चुनाव
के समय जब चुनाव आचार संहिता को कानूनी आधार देने की बात आई, तो चुनाव
आयोग ने इसका कड़ा विरोध किया। मतलब यह कि आयोग आज की स्थिति को बेहतर
मानता है। अगर आचार संहिता को विधायी रूप दे दिया गया तो उससे संबंधित
विवाद अदालतों के दायरे में चले जाएंगे, जिसे आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष
चुनाव कराने के लिहाज से माफिक नहीं मानता। यह बात क्या यह जाहिर नहीं करती
कि कम से कम सियासी मामलों में जनमत का दबाव कानून से मिलने वाली ताकत से
ज्यादा कारगर होता है? आखिर आचार संहिता के मामले में चुनाव आयोग की ताकत
क्या है? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक चर्चा के दौरान कहा
था कि आयोग चुनाव आचार संहिता को लागू कर पाता है, तो इसलिए कि राजनीतिक दल
उससे सहयोग करते हैं। स्पष्टत: राजनीतिक दल ऐसा करते नहीं, बल्कि जनमत के
दबाव में उन्हें ऐसा करना पड़ता है।
यह मिसाल चुनाव सुधारों को लेकर जारी चर्चा में इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिन सुधारों की कल्पना की जाती है या इस बारे में जो भी ठोस सुझाव दिए जाते हैं, उनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आखिरकार लोग उस अमल के लिए कितने निगहबान होंगे। अगर भारतीय चुनावों की आज उच्च विश्वसनीयता कायम हो पाई है, तो इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो जाता है, लेकिन टीएन शेषन से लेकर आज तक के दौर में चुनाव आयोग इसीलिए सफल है, क्योंकि उसके साथ जनमत की ताकत है। आज लगभग पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अपने यहां चुनाव नतीजों में मोटे तौर पर जन-भावना अभिव्यक्त होती है। इस भावना के प्रेरक या उत्प्रेरक कारण क्या होते हैं, यह अलग मुद््दा है। उसे समझने के लिए हमें अपनी सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों पर गौर करना होगा। अगर मतदाता जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं से प्रेरित होते हैं, या कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो इन बुराइयों को चुनाव संबंधी कानून या नियमों में किसी परिवर्तन से दूर नहीं किया जा सकता।
हां, धन का प्रभाव एक बड़ा मुद््दा है। चुनावों में काले धन के इस्तेमाल की शिकायत बढ़ती गई है। इससे पेड न्यूज और मतदाताओं को सीधे नकदी के भुगतान या शराब की बिक्री जैसे चलन सामने आए हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि अगर इस पर नियंत्रण नहीं हुआ, तो लोकतंत्र असल में धन तंत्र में तब्दील हो जाएगा। हालांकि ऐसी आशंकाएं अक्सर लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र की अनदेखी करके जताई जाती हैं और उनमें अपने लोकतंत्र के वास्तविक चरित्र की समझ का अभाव रहता है, इसके बावजूद इस आशंका को पूरी तरह निराधार नहीं कहा जा सकता। मगर इसे कैसे रोका जाए? इस बारे में चुनाव आयोग जो कदम उठाता रहा है, उसका व्यवहार में कम ही असर हुआ है। बल्कि कुछ राजनीतिशास्त्रियों का यह कहना बिल्कुल सही है कि पहले चुनावों में जो धन खुल कर खर्च होता था, अब वह परदे के पीछे से होने लगा है। परिणाम यह है कि प्रचार, झंडे, बैनर आदि पर जो पैसा खर्च होता, उसे उम्मीदवार अब नकद या शराब के रूप में बांट देते हैं।
