत था। जैसे ही एशियाई देशों में आर्थिक
विकास के गति पकड़ने की बात सामने आई, आसियान देशों ने अपनी-अपनी
अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के प्रयास तेज कर दिए, ताकि वे फिर से एशियाई
देशों में टाइगर के रूप में गिने जाने लगें तथा मंदी की गिरफ्त से निकल रहे
अमेरिका से निर्यात के अधिक से अधिक आर्डर प्राप्त कर सकें। गत 25 अक्टूबर
को थाईलैंड में आसियान देशों और उनके आमंत्रित सदस्यों की एक महत्वपूर्ण
बैठक हुई, जिसमें एशिया के देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए
तरह-तरह के सुझाव दिए गए। सदस्यों ने चीन, भारत और इंडोनेशिया जैसे
विकासशील देशों के आर्थिक विकास की तारीफ की। अधिकतर सदस्यों का यह विचार
था कि आसियान के सदस्य और आमंत्रित सदस्य यूरोपीय संघ की तरह आयात शुल्क
में भारी कमी कर दें। इससे निर्यात और आयात करने वाले दोनों देशों को लाभ
पहुंचेगा तथा उद्योगों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को गति मिलेगी। जापानी
प्रधानमंत्री हतोयामा तो कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। उन्होंने कहा कि समस्त
एशियाई देशों में यूरोपीय संघ की तरह एक ही मुद्रा चलनी चाहिए और उन्हें
आपस में एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, जिससे आसियान संसार को नेतृत्व प्रदान
कर सके। यह इतना आसान नहीं लगता। आसियान के मंच से लोकतंत्र के पक्षधर कुछ
देश परोक्ष रूप से म्यांमार के सैनिक शासन की आलोचना करते हैं। यह बात
म्यांमार को नागवार गुजरती है। आसियान के सदस्य देशों ने कई बार अपने
प्रतिनिधियों को सैनिक शासकों से बात करने तथा उन्हें यह समझाने के लिए
म्यांमार भेजा कि यदि म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली हो तो इसमें उनका ही
भला है, परंतु वहां के शासकों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी।
आसियान
के दो देशों-थाईलैंड और कंबोडिया में हाल के महीनों में कटुता बढ़ी है।
थाईलैंड की आंतरिक स्थिति दिनोंदिन खराब होती जा रही है। थाईलैंड के
राजनेता अकसर आपस में लड़ते-झगड़ते रहे हैं। जब-जब उनमें लड़ाई होती है, वे
देश के राजा भूमिबोल के पास जाते हैं। थाईलैंड की जनता भूमिबोल को भगवान
की तरह पूजती है। राजा भूमिबोल की उम्र 80 साल से अधिक है। वह गंभीर रूप से
बीमार हैं। थाईलैंड की जनता को यह डर सता रहा है कि यदि भूमिबोल को कुछ हो
गया तो सत्ता की बागडोर कौन संभालेगा। बहुत संभव है कि थाईलैंड में
गृहयुद्ध छिड़ जाए। इंडोनेशिया कह रहा है कि आसियान का भविष्य अंधकारमय है,
क्योंकि इसमें म्यांमार, कंबोडिया और वियतनाम जैसे देश हैं, जहां लोकतंत्र
सही रूप से फलफूल नहीं रहा है। संक्षेप में, यह सोचना कि यूरोपीय संघ की
तरह आसियान भी एशियाई देशों का सिरमौर संगठन बना रहेगा, यथार्थ से परे है।
साफ्टा:एक नजर में
दक्षिण एशियाई वरीयता व्यापार समझौता (साप्टा) को 1995 में लागू किया
गया। इस समझौते का लक्ष्य दक्षिण एशिया में व्यापार संबंधी बाधाओं को दूर
करना है और सार्क देशों के बीच अधिक उदार व्यापार व्यवस्था कायम किए जाने
का प्रावधान है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए दक्षिण एशिया मुक्त
व्यापार क्षेत्र संधि साफ्टा को 2004 में लागू किया गया। इसके लिए दक्षिण
एशिया क्षेत्र के देशों ने अपनी व्यापारी सीमाओं को खोलकर इतिहास रचा।
दक्षिण एशिया स्वतंत्र व्यापार समझौते (साफ्टा) का उद्देश्य भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान एवं मालदीव के बीच वस्तुओं की मुफ्त आवाजाही में आने वाली बाधाओं को दूर करना और दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था को एकीकृत करना है। इस समझौते को लागू करने की समय सीमा 1 जुलाई 2006 तय की गई। वर्ष 2004 तक सार्क सदस्य देशों के बीच व्यापार 5.2 अरब डॉलर के बराबर था। साफ्टा के तहत भारत, पाकिस्तान, और श्रीलंका वर्ष 2012 तक अपने यहां आयात शुल्क शून्य से 5 प्रतिशत तक रखेंगे तथा अन्य चार सदस्य देशों के लिए यह आयात शुल्क सीमा 2016 तक तय की गई है। इस समझौते के तहत सार्क का प्रत्येक सदस्य देश अपने यहां संवेदनशील उत्पादों की एक सूची बनाएगा, जिन पर कोई शुल्क कटौती नहीं की जाएगी, भारत ने ऐसी 884 वस्तुओं की संवेदनशीलन सूची बनाई है, जिन पर व्यापार कर कम नहीं किया जाएगा, दक्षेस देशों को परस्पर प्रशुल्क छूटों की शुरुआत 226 वस्तुओं पर 10 से 100 प्रतिशत के प्रशुल्क छूट के साथ हुई।
