Monday 15 July 2013

जेम्स मिल : उपयोगितावादी विचारक



स्का॓टिश इतिहासकार, अर्थशास्त्री एवं दर्शनशास्त्र के परम विद्वान जेम्स मिल का जन्म 6 अप्रैल 1773 को नार्थवाटर ब्रिज, स्का॓टलेंड में हुआ था. उसके पिता का नाम भी जेम्स मिल ही था. उसका परिवार गरीब था. पिता मोची का काम करते थे. जबकि मां इसबेल फेंटन का संबंध एक संपन्न किसान परिवार से था. वह स्वयं भी विदुषी एवं दूरदर्शी महिला थीं. बालक जेम्स को मां के ही संस्कार अधिक मिले. परिणाम यह हुआ कि उसकी बचपन में अच्छी शिक्षा-दीक्षा हुई. मां की पहल पर ही आगे की शिक्षा कि लिए जेम्स को चर्च द्वारा संचालित धार्मिक पाठशाला में भर्ती करा दिया गया. वहां से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वह मेंट्रोस चला गया; जहां से उसने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. उच्चशिक्षा के लिए लगभग सतरह वर्ष की अवस्था, यानी 1790 में जेम्स एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में भर्ती हो गया. दाखिले के समय जेम्स को कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ा. कारण विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु तेरह-चौदह वर्ष तक सीमित थी. जेम्स को दाखिला दिलाने में सर जा॓न स्टुअर्ट की प्रेरणा और प्रयास दोनों ही काम आए. इस कारण वह उनका सदैव ऋणी बना रहा. यहां तक कि उसने अपने पुत्र का नामकरण भी सर जा॓न स्टुअर्ट की प्रेरणा पर, उने प्रति अपना स्नेह और सम्मान को व्यक्त करने के लिए जा॓न स्टुअर्ट मिल रखा.

एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान जेम्स ने स्वयं को मेधावी विद्यार्थी सिद्ध करते हुए ग्रीक साहित्य का उच्च अध्ययन किया. विशेषरूप से प्लेटो के दर्शन का. एडिनबर्ग में रहते हुए वह उस समय के प्रख्यात दार्शनिक डुगा॓ल्ड स्टीवर्ट (Dugald Stewart) के संपर्क में आया जो उस समय स्का॓टिश पुनर्जागरण के आंदोलन के बेहतरीन व्याख्याकार थे. इसी दौरान उसने बैंथम की पुस्तकों का भी अध्ययन किया. उस समय उसको लगा कि उसका मानसिक प्रस्फुटन हो रहा है. बैंथम के विचारों ने उसको बहुत प्रभावित किया. विशेषकर उसकी सुखवादी विचारधारा, जिसका प्रभाव जेम्स के आगामी लेखन पर भी बना रहा.

अध्ययन के पश्चात जीविका का प्रश्न खड़ा हुआ तो जेम्स को नौकरी की तलाश में जुटना पड़ा. सन 1790 से 1802 तक वह संघर्ष करता रहा. इस बीच चर्च की मामूली नौकरी तथा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हुए उसने 1794 में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की. निरंतर अध्ययन में रहते हुए उसने दर्शन, इतिहास तथा राजनीति का ज्ञान प्राप्त कर लिया. इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ा, साथ ही सुप्त महत्त्वाकांक्षाएं भी. उसके पश्चात जेम्स को लगा कि स्का॓टलेंड में तरक्की के भरपूर अवसर नहीं हैं, तो वह 1802 में वह सर जाॅन स्टुअर्ट के साथ लंदन के लिए रवाना हो गया. जहां जेम्स को उसका पसंदीदा काम भी मिल गया. सन 1803 में वह एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका Literary Journal का संपादक नियुक्त हो गया, जिसपर रहते हुए उसने अनेक शोधपरक आलेख लिखे. परिणामतः पूरे यूरोप में उसकी विद्वता की धाक जमने लगी. इस पत्रिका की शुरुआत 1803 में हुई थी. जेम्स के नेतृत्व में पत्रिका की प्रतिष्ठा में खूब वृद्धि हुई. किंतु 1806 में पत्रिका के अचानक बंद होने से जेम्स के आगे पुनः जीविका का संकट पैदा हो गया. मगर तब तक वह पर्याप्त आत्मविश्वास अर्जित कर चुका था. इस कारण उसने भविष्य में केवल लेखन के सहारे जीने का निर्णय लिया.

