Thursday 25 July 2013

लोहिया का समाजवाद:वर्तमान में प्रासंगिकता

ram_mohan_lohiyaडॉ राम मनोहर लोहिया ब्रितानिया हुकूमत से आजादी की जंग लड़ने वाले सेनानी के साथ साथ आजाद भारत में कांग्रेस सरकार की गलत नीतिओ के खिलाफ लड़ने वाले महान समाजवादी चिन्तक व योद्धा भी थे | आजाद भारत में व्याप्त बुराइयों की जननी कांग्रेस को मानने वाले डॉ लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की आधार-शिला रखी थी| वर्तमान समय में अपने को डॉ लोहिया के अनुयायी मानने वाले लोगो में विचारधारा ,सिद्धांतो के अनुपालन का संकट व्याप्त है | राजनीतिक स्वार्थो और सत्ता की चाहत में समाजवादी पुरोधा डॉ लोहिया के सिद्धांतो की अनदेखी करना समाजवादी मूल्यों और समाजवादी राज्य की स्थापना के प्रयासों-संकल्पों पर कुठारा घात सरीखा ही होगा | डॉ लोहिया की गरीब-गुरबा के जीवन स्तर में सुधार की सोच के क्रियान्वयन की जगह राहत और बख्शीश की राजनीति से समाजवाद का परचम कैसे लहरा सकता है ? राहत और बख्शीश की राजनीति की जगह अधिकार और कर्त्तव्य के संघर्ष को आगे बढ़ाने का दायित्व अपने को डॉ लोहिया के लोग मानने वालो को ,राजनेताओ को शुरु करना चाहिए |    डॉ राम मनोहर लोहिया आत्मा की आवाज की शक्ति को स्वीकार करते थे | साथ साथ सामाजिक और वस्तु परक सत्य को भी आत्मा की आवाज की शक्ति के जितना ही महत्व-पूर्ण मानते थे | डॉ लोहिया के अनुसार – समस्त निर्गुण सिद्धांत और आदर्श थोथे है और इनकी सार्थकता तभी हो सकती है जब इस निर्गुण आदर्शो को सगुण और संभव आचार संहिता में ढाल कर प्रस्तुत किया जाये | यह डॉ लोहिया ही थे जिन्होंने सगुण सिद्धांतो और गाँधी की प्रासंगिकता के माध्यम से तत्कालीन सरकारी नीतियो की प्रासंगिकता और गाँधी की प्रासंगिकता दोनों की चुनौतियो को देश के निवासियो के बीच विचार-विमर्श का मुद्दा बनाया ,इन मुद्दों पर बहस चलायी |                                                डॉ लोहिया का जीवन चरित्र व संघर्ष कट्टर अहिंसक आंदोलनों और सिद्धांतो का ज्वलंत उदाहरण है | दफा १४४ का विरोध करते हुये पचासों बार जेल जाने वाले डॉ लोहिया ने आजाद भारत में पुरे देश के नागरिको के अधिकारों के हित के लिए , शासन सत्ता के जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुये एक सत्याग्रही के रूप में मारेंगे नहीं पर मानेंगे नहीं का  एक निर्भीक दर्शन प्रस्तुत किया | भारतीय संविधान में दिये गये नैसर्गिक अधिकारों के विरुद्ध दफा १४४ को मानने वाले डॉ लोहिया के लोग देखते है कब दफा १४४ को ख़त्म करने का संघर्ष जीवित करते है या सत्ता मिलने पर दफा १४४ को ख़त्म करते है |                                                                                                                                      डॉ लोहिया मूलता अस्वीकारवादी थे-गाँधी के सही मायनो में शिष्य थे  ,प्रसिद्ध समाजवादी लेखक लक्ष्मी कान्त वर्मा के अनुसार —- डॉ लोहिया का यह अस्वीकारवाद गाँधी के उस नैतिक बोध से विकसित हुआ है जिसके आधार पर गाँधी ने भारत में ब्रिटिश शासन को अनैतिक करार दिया था और यह कहा था कि मैं ब्रिटिश शासन का इसलिए विरोध करता हूँ कि अंग्रेजो का भारत में शासक के रूप में रहना अनैतिक है | उन्होंने तो अंग्रेजो को यह सलाह दी थी कि वे अपनी इस अनैतिक उपस्थिति को स्वीकार करके भारत छोड़ कर चले जाये | सन १९२०-२१ में ही गाँधी जी ने अंग्रेजो को यह सलाह दी थी और १९४२ में उन्होंने अंग्रेजो को भारत छोड़ो का नारा देकर भारतवासियों से कहा कि अंग्रेजो को भारत से हटाने के लिए करो या मरो के स्तर पर संघर्ष करे | डॉ लोहिया ने इसी नैतिक बोध के आधार पर पूरे समाजवादी आन्दोलन को संगठित किया था और गाँधी के मौलिक सिद्धांतो को भारतीय समाजवाद का एक अंग माना था | अंग्रेजी हटाओ ,सत्ता का विकेंद्री करण करो,ग्राम्य पंचायतो को स्वायत्ता और अधिकार दो ,चौखम्भा राज्य की स्थापना करो,स्वदेशी अपनाओ ये सारे के सारे समाजवादी कार्यक्रम गाँधी जी के सिद्धांतो पर आधारित थे और इसी आधार पर वह भारत की स्वायत्ता की रक्षा करना अपना नैतिक कर्त्तव्य मानते थे | गाँधी की नैतिकता का आधार यदि उनका मन था तो लोहिया का आधार भारत का सामाजिक यथार्थ था | गाँधी की आत्मा की आवाज और डॉ लोहिया के सामाजिक यथार्थ में कोई भेद नहीं है ,क्योंकि लोहिया भी देश का मन बनाने  की बात करते थे | सीधे शब्दों में आत्मा के पारंपरिक अर्थ व्यूह में ना फंस कर वह मन की बात करते थे | बारीकी से देखे तो हम पाएंगे की लोहिया के मन में और गाँधी की आत्मा में कोई विशेष अंतर नहीं है | जो लोहिया का मन है वही गाँधी की आत्मा है |             आज सामाजिक -राजनीतिक जीवन में नैतिक बोध समाप्त प्राय हो गया है | राजनेताओ के पास सिर्फ तिकड़म,व्यक्तिगत स्वार्थ और सत्ता लोलुपता ,सिद्धांत हीनता – विमुखता ही शेष बची है | राजनीति के अपराधी करण के बाद अपराध का राजनीतिकरण हो चुका है | व्यावसायिक उत्पादों की तरह नेताओ का प्रस्तुतीकरण जनता जनार्दन के सामने प्रचार माध्यमो के जरिये बदस्तूर जारी है | भाषण देने ,कुरता पहनने से लेकर कैसे कदम बढाया जाये ,कैसे हाथ हिलाया जाये इस तक का प्रशिक्षण लेकर आज लोग जन नेता बनने की तरफ अग्रसर है | नेताओ की कथनी करनी में गज़ब का विरोधाभास उत्तर प्रदेश विधान सभा के इस आम चुनाव २०१२ में देखने को मिला | डॉ लोहिया दूरदर्शी थे ,उनके चिंतन और साहित्य में आम जन के प्रति समर्पण साफ़ दीखता है | डॉ लोहिया की नीति भारत की आम जनता के हित में है | डॉ राम मनोहर लोहिया देश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार और उसकी नीतियो से उपज रहे हालातो से परेशान रहते थे | सरकार के द्वारा पनपायी जा रही यथास्थितिवादी जड़ता को कैसे समाप्त किया जाये ?, इसकी चिंता गाँधी के क्रांतिकारी स्वरुप को उभारने की चिंता ,हर पल बढती हिंसा ,अन्याय और समता विरोधी सरकारी कानूनों और शिकंजो को तोड़ने की चिंता ,यह तीन चिंताए डॉ लोहिया को आंदोलित करती थी | डॉ लोहिया देश की संस्कृति और चेतना का संरक्षण करते हुये सामाजिक न्याय और शोषण रहित समाज की संरचना की प्रक्रिया को तेज़ करने में विश्वास रखते थे | डॉ लोहिया लोकतंत्र की कसौटी पर जब आजाद भारत की कांग्रेसी सरकार के कार्यक्रमों की समीक्षा करते थे तो उन्हें अपार कष्ट होता था ,यही कष्ट गैर कांग्रेस वाद के सिद्धांत के जन्म का कारण बना | डॉ लोहिया का मानना था कि सरकार की यह जो गृह नीति है उससे भारत के आम जनों के नैसर्गिक अधिकारों का गला घोंटा जा रहा है | विदेश नीति में राष्ट्रीय हितो की बलि चढ़ाई जा रही है | आर्थिक नीतियो में उपभोक्ता-वादी दृष्टिकोण को अपनाया जा रहा है और बढ़ावा दिया जा रहा है | सरकार  के द्वारा ग्राम्य विकास की उपेक्षा से, लघु और कुटीर उद्योगों की जगह सरकार के द्वारा अधिकार और सत्ता पर एकाधिपत्य ज़माने के लिए देश की प्रकृति के विरुद्ध भारी उद्योगों को अनावश्यक बढ़ावा देने के कारण डॉ लोहिया परेशान रहते थे | लोहिया की विशेषता थी कि वो जैसा महसूस करते थे वैसा ही व्यक्त भी कर देते थे | लोहिया के मतानुसार कि किसी भी सत्य को इसलिए ना कहना कि सत्य कहने से भय लगता है ,अनुचित है | असत्य पनपता रहे और आदमी उस असत्य को आने वाले सत्य की मृग मरीचिका में स्वीकार कर ले तो वह स्वयं को नष्ट और कलुषित करता है | लोहिया के जीवन संघर्ष के दो महत्व पूर्ण पक्ष सत्य बोलना और अन्याय के खिलाफ अविलम्ब संघर्ष करते रहना रहे है | लोहिया की नज़र में निर्भय होकर अन्याय के खिलाफ लडाई लड़ना ,सहारा लेकर अन्याय के खिलाफ लड़ने की पद्धति से अधिक शक्तिशाली है | लोहिया बिना हथियार के अन्याय के खिलाफ लड़ने की इच्छा शक्ति को अधिक महत्व पूर्ण मानते थे | डॉ लोहिया के ही अनुसार — इस माध्यम से समाज के हर व्यक्ति की साझेदारी अन्याय को समाप्त करने में हो जाती है ,जबकि संगीन के सहारे लड़ने में ,जिसके पास संगीन नहीं है ,वह केवल मूक दर्शक बन कर रह जाता है |       डॉ लोहिया की समाजवादी पार्टी के कार्यक्रमों का मूल आधार चौखम्भा राज था | डॉ लोहिया का साफ़ मानना था कि चौखम्भा राज कि ग्राम पंचायत कि इकाई तभी प्रभावी हो सकती है ,जब उसके काम काज की भाषा और प्रदेश तथा केंद्र की सरकार की काम काज की भाषा भारतीय भाषा हो | जब तक अंग्रेजी रहेगी तब तक भारत की कोई भी भाषा प्रयोग में नहीं आ सकेगी | इसलिए डॉ लोहिया ने अंग्रेजी हटाओ का कार्यक्रम दिया था | यह डॉ लोहिया की क्रांतिकारी सोच थी जिसका उद्देश्य मूल रूप से ग्राम पंचायत की इकाई में आत्म विश्वास पैदा करने को था | उनका मानना था कि अंग्रेजी धीरे धीरे नहीं एक झटके से समाप्त की जा सकती है | भाषा के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन चाहने वाले डॉ लोहिया का सपना था कि प्रधान मंत्री का बेटा और प्रधान मंत्री के चपरासी का बेटा जब एक ही स्कूल में पढ़ेगा तो समता प्रधान समाज विकसित होगा | अंग्रेजी की वरीयता समाप्त हो जाने से अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की  प्रभुता भी समाप्त हो जाएगी तथा भारतीय स्थानीय भाषा व हिंदी का महत्व बढेगा | डॉ लोहिया का कथन था कि — अंग्रेजी इसी तरह जाएगी | डेढ़ मिनट में नहीं बल्कि एक सेकंड में | झटके में यह सब चीजे हुआ करती है | धीरे धीरे नहीं हुआ करती हैं | धीरे धीरे कहने वाला यह शासक और शोषक सामंती वर्ग है जो कि ८० करोड़ भारतीय जनता पर अपना राज चलाना चाहता है और इसीलिए इस मसले पर एक मजबूत विचार ना करके अंग्रेजी बनाये रखना चाहता है | अब हमें तयें करना चाहिए कि अंग्रेजी को अपने इलाके से हटायेंगे | जाती तोड़ो-समाज जोड़ो आन्दोलन ,विशेष अवसर का सिद्धांत की  व्याख्या करते हुये डॉ लोहिया ने कहा कि — जब तक तेली,अहीर, चमार,पासी आदि में से नेता नहीं निकलते ,छोटी जाति में कहे जाने वाले लोगो को जब तक उठने और उभरने का मौका नहीं दिया जता ,देश आगे नहीं बढ़ सकता | कांग्रेसी लोग कहते है पहले छोटी जाति के लोगो को योग्य बनाओ फिर कुर्सी दो | मेरा मानना है कि अवसर की गैर बराबरी का सिद्धांत अपनाना होगा | देश की अधिसंख्य जनता जिसमे तमोली ,चमार,दुसाध ,पासी,आदिवासी आदि शामिल है ,पिछले दो हज़ार वर्षो से दिमाग के काम से अलग रखे गये हैं | जब तक तीन चार हज़ार वर्षो के कुसंस्कार दूर नहीं होता ,सहारा देकर ऊँची जगहों पर छोटी जातियो को बैठना होगा | चाहे नालायक हो तब भी | इस देश ने ऊँची जातियो की योग्यता को बहुत देख लिया है | देश की गजटी नौकरियो ,राजनीतिक पार्टियो की नेतागिरी ,पलटन ,व्यापार आदि में जनता के दिमाग पर जो हजारो वर्ष का ताला बंद किया गया है,खुलेगा | दाम बांधो और आमदनी खर्ज पर सीमा लगाओ का नारा लोहिया ने शायद आजाद भारत के ग्रामीणों की दशा को देख कर लगाया था और संसद में पैरवी भी की थी | डॉ लोहिया के विचार और कार्यक्रम भारत के आम जन से जुड़े थे और आज भी जुड़े है | आज डॉ लोहिया के विचारो के दो टूक और निर्भीक सत्य की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है | अगर अपने को डॉ लोहिया के लोग मानने वालो ने इस पर ईमानदारी से काम किया होता तो आज पूरा देश समाजवादी आन्दोलन से जुड़ा होता | समाजवादियो को लोहिया के विचारो की चर्चा परिचर्चा के शिविर लगाने चाहिए , समाजवादी आन्दोलन में जातीयता की जकड़न की जगह समाजवादी विचारो की प्रखरता और कर्म का मिश्रण महत्वपूर्ण है | देश में व्याप्त समस्याओ-  बुराइयों की जननी कांग्रेस के मुकाबिल अंततोगत्वा डॉ लोहिया के लोगो को खड़ा ही होना होगा और समाजवादियो की एका के सपने एक मधुर परन्तु दुष्कर स्वप्न की तरह आने बदस्तूर जारी है |