दक्षिण एशिया स्वतंत्र व्यापार समझौते (साफ्टा) का उद्देश्य भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान एवं मालदीव के बीच वस्तुओं की मुफ्त आवाजाही में आने वाली बाधाओं को दूर करना और दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था को एकीकृत करना है। इस समझौते को लागू करने की समय सीमा 1 जुलाई 2006 तय की गई। वर्ष 2004 तक सार्क सदस्य देशों के बीच व्यापार 5.2 अरब डॉलर के बराबर था। साफ्टा के तहत भारत, पाकिस्तान, और श्रीलंका वर्ष 2012 तक अपने यहां आयात शुल्क शून्य से 5 प्रतिशत तक रखेंगे तथा अन्य चार सदस्य देशों के लिए यह आयात शुल्क सीमा 2016 तक तय की गई है। इस समझौते के तहत सार्क का प्रत्येक सदस्य देश अपने यहां संवेदनशील उत्पादों की एक सूची बनाएगा, जिन पर कोई शुल्क कटौती नहीं की जाएगी, भारत ने ऐसी 884 वस्तुओं की संवेदनशीलन सूची बनाई है, जिन पर व्यापार कर कम नहीं किया जाएगा, दक्षेस देशों को परस्पर प्रशुल्क छूटों की शुरुआत 226 वस्तुओं पर 10 से 100 प्रतिशत के प्रशुल्क छूट के साथ हुई।
यूनिसेफ:एक विवेचन
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) की स्थापना का आरंभिक उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध में नष्ट हुए राष्ट्रों के बच्चों को खाना और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना था। इसकी स्थापना संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 11 दिसंबर, 1946 को की थी।1953 में यूनीसेफ, संयुक्त राष्ट्र का स्थाई सदस्य बन गया। उस समय इसका नाम यूनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस फंड की जगह यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेंस फंड कर दिया गया।इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क में है। वर्तमान में इसके मुखिया ऐन वेनेमन है। यूनीसेफ को 1965 में उसके बेहतर कार्य के लिए शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1989 में संगठन को इंदिरा गाँधी शांति पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। इसके
190 से अधिक शहरों में कार्यालय हैं और 190 से अधिक स्थानों पर इसके
कर्मचारी कार्यरत हैं। वर्तमान में यूनीसेफ फंड एकत्रित करने के लिए विश्व
स्तरीय एथलीट और टीमों की सहायता लेता है।
यूनीसेफ का सप्लाई प्रभाग कार्यालय कोपनहेगन, डेनमार्क में है। यह कुछ महत्वपूर्ण सामान जैसे जीवन रक्षक टीके,एचआईवी पीड़ित
बच्चों व उनकी माताओं के लिए दवा, कुपोषण के उपचार के लिए दवाइयां,
आकस्मिक आश्रय आदि के वितरण की प्राथमिक जगह होती है। 36 सदस्यों का
कार्यकारी दल यूनीसेफ के कामों की देखरेख करता है। यह नीतियाँ बनाता है और
साथ ही यह वित्तीय और प्रशासनिक योजनाओं से जुड़े कार्यक्रमों को स्वीकृति
प्रदान करता है। वर्तमान में यूनीसेफ मुख्यत: पांच प्राथमिकताओं पर
केन्द्रित है। बच्चों का विकास, बुनियादी शिक्षा, लिंग के आधार पर समानता
(इसमें लड़कियों की शिक्षा शामिल है), बच्चों का हिंसा से बचाव, शोषण, बाल-श्रम के विरोध में,एचआईवी एड्स और बच्चों, बच्चों के अधिकारों के वैधानिक संघर्ष के काम करता है।
सामाजिक संविदा का सिद्धांत:एक विवेचन
सामाजिक संविदा (Social contract) सामाजिक संविदा कहने से प्राय: दो अर्थों का बोध होता है।
प्रथमत:
सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ
व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या
ठहराव किया, अत: यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है।
दूरे
को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति
से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन
मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले।
ऐतिहासिक
विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की
चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति
शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग
किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी
संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए।
इतिहास......