ऐसे ही अनुभवों के आधार पर यह कथन अब आम हो गया है कि चुनाव आयोग पिछले डेढ़ या दो दशक में चुनावों से गुंडागर्दी खत्म करने में तो काफी हद तक सफल हुआ है, लेकिन धन का प्रभाव वह नहीं रोक पाया है। तो इसे कैसे रोका जा सकता है? चुनाव आयोग चुनावों के दौरान खर्च पर नियंत्रण के लिए जिन सुधारों के सुझाव देता है, उनसे यह हो पाने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि बिना कानूनी प्रावधान के भी आयोग के पास आज पर्याप्त अधिकार हैं। आखिर कानून बन जाने से कितना फर्क पड़ जाएगा? फिर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में पारदर्शिता के उपायों की जो मांग की जाती है उससे सरकारों की निर्णय या नीतियों संबंधी जवाबदेही तय करने में तो काफी मदद मिल सकती है, लेकिन उससे चुनाव खर्च नियंत्रित हो सकेगा- यह मानना कठिन है।
दरअसल, अगर चुनावों पर धन का प्रभुत्व है, तो उसका सीधा नाता अपने समाज के ढांचे से है। एक वर्ग-विभाजित और विषम समाज में ताकतवर के प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिशें कभी पूरी तरह सफल नहीं हो सकतीं। इसलिए जो लोग लोकतंत्र बनाम धनतंत्र की बहस में पड़ते हैं, उन्हें धन और ताकत के वर्चस्व को समग्रता में समझने और समाज में उसे नियंत्रित करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। बहरहाल, मौजूदा परिस्थितियों में सामाजिक यथार्थ से परिचित राजनीतिशास्त्रियों का यह सुझाव जरूर गौरतलब है कि चुनाव में काले धन को रोकने के उपाय करने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसमें अच्छे धन के लिए गुंजाइश बनाई जाए। यानी ऐसा नहीं होना चाहिए कि कोई धन के अभाव में चुनाव लड़ने से वंचित हो जाए। इसलिए चुनाव के लिए सरकारी धन दिए जाने का सुझाव दिया जाता है।
यह तथ्य है कि सिर्फ धन चुनाव परिणाम को तय नहीं करता। अगर ऐसा होता, हर चुनाव वही लोग जीतते जिनके पास सबसे ज्यादा धन है। इसके बावजूद यह सच है कि धन के अभाव में लोग चुनावी मुकाबले में नहीं आ पाते। ईमानदारी से समाज सेवा करने या विचारधारात्मक आग्रहों के कारण राजनीति में आने वाले लोगों के साथ अक्सर यह समस्या रहती है। अगर उनके लिए वैध धन उपलब्ध हो, तो अपने सामाजिक कार्यों या विचारोके कारण समाज में पहचान बनाने वाले लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव लड़ना, बल्कि धीरे-धीरे मुकाबले में अपनी उपस्थिति बनाना भी संभव हो सकता है।
यह मिसाल चुनाव सुधारों को लेकर जारी चर्चा में इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिन सुधारों की कल्पना की जाती है या इस बारे में जो भी ठोस सुझाव दिए जाते हैं, उनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आखिरकार लोग उस अमल के लिए कितने निगहबान होंगे। अगर भारतीय चुनावों की आज उच्च विश्वसनीयता कायम हो पाई है, तो इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो जाता है, लेकिन टीएन शेषन से लेकर आज तक के दौर में चुनाव आयोग इसीलिए सफल है, क्योंकि उसके साथ जनमत की ताकत है। आज लगभग पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अपने यहां चुनाव नतीजों में मोटे तौर पर जन-भावना अभिव्यक्त होती है। इस भावना के प्रेरक या उत्प्रेरक कारण क्या होते हैं, यह अलग मुद््दा है। उसे समझने के लिए हमें अपनी सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों पर गौर करना होगा। अगर मतदाता जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं से प्रेरित होते हैं, या कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो इन बुराइयों को चुनाव संबंधी कानून या नियमों में किसी परिवर्तन से दूर नहीं किया जा सकता।