संघवाद एवं राज्यों की शक्तियां.........


केंद्र और राज्यों के बीच का यह तनाव हाल के दिनों में कई मुद्दों पर सामने आया है। अनेक राज्यों का मानना है कि शिक्षा ट्रिब्यूनल विधेयक, नेशनल एक्रीडिएशन अथॉरिटी विधेयक और शिक्षा का अधिकार जैसे कानून केंद्र व राज्य के बीच सत्ता के विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। मसलन, सर्व शिक्षा अभियान के तहत राज्यों के योगदान को बिना उनकी सहमति के ही बढ़ा दिया गया। केंद्र सरकार ने इस अभियान का खर्च जुटाने के लिए शिक्षा अधिभार का सहारा लिया, जबकि राज्यों को अपने बजट से ही इसका इंतजाम करना था। इसी तरह, आंतरिक सुरक्षा के लिए नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) और प्रस्तावित रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स यानी आरपीएफ ऐक्ट वगैरह ऐसे प्रयास हैं, जिनका हमारे संघीय ढांचे से टकराव हो रहा है, क्योंकि ये राज्यों की शक्तियों को कम करते हैं। मतभेद का ऐसा ही एक और क्षेत्र है- केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं का स्वरूप और उन्हें लागू करने का तरीका, जिनमें सब कुछ केंद्र ही तय करता है।
जहां तक वित्तीय संघवाद का मामला है, तो केंद्रीय बजट में हाल के वर्षों में विशेषाधिकार का इस्तेमाल बढ़ा है, जो संतुलन के लक्ष्य की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा बन गया है। वित्त आयोग ने बराबरी लाने के लिए फंड ट्रांसफर का जो फॉमरूला तैयार किया है, यह काम एक तरह से उसके खिलाफ जाता है। सरकार संघीय वित्तीय संबंधों के लिए कई आयोग बना चुकी है। इनमें पहला प्रशासनिक सुधार आयोग (1966), सरकारिया आयोग (1983), नेशनल कमीशन टु रिव्यू द वर्किग ऑफ कांस्टीटय़ूशन (2000) और एम एम पंछी आयोग (2007) आदि प्रमुख हैं। मोटे तौर पर इन सभी आयोगों की मुख्य सिफारिशें यही रही हैं कि राज्यों के संसाधनों और जिम्मेदारियों के बीच उचित संबंध होना चाहिए, केंद्रीय टैक्सों पर लगने वाले अधिभार को कम किया जाना चाहिए, वित्त आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर राज्यों को दिए जाने वाले धन की मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। उनकी यह भी सिफारिश रही है कि पिछड़े राज्यों को दी जाने वाली केंद्रीय मदद बढ़ाई जाए। लेकिन इनमें से ज्यादातर सिफारिशें कभी लागू नहीं हुईं और केंद्रीय बजट में भेदभावपूर्ण मदद ने कई राज्यों को अलग-थलग कर दिया। ऐसे समय में, जब केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास बढ़ रहा हो, तब यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि केंद्र सरकार देश में वित्तीय संघवाद लागू करने में नाकाम क्यों रही? ये चिंताएं मुख्य रूप से निम्नलिखित मुद्दों के आस-पास केंद्रित हैं-
पहला, बजट बनाने में राज्यों की भूमिका। इसका अर्थ बजट बनाने के मामले में केंद्र सरकार के अधिकार को चुनौती देना नहीं है। इसमें केंद्र और राज्य, दोनों का बराबर का दांव होता है, इसलिए ऐसा तरीका तो बनना ही चाहिए कि दोनों के बीच सार्थक विमर्श हो सके। खासतौर पर उन केंद्रीय योजनाओं के मामले में, जिनका सीधा असर राज्य की वित्तीय स्थिति पर पड़ता हो। अभी स्थिति यह है कि इनके लिए राज्यों के साथ न तो कोई विमर्श होता है और न ही उनकी कोई सहमति ली जाती है। अगर राज्यों से उम्मीद की जाती है कि वे वित्तीय अनुशासन का पालन करें, तो केंद्र की योजनाओं से भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए। केंद्र को राज्यों की वित्तीय नीतियों की समीक्षा का जितना अधिकार है, उतना ही राज्यों को केंद्र की नीतियों की समीक्षा का अधिकार क्यों न दिया जाए?
दूसरा, केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों में संतुलन। विकास के मद में खर्च की ज्यादातर जिम्मेदारियां राज्यों के हवाले होती हैं, जबकि राजस्व उगाहने का महत्वपूर्ण काम केंद्र सरकार के पास रहता है। सालाना विकास खर्च में केंद्र के मुकाबले राज्यों को ज्यादा जेब ढीली करनी पड़ती है। इसके विपरीत प्राप्त राजस्व में राज्यों के पल्ले एक तिहाई हिस्सा ही आ पाता है, जबकि दो तिहाई केंद्र के पास पहुंच जाता है।
तीसरा, केंद्र द्वारा पर्याप्त धन न दिया जाना। विकास खर्च के मामले में केंद्र और राज्यों की हिस्सेदारी में बहुत बड़ा फर्क चिंता का विषय है। विकास का काम करने की जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी जाती है, जबकि केंद्र की भूमिका ज्यादा से ज्यादा राजस्व बटोरने की होती है। राज्यों को अधिक संसाधन न मिलने के कारण सार्वजनिक सेवाओं और जन कल्याण के लिए उनके पास संसाधन ही नहीं बचते।
चौथा, अभी तक ऐसा तरीका नहीं बनाया जा सका, जिससे राज्यों की मदद राजनीतिक भेदभाव से परे हो। जिस तरीके से विभिन्न मंत्रालय राज्यों को मदद देते हैं, उसे न्याय या कुशलता के सिद्धांत के आधार पर उचित ठहराना आसान नहीं है। इसके लिए नतीजे और पात्रता के बीच संतुलन कायम करना बहुत जरूरी है। केंद्रीय बजट में न्याय और कुशलता के आधार पर बनाया गया यह संतुलन नहीं दिखाई देता।
पांचवां, राज्य के वैधानिक अधिकारों का सम्मान करना। चाहे यह हाल ही में हुआ केंद्रीय बिक्री कर का मामला हो, या कर सेवाओं का, फैसला हमेशा एकतरफा रहा है, राज्यों से किसी भी परामर्श के बगैर। केंद्र ने उन सेवाओं पर भी कर लगा दिया, जो राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती हैं और ऐसा कोई वायदा भी नहीं किया गया कि राज्यों को हुए नुकसान की भरपाई की जाएगी।
बजट बनाने की प्रक्रिया को ज्यादा परामर्श वाली और ज्यादा पारदर्शी बनाने की जरूरत है। गठजोड़ की राजनीति के इस युग में केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें तो रहेंगी ही। इसलिए एक ही तरीका है, जिसे वित्त मंत्री ने सहकारी संघवाद कहा है, उसे अपनाया जाए और जिसे उनकी सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने दमनकारी संघवाद कहा है, उससे बचा जाए। एक चीज साफ है कि केंद्र के दबदबे वाले दिन अब लद गए। बदले राजनीतिक समीकरणों ने बागडोर अब क्षेत्रीय दलों को थमा दी है। अब हमें संतुलन को मौजूदा हकीकत के हिसाब से ही ढालना होगा......