यद्यपि सामाजिक संविदा का सिद्धांत अपने अंकुर रूप में सुकरात के विचारों, सोफिस्ट राजनीतिक
दर्शन एवं रोमन विधान में मिलता है तथा मैनेगोल्ड ने इसे जनता के अधिकारों
के सिद्धांत से जोड़ा, तथापि इसका प्रथम विस्तृत विवेचन मध्ययुगीन
राजनीतिक दर्शन में सरकारी संविदा के रूप में प्राप्त होता है। सरकार के
आधार के रूप में संविदा का यह सिद्धांत बन गया। यह विचार न केवल मध्ययुगीन
सामंती समाज के स्वभावानुकूल वरन् मध्ययुगीन ईसाई मठाधीशों के पक्ष में भी
था क्योंकि यह राजकीय सत्ता की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायक था। 16वीं
शताब्दी के धार्मिक संघर्ष के युग में भी यह सिद्धांत बहुसंख्यकों के धर्म
को आरोपित करने वाली सरकार के प्रति अल्पसंख्यकों के विरोध के औचित्य का
आधार बना। इस रूप में इसने काल्विनवाद तथा रोमनवाद दोनों अल्पसंख्यकों के
उद्देश्यों की पूर्ति की। परंतु कालांतर में सरकारी संविदा के स्थान पर सामाजिक संविदा को ही हॉब्स, लॉक और रूसो द्वारा
प्रश्रय प्राप्त हुआ। स्पष्टत: सामाजिक संविदा में विश्वास किए बिना
सरकारी संविदा की विवेचना नहीं की जा सकती, परंतु सरकारी संविदा पर विश्वास
किए बिना सामाजिक संविदा का विवेचन अवश्य संभव है। सामाजिक संविदा द्वारा
निर्मित समाज शासक और शासित के बीच अंतर किए बिना, और इसीलिए उनके बीच एक
अन्य संविदा की संभावना के बिना भी, स्वायत्तशासित हो सकता है। यह रूसी का
सिद्धांत था। दूसरे, सामाजिक संविदा पर निर्मित समाज संरक्षण के रूप में
किसी सरकार की नियुक्ति कर सकता है जिससे यद्यपि वह कोई संविदा नहीं करता
तथापि संरक्षक के नियमों के उल्लंघन पर उसे च्युत कर सकता है। यह था लॉक का
सिद्धांत। अंत में एक बार सामाजिक संविदा पर निर्मित हो जाने पर समाज अपने
सभी अधिकार और शक्तियाँ किसी सर्वसत्ताधारी संप्रभु को सौंप सकता है जो
समाज से कोई संविदा नहीं करता और इसीलिए किसी सरकारी संविदा की सीमाओं के
अंतर्गत नहीं है। यह हाब्स का सिद्धांत था।
सामाजिक संविदा के सिद्धांत की आलोचना एवं विरोध........
सामाजिक संविदा के सिद्धांत पर आघात यद्यपि हेगेल के समय से ही प्रारंभ हो गया था तथापि डेविड ह्यूम द्वारा
इसे सर्वप्रथम सर्वाधिक क्षति पहुँची। ह्यूम के अनुसार सरकार की स्थापना
सहमति पर नहीं, अभ्यास पर होती है, और इस प्रकार राजनीतिक कृतज्ञता का आधार
बताया तथा बर्क ने विकासवादी सिद्धांत के आधार पर संविदा की आलोचना की।
सामाजिक
संविदा का सिद्धांत न केवल ऐतिहासिकता की दृष्टि से अप्रमाणित है वरन्
वैधानिक तथा दार्शनिक दृष्टि से भी दोषपूर्ण है। किसी संविदा के वैध होने
के लिए उसे राज्य का संरक्षण एवं अवलंबन प्राप्त होना चाहिए; सामाजिक
संविदा के पीछे ऐसी किसी शक्ति का उल्लेख नहीं। इसलिए यह अवैधानिक है।
दूसरे, संविदा के नियम संविदा करने वालों पर ही आरोपित होते हैं, उनकी
संतति पर नहीं। सामाजिक संविदा के सिद्धांत का दार्शनिक आधार भी
त्रुटिपूर्ण है। यह धारणा कि व्यक्ति और राज्य का संबंध व्यक्ति के आधारित
स्वतंत्र संकल्प पर है, सत्य नहीं है। राज्य न तो कृत्रिम सृष्टि है और न
इसकी सदस्यता ऐच्छिक है, क्योंकि व्यक्ति इच्छानुसार इसकी सदस्यता न तो
प्राप्त कर सकता है और न तो त्याग ही सकता है। दूसरे, यह मानव इतिहास को
प्राकृतिक तथा सामाजिक दो अवस्थाओं में विभाजित करता है; ऐसे विभाजन का कोई
तार्किक आधार नहीं है; आज की सभ्यता उतनी ही प्राकृतिक समझी जाती है जितनी
प्रारंभिक काल की थी। तीसरे, यह सिद्धांत इस बात की पूर्व कल्पना करता है
कि प्राकृतिक अवस्था मे रहने वाला मनुष्य संविदा के विचार से अवगत था परंतु
सामाजिक अवस्था में न रहने वाले के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व की कल्पना
करना संभव नहीं। यदि प्राकृतिक विधान द्वारा शासित कोई प्राकृतिक अवस्था
स्वीकार कर ली जाए तो ऐसी स्थिति में राज्य की स्थापना प्रगति की नहीं,
वरन् परावृत्ति की द्योतक होगी, क्योंकि प्राकृतिक विधान के स्थान पर बल पर
आधारित राज्य सत्ता अपनाना प्रतिगमन ही होगा। यदि प्राकृतिक अवस्था ऐसी थी
कि वह संविदा का विचार प्रदान कर सके तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य तब भी
सामान्य हित के प्रति सचेत था; इस दृष्टि से उसे सामाजिक सत्ता तथा
वैयक्तिक अधिकार के प्रति भी सचेत होना चाहिए। और तब प्राकृतिक और सामाजिक
अवस्थाओं में कोई अंतर नहीं रह जाता। अंत में, जैसा ग्रीन ने कहा, इस
सिद्धांत की प्रमुख त्रुटि इसका अनैतिहासिक होना नहीं वरन् यह है कि इसमें
आधार की कल्पना उन्हें समाज से असंबद्ध करके की गई है। तार्किक ढंग पर
अधिकारों का आधार समाज की सहमति है; अधिकार उन्हीं लोगों के बीच संभव है
जिनकी प्रवृत्तियाँ एवं अभिलाषाएँ बौद्धिक हैं। अतएव प्राकृतिक अधिकार
अधिकार न होकर मात्र शक्तियाँ हैं।
परंतु
इन सभी त्रुटियों के होते हुए भी सामाजिक संविदा का सिद्धांत सरकार को
स्थायित्व प्रदान करने का एक प्रबल आधार है। यह सिद्धांत इस विचार को
प्रतिष्ठापित करता है कि राज्य का आधार बल नहीं विकल्प है क्योंकि सरकार
जनसहमति पर आधारित है। इस दृष्टि से यह सिद्धांत जनतंत्र की आधारशिलाओं में
से एक है........