हां, धन का प्रभाव एक बड़ा मुद््दा है। चुनावों में काले धन के इस्तेमाल की शिकायत बढ़ती गई है। इससे पेड न्यूज और मतदाताओं को सीधे नकदी के भुगतान या शराब की बिक्री जैसे चलन सामने आए हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि अगर इस पर नियंत्रण नहीं हुआ, तो लोकतंत्र असल में धन तंत्र में तब्दील हो जाएगा। हालांकि ऐसी आशंकाएं अक्सर लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र की अनदेखी करके जताई जाती हैं और उनमें अपने लोकतंत्र के वास्तविक चरित्र की समझ का अभाव रहता है, इसके बावजूद इस आशंका को पूरी तरह निराधार नहीं कहा जा सकता। मगर इसे कैसे रोका जाए? इस बारे में चुनाव आयोग जो कदम उठाता रहा है, उसका व्यवहार में कम ही असर हुआ है। बल्कि कुछ राजनीतिशास्त्रियों का यह कहना बिल्कुल सही है कि पहले चुनावों में जो धन खुल कर खर्च होता था, अब वह परदे के पीछे से होने लगा है। परिणाम यह है कि प्रचार, झंडे, बैनर आदि पर जो पैसा खर्च होता, उसे उम्मीदवार अब नकद या शराब के रूप में बांट देते हैं।
ऐसे ही अनुभवों के आधार पर यह कथन अब आम हो गया है कि चुनाव आयोग पिछले डेढ़ या दो दशक में चुनावों से गुंडागर्दी खत्म करने में तो काफी हद तक सफल हुआ है, लेकिन धन का प्रभाव वह नहीं रोक पाया है। तो इसे कैसे रोका जा सकता है? चुनाव आयोग चुनावों के दौरान खर्च पर नियंत्रण के लिए जिन सुधारों के सुझाव देता है, उनसे यह हो पाने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि बिना कानूनी प्रावधान के भी आयोग के पास आज पर्याप्त अधिकार हैं। आखिर कानून बन जाने से कितना फर्क पड़ जाएगा? फिर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में पारदर्शिता के उपायों की जो मांग की जाती है उससे सरकारों की निर्णय या नीतियों संबंधी जवाबदेही तय करने में तो काफी मदद मिल सकती है, लेकिन उससे चुनाव खर्च नियंत्रित हो सकेगा- यह मानना कठिन है।
दरअसल, अगर चुनावों पर धन का प्रभुत्व है, तो उसका सीधा नाता अपने समाज के ढांचे से है। एक वर्ग-विभाजित और विषम समाज में ताकतवर के प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिशें कभी पूरी तरह सफल नहीं हो सकतीं। इसलिए जो लोग लोकतंत्र बनाम धनतंत्र की बहस में पड़ते हैं, उन्हें धन और ताकत के वर्चस्व को समग्रता में समझने और समाज में उसे नियंत्रित करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। बहरहाल, मौजूदा परिस्थितियों में सामाजिक यथार्थ से परिचित राजनीतिशास्त्रियों का यह सुझाव जरूर गौरतलब है कि चुनाव में काले धन को रोकने के उपाय करने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसमें अच्छे धन के लिए गुंजाइश बनाई जाए। यानी ऐसा नहीं होना चाहिए कि कोई धन के अभाव में चुनाव लड़ने से वंचित हो जाए। इसलिए चुनाव के लिए सरकारी धन दिए जाने का सुझाव दिया जाता है।
यह तथ्य है कि सिर्फ धन चुनाव परिणाम को तय नहीं करता। अगर ऐसा होता, हर चुनाव वही लोग जीतते जिनके पास सबसे ज्यादा धन है। इसके बावजूद यह सच है कि धन के अभाव में लोग चुनावी मुकाबले में नहीं आ पाते। ईमानदारी से समाज सेवा करने या विचारधारात्मक आग्रहों के कारण राजनीति में आने वाले लोगों के साथ अक्सर यह समस्या रहती है। अगर उनके लिए वैध धन उपलब्ध हो, तो अपने सामाजिक कार्यों या विचारोके कारण समाज में पहचान बनाने वाले लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव लड़ना, बल्कि धीरे-धीरे मुकाबले में अपनी उपस्थिति बनाना भी संभव हो सकता है।