कोर बैंकिंग (Core Banking) तथा CBS


Core Banking Hindi
कोर बैंकिंग (Core Banking) तथा CBS
बैंकिंग क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण शब्दावली कोर बैंकिंग (Core Banking) का प्रयोग दो परिप्रेक्ष्यों में किया जाता है।
पहला परिप्रेक्ष्य – वर्तमान में भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में कोर बैंकिंग में प्रयुक्त शब्द कोर (CORE) का अर्थ है Centralized Online Real-time Environment – सेण्ट्रलाइज़्ड ऑन-लाइन रियल-टाइम इनवायरमेण्ट। यह केन्द्रीयकृत बैंकिंग की ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा इस प्रणाली से जुड़े सारे बैंक केन्द्रीयकृत डाटासेण्टर्स का उपयोग बैंकिंग लेन-देन से जुड़े सारे सौदों के लिए करते हैं। कोर बैंकिंग में रियल-टाइम आधार पर कार्य किया जाता है तथा किसी भी बैंक में हुआ कोई भी लेन-देन केन्द्रीय सर्वर्स के द्वारा पूरी बैंकिंग प्रणाली में प्रतिबिंबित होता है। कहा जा सकता है कि कोर बैंकिंग में उच्च स्तर की सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर पूरी बैंकिंग प्रणाली को एक सूत्र में पिरो कर बैंकिंग लेन-देनों में अधिक लचीलापन तथा पारदर्शिता सुनिश्चित की गई है।
दूसरा परिप्रेक्ष्य – कोर बैंकिंग शब्दावली का एक दूसरा अर्थ भी है – कई बार कोर बैंकिंग का अर्थ बैंकिंग प्रणाली के फुटकर तथा छोटे व्यवसायियों के साथ होने वाला व्यवसाय माना जाता है। एक तरह से बैंक इस वर्ग को ही अपना सर्वप्रमुख (कोर) वर्ग मानता है तथा इस वर्ग के साथ की जाने वाली बैंकिंग को ही कोर बैंकिंग कह दिया जाता है। बड़े व्यवसायों को बैंकिंग की एक दूसरी धारा द्वारा बैंकिंग सेवाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिसे प्राय: कारपोरेट बैंकिंग (Corporate Banking) कहा जाता है।
कोर बैंकिंग सल्यूशंस (Core Banking Solutions or CBS)
हम अक्सर बैंक शाखाओं के बाहर लिखा देख सकते हैं – CBS सुविधायुक्त शाखा या CBS ब्रांच। CBS दरअसल बैंकों के लिए तैयार किए गया एक अत्याधुनिक प्लेटफार्म है जो बैंकों को अपनी उत्पादकता तथा कार्यकुशलता बढ़ाने, लेन-देन को आसान करने तथा लेन-देन को रिकार्ड करते समय प्राय: हाथों से की जाने वाली एण्ट्रीज़ से उत्पन्न होने वाली गलतियों को कम से कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। CBS ने बैंकिंग सेवाओं को एक बिल्कुल नया कलेवर प्रदान कर दिया है। असल में इंटरनेट तथा सूचना प्रौद्योगिकी के बैंकिंग में प्रयोग किए जाने के बाद बैंकिंग करने का तरीका बिल्कुल बदल गया है। सीबीएस ने बैंकिंग करने के तमाम माध्यमों जैसे बैंक शाखा, एटीएम, इंटरनेट, मोबाइल तथा प्वाइंट ऑफ सेल (PoS) काउंटर्स को आपस में बड़ी कुशलता से संयोजित कर दिया गया है। इसी के साथ पूरे बैंकिंग उद्योग को एक तंत्र से जोड़ कर सूचनाएं आपस में बाँटने का एक बहुत किफायती तथा पारदर्शी माध्यम CBS ने ही मुहैया कराया है। सीबीएस सुविधा के ही चलते हम किसी दूसरी बैंक शाखा से अपनी बैंकिंग सेवाएं प्राप्त कर सकते हैं, किसी दूसरे बैंक के एटीएम से अपना पैसा निकाल सकते हैं तथा एक खाते से दूसरे खाते में पैसा हस्तांतरित कर सकते हैं। कोर बैंकिंग सल्यूशंस या CBS में शामिल सेवाएं हैं – एक उच्च परिष्कृत कम्प्यूटर साफ्टवेयर से बैंक के कोर कार्य जैसे लेन-देन रिकार्ड करना, पासबुक अपडेट करना, ब्याज की गणना कर उसे खातों में चढ़ाना, खातेदारों का रिकार्ड व्यवस्थित रखना, आदि। इन सेवाओं को कोर बैंकिंग सल्यूशंस इसीलिए कहा जाता है क्योंकि ये बैंक की कोर (सर्व-महत्वपूर्ण) कार्यों का निष्पादन करते हैं। CBS से सम्बन्धित ये साफ्टवेयर बैंक की तमाम शाखाओं में लगाए जाते हैं तथा इन्हें दूरसंचार के तमाम माध्यमों जैसे टेलीफोन, इंटरनेट तथा सैटेलाइट से आपस में जोड़ दिया जाता है। कई बार सीबीएस को बैंकों के बैक-एण्ड सिस्टम भी कहा जाता है।
कोर बैंकिंग के मुख्य बिन्दु :
  • 1) कोर बैंकिंग बैंकिंग क्षेत्र के लिए प्रयुक्त शब्दावली है
  • 2) कोर बैंकिंग में मुख्य जोर बैंकों के कोर (सर्वमहत्वपूर्ण) कार्यों के निष्पादन पर है
  • 3) कोर बैंकिंग ने बैंकों के उन कामों को आसान कर दिया है जो बैंकिंग उद्योग के मूल माने जाते हैं
  • 4) कोर बैंकिंग का आधार ही सूचना प्रौद्योगिकी तथा इंटरनेट टेक्नोलाजी का प्रयोग है
  • 5) कोर बैंकिंग ने बैंकों की विभिन्न सेवाओं व बैंकिंग के विभिन्न माध्यमों को आपस में जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है
  • 6) कोर बैंकिंग ने बैंक प्रबन्धन को सूचनाएं सही समय पर मुहैया कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे बैंकिंग सम्बन्धी निर्णय लेने के लिए मुख्य आधार मैनेजमैण्ट इनफार्मेशन सिस्टम (MIS) को मजबूती प्रदान की गई है।