गेम थ्योरी:एक विश्लेष्णात्मक अध्ययन
गेम थ्योरी व्यवहारिक गणित की एक शाखा है जिसका प्रयोग समाज विज्ञान, खासकर अर्थशास्त्र, साथ ही साथ जीव विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति विज्ञान, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कम्प्यूटर साइंस, और दर्शन में किया जाता है. गेम थ्योरी कूटनीतिक परिस्थितियों ,
जिसमें किसी के द्वारा विकल्प चुनने की सफलता दूसरों के चयन पर निर्भर
करती है, व्यवहार को बूझने का प्रयास करता है. यूं तो शुरू में इसे उन
प्रतियोगिताओं का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया गया था जिसमें एक
व्यक्ति को दूसरे की गलतियों के कारण फायदा होता है (जीरो सम गेम्स), इसका विस्तारीकरण पारस्परिक प्रभावों के एक बड़े वर्ग का वर्णन करने के लिए किया गया है जो (पारस्परिक प्रभाव)कई मानदंडोंके
अनुसार वर्गीकृत किए जाते हैं. आज, "गेम थ्योरी समाज विज्ञान के तार्किक
पक्ष के लिए एक छतरी या 'यूनीफाइड फील्ड' थ्योरी की तरह है जिसमें
'सामाजिक' की व्याख्या मानव के साथ-साथ दूसरे खिलाड़ियों (कम्प्युटर,
जानवर, पौधे) को सम्मिलित कर की जाती है.(Aumann 1987)
गेम
थ्योरी के पारंपरिक अनुप्रयोगों में इन गेमों में साम्यवास्थाएं खोजने का
प्रयास किया जाता है. साम्यावस्था में गेम का प्रत्येक खिलाड़ी एक नीति
अपनाता है जो वह संभवतः नहीं बदलता है. इस विचार को समझने के लिएसाम्यावस्था की कई सारी अवधारणाएं विकसित की गई हैं (सबसे प्रसिद्ध नैश इक्विलिब्रियम).
साम्यावस्था के इन अवधारणाओं की अभिप्रेरणा अलग-अलग होती है और इस बात पर
निर्भर करती है कि वे किस क्षेत्र में प्रयोग की जा रहीं हैं, हालांकि उनके
मायने कुछ हद तक एक दूसरे में मिले-जुले होते हैं और मेल खाते हैं. यह
पद्धति आलोचना रहित नहीं है और साम्यावस्था की विशेष अवधारणाओं की
उपयुक्तता पर, साम्यवास्थाओं की उपयुक्तता पर, और आमतौर पर गणितीय मॉडलों
की उपयोगिता पर वाद-विवाद जारी रहते हैं.
हालांकि इसके पहले हो इस क्षेत्र में कुछ विकास चुके थे, गेम थ्योरी का क्षेत्र जॉन वॉन न्युमन्न और ऑस्कर मॉर्गनस्टर्न की 1944 की पुस्तक थ्योरी ऑफ गेम्स ऐंड इकोनोमिक बिहेविअर के
साथ आस्तित्व में आया. इस सिद्धांत का विकास बड़े पैमाने पर 1950 के दशक
में कई विद्वानों द्वारा किया गया. बाद में गेम थ्योरी स्पष्टतया 1970 के
दशक में जीव विज्ञान में प्रयुक्त किया गया, हांलाकि ऐसा 1930 के दशक में
ही शुरू हो चुका था. गेम थ्योरी की पहचान व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में
एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में की गई है. आठ गेम थ्योरिस्ट्स अर्थशास्त्र
में नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं, और जॉन मेनार्ड स्मिथ को गेम थ्योरी के जीव विज्ञान में प्रयोग के लिए क्रफूर्ड पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
राजनीति विज्ञान
राजनीति विज्ञान में गेम थ्योरी का प्रयोग निष्पक्ष विभाजन,
[[राजनीतिक अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक चयन/विकल्प, युद्ध सौदेबाजी,
सकारात्मक राजनीतिक सिद्धांत, और सामाजिक पसंद सिद्धांत|राजनीतिक
अर्थव्यवस्था[[, सार्वजनिक चयन/विकल्प, युद्ध सौदेबाजी, सकारात्मक राजनीतिक सिद्धांत, और सामाजिक पसंद सिद्धांत]]]]
के अतिव्यापी क्षेत्रों पर केन्द्रित है. इन क्षेत्रों में से प्रत्येक
में, शोधकर्ताओं ने गेम थ्योरी आधारित मॉडलों को विकसित किया है जिनमें
खिलाड़ी अक्सर मतदाता, राज्य, स्पेशल इनटेरेस्ट ग्रुप, और राजनीतिज्ञ होते
हैं.