यह
महज संयोग नहीं है कि चुनाव सुधारों के प्रति प्रशंसनीय उत्साह दिखाने
वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तएसवाई कुरैशी चुनाव लड़ने के लिए सरकारी धन
दिए जाने के प्रति अनुत्साहित रहे। जबकि यह चुनाव सुधारों की दिशा में एक
बुनियादी कदम साबित हो सकता है। इसके विपरीत कुरैशी ने प्रक्रियागत बदलाव
के अनेक सुझाव दिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में उन्होंने
प्रस्तावित सुधारों का विस्तार से जिक्र किया। कहा जा सकता है कि आयोग के
अनुभवों के आधार पर ये सुझाव तैयार किए गए हैं। कुरैशी के पत्र में
ज्यादातर सुझाव अहम हैं, उन पर गौर किया जाना चाहिए। लेकिन ये सुझाव
पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि कुछ मामलों में वे नौकरशाही नजरिए से निकले लगते
हैं, जिनमें चिंता व्यवस्था को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक बनाने के बजाय
राजनीतिक दलों और उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करने की लगती है। मसलन,
राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए सुझाए गए उपायों को लिया जा सकता है।
अपराधियों को राजनीति में आने से रोकने की कोशिश में सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए नेताओं का रास्ता बंद कर दिया जाए, यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा। अक्सर दलित, पिछड़े और आर्थिक रूप से शोषित समूहों के हित में संघर्ष करने वाले लोगों पर अनेक तरह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं। अगर कुरैशी के सुझावों को मान लिया जाए, तो ऐसे तमाम लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगी, जिनके खिलाफ कोर्ट में आरोप तय हो चुके हों। फिलहाल यह रोक सजायाफ्ता होने पर लगती है। भारत के सामाजिक यथार्थ को देखते हुए क्या कोई न्यायप्रिय व्यक्तिइस सुझाव की तरफदारी कर सकता है?
दरअसल, सिर्फ कानून या नियमों में बदलाव से चुनाव स्वच्छ हो जाएंगे, यह आशा भी नहीं की जा सकती। ऐसे सुझाव सिर्फ उन समूहों की तरफ से आते हैं, जो राजनीति की धूल-धक्कड़ से दूर हैं। चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक विषयवस्तु को जोड़ना अब बेहद जरूरी हो गया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा करने वाली ताकतें पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं हैं। अपने को जन-आंदोलन कहने वाले संगठनों से ऐसी उम्मीद जरूर की जा सकती थी। लेकिन ये संगठन संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक गजब किस्म के द्रोह भाव से ग्रस्त नजर आते हैं। चुनावों की साख और प्रकारांतर से संसदीय व्यवस्था की वैधता को संदिग्ध बनाने में वे और आम शासक और मध्यवर्ग के लोग समान धरातल पर हैं।
अगर ऐसे संगठनों या उनके कार्यकर्ताओं से संवाद करें, तो मौजूदा चुनाव प्रणाली की खामियों की एक लंबी फेहरिश्त उभरती है। लेकिन अगर इसकी बारीकी में जाएं, तो साफ होगा कि उनकी शिकायत असल में चुनाव प्रणाली से नहीं, बल्कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था से है। इस संदर्भ में शासक, सवर्ण और आम मध्यवर्ग की अपने लोकतंत्र से शिकायत समझी जा सकती है। वोट के अधिकार ने व्यवस्था में संख्या-बल को जो ताकत दी है उससे उनकी परेशानी स्वाभाविक है।