भारत-चीन सम्बंध:एक विश्लेषण


चीन व भारत विश्व के दो बड़े विकासशील देश हैं। दोनों ने विश्व की शांति व विकास के लिए अनेक काम किये हैं। चीन और उसके सब से बड़े पड़ोसी देश भारत के बीच लंबी सीमा रेखा है। लम्बे अरसे से चीन सरकार भारत के साथ अपने संबंधों का विकास करने को बड़ा महत्व देती रही है। इस वर्ष की पहली अप्रैल को चीन व भारत के राजनयिक संबंधों की स्थापना की 55वीं वर्षगांठ थी ।
वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद के अगले वर्ष, भारत ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। इस तरह भारत चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैरसमाजवादी देश बना। चीन व भारत के बीच राजनयिक संबंधों की औपचारिक स्थापना के बाद के पिछले 55 वर्षों में चीन-भारत संबंध कई सोपानों से गुजरे। उनका विकास आम तौर पर सक्रिय व स्थिर रहा, लेकिन, बीच में मीठे व कड़वी स्मृतियां भी रहीं। इन 55 वर्षों में दोनों देशों के संबंधों में अनेक मोड़ आये। आज के इस कार्यक्रम में हम चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों का सिंहावलोकन करेंगे।
प्रोफेसर मा जा ली चीन के आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध अनुसंधान संस्थान के दक्षिणी एशिया अनुसंधान केंद्र के प्रधान हैं। वे तीस वर्षों से चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों के अनुसंधान में लगे हैं। श्री मा जा ली ने पिछले भारत-चीन संबंधों के 55 वर्षों को पांच भागों में विभाजित किया है। उन के अनुसार, 1950 के दशक में चीन व भारत के संबंध इतिहास के सब से अच्छे काल में थे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने तब एक-दूसरे के यहां की अनेक यात्राएं कीं और उनकी जनता के बीच भी खासी आवाजाही रही। दोनों देशों के बीच तब घनिष्ठ राजनीतिक संबंध थे। लेकिन, 1960 के दशक में चीन व भारत के संबंध अपने सब से शीत काल में प्रवेश कर गये। इस के बावजूद दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध कई हजार वर्ष पुराने हैं। इसलिए, यह शीतकाल एक ऐतिहासिक लम्बी नदी में एक छोटी लहर की तरह ही था। 70 के दशक के मध्य तक वे शीत काल से निकल कर फिर एक बार घनिष्ठ हुए। चीन-भारत संबंधों में शैथिल्य आया , तो दोनों देशों की सरकारों के उभय प्रयासों से दोनों के बीच फिर एक बार राजदूत स्तर के राजनयिक संबंधों की बहाली हुई। 1980 के दशक से 1990 के दशक के मध्य तक चीन व भारत के संबंधों में गर्माहट आ चुकी थी। हालांकि वर्ष 1998 में दोनों देशों के संबंधों में भारत द्वारा पांच मिसाइलें छोड़ने से फिर एक बार ठंडापन आया। पर यह तुरंत दोनों सरकारों की कोशिश से वर्ष 1999 में भारतीय विदेशमंत्री की चीन यात्रा के बाद समाप्त हो गया। अब चीन-भारत संबंध कदम ब कदम घनिष्ठ हो रहे हैं।
इधर के वर्षों में चीन-भारत संबंधों में निरंतर सुधार हो रहा है। चीन व भारत के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच आवाजाही बढ़ी है। भारत स्थित भूतपूर्व चीनी राजदूत च्यो कांग ने कहा, अब चीन-भारत संबंध एक नये काल में प्रवेश कर चुके हैं। इधर के वर्षों में, चीन व भारत के नेताओं के बीच आवाजाही बढ़ी। वर्ष 2001 में पूर्व चीनी नेता ली फंग ने भारत की यात्रा की। वर्ष 2002 में पूर्व चीनी प्रधानमंत्री जू रोंग जी ने भारत की यात्रा की। इस के बाद, वर्ष 2003 मेंभारतीय प्रधानमंत्री वाजपेई ने चीन की यात्रा की। उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ चीन-भारत संबंधों के सिद्धांत और चतुर्मुखी सहयोग के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये। इस घोषणापत्र ने जाहिर किया कि चीन व भारत के द्विपक्षीय संबंध अपेक्षाकृत परिपक्व काल में प्रवेश कर चुके हैं। इस घोषणापत्र ने अनेक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समस्याओं व क्षेत्रीय समस्याओं पर दोनों के समान रुख भी स्पष्ट किये। इसे भावी द्विपक्षीय संबंधों के विकास का निर्देशन करने वाला मील के पत्थर की हैसियत वाला दस्तावेज भी माना गया। चीन व भारत के संबंध पुरानी नींव पर और उन्नत हो रहे हैं।
विदेश नीति पर चीन व भारत बहुध्रुवीय दुनिया की स्थापना करने का पक्ष लेते हैं, प्रभुत्ववादी व बल की राजनीति का विरोध करते हैं और किसी एक शक्तिशाली देश के विश्व की पुलिस बनने का विरोध करते हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मौजूद वर्तमान विवादों का किस तरह निपटारा हो और देशों के बीच किस तरह का व्यवहार किया जाये ये दो समस्याएं विभिन्न देशों के सामने खड़ी हैं। चीन व भारत मानते हैं कि उनके द्वारा प्रवर्तित किये गये शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के उन लक्ष्यों तथा सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करते हैं, जिनका दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा पालन किया जाना चाहिए।
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांत यानी पंचशील चीन, भारत व म्येनमार द्वारा वर्ष 1954 के जून माह में प्रवर्तित किये गये। पंचशील चीन व भारत द्वारा दुनिया की शांति व सुरक्षा में किया गया एक महत्वपूर्ण योगदान है,और आज तक दोनों देशों की जनता की जबान पर है। देशों के संबंधों को लेकर स्थापित इन सिद्धांतों की मुख्य विषयवस्तु है- एक-दूसरे की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडता का सम्मान किया जाये, एक- दूसरे पर आक्रमण न किया जाये , एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल न दी जाये और समानता व आपसी लाभ के आधार पर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बरकारार रखा जाये। ये सिद्धांत विश्व के अनेक देशों द्वारा स्वीकार कर लिये गये हैं और द्विपक्षीय संबंधों पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों व दस्तावेजों में दर्ज किये गये हैं। पंचशील के इतिहास की चर्चा में भारत स्थित पूर्व चीनी राजदूत श्री छन रे शन ने बताया, द्वितीय विश्वॉयुद्ध से पहले, एशिया व अफ्रीका के बहुत कम देशों ने स्वतंत्रता हासिल की थी। लेकिन, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, उपनिवेशवादी व्यवस्था भंग होनी शुरू हुई। भारत व म्येनमार ने स्वतंत्रता प्राप्त की और बाद में चीन को भी मुक्ति मिली। एशिया में सब से पहले स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले देश होने के नाते, उन्हें देशों की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडला का कायम रहना बड़ा आवश्यक लगा और उन्हें विभिन्न देशों के संबंधों का निर्देशन करने के सिद्धांत की जरुरत पड़ी। इसलिए, इन तीन देशों के नेताओं ने मिलकर पंचशील का आह्वान किया।