राजनीति विज्ञान में प्रयुक्त गेम थ्योरी के आरंभिक उदाहरणों के लिए एंथनी डाउंस का कार्य देखें. अपनी पुस्तक ऐन इकोनोमिक थ्योरी ऑफ़ डेमोक्रसीसाँचा:Harvard citations/core में उन्होंने 'होटलिंग फर्म लोकेशन (स्थिति)मॉडल'को
राजनीतिक प्रणाली में प्रयुक्त किया है. डाउनसियन मॉडल में, राजनीतिक
उम्मीदवार सिद्धांतों के प्रति एक आयामी नीति 'स्पेस' में प्रतिबद्ध होते
हैं. सिद्घांतकार दर्शाते हैं कि किस तरह से राजनीतिक उम्मीदवार औसत
मतदाताओं की पसंदीदा विचारधारा की ओर अभिसरित होंगे. बिलकुल ताज़ा उदाहरणों
के लिए स्टीवन ब्राम्स, जॉर्ज ट्सेबेलिस, जीन एम. ग्रॉसमैन और एल्हानन हेल्पमैन की या डेविड ऑस्टेन-स्मिथ और जेफ्री एस. बैंक्स की पुस्तकें देखें.
लोकतांत्रिक शांति की
एक खेल-सैद्धांतिक व्याख्या यह है कि जनता और लोकतंत्र की मुक्त बहस अपने
इरादों से संबंधित स्पष्ट और विश्वसनीय जानकारी दूसरे राज्यों को भेजते
हैं. इसके विपरीत, गैर-लोकतांत्रिक नेताओं के इरादों का पता लगाना कठिन है
कि कौन-कौन सी रियायतें लागू होंगी और क्या वादों को पूरा किया जाएगा. इस
तरह रियायतें प्रदान करने के प्रति अविश्वास और अनिच्छा होगी यदि विवादाधीन
दलों में से कम से कम एक दल गैर-लोकतंत्र साँचा Harvard citations/core है.
अमेरिका एशिया-प्रशांत नीति:एक विवेचन
सिंगापुर में हुए
एशियाई सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पनेटा ने कहा कि
अमेरिका अब एशिया प्रशांत क्षेत्र के समुद्रों में पहले से अधिक युद्धपोतों
को तैनात करेगा. अमेरिका अभी अपने युद्धपोतों का पचास प्रतिशत अटलांटिक
में और पचास प्रतिशत एशिया प्रशांत क्षेत्र में तैनात किए हुए है, लेकिन अब
वह एशिया प्रशांत क्षेत्र में युद्धपोतों का प्रतिशत बढ़ाकर साठ प्रतिशत
करेगा. हालांकि अमेरिका का कहना है कि उसकी एशिया प्रशांत नीति के केंद्र
में चीन नहीं है और न वह चीन को विश्व शक्ति बनने से रोकने के लिए यह क़दम
उठा रहा है, लेकिन क्या इस वास्तविकता को झुठलाया जा सकता है कि अमेरिका की
एशिया प्रशांत नीति किसी न किसी रूप में चीन को नियंत्रित करने की कोशिश
है. वह चीन की बढ़ती ताक़त से चिंतित है और एशिया में अपनी स्थिति मज़बूत
करके शक्ति संतुलन स्थापित करना चाहता है. चीन भी जानता है कि अमेरिका चीन
को घेरना चाहता है. चीन की प्रतिक्रिया भी इसका प्रमाण है. अमेरिका की
एशिया प्रशांत की ओर विशेष ध्यान देने की बात इससे पहले बराक ओबामा भी कर
चुके हैं. बराक ओबामा की घोषणा के बाद ही चीनी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के
संपादकीय में कहा गया था कि अमेरिका का एशिया प्रशांत में स्वागत है, लेकिन
इस क्षेत्र में सैनिक गतिविधियां बढ़ने से यहां की शांति को खतरा
पहुंचेगा. इस क्षेत्र में अमेरिकी सैनिक गतिविधियां बढ़ने से क्षेत्रीय
विवाद खत्म नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे. स्वाभाविक है कि अमेरिका की एशिया
में मज़बूत होती स्थिति से सबसे ज़्यादा परेशानी चीन को होगी. चीन महाशक्ति
बनने की ओर बढ़ रहा है. वह न केवल आर्थिक ताक़त है, बल्कि उसके पास सामरिक
ताक़त भी है. एशिया में भारत को छोड़कर कोई भी देश चीन से प्रतिद्वंद्विता
करने की स्थिति में नहीं है. चीन भारत को घेरने की नीति अपना रहा है और
भारत चीन की इस नीति को विफल करने की कोशिश कर रहा है. सोवियत संघ के पतन
के बाद शीतयुद्ध का अंत हो गया, क्योंकि दो ध्रुवों में विभाजित विश्व एक
ध्रुवीय हो गया.अमेरिका विश्व की एक मात्र महाशक्ति बन गया है. चीन जिस तरह
से अपनी आर्थिक और सामरिक ताक़त बढ़ा रहा है, उससे अमेरिका को ऐसा लगने
लगा है कि कहीं चीन पूर्व के सोवियत संघ जैसा न बन जाए, जिससे उसके
महाशक्ति बने रहने पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा. यही कारण है कि अमेरिका एशिया
प्रशांत क्षेत्र में सैनिक गतिविधियां बढ़ा रहा है. उसने ऑस्ट्रेलिया के
साथ समझौता किया है, जिसके अनुसार 2017 तक वह 2500 मेराइन ऑस्ट्रेलिया के
उत्तरवर्त्ती तटों पर तैनात करेगा. चीन ने इस समझौते पर भी आपत्ति जताई थी.