अपनी तमाम खामियों के साथ हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने सामाजिक लोकतंत्र का जो आधार तैयार किया है, उससे सुविधाओं और अधिकारों का उन समूहों तक प्रसार शुरू हुआ है, जिनके लिए पूर्व-व्यवस्थाओं में कोई गुंजाइश नहीं थी। जाहिर है, ऐसा कुछ वर्गों के विशेषाधिकारों की कीमत पर हुआ है। इसलिए ऐसे समूहों की चर्चा में चुनाव सुधार का मतलब या मकसद राजनीति के इस लोकतांत्रिक स्वरूप को नियंत्रित करना हो, तो इसे समझा जा सकता है। मगर इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति कथित जन-आंदोलनों और उनके कार्यकर्ताओं का नकारात्मक दृष्टिकोण चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक आयाम जोड़ने की राह में रुकावट बन जाए, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।
ध्यान देने की बात यह है कि आज के संदर्भ में चुनाव सुधारों के प्रमुख मुद्दे नकारात्मक मतदान और प्रतिनिधि वापसी के अधिकार जैसे अनावश्यक और अयथार्थ मांगें नहीं हैं। इसलिए कि कोई राजनीतिक व्यवस्था अपने सामाजिक यथार्थ से कटी नहीं होती। भारतीय लोकतंत्र के सामने असली चुनौती यह है कि इस व्यवस्था में अधिकतम जन-भागीदारी और चुनावों में जन-भावनाओं की अधिकतम अभिव्यक्ति को कैसे सुनिश्चित किया जाए। इस संदर्भ में मतदान वास्तविक के अनुपात की अभिव्यक्तिनहीं होना एक ठोस समस्या मानी जा सकती है। खासकर जिस तरह बिहार में सिर्फ उनतालीस प्रतिशत वोट के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन ने दो सौ इकतालीस में दो सौ से ऊपर सीटें जीत लीं और उत्तर प्रदेश में तीस प्रतिशत वोट के साथ समाजवादी पार्टी ने भारी जीत हासिल कर ली, उसके बाद यह पहलू ज्यादा चुभने लगा है। इसके बावजूद अभी तुरंत भारत आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अपना ले, यह सुझाव देना कठिन है। हां, इससे संबंधित विकल्पों पर जरूर चर्चा होनी चाहिए।
पर असली मुद्दा यह है कि कैसे चुनाव सुधारों की चर्चा को महज नकारात्मक उपायों तक सीमित न रहने दिया जाए। इसमें सकारात्मक पहल की संभावना को कैसे अधिक से अधिक जगह दी जाए, यह मुख्य प्रश्न है। एनजीओ संचालित जन-आंदोलन और नौकरशाहों से इस संदर्भ में उम्मीद जोड़ने का कोई आधार नहीं है, जिनके लिए चुनाव सुधार का मतलब लोकतांत्रिक राजनीति को बदनाम करना और उसकी प्रक्रियाओं पर नियमों और कानूनों का ऐसा शिकंजा कसना है, जो लोकतंत्र के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर दे। ऐसा संभवत: वे लोग या समूह ही कर सकते हैं जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते हैं, भले ऐसे लोग आज कम हों।
अपराधियों को राजनीति में आने से रोकने की कोशिश में सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए नेताओं का रास्ता बंद कर दिया जाए, यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा। अक्सर दलित, पिछड़े और आर्थिक रूप से शोषित समूहों के हित में संघर्ष करने वाले लोगों पर अनेक तरह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं। अगर कुरैशी के सुझावों को मान लिया जाए, तो ऐसे तमाम लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगी, जिनके खिलाफ कोर्ट में आरोप तय हो चुके हों। फिलहाल यह रोक सजायाफ्ता होने पर लगती है। भारत के सामाजिक यथार्थ को देखते हुए क्या कोई न्यायप्रिय व्यक्तिइस सुझाव की तरफदारी कर सकता है?