पंचशील ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सैद्धांतिक व यथार्थ कार्यवाइयों में रचनात्मक योगदान किया।, पूर्व भारतीय राष्ट्रपति नारायणन ने पंचशील की महत्वता की चर्चा इस तरह की। पंचशील का आज भी भारी महत्व है। वह काफी समय से देशों के संबंधों के निपटारे का निर्देशक मापदंड रहा है। एक शांतिपूर्ण दुनिया की स्थापना करने के लिए पंचशील का कार्यावयन करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इतिहास और अंतरराष्ट्रीय यथार्थ से जाहिर है कि पंचशील की जीवनीशक्ति बड़ी मजबूत है। उसे व्यापक जनता द्वारा स्वीकार किया जा चुका है। भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रणाली अपनाने वाले देश पंचशील की विचारधारा को स्वीकार करते हैं। लोगों ने मान लिया है कि पंचशील शांति व सहयोग के लिए लाभदायक है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों व मापदंडों से पूर्ण रूप से मेल खाता हैं। आज की दुनिया में परिवर्तन हो रहे हैं। पंचशील का प्रचार-प्रसार आज की कुछ समस्याओं के हल के लिए बहुत लाभदायक है। इसलिए, पंचशील आज भी एक शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था का आधार है। उस का आज भी भारी अर्थ व महत्व है और भविष्य में भी रहेगा।
शांति व विकास की खोज करना वर्तमान दुनिया की जनता की समान अभिलाषा है। पंचशील की शांति व विकास की विचारधारा ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वस्थ विकास को आगे बढ़ाया है और भविष्य में भी वह एक शांतिपूर्ण, स्थिर, न्यायपूर्ण व उचित नयी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना में अहम भूमिका अदा करेगी।
दोनों देशों के संबंधों को आगे विकसित करने के लिए वर्ष 2000 में पूर्व भारतीय राष्ट्रपति नारायणन ने चीन की राजकीय यात्रा के दौरान, पूर्व चीनी राष्ट्राध्यक्ष च्यांग ज मिन के साथ वार्ता में भारत और चीन के जाने-माने व्यक्तियों के मंच के आयोजन का सुझाव प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव पर श्री च्यांग ज मिन ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। दोनों सरकारों ने इस मंच की स्थापना की पुष्टि की। मंच के प्रमुख सदस्य, दोनों देशों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक व तकनीक तथा सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों के जाने माने व्यक्ति हैं। मंच के एक सदस्य श्री च्यो कांग ने मंच का प्रमुख ध्येय इस तरह समझाया, इस मंच का प्रमुख ध्येय दोनों देशों के विभिन्न क्षेत्रों के जाने-माने व्यक्तियों द्वारा द्विपक्षीय संबंधों के विकास के लिए सुझाव प्रस्तुत करना और सरकार को परामर्श देना है। यह दोनों देशों के बीच गैरसरकारी आवाजाही की एक गतिविधियों में से एक भी है। वर्ष 2001 के सितम्बर माह से वर्ष 2004 के अंत तक इसका चार बार आयोजन हो चुका है। इसके अनेक सुझावों को दोनों देशों की सरकारों ने स्वीकृत किया है। यह मंच सरकारी परामर्श संस्था के रूप में आगे भी अपना योगदान करता रहेगा।
हालांकि इधर चीन व भारत के संबंधों में भारी सुधार हुआ है, तो भी दोनों के संबंधों में कुछ अनसुलझी समस्याएं रही हैं। चीन व भारत के बीच सब से बड़ी समस्याएं सीमा विवाद और तिब्बत की हैं। चीन सरकार हमेशा से तिब्बत की समस्या को बड़ा महत्व देती आई है। वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चीन की यात्रा की और चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया। घोषणापत्र में भारत ने औपचारिक रूप से कहा कि भारत तिब्बत को चीन का एक भाग मानता है। इस तरह भारत सरकार ने प्रथम बार खुले रूप से किसी औपचारिक दस्तावेज के माध्यम से तिब्बत की समस्या पर अपने रुख पर प्रकाश डाला, जिसे चीन सरकार की प्रशंसा प्राप्त हुई।
इस के अलावा, चीन व भारत के बीच सीमा समस्या भी लम्बे अरसे से अनसुलझी रही है। इस समस्या के समाधान के लिए चीन व भारत ने वर्ष 1981 के दिसम्बर माह से अनेक चरणों में वार्ताएं कीं और उनमें कुछ प्रगति भी प्राप्त की। वर्ष 2003 में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की सफल यात्रा की। चीन व भारत ने चीन-भारत संबंधों के सिद्धांत और चतुर्मुखी सहयोग के ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये। चीन व उसके पड़ोसी देशों के राजनयिक संबंधों के इतिहास में ऐसे ज्ञापन कम ही जारी हुए हैं। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों द्वारा सम्पन्न इस ज्ञापन में दोनों देशों ने और साहसिक नीतियां अपनायीं, जिन में सीमा समस्या पर वार्ता के लिए विशेष प्रतिनिधियों को नियुक्त करना और सीमा समस्या का राजनीतिक समाधान खोजना आदि शामिल रहा। चीन और भारत के इस घोषणापत्र में यह भी स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत स्वायत्त प्रदेश चीन का एक अभिन्न और अखंड भाग है। सीमा समस्या के हल के लिए चीन व भारत के विशेष प्रतिनिधियों के स्तर पर सलाह-मश्विरा जारी है। वर्ष 2004 में चीन और भारत ने सीमा समस्या पर यह विशेष प्रतिनिधि वार्ता व्यवस्था स्थापित की। भारत स्थित पूर्व चीनी राजदूत च्यो कांग ने कहा, इतिहास से छूटी समस्या की ओर हमें भविष्योन्मुख रुख से प्रस्थान करना चाहिए। चीन सरकार ने सीमा समस्या के हल की सक्रिय रुख अपनाई है। चीन आशा करता है कि इसके लिए आपसी सुलह औऱ विश्वास की भावना के अनुसार, मैत्रीपूर्ण वार्ता के जरिए दोनों को स्वीकृत उचित व न्यायपूर्ण तरीकों की खोज की जानी चाहिए। विश्वास है कि जब दोनों पक्ष आपसी विश्वास , सुलह व रियायत देने की अभिलाषा से प्रस्थान करेंगे तो चीन-भारत सीमा समस्या के हल के तरीकों की खोज कर ही ली जाएगी।
इस समय चीन व भारत अपने-अपने शांतिपूर्ण विकास में लगे हैं। 21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं।
चीन-भारत संबंधों के भविष्य के प्रति श्री मा जा ली बड़े आश्वस्त हैं। उन्होंने कहा, समय गुजरने के साथ दोनों देशों के बीच मौजूद विभिन्न अनसुलझी समस्याओं व संदेहों को मिटाया जा सकेगा और चीन व भारत के राजनीतिक संबंध और घनिष्ठ होंगे। इस वर्ष मार्च में चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ भारत की यात्रा पर जा रहे हैं। उनके भारत प्रवास के दौरान चीन व भारत दोनों देशों के नेता फिर एक बार एक साथ बैठकर समान रुचि वाली द्विपक्षीय व क्षेत्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करेंगे। श्री मा जा ली ने कहा, भविष्य में चीन-भारत संबंध और स्वस्थ होंगे और और अच्छे तरीके से आगे विकसित होंगे । आज हम देख सकते हैं कि चीन व भारत के संबंध लगतार विकसित हो रहे हैं। यह दोनों देशों की सरकारों की समान अभिलाषा भी है। दोनों पक्ष आपसी संबंधों को और गहन रूप से विकसित करने को तैयार हैं। मुझे विश्वास है कि चीन-भारत संबंध अवश्य ही और स्वस्थ व मैत्रीपूर्ण होंगे और एक रचनात्मक साझेदारी का रूप लेंगे।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति नारायण ने कहा, मेरा विचार है कि चीन और भारत को द्विपक्षीय मैत्रीपूर्ण संबंधों को और गहरा करना चाहिए। हमारे बीच सहयोग दुनिया के विकास को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका अदा कर सकेंगे।
भारत-चीन के सम्बन्धों के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे ...........
भारत और चीन ने मीडिया, संस्कृति और पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकी सहित विभिन्न क्षेत्रों में छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए। भारत और चीन ने वर्ष 2015 तक आपसी व्यापार बढ़ाकर 100 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत का व्यापार घाटा कम करने के लिए दोनों देश भारत द्वारा चीन को किए जाने वाले निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सहमत हुए हैं।