सन 1805 में मिल ने एक विधवा स्त्री की बेटी हैरिएट बुरा॓ से विवाह किया. जिससे अगले ही वर्ष उसके पुत्र जा॓न स्टुअर्ट मिल का जन्म हुआ. लगभग उसी वर्ष मिल ने अपनी महत्त्वाकांक्षी पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ पर काम करना प्रारंभ किया जिसे पूरा होने में बारह वर्ष लगे. 1808 में वह बैंथम और डेविड रिकार्डों के संपर्क में आया. दोनों ने ही उसे गहरे तक प्रभावित किया. कुछ ही समय में तीनों गाढ़े मित्र गए. रिकार्डो ने मिल का परिचय अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों से कराया. मिल अभी तक बैंथम के सामाजिक दर्शन से प्रभावित था. लेकिन रिकार्डो के संपर्क में आने के बाद उसकी अर्थशास्त्रीय लेखन में भी रुचि बढ़ने लगी. आश्चर्यजनक रूप में मानवीय ज्ञान की ये दोनों ही धाराएं, उसके मस्तिष्क में अपनी स्वतंत्र सत्ता को बनाए रहीं. बैंथम और रिकार्डो से प्रभावित होने के बावजूद मिल का अपना स्वतंत्र चिंतन भी था. अपने किंचित मतभेदों के कारण, वह न तो बैंथम के सुखवाद का अर्थशास्त्र से तालमेल बिठा पाया, न ही वह सुखवादियों के मूलमंत्र ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ के आधार पर सरकार की मुद्रा एवं कराधान संबंधी नीतियों की समीक्षा कर पाने में असमर्थ रहा.

जो भी हो, मिल को बैंथम की विचारधारा ने बेहद प्रभावित किया था. इसका परिणाम यह हुआ कि आगे कई वर्षों तक वह बैंथम का सहयोगी और समर्थक बना रहा. उसने अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बैंथम के विचारों को प्रचारित कराने में लगा दिया. मिल की रचनात्मकता का अगला चरण 1811 में देखने को मिलता है, जब उसने विलियम एलेन के सहयोग से एक पत्रिका ‘फिलिंथ्रोपिस्ट’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. पत्रिका में मिल ने शिक्षा, प्रेस की स्वाधीनता, मानव-कल्याण तथा कैदियों की समस्याओं तथा उनकी अनुशासनात्मकता को लेकर कई महत्त्वपूर्ण लेख लिखे. मिल से पहले बैंथम भी कैदियों की समस्याओं पर विचार तथा कारागार की अमानवीय परिस्थितियों की आलोचना कर चुका था. कह सकते हैं कि जेलों को अधिकाधिक मानवीय बनाने के पीछे मिल पर बैंथम का ही प्रभाव था. इस दौरान उसे सुखवाद के विचार को लेकर भी कई आलेख पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे. आगे चलकर वे निबंध ‘ब्रिटैनिका एन्साक्लोपीडिया’ के पांचवे खंड में भी प्रकाशित हुए. जिससे जनमानस के बीच मिल की छवि सुखवाद के व्याख्याकार के रूप में बनती चली गई.