दरअसल, सिर्फ कानून या नियमों में बदलाव से चुनाव स्वच्छ हो जाएंगे, यह आशा भी नहीं की जा सकती। ऐसे सुझाव सिर्फ उन समूहों की तरफ से आते हैं, जो राजनीति की धूल-धक्कड़ से दूर हैं। चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक विषयवस्तु को जोड़ना अब बेहद जरूरी हो गया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा करने वाली ताकतें पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं हैं। अपने को जन-आंदोलन कहने वाले संगठनों से ऐसी उम्मीद जरूर की जा सकती थी। लेकिन ये संगठन संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक गजब किस्म के द्रोह भाव से ग्रस्त नजर आते हैं। चुनावों की साख और प्रकारांतर से संसदीय व्यवस्था की वैधता को संदिग्ध बनाने में वे और आम शासक और मध्यवर्ग के लोग समान धरातल पर हैं।
अगर ऐसे संगठनों या उनके कार्यकर्ताओं से संवाद करें, तो मौजूदा चुनाव प्रणाली की खामियों की एक लंबी फेहरिश्त उभरती है। लेकिन अगर इसकी बारीकी में जाएं, तो साफ होगा कि उनकी शिकायत असल में चुनाव प्रणाली से नहीं, बल्कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था से है। इस संदर्भ में शासक, सवर्ण और आम मध्यवर्ग की अपने लोकतंत्र से शिकायत समझी जा सकती है। वोट के अधिकार ने व्यवस्था में संख्या-बल को जो ताकत दी है उससे उनकी परेशानी स्वाभाविक है।
अपनी तमाम खामियों के साथ हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने सामाजिक लोकतंत्र का जो आधार तैयार किया है, उससे सुविधाओं और अधिकारों का उन समूहों तक प्रसार शुरू हुआ है, जिनके लिए पूर्व-व्यवस्थाओं में कोई गुंजाइश नहीं थी। जाहिर है, ऐसा कुछ वर्गों के विशेषाधिकारों की कीमत पर हुआ है। इसलिए ऐसे समूहों की चर्चा में चुनाव सुधार का मतलब या मकसद राजनीति के इस लोकतांत्रिक स्वरूप को नियंत्रित करना हो, तो इसे समझा जा सकता है। मगर इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति कथित जन-आंदोलनों और उनके कार्यकर्ताओं का नकारात्मक दृष्टिकोण चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक आयाम जोड़ने की राह में रुकावट बन जाए, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।
ध्यान देने की बात यह है कि आज के संदर्भ में चुनाव सुधारों के प्रमुख मुद्दे नकारात्मक मतदान और प्रतिनिधि वापसी के अधिकार जैसे अनावश्यक और अयथार्थ मांगें नहीं हैं। इसलिए कि कोई राजनीतिक व्यवस्था अपने सामाजिक यथार्थ से कटी नहीं होती। भारतीय लोकतंत्र के सामने असली चुनौती यह है कि इस व्यवस्था में अधिकतम जन-भागीदारी और चुनावों में जन-भावनाओं की अधिकतम अभिव्यक्ति को कैसे सुनिश्चित किया जाए। इस संदर्भ में मतदान वास्तविक के अनुपात की अभिव्यक्तिनहीं होना एक ठोस समस्या मानी जा सकती है। खासकर जिस तरह बिहार में सिर्फ उनतालीस प्रतिशत वोट के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन ने दो सौ इकतालीस में दो सौ से ऊपर सीटें जीत लीं और उत्तर प्रदेश में तीस प्रतिशत वोट के साथ समाजवादी पार्टी ने भारी जीत हासिल कर ली, उसके बाद यह पहलू ज्यादा चुभने लगा है। इसके बावजूद अभी तुरंत भारत आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अपना ले, यह सुझाव देना कठिन है। हां, इससे संबंधित विकल्पों पर जरूर चर्चा होनी चाहिए।
पर असली मुद्दा यह है कि कैसे चुनाव सुधारों की चर्चा को महज नकारात्मक उपायों तक सीमित न रहने दिया जाए। इसमें सकारात्मक पहल की संभावना को कैसे अधिक से अधिक जगह दी जाए, यह मुख्य प्रश्न है। एनजीओ संचालित जन-आंदोलन और नौकरशाहों से इस संदर्भ में उम्मीद जोड़ने का कोई आधार नहीं है, जिनके लिए चुनाव सुधार का मतलब लोकतांत्रिक राजनीति को बदनाम करना और उसकी प्रक्रियाओं पर नियमों और कानूनों का ऐसा शिकंजा कसना है, जो लोकतंत्र के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर दे। ऐसा संभवत: वे लोग या समूह ही कर सकते हैं जो भारतीय लोकतंत्र के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते हैं, भले ऐसे लोग आज कम हों।
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