कई मुद्दों को सुलझाने पर सहमति.......
पिछले एक साल में द्विपक्षीय रिश्तों में आई कुछ दिक्कतों को समाप्त करने की कोशिश में भारत और चीन कई मुद्दों पर व्यापक आमसहमति पर पहुंचे और सीमा मसले समेत अनेक मतभेदों को शांतिपूर्ण बातचीत के जरिये जल्द से जल्द सुलझाने की प्रतिबद्धता जताई। बातचीत के दौरान दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के सीधे संपर्क के लिए टेलीफोन हॉटलाइन शुरू करने के फैसले का स्वागत किया गया। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने आपसी महत्व के मुद्दों पर नियमित विचार-विमर्श के लिए सहमति जाहिर की।

सीमांत इलाकों में शांति बनाये रखेंगे......
सीमा मसले के समाधान को दोनों देशों के नेताओं ने दस स्तरीय रणनीति में शामिल किया है। दोनों नेताओं ने फैसला किया कि जब तक इसका समाधान नहीं होता दोनों पक्ष पूर्ववर्ती सहमतियों की तर्ज पर सीमांत इलाकों में शांति बनाये रखने के लिहाज से मिलकर काम करेंगे। दोनों पक्षों ने चीन और भारत के बीच सीमा के आरपार बहने वाली नदियों के क्षेत्र में भी अच्छे सहयोग की बात कही। भारतीय पक्ष ने बाढ़ के समय में जलीय डाटा तथा आपातकालीन प्रबंधन पर चीन की तरफ से दी गयी सहायता की तारीफ की।

मिलकर आतंकवाद का मुकाबला करेंगे.....
आतंकवाद के सभी प्रकारों के स्पष्ट विरोध की जरूरत को रेखांकित करते हुए दोनों देशों ने इस बात पर जोर दिया कि कहीं भी आतंकवाद की कोई भी करतूत न्यायोचित नहीं हो सकती। वक्तव्य के अनुसार उन्होंने संयुक्त प्रयासों के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की प्रतिबद्धता जताई जिसमें आतंकवाद को दी जाने वाली आर्थिक सहायता को रोकना भी शामिल है।

भारत के दर्जे को बहुत महत्व........
बड़े क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर समान हितों और समान चिंताओं को रेखांकित करते हुए दोनों पक्षों ने समन्वय और सहयोग बढ़ाने का फैसला किया। बयान के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक बड़े विकासशील देश के तौर पर भारत के दर्जे को चीन बहुत महत्व देता है और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में महती भूमिका निभाने की भारत की आकांक्षाओं को समझता और इनका समर्थन करता है।

नत्थी वीजा का मामला सुलझाने पर गंभीर.........
चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने खुद कश्मीरियों के लिए नत्थी वीजा के मामले को उठाया और सुझाया कि दोनों देशों के अधिकारियों को इस मुद्दे को सुलझाने के लिए गहराई से विचार विमर्श करना चाहिए। वेन ने कहा कि ब्रह्मपुत्र नदी पर बनाये जा रहे बांध निचले इलाकों में रहने वाले लोगों के हितों को प्रभावित करने के लिए नहीं डिजाइन किये गये।

100 अरब डॉलर के व्यापार का लक्ष्य......
भारत और चीन ने 2015 तक द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है और व्यापार असंतुलन को कम करने के लिए चीनी बाजार में भारतीय निर्यात को बढावा देने के उपायों पर सहमति जताई है। दोनों पक्षों ने द्विपक्षीय व्यापार एवं निवेश संबंधों के प्रगाढ़ होने पर संतोष जताते हुए व्यापार तथा आर्थिक सहयोग को संतुलित करने पर सहमति व्यक्त की। भारत और चीन के बीच इस वर्ष द्विपक्षीय व्यापार 60 अरब डॉलर पहुंच जाने का अनुमान है। औषधि क्षेत्र तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आदान प्रदान तथा सहयोग बढाने और कृषि उत्पादों पर बातचीत जल्दी पूरी करने पर भी जोर दिया गया है। इसमें चीन के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय व्यापार मेलों में भारतीय कंपनियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की बात भी कही गई है।

दोनों देशों के बीच छह समझौते.........
बैठक के बाद दानों पक्षों ने 6 समझौतों पर हस्ताक्षर किए। पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी के अलावा दोनों पक्षों ने दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों में जलप्रवार के आंकड़ों के आदान प्रदान, मीडिया और सांस्कृतिक क्षेत्र में पारस्परिक सम्पर्क बढाने की व्यवस्था करने पर सहमत हुए है। इसके अलावा दोनों के बीच दो समझौते बैंकिंग क्षेत्र में सहयोग से संबंधित हैं। ये समझौते क्रमशः भारतीय रिजर्व बैंक और चाइनीज बैंक नियामक आयोग तथा भारत के निर्यात आयात बैंक (एक्जिम बैंक) और चीन के चाइनीज विकास बैंक के बीच हुए हैं।