सन 1818 में ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ पुस्तक के प्रकाशित होने के साथ ही मिल की गिनती अपने समय के प्रमुख विद्वानों में होने लगी. इस पुस्तक को भारी सफलता प्राप्त हुई. हालांकि इसके कारण उसकी आलोचना भी खूब हुई. इसलिए कि भारत को लेकर मिल का सारा ज्ञान केवल पुस्तकों, अखबारी समाचारों तथा उन अंग्रेज अधिकारियों की टिप्पणियों तक सीमित था, जो या तो भारत में ब्रिटिश सरकार के लिए कार्य कर चुके थे, अथवा किसी न किसी रूप में उससे संबद्ध थे. जाहिर है कि भारत को लेकर उनके विवरण पूर्वाग्रह से भरे और एकपक्षीय थे. इस लिए मिल ने अपनी पुस्तक में एक तरह से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का बचाव ही किया था. उन दिनों ब्रिटिश सरकार अपनी उपनिवेशवादी नीतियों के कारण लोगों की आलोचना झेल रही थी. मिल की पुस्तक उसके उपनिवेशवादी सोच को मान्यता प्रदान करती थी. इसलिए मिल को उसका लाभ भी मिला. पुस्तक लिखने के साथ ही मिल को इंडिया हाउस में नियुक्ति मिल गई. आगे भी विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहते हुए उसे उसने खूब प्रतिष्ठा एवं मान-सम्मान अर्जित किया.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, मिल बैंथम के साथ-साथ रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी चिंतन से भी प्रभावित था. अर्थशास्त्र से उसकी पहली असली मुठभेड़ ‘कार्न ला॓’(Corn Laws) के औचित्य को लेकर लिए गए एक लेख के दौरान हुई. थोड़ा विषयांतर में जाते हुए हम बता दें कि ‘कार्न ला॓’ की व्यवस्था यूरोप में यद्यपि बारहवीं शताब्दी के दौरान की गई थी. इसका विकट रूप सन 1815 में नेपोलियन युद्ध के पश्चात उस समय देखने को मिला जब कृषि-क्षेत्र को घाटे से उबारने के लिए अनाज के आयात पर रोक लगा दी गई. इस व्यवस्था का उद्देश्य किसानों को मंदी की मार से बचाना था. माॅल्थस जैसा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री कार्न ला॓ के पक्ष में था. अनाज पर लगाया गया प्रतिबंध एक सीमा तक तो कारगर सिद्ध हुआ. इसने किसानों को मंदी की मार से उबारने में बड़ी मदद की, किंतु जैसे-जैसे किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरती गई, इससे होने वाली समस्याओं में भी सतत वृद्धि होने लगी. कारण, कानून के प्रभाव से किसानों की आय बढ़ी थी, साथ ही उनका प्रभाव भी. अब वे इस अवस्था में पहुंच चुके थे कि अनाज का मनमाना भाव तय करने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें अथवा अनुकूल समय आने पर उसको महंगे दामों पर बेच सकें. इसका समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ा. दाम बढ़ने से गरीबों की मुश्किलें बढ़ने लगीं. दूसरी ओर चीजों के मूल्य में भी उसी अनुपात में तेजी आई. परिणामतः अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी और ‘कार्न ला॓’ के विरुद्ध माहौल बनने लगा.

1804 में ‘का॓र्न ला॓’ की आलोचना करते हुए जेम्स मिल ने अनाज के आयात पर लगे सभी प्रतिबंध हटा लेने की जनता की मांग का समर्थन किया. उसने पर्याप्त तर्क देते हुए मा॓ल्थस की आलोचना भी की जो उस कानून के पक्ष में था. उससे अगले ही लेख में उसने का॓बेट तथा स्पेंस(Cobbett & Spence) के उस आलेख की पर्याप्त तर्क सहित आलोचना की, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि भूमि, न कि उद्योग, ही वास्तविक राष्ट्रीय संपत्ति है. कि राष्ट्रों के बीच व्यापारिक संबंध घाटे के सौदे रहे हैं. कि कारण जनता की जमाराशि राष्ट्र पर किसी प्रकार का भार नहीं है और लगाए गए कर उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करते हैं. यह भी कि संकट का वास्तविक कारण जमाखोरों की देन है. मिल का यह भी कहना था कि किसी भी राष्ट्र की कुल सालाना बिक्री और सालाना खरीद में सदैव अंतर होता है. अतः व्यापार में स्थायित्व के लिए किसी भी वस्तु की अतिरिक्त आपूर्ति को आवश्यक रूप से अन्य किसी वस्तु की अतिरिक्त मांग द्वारा संतुलित रखना चाहिए.

सन 1808 में अपनी पत्रिका Commerce Defended के एक लेख में उसने साफ किया कि—

‘किसी भी राष्ट्र के पास कोई एक वस्तु उसकी आवश्यकता से बहुत अधिक हो सकती है, यद्यपि वह अपनी विश्व-भर में कुल मांग से अधिक कभी नहीं हो सकती. ऐसी वस्तु की अतिरिक्त मात्र को जरूरत के स्थान पर आसानी-से ले जाना संभव है, किंतु ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं कि वहां से कोई और आवश्यक वस्तु उचित मात्र में उपलब्ध न हो सके. अतः सवाल उठता है कि उस समय क्या किया जाए जाए जब बाजार में कोई वस्तु अतिरिक्त मात्रा में मौजूद हो…उस अवस्था में उस वस्तु के उत्पादन में लगे संसाधनों का उपयोग, संतुलन की अवस्था तक, उस वस्तु के निर्माण के लिए करना उचित होगा, जिसका कि अभाव बना हुआ है. संतुलन की स्थिति में बाजार में न तो कोई वस्तु अपनी मांग से अधिक उपलब्ध होगी, न ही किसी वस्तु का अभाव हो सकेगा.’

मिल ने रिकार्डो को उसकी अर्थशास्त्र संबंधी टिप्पणियों को प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया. जिसके कारण आगे चलकर उसे ब्रिटिश संसद की सदस्यता से सम्मानित किया गया. 1821 में उसने लंदन में ‘पा॓लिटिकल इकाना॓मी क्लब’ की स्थापना में मदद की जो आगे चलकर रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी विचारों तथा बैंथम के सुधारवाद का प्रमुख विमर्श-स्थल सिद्ध हुआ. इसी वर्ष मिल की एक और विशिष्ट कृति Elements of Political Economy प्रकाशित हुई, जिसमें उसने रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी विचारों की विस्तार सहित विवेचना की गई है. यह पुस्तक कुछ ही समय में रिकार्डो के विचारों को समझने का मुख्य माध्यम बन गई. इस पुस्तक को प्र्रकाशन के साथ ही खूब लोकप्रियता मिली. केवल तीन सालों में पुस्तक का तीसरा संस्करण बाजार में आ गया. सन 1831 से 1833 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रवक्ता के पद पर रहते हुए मिल ने कई कानूनी मामलों में कंपनी की मदद की. 1834 में ‘लंदन रिव्यू’ में उसने चर्च के विधान में सुधार की संभावनाओं पर केंद्रित एक लेख लिखा, जिसने खूब चर्चा प्राप्त की. जिससे उसकी गिनती उस समय के प्रसिद्ध सुधारवादियों में होने लगी.

1836 में निधन होने तक वह लगातार लेखन करता रहा. हालांकि उस समय तक उसके दोनों फेफड़े क्षतिग्रस्त हो चुके थे. 23 जून 1836 को लंबी बीमारी के पश्चात उसका निधन हो गया. उसका लेखन विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों पर मौलिक विचारात्मक टिप्पणियों से भरा पड़ा है, जिससे उसकी विलक्षणता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. मिल की अंतिम पुस्तक Fragment on Mackintosh मृत्यु से मात्र एक वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी. हालांकि उसे उसकी बाकी पुस्तकों जितनी प्रशंसा नहीं मिल सकी. लेकिन वह अपने विचारों से आने वाले विचारकों को प्रभावित करने में सक्षम रहा, जिनमें कार्ल मार्क्स, जान स्टुअर्ट मिल आदि शामिल थे.

वैचारिकी

एक बेहद साधारण परिवार में जन्मे, कठिनाइयों में पले, बचपन से ही मेधावी मिल अपने अध्वसाय से जो ख्याति अर्जित की, उसके कारण उसकी गिनती विश्व के उन महान दार्शनिकों में होती है, जो मानवमात्र के सुख की चिंता करते थे. जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन रचनात्मक लेखन को समर्पित किया था. जो मात्र अपनी प्रतिभा के बल पर एक सामान्य परिवार से आगे बढ़कर समाज में अपना खास स्थान हासिल कर सके और जिनके कारण समाज में सत्य एवं नैतिकता अपना सुरक्षित स्थान बनाए रख सके हैं. जेम्स मिल ने भी अपनी अद्वितीय मेधा के दम पर बौद्धिक जगत में अपने लिए विशिष्ट स्थान बनाया.

विलक्षण प्रतिभा के धनी मिल ने दर्शनशास्त्र के अध्ययन की शुरुआत प्लेटो के दर्शन से की. उसने विद्यार्थीकाल में प्लेटो की दर्शन की समालोचना करने वाले अनेक निबंध लिखे. जिसके कारण उसको प्लटो के दर्शन का आधिकारिक विद्वान माना गया. यही नहीं उसने अध्ययन के दौरान ही ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं का स्तरीय ज्ञान प्राप्त किया तथा उनमें सृजनात्मक लेखन की छाप छोड़ी. अपनी युवा अवस्था के दिनों में वह बैंथम के विचारों के संपर्क में आया और उसके सुखवाद से प्रेरणा लेकर उसके विचार को आगे विस्तार दिया. मिल उच्च कोटि का विद्वान, इतिहासकार, साहित्यकार, राजनेता एवं दार्शनिक था. उसका सारा साहित्य मौलिकता की श्रेणी में आता है. रिर्काडो तथा बैंथम से प्रेरणा लेते हुए उसने सुखवाद के विचार को मान्यता दी तथा उसके प्रचार के लिए अनेक पुस्तकें तथा लेख आदि लिखे, जिन्हें विद्वानांे की भरपूर सराहना प्राप्त हुई. उसका लेखन अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि क्षेत्रें में फैला हुआ है. कुछ विद्वानों को उसके विचारों में यत्र-तत्र विरोधाभास भी नजर आता है, किंतु यह कोई अनोखी बात नहीं है. इस प्रकार के विरोधाभास तो प्रायः सभी विलक्षण प्रतिभा-संपन्नों के साथ होते रहे हैं.

इंग्लैंड की उपनिवेशवादी राजनीति को स्थिर बनाने एवं उसको वैचारिक-बौद्धिक समर्थन देने में जितना अधिक योगदान जेम्स मिल का रहा, उतना शायद ही किसी और विद्वान लेखक-साहित्यकार का रहा हो. इसका उसको लाभ भी मिला. ब्रिटिश सरकार ने उसको उच्च पद एवं विविध सम्मान से उपकृत किया. हालांकि ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों का समर्थन करने के लिए उसको आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा था. उसके आलोचकों की बात में दम भी है. क्योंकि कई स्थान पर वह ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों का मूक समर्थक नजर आता है. जिससे उसके आलोचकों को उसकी निष्ठा पर संदेह होने लगता है.

मिल ने भारत को लेकर अपनी पुस्तक में एक स्थान पर चैंका देने वाला उल्लेख किया कि—

‘‘ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को सभ्य बनाने, उसका नागरीकरण करने में मदद की थी… अंग्रेजों के आने से पहले भारत एक बर्बर युग से बाहर आने के लिए छटपटा रहा था.’ हालांकि बाद में मिल ने अपने ही कथन का उलट करते हुए भारत में ब्रिटिश राज को ‘समाज के संपन्न तबके के लिए बाहरी मदद उपलब्ध कराने वाला व्यापक तंत्र’’ कहकर ब्रिटिश राज्य की वास्तविक खामियों की ओर इशारा भी किया था.

एक ओर व्यक्ति-स्वातंत्रय और जनवादी विचारधारा का पक्ष लेना तथा दूसरी ओर एक औपनिवेशिक सत्ता के समर्थन में भारी-भरकम तर्क गढ़ना, ये जेम्स मिल के जीवन के अंतर्विरोध हैं. लेकिन ऐसे अंतर्विरोधों से शायद ही कोई बच पाया हो. ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ नामक ग्रंथ से जेम्स मिल की इतिहास में रुचि जाहिर होती है. किंतु उसका योगदान केवल ऐतिहासिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है. सच में तो मिल का लेखन मानवीय स्वतंत्रता एवं समानता के लिए समर्पित था. उसने अपने लेखों तथा व्यक्तिगत प्रयासों से उदारवादी राजनेताओं को प्रभावित किया, जिसका फ्रांसिसी क्रांति पर व्यापक प्रभाव पड़ा. मिल की पुस्तक Elements of Political Economy(1821)’ में उसके उदारवादी विचारों की झलक देखी जा सकती है.

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, इतिहास मिल का प्रिय विषय था. मगर उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी. राजनीति और अर्थशास्त्र को लेकर उसने जो लेख लिखे उनकी भरपूर सराहना हुई. कई विश्वविद्यालयों ने उसको अपने पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया था. पुस्तक में सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता, उसके लक्ष्य और समस्याओं की गंभीर विवेचना की गई थी. उसमें मिल ने दर्शाने का प्रयास किया है कि जनसंख्या वृद्धि विकास की प्रमुख समस्याओं में से एक है. क्योंकि जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि होती है, उस अनुपात में संसाधनों का विकास नहीं हो पाता. उसने संसाधनों के अनियमित बंटवारे को भी विकास की समस्याओं से जोड़ा तथा माना कि किसी वस्तु की वास्तविक कीमत उसमें लगे श्रम के आधार पर आंकी जानी चाहिए, न कि उसके निर्माण में प्रयुक्त कच्चेमाल अथवा किसी ओर कारण से. पुस्तक में वस्तुतः डेविड रिकार्डो के विचारों को ही विस्तार दिया गया था. मिल ने उसमें राजनीति पर दिए गए अपने वक्तव्य संकलित किए गए हैं, जिनमें से एक लेख में जेम्स मिल ने जनसंख्या-वृद्धि और संसाधनों के अंतर्संबंध को स्पष्ट किया है. लेख में उसने एक स्थान पर लिखा है कि—

‘सामान्यतः, यदि बाकी सब लक्षण अपरिवर्तित हों और पूंजी एवं जनसंख्या वृद्धि का अनुपात एकसमान रहे तो मजदूरी में प्रभावी वृद्धि भी अपरिवर्तनीय बनी रहती हैं. यदि जनसंख्या की अपेक्षा पूंजीनिवेश में अध्कि वृद्धि हो तो मजदूर वर्ग की आय पर उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. परिणामतः औसत मजदूरी बढ़ने लगती है. यदि ये दोनों ही स्थितियां न हों और यदि पूंजीनिवेश अनुपात में वृद्धि होती है, तब मजदूरी में भी आनुपातिक वृद्धि होगी. लेकिन इसके विपरीत यदि जनसंख्या वृद्धि के सापेक्ष पूंजी अनुपात में गतिरोध है, यानी पूंजीनिवेश की मात्रा में ठहराव बना रहे तो निश्चित रूप से इसका असर मजदूरी पर पड़ेगा और वह तेजी से गिरने लगेगी.’

जेम्स मिल की कमी थी कि उसने अपने राजनीतिक दर्शन तथा आर्थिक विचारों में कभी समन्वय स्थापित करने की नहीं सोची. इतिहास में रुचि के कारण उसने ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ लिखा, जिसमें उसने निहित पूर्वग्रहों के कारण औपनिवेशिक ब्रिटिश राजनीति का समर्थन किया. तथापि समानांतर रूप से वