Sunday 14 July 2013

दक्षिण एशिया:बदलते सन्दर्भों की विवेचना


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          दक्षिण एशिया में वे सभी देश शामिल है, जो कि चीनी जन गणराज्य के दक्षिण में हैं और हिन्द महासागर के देश, जैसे- भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भुटान, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यान्मार, इन्डो-चीन के देश, जैसे वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाइलैण्ड और इस बेल्ट के दक्षिण में मलेशिया, सिंगापुर, इन्डोनेशिया और फिलिपिन्स इसमें आते हैं। चीन और ताइवान इसकी उत्तरी सीमा है। विश्व का यह वह हिस्सा है, जो यूरोपियन उपनिवेशवादी देश जैसे ब्रिटेन, पुर्तगाल, हाँलैन्ड आदि के शोषण का शिकार रहे हैं, भारत सबसे बडा देश है और उसका भूतकाल बडा शानदार रहा है। औपनिवेशिक काल में उपनिवेशकारियों के हाथों में विश्व का यह हिस्सा कठपुतली की भांति था और वे इसके भाग्य विधाता थे। औपनिवेशिक काल में इन देशों की अन्तरराष्ट्रिय राजनीति में मुश्किल से ही काई स्वतन्त्र भूमिका रही हो।
भारत के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात, इन देशों में स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड गए और लगभग दो शताब्दियों  के समय में इस क्षेत्र के लगभग सभी देश स्वतन्त्र हो गए। आज के बदलते समय में विश्व राजनीति में इन देशों की प्रमुख भूमिका हो चली है। राष्ट्रों के समुदाय में इनकी आवाज का काफी महत्व है। जहाँ यूरोप ने हमें दो महायुद्ध दिए, इस क्षेत्र में हमें आशा है कि इन देशों द्वारा अनेक प्रयास किए जा रहे है। दक्षिण एशिया के देश संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई मंचों पर शान्ति के लिए पैरवी करते रहे हैं। सन 1947 में दिल्ली में एशियन्स रिलेशन्स कान्पमेंस का आयोजन हुआ था। इस के पश्चात 1955 में एशियन देशों के इण्डोनेशिया में काँन्प
मेंस  हुई । इन सम्मेलनों ने विश्व का ध्यान शान्ति की या एक देश से दूसरे देश की शोषण समस्या पर केन्द्रित करने का प्रयास किया और एक नयी एवं न्यायपूर्ण  विश्व व्यवस्था के लिए आह्वान किया। उससे पूर्व  सन् 1954 में, भारत और चीन ने  संयुक्त रुप से शान्ति के प्रसिद्ध पाँच सिद्धान्तों, पंचशील का प्रतिपादन किया। ये सिद्धान्त इस प्रकार हैं- अनाक्रमण, समानता एवं पारस्परिक लाभ, दूसरे की सम्प्रभुता एवं प्रादेशिक अखण्डता का आदर, एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना एवं शान्तिमय सह-अस्तित्व। इस क्षेत्र के किसी देश ने यूरोपियन राजनीति के अरवाडे में लडी गई जैसी किसी लडाई  में अपने को नहीं लगाया।

दक्षिण एशिया ने गुटनिरपेक्षता के आन्दोलन को र्सार्थकता प्रदान करने के लिए बहुत प्रयास किया है। भारत ने इस धारणा को जन्म दिया। जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में इस आन्दोलन में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अनेक देश शामिल होते गए। कुछ युरोपीय देशों, विशषकर युगोस्लाविया ने गुटनिरपेक्षता के दर्शन एवं अभ्यास को अंगीकृत कर लिया। सन् 1961 तक, जबकि बेलग्रड में प्रथम गुटनिरपेक्ष सम्मेलन आयोजित हुआ, विश्व के 25 देश गुटनिरपेक्ष देशों के भातृत्व में शामिल हो गए थे। अब तक लगभग 120 देश इस समुदाय के सदस्य बन चुके हैं। यह दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व  एशिया के आह्वान एवं प्रभावी नेतृत्व के कारण सम्भव हो सका है। युद्ध से संत्रस्त विश्व को गुटनिरपेक्षता की देन दक्षिण एशिया ने दी है। इन देशों ने दोनों महाशक्तियों के बीच विश्वास और सद्भाव के सेतु बनाने का भी प्रयास किया है और विश्व शान्ति पारस्परिक सहयोग की नींव को मजबूत करने के लिए प्रयत्न किया है। सोवियत यूनियन के विखण्डन से विश्व शक्ति ढाँचे के एक ध्रुवीय हो जाने के बावजूद भी विश्व का यह भाग गुटनिरपेक्षता आन्दोदलन की प्रासंगिकता पर जोर डालता है।
ये देश बराबर यह आवाज उठाते रहे हैं कि हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बना देना चाहिए। इस प्रकार का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में श्रीलंका की पहल पर पारित हुआ। इस क्षेत्र की जनता एवं नेताओं ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने के लिए आवाज उठाई  और इस पृथ्वी से उपनिवेशवाद के अन्तिम अवशेषों को समाप्त करने के लिए आह्वान किया। इन्होंने आपस में आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग के सम्बन्ध स्थापित किए हैं। सन् 1957 में एशियान की स्थापना एक बहुत ही महत्वपूर्ण  घटना थी। राष्ट्रों के इस समुदाय में शामिल हैं, इण्डोनेशिया, सिंगापुर, थाइलैण्ड, फिलिपीन्स, मलेशिया, ब्रुनेई, वियतनाम और लाओस। क्षेत्रीय सहयोग की अन्य बहुत ही महत्वपूर्ण घटना सार्क की  स्थापना है, जिसमें भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालद्वीव समूह है। इन देशों ने क्षेत्र के विकास और अपनी जनता के कल्याण के लिए व विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग स्थापित करने के लिए अपने को समर्पित किया है। इससे इस क्षेत्र एवं विश्व में तनाव को कम करने एवं शान्ति को बढ़ावा  देने में सहायता मिलेगी।
फिर भी यह क्षेत्र पूरी तरह तनाव से मुक्त नहीं है। भारत-चीन का सीमा विवाद, भारत-पाकिस्तान के कटु सम्बन्ध, श्रीलंका में तमिल मूल के लोगों की समस्या और वियतनाम और कम्बोडिया के खराब सम्बन्ध की वजह से चिन्ता होना स्वाभाविक है। भारत-श्रीलंका सम्बन्धों में भी उष्णता की कमी है। क्योंकि श्रीलंका अपने यहाँ के जातीय संर्घष में  भारत के हाथ होने का संदेह करता है। पाकिस्तान का पंजाब, जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद के समर्थन  में हाथ होना भारत के लिए सिर्रदर्द बना हुआ है। उत्तरी कोरिया को अभी तक अंतर्राष्ट्रीय आचरण की परिपक्वता प्राप्त नहीं हुई है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद में तथाकथित लिप्तता के कारण अमेरिका को इसी बुर्राई की धुरी में शामिल करने हेतु विवश होना पडा  है, फिर भी विश्व के इस भाग के द्वारा उठाए गए कष्ट इन देशों को भाई-चारे, न्याय, शान्ति एवं प्रगति पर आधारित विश्व व्यवस्था की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त करने हेतु बाध्य कर देंगे। भारत एशिया पेसिफिक इकाँनोमिक काँपोरेशन संगठन में प्रवेश पाने का इच्छुक है। इससे इन देशों से सौहार्दता के सम्बन्ध ही नहीं विकसित होंगे अपितु व्यापार, वाणिज्य, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सहयोग में वृद्धि करने के आयाम खुलेंगे। पश्चिमी देशों से और अधिक सहयोग करने में ऐसी गंध आती है कि भारत इन देशों के आर्थिक षडयंत्रों के प्रति आत्मर्समर्पण कर रहा है। किन्तु दक्षिण एशिया के देशों से बढते सम्बन्ध इस श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। बल्कि यह भारत की इस इच्छा का द्योतक है कि इन देशों से घनात्मक फायदे उठाए जाएँ। विश्व का भविष्य यूरोप की ओर नहीं बल्कि दक्षिण एशिया, जिसमें दक्षिण-पूर्वी एशिया सम्मिलित है कि ओर दृष्टि लगाए हुए हैं। इस क्षेत्र में मेकाँग गंगा सहयोग परियोजना जिसमें दक्षिण एशिया के कई देश शामिल हैं, अंतरराष्ट्रीय सहयोग  की दिशा में एक अनूठा कदम है। इन देशों में एक नयी गतिशीलता का संचार हो रहा है। दक्षिण कोरिया तो विकसित देशों की श्रेणी में सम्मिलित हो ही चुका है। मलेशिया और भारत बड़ी तेजी से इसमें शामिल होने हेतु आगे बढ रहे हैं..........

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