चीन ने कहा ‘भारत महान पड़ोसी’........
चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने सकारात्मक बोल बोलते हुए भारत की ‘महान पड़ोसी’ के रूप में प्रशंसा की और विश्वास व्यक्त किया कि उनकी यात्रा के दौरान दोनों देश ‘महत्वपूर्ण रणनीतिक आम सहमति’ पर पहुंचेंगे तथा द्विपक्षीय संबंध ‘नई ऊंचाइयों’ पर जाएंगे। यहां राष्ट्रपति भवन में समारोहपूर्ण स्वागत के बाद वेन ने संवाददाताओं से कहा कि मुझे उम्मीद है कि मेरी यात्रा विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को व्यापक करने में मदद करेगी और हमारी मित्रता तथा सहयोग को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में वेन ने कहा कि चीन और भारत के पास अब सहयोग विस्तारित करने तथा समान विकास लक्ष्यों को हासिल करने के अच्छे अवसर हैं।
सीमा विवाद........
माओत्सेतुंग ने चीन के विस्तार से संबंधित वसीयत में लिखा है कि तिब्बत उस हाथ की हथेली है जिसकी पांच उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और नेफा (वर्तमान अरुणाचल प्रदेश) हैं। इन सभी इलाकों को आजाद करके चीन में शामिल करना आवश्यक है। अब चीनी नेतृत्व इस सपने को साकार करने की कवायद में लगा है। अक्टूबर, 1949 में साम्यवादी क्रांति के बाद चीन की नई सरकार ने तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया। वर्तमान में भारत और चीन के बीच संपूर्ण सीमा लगभग करीब 4000 किलोमीटर लंबी है। 1959 में चीन की ओर से तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र लिखा गया, जिसमें कहा गया कि चीन की किसी सरकार ने मैकमोहन लाइन को वैध नहीं माना है। इसके पीछे मकसद तिब्बत को हड़पना था। 1914 के शिमला सम्मेलन में मैकमोहन लाइन को भारत और चीन के बीच सीमारेखा माना गया था।

अरुणाचल प्रदेश/अक्साई चीन.......
चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके को दक्षिणी तिब्बत का नाम दिया है। वह अरुणाचल प्रदेश को चीन के नक्शे में दिखाता है। यही वजह है कि वह अरुणाचल प्रदेश केलोगों को वीजा नहीं देता है। भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अक्साई चिन के 38 हजार किमी. हिस्से पर चीन ने अवैध कब्जा जमा रखा है। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का तकरीबन 5 हजार वर्ग किमी. हिस्सा भी विवादित है। इसे 1963 में पाकिस्तान ने चीन को दे दिया था।

सिकिक्म.......
2005 तक चीन सिक्किम को भारत के अंग की बजाय एक स्वतंत्र देश मानता था। लेकिन इस वर्ष वह इसे भारत का हिस्सा मानने को तैयार हो गया। लेकिन चीन प्रायः सिक्किम में सीमा (वास्तविक नियंत्रण रेखा) का उल्लंघन करता रहा है।
सीमा विवाद को हल करने के लिए दोनों देशों के बीच 1980 से विचार-विमर्श का दौर चालू है। 1993 और 1996 में वास्तविक नियंत्रण रेखा और सीमा पर शांति बरकरार रखने के लिए दो महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। 

यू.एन.ओ. का अमेरिकीकरण.......

Does the US unofficially own the United Nations? Vote & Comment



संयुक्त राष्ट्र (यू.एन.ओ.) एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार, और विश्व शांति के लिए कार्यरत है. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 24अक्टूबर 1945को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य मे फ़िर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिकाफ़्रांसरूसचीन, औरसंयुक्त राजशाही) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत अहम देश थे।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र मे 193 देश है, विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देश। इस संस्था की संरचन में आम सभासुरक्षा परिषदआर्थिक व सामाजिक परिषदसचिवालय, और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सम्मलित हैं !

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1929 में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था. राष्ट्र संघ काफ़ी हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शांति संभालने के लिए तैनात कर सकता है ।

सैन फ्रैंसिसको की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन
संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्बयुद्ध के समाप्त होने के पहले उभरे थे । द्वितीय भिश्व युद्ध मे विजयी होने वाले देशों ने मिलकर कोशिश की कि वे इस संस्था की संरचन, सदस्यता, आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पाए ।
24 अप्रैल 1945 को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहां सारे 40 उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्रिय संविधा पर हस्ताक्षर किया । पोलैंड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं थी, पर उसके हस्ताक्षर के लिए खास जगह रखी गई थी और बाद में पोलैंड ने भी हस्ताक्षर कर दिया । सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र की अस्तित्व हुई ।
सद्स्य....
2012 तक संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्य देश है । विश्व के लगभग सारी मान्यता प्राप्त देश सदस्य है । कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसकी स्थिति चीन को 1971 में दे दी गई थी), वैटिकनफ़िलिस्तीन (जिसको दर्शक की स्थिति का सदस्य माना जा सक्ता है), तथा और कुछ देश । सदस्य देश है मॉंटेनीग्रो, जिसको 28 जून2006 को सदस्य बनाया गया तथा सबसे नए सद्स्य देश सूडान ने  2011 में सदस्यता गृहण की !
मुख्यालय .....

संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय
संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पचासी लाख डॉलर के लिए खरीदी भूसंपत्ति पर स्थापित है । इस इमारत की स्थापना का प्रबंध एक अंतर्राष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ । इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएं जनीवाकोपनहेगन आदि में भी है ।
यह संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र तो नहीं हैं, परंतु उनको काफ़ी स्वतंत्रताएं दी जाती है ।
भाषाएँ.....
संयुक्त राष्ट्र ने 6 भाषाओं को "राज भाषा" स्वीकृत किया है (अरबीचीनीअंग्रेज़ीफ़्रांसीसीरूसी और स्पेनी), परंतु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी) ।
स्थापना के समय, केवल चार राज भाषाएं स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी) और 1973 में अरबी और स्पेनी को भी संमिलित किया गया । इन भाषाओं के बारे में काफ़ी विवाद उठता है । कुछ लोगों का मानना है कि राज भाषाओं को 6 से एक (अंग्रेज़ी) तक घटाना चाहिए, परंतु इनके विरोध है बे जो मानते है कि राज भाषाओं को बढ़ाना चाहिए । इन लोगों में से काफ़ी का मानना है कि हिंदी को संमिलित करना आवश्यक है ।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेज़ी की जगह ब्रिटिश अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है । 1971 तक, जब तक संयुक्त राष्ट्र तईवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था, चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था । जब तईवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारंभ किया !
उदेश्य...
संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैं युद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना । सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है । इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई ।

मानव अधिकार......

द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था । ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, 1948 में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया । यह अबंधनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र समर्थन करने की कोशिश करेगी ।
15 मार्च 2006 को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की ।

आज मानव अधिकारों के संबंध में सात संघ निकाय स्थापित है । यह सात निकाय हैं:
  1. मानव अधिकार संसद
  2. आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद
  3. जातीय भेदबाव निष्कासन संसद
  4. नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद
  5. यातना विरुद्ध संसद
  6. बच्चों के अधिकारों का संसद
  7. प्रवासी कर्मचारी संसद

शांतिरक्षा.....

संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बंद है ताकि वह शांति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें । यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शांतिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है । विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शांतिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल । संयुक्त राष्ट्र स्वतंत्र सेना नहीं रखती है । शांतिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है ।
संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945 - 1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शांतिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था ।
वर्तमान में यू.एन.ओ.....
कहने को तो अमेरिका लोकतंत्र का सबसे बड़ा पैरोकार है लेकिन वह भी वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) के महत्पूर्ण घटक सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की पूर्ण स्थापना के लिए कुछ भी नहीं कर रहा है। यूएनओ को वैश्विक सत्ता कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि भारत सहित दुनिया के मात्र 193 देशों को ही यूएनओ की सदस्यता प्राप्त है, फिर भी इसकी सत्ता को वैश्विक सत्ता कहना ज्यादा समीचीन होगा।
वर्तमान में सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या 15 है। इनमें से पांच- अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन; स्थाई सदस्य हैं, जबकि 10 देशों की सदस्यता अस्थाई है। इन अस्थाई सदस्यों में भारत भी शामिल है। अस्थाई सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष का होता है। स्थाई सदस्यों को वीटो का अधिकार प्राप्त है। यह वीटो अधिकार ही सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की स्थापना की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। क्या आप कुछ सदस्यों को कुछ विशेष अधिकार देकर लोकतांत्रिक सत्ता स्थापित कर सकते हैं, यह कदापि संभव नहीं है।
आखिर सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की पूर्ण-रूपेण स्थापना के लिए अमेरिका कोई पहल क्यों नहीं करता? क्या वह सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देशों को मिले वीटो के अधिकार को बनाए रखना चाहता है और शेष अस्थाई सदस्य देशों को अस्थाई के नाम पर इस अधिकार से दूर रखना चाहता है? क्या यही अमेरिका की लोकतंत्रिक सोच है। हालांकि यह पहल चीन से करना बेमानी है क्योंकि उसकी सोच गैर-लोकतांत्रिक है। अमेरिका को यह महत्वपूर्ण पहल इसलिए भी करना चाहिए क्योंकि वह सोवियत संघ के विघटन के बाद एक-ध्रुवीय विश्व का इकलौता नेता है।
भारत भी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए अभियान चलाए हुए है। इससे उसको क्या हासिल होगा। कुछ विशेष सहूलियत मिल सकती है। महासभा के सदस्य देशों या विश्व के अन्य देशों के लिए वैश्विक नीति-निर्माण की दिशा में मत देने का अधिकार मिल सकता है, लेकिन इससे क्या वह संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्यों में से पांच देशों- अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन, को छोड़कर शेष 188 देशों का स्वाभाविक नेता बना रह सकता है। सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के बजाए भारत को सभी देशों के लिए समान अधिकार की सदस्यता के लिए अभियान चलाना चाहिए। क्योंकि यही प्रयास संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्व के सभी देशों में लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने की दिशा में अहम सिद्ध होगी।

पिछले दो दशकों में भारतीय राजनीति का स्वरूप ..........




अगर मार्क्स का यह कहना सही था कि ‘राजनीति, अर्थतंत्र का संकेंद्रित रूप है’ तो मानना पड़ेगा कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय राजनीति का भी ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ काफी हद तक बदल गया है.
 यह बदलाव सिर्फ नेताओं, पार्टियों और मुद्दों के स्तर पर ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के चरित्र और अंतर्वस्तु के मामले भी साफ देखा जा सकता है. सच पूछिए तो इस बदलाव की गहराई और गति इतनी तेज है कि कई मामलों में यह पहचानना मुश्किल होने लगता है कि क्या यही भारतीय राजनीति है?

भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर जैसे-जैसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का नियंत्रण बढ़ता गया है, तेज रफ़्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्था से निकलनेवाली समृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सिमटती गई है और पहले से हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे गरीबों, किसानों, आदिवासियों और दलितों को और हाशिए पर धकेल दिया गया है, वैसे-वैसे राजनीति पर भी अमीरों का दबदबा बढ़ता गया है और उसके साथ राजनीति की मुख्यधारा से गरीब और कमजोर वर्ग और उनके मुद्दे बाहर होते गए हैं. आश्चर्य नहीं कि संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
 यही नहीं, आज राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो सीधे-सीधे किसी न किसी बड़े कारपोरेट समूह याके मुखिया हैं या उसके प्रमुख अधिकारी रहे हैं या सीधे तौर पर जुड़े रहे हैं. बात यहीं नहीं खत्म नहीं होती. राजनीति पर बड़ी पूंजी का नियंत्रण किस हद तक बढ़ गया है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सरकार में अपने समर्थक मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति के लिए कारपोरेट समूह जमकर लाबीइंग कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं.
 ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें देशी-विदेशी कारपोरेट समूह केन्द्र और राज्यों में अपनी पसंद के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें अनुकूल मंत्रालय दिलवाने में कामयाब हुए हैं.
 यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में सरकार चाहे किसी भी पार्टी या गठबंधन की रही हो लेकिन इन कारपोरेट समूहों के समर्थक मंत्रियों और अफसरों की तादाद बढ़ती ही गई है. असल में, यह बदलाव एक गहरी राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रिया के तहत हुआ है. इस प्रक्रिया को उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नव उदारवादी वैचारिकी निर्देशित कर रही है जो न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य (सरकार) की सीमित भूमिका की वकालत करती है बल्कि आर्थिक नीति निर्माण की प्रक्रिया को राजनीति से मुक्त रखने पर जोर देती है.

याद रहे, उदारीकरण के शुरूआती वर्षों में उसके पैरोकारों ने सबसे अधिक जोर इस बात पर दिया था कि अर्थनीति को राजनीति से अलग रखा जाना चाहिए.

 एक मायने में यह अर्थनीति को राजनीति से स्वतंत्र करने की मांग थी. इस मांग के बहुत गहरे निहितार्थ थे. उन्हें समझना बहुत जरूरी है. अगर बिना किसी लाग-लपेट के कहा जाए तो अर्थनीति को राजनीति से अलग रखने की मांग का अर्थ यह है कि उसे आम लोगों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग रखने की मांग की जा रही है.
 आखिर राजनीति क्या है? राजनीति और कुछ नहीं बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है. ऐसे में, लोगों की जरूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अर्थनीति का राजनीति के मातहत होना जरूरी है.
 जाहिर है कि अगर अर्थनीति, राजनीति के नियंत्रण से बाहर होगी तो वह लोगों के नियंत्रण से भी बाहर होगी. उदारीकरण के पिछले दो दशकों में यही हुआ है. इस दौर की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि अर्थनीति लगभग पूरी तरह से राजनीति के नियंत्रण से बाहर हो गई है.
 इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पिछले दो दशकों में अलग-अलग रंगों और झंडों की पार्टियों या गठबंधनों की सरकारें आईं लेकिन उनकी अर्थनीति में कोई खास फर्क नहीं आया. सभी ने उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया है.

 यही नहीं, इस दौर में सरकार और नीति निर्माण प्रक्रिया में न सिर्फ बड़ी पूंजी का सीधा हस्तक्षेप बढ़ा है बल्कि उसकी सीधी भागीदारी को एक संस्थाबद्ध मान्यता भी दी गई है. याद रहे, एन.डी.ए के कार्यकाल में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन किया गया जिसमें लगभग सभी बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों के मालिकों को शामिल किया गया.
 यही नहीं, कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए बड़े उद्योगपतियों की अध्यक्षता में कार्यदल गठित किये गए और उनके सुझावों के आधारों पर नीतियां निर्धारित की गईं. एन.डी.ए की विदाई के बाद भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है.
 यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि इस प्रक्रिया में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी ने न सिर्फ अर्थनीति को राजनीति से हाइजैक कर लिया है बल्कि राजनीति को अपना चाकर बना लिया है. इस पूरी प्रक्रिया का चरम संसद द्वारा पारित वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून है जिसके तहत बजट में वित्तीय घाटे यानि सरकारी खर्च की सीमा निर्धारित कर दी गई. यह एक तरह से राजनीति के हाथ बांधने जैसी बात है.

 राजनेता, पार्टियां और राजनीति अगर गरीबों और कमजोर वर्गों के कल्याण पर खर्च करना भी चाहें तो इस कानून के कारण नहीं कर सकते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि यह कानून विश्व बैंक-मुद्रा कोष के निर्देश और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के दबाव में लाया गया था और सरकार किसी भी रंग और झंडे की हो, वह उसका आँख मूंदकर पालन करती है.
 आश्चर्य नहीं कि राजनीति को आज देश में 80 फीसदी गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की चिंता नहीं रह गई है. वह अमीरों और बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने और उनकी रक्षा में जुटी हुई है. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के जरिये 22 लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़ रूपये की छूट दी गई है. लेकिन जब भी गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा और उन्हें भोजन का अधिकार देने की बात होती है, राजनीति और बड़ी पूंजी को सब्सिडी और वित्तीय घाटे की चिंता सताने लगती है. हालांकि इसमें सिर्फ 75 हजार से अधिकतम एक लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है लेकिन हंगामा ऐसा होता है कि जैसे पूरा खजाना लुट रहा हो.

 साफ है कि राजनीति और राजनेता अब गाँधी जी की वह जंत्री भूल चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कोई भी फैसला करने से पहले यह जरूर सोचो कि उससे सबसे गरीब भारतीय की आंख के आंसू पोंछने में कितनी मदद मिलेगी.’ कारण यह कि खुद राजनीति की आंख का पानी सूख चुका है और उसने बड़ी पूंजी नियंत्रित अर्थतंत्र के आगे घुटने टेक दिए हैं.