जापान के साथ भी अमेरिका ने समझौता किया है. कुछ समय पहले अमेरिका ने
फिलिपींस, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास
किया था. भारतीय रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सिंगापुर में हुए एशिया सुरक्षा
सम्मेलन में कहा कि समुद्री आज़ादी का मज़ा केवल कुछ ही देशों को नहीं
मिलना चाहिए. हमें देशों के अधिकार और विश्व समुदाय की आज़ादी के बीच का
रास्ता ढूंढना होगा. ग़ौरतलब है कि जब भारत ने दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ
देशों से प्रशांत महासागर में तेल की खोज के संबंध में समझौते किए थे, तो
चीन की ओर से प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आई थीं. चीन का कहना था कि इन
क्षेत्रों में भारत की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं की जाएगी. इस कारण भारत को भी
अमेरिका के इस फैसले से खुश होना चाहिए.
अमेरिका
की एशिया प्रशांत नीति से चीन के चिंतित होने का एक और कारण है. चीन का
दक्षिण चीन सागर में फिलिपींस, जापान, वियतनाम और मलेशिया के साथ कुछ
आइलैंड पर क़ब्ज़े को लेकर विवाद है. फिलिपींस और चीन की नौसेनाएं नांसा
आइलैंड के विवाद के कारण बहुत दिन तक आमने-सामने भी रही थीं. ग़ौरतलब है कि
विवादित आइलैंड खनिज संसाधनों विशेषकर खनिज तेल से भरपूर है. चीन इनसे
अपना क़ब्ज़ा हटाना नहीं चाहता है और जिन देशों के साथ चीन का विवाद है,
उनकी नौसैनिक शक्ति चीन की तुलना में का़फी कम है. फिलिपींस ने हाल में
अमेरिका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किया है. अमेरिका इस क्षेत्र में
अपनी स्थिति मज़बूत करना चाहता है. अगर दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के
साथ अमेरिका का समझौता होता है तो फिर चीन को कठिनाई तो होगी. चीन को ऐसा
लगने लगा है कि अमेरिकी पहुंच बढ़ने से इस क्षेत्र पर उसका दावा कमज़ोर
पड़ने लगेगा. अमेरिका को उम्मीद है कि एक तऱफ तो वह चीन की बढ़ती ताक़त पर
ब्रेक लगाने में अपने एशियाई सहयोगियों का सहारा ले सकता है और उनका सहारा
बन सकता है, तो दूसरी तऱफ इस क्षेत्र के तेल से भरपूर आइलैंड का दोहन करने
का मौक़ा उसे मिल सकता है. उसने 2020 तक इस क्षेत्र में अपने युद्धपोतों की
संख्या बढ़ाने का लक्ष्य रखा है. अमेरिका की इस एशिया प्रशांत नीति में भी
कहीं न कहीं तेल की राजनीति छुपी है.
अमेरिका
ने तो चीन को घेरने के लिए रणनीति बना ली. उसने चीन के आसपास के देशों के
साथ समझौता और साझीदारी स्थापित करनी शुरू कर दी. चीन अमेरिका को चेतावनी
भी दे रहा है. अब देखना यह है कि चीन अमेरिका की इस नीति का तोड़ कैसे
निकालता है. वह अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाकर अमेरिका की ओर उनके
बढ़ते क़दम को रोकता है या फिर अमेरिका को ही इस ओर बढ़ने से रोकता है.
भारत-म्यांमार सम्बंध:एक विवेचन
म्यांमार
में लोकतंत्र की बहाली के प्रयास शुरू होने के साथ ही अमेरिका-यूरोप ने
उसके संबंध में अपनी नीतियों पर पुनर्विचार शुरू कर दिया है. अमेरिका की ओर
से उस पर आर्थिक प्रतिबंधों में ढिलाई देने का बयान आने लगा है. हिलेरी
क्लिंटन ने म्यांमार यात्रा के दौरान इसका संकेत भी दे दिया है. अमेरिका
एशिया पैसिफिक की ओर रुख़ कर रहा है. यूरोप भी अमेरिका का अनुसरण करेगा.
चीन भी नई रणनीति बनाएगा. पश्चिमी देशों की निवेश करने की नीति के साथ ही
यहां भारत के लिए प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ना लाज़िमी है. ऐसे समय में भारत को
म्यांमार की ओर तेजी से अपना क़दम बढ़ाना चाहिए.
आंग
सान सू की रिहाई और उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को चुनाव में
भाग लेने की अनुमति मिलने के साथ ही ऐसा लगने लगा कि म्यांमार अब लोकतंत्र
के लिए तैयार हो गया है. म्यांमार में 46 संसदीय सीटों के लिए चुनाव हुए.
अटकलें लगाई जा रही थीं कि यह चुनाव निष्पक्ष तरीक़े से कराया जाएगा या
नहीं. सू ने भी कहा था कि चुनाव में गड़बड़ी पैदा करने की कोशिश की जा रही
है, लेकिन चुनाव निष्पक्ष हुआ. इसलिए नहीं कि चुनाव में अंतरराष्ट्रीय
पर्यवेक्षक बुलाए गए, बल्कि इसलिए कि 46 में से 43 सीटें आंग सान सू की
पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को मिली. अगर चुनाव में धांधली की जाती तो
जो सीटें एनएलडी को मिलीं, वे सत्तारूढ़ दल यूएसडीपी को मिली होतीं. स्वयं
सू ने भी संसदीय उपचुनाव में जीत हासिल की और उन्हें 75 फीसदी मत मिले.
हालांकि उनके दल की इस जीत से सरकार के ऊपर कोई विशेष फर्क़ नहीं पड़ेगा,
लेकिन इस चुनाव से यह लगने लगा कि 2015 का चुनाव भी निष्पक्ष होगा और जल्दी
ही म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार का गठन होगा. म्यामांर सरकार के इस
फैसले के बाद अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय देशों ने म्यांमार के प्रति अपनी
नीति बदलने का संकेत दे दिया है. एक तरफ सू विदेश यात्राएं कर रही हैं तो
दूसरी तऱफ दूसरे देश के मंत्री एवं प्रशासक म्यांमार की यात्रा कर रहे हैं.
लोकतंत्र न होने के कारण जो प्रतिबंध म्यांमार पर लगाए गए थे, उनमें ढील
देने या फिर उन्हें समाप्त करने की बात कही जा रही है. ऐसे में भारत के लिए
भी ज़रूरी है कि वह म्यांमार की ओर विशेष ध्यान दे. लोकतंत्र न होने के
कारण म्यांमार से भारत के वैचारिक मतभेद रहे हैं, लेकिन अब जिस तरह से
म्यांमार में राजनीतिक परिवर्तन हो रहे हैं, ये मतभेद भी जल्द दूर होने की
उम्मीद है. भारत के साथ म्यांमार के संबंध कुछ समय को छोड़कर अच्छे रहे
हैं, लेकिन इस संबंध को मज़बूत करने की आवश्यकता है.
भारत
के उत्तर पूर्वी राज्यों के साथ म्यांमार की सीमा लगी हुई है. इन राज्यों
में अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं. अलगाववादियों के लिए म्यांमार एक
सुरक्षित देश रहा है, जहां से वे अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं. इस
वजह से भारत को म्यांमार के साथ वैसे ही संंबंधों की आवश्यकता है, जैसे
उसके भूटान के साथ हैं. अगर म्यांमार भी भूटान की तरह इन अलगाववादियों के
विरुद्ध भारत का साथ दे तो उत्तर पूर्वी भारत में चल रहे अलगाववादी आंदोलन
को कमज़ोर किया जा सकता है. हालांकि अभी भी म्यांमार भारत का साथ दे रहा
है, लेकिन जितनी शिद्दत से साथ देने की आवश्यकता है, उतना नहीं दे पा रहा
है. म्यांमार को अपने साथ लाकर भारत मणिपुर एवं नागालैंड जैसे राज्यों में
शांति स्थापित कर सकता है. चूंकि म्यांमार की सीमाएं चीन एवं बांग्लादेश के
साथ भी हैं, इसलिए भारत को और भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है. चीन ने
म्यांमार में काफी निवेश किया है और वह म्यांमार का दूसरा बड़ा व्यापारिक
साझीदार है. चीन एवं म्यांमार के बीच सड़क परिवहन की व्यवस्था है और भारत
को घेरने की अपनी नीति के तहत चीन म्यांमार का इस्तेमाल भी करता रहा है.
हालांकि म्यांमार इससे इंकार करता रहा है कि उसके यहां उत्तर पूर्वी भारत
के अलगाववादी शरण लेते हैं. वह इस बात को भी अस्वीकार करता है कि चीन उसका
इस्तेमाल भारत के विरुद्ध अपने हितों की पूर्ति के लिए करता है.
म्यांमार
बंगाल की खाड़ी में स्थित है, भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह से उसकी
दूरी काफी कम है. बंगाल की खाड़ी भारत के जलीय व्यापार की रीढ़ है. बंगाल
की खाड़ी से होने वाले भारतीय व्यापार को म्यांमार प्रभावित कर सकता है.
इसके अलावा भारत म्यांमार के सहयोग से दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों,
जैसे वियतनाम, लाओस, थाईलैंड एवं कंबोडिया आदि के साथ जल अथवा सड़क मार्ग
से व्यापार कर सकता है. आसियान देशों के साथ व्यापारिक संबंध बढ़ाने में भी
म्यांमार की भूमिका भारत के लिए महत्वपूर्ण होगी. म्यांमार के साथ संबंध
चीन के बंगाल की खाड़ी में बढ़ते प्रभाव को रोकने का एक आधार हो सकता है.
म्यांमार के सहयोग से भारत नशीले पदार्थों की तस्करी पर नियंत्रण करने में
भी सफल हो सकता है. म्यांमार के रास्ते भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में
नशीले पदार्थों की तस्करी होती है, जो कि भारत के दूसरे क्षेत्रों में भी
भेजे जाते हैं. ग़ौरतलब है कि नशीले पदार्थों के व्यापार से हासिल धन का
इस्तेमाल अलगाववादियों द्वारा हथियार ख़रीदने में किया जाता है, जिनके
ज़रिये वे आतंक फैलाते हैं. इन तमाम कारणों के चलते म्यामांर भारत के लिए
काफी महत्वपूर्ण है.
हालांकि
भारत और म्यांमार के बीच व्यापार सही दिशा में है. भारत इसका चौथा बड़ा
व्यापारिक साझीदार है और भारत ने म्यांमार की आधारभूत संरचना के निर्माण
में भी निवेश किया है, लेकिन अब म्यांमार में परिस्थितियां बदलने वाली हैं.
जैसे ही म्यांमार में लोकतंत्र लाने की कवायद शुरू हुई, अमेरिका-यूरोप ने
उससे संबंध बढ़ाने शुरू कर दिए. अमेरिकी विदेश मंत्री ने एक महीने के भीतर
आंग सान सू के साथ दो बार मुलाक़ात की. हिलेरी क्लिंटन ने म्यांमार का दौरा
भी किया. उन्होंने विश्व बैंक एवं आईएमएफ के ज़रिये आर्थिक सहायता देने और
म्यांमार में शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए 1.2 मिलियन डॉलर की
परियोजनाओं की भी घोषणा की. अमेरिका म्यांमार संबंधी अपनी नीति में बदलाव
कर रहा है. वह वहां चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है. अमेरिका अब एशिया
पैसिफिक में अपना वर्चस्व चाहता है, ताकि वह चीन को मात दे सके. इसके लिए
वह म्यांमार के साथ संबंधों में सुधार करेगा और बड़े पैमाने पर निवेश की
कोशिश करेगा. इसके अलावा यूरोप के अन्य देश भी अमेरिका के पीछे-पीछे
म्यांमार आएंगे. इन देशों के प्रवेश के साथ ही चीन का सतर्क होना निश्चित
है. चीन भी अपनी रणनीति में बदलाव करेगा. ऐसे में भारत को म्यांमार में
अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए एक साथ कई देशों के साथ प्रतिस्पर्द्धा
करनी होगी. इसके लिए भारत को पहले से ही तैयार रहना चाहिए. जब तक
अमेरिका-यूरोप के निवेश की रफ्तार तेज हो, तब तक भारत को म्यांमार में अपनी
स्थिति मज़बूत कर लेने की ज़रूरत है. म्यांमार में ऊर्जा की अपार
संभावनाएं हैं. भारत वहां के गैस भंडारों का उपयोग सुविधाजनक तरीक़े से कर
सकता है, म्यांमार से पाइप लाइन के सहारे गैस ला सकता है. भारत के
पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के लिए भी म्यांमार के साथ संबंध बेहतर करना
ज़रूरी है. जो परियोजनाएं स्वीकृत हो चुकी हैं, उन्हें शीघ्र पूरा करने की
ज़रूरत है. कालादान परियोजना पर 2008 से ही काम चल रहा है, लेकिन जिस
तीव्रता की उम्मीद की जा रही थी, वह नहीं दिखाई पड़ रही है. इस परियोजना के
तहत भारत कालादान नदी के रास्ते पूर्वोत्तर राज्यों में सामान भेज सकता
है. कुछ समय पहले ही म्यांमार ने इरावदी नदी पर चीन के सहयोग से बनाए जा
रहे डैम पर प्रतिबंध लगाया है, क्योंकि उसका विरोध हो रहा था. इसके बावजूद
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों
का भरपूर दोहन कर रहा है. चीन नहीं चाहेगा कि म्यांमार में भारत की आर्थिक
गतिविधियां बढ़ें, लेकिन भारत को इसके लिए प्रयास करने होंगे. भारत की ओर
से कोशिशें जारी हैं, लेकिन उनमें और तेजी लाने की ज़रूरत है, वरना देखते
ही देखते एक और पड़ोसी देश चीन के साथ चला जाएगा, जिसका खामियाजा भारत को
भुगतना पड़ेगा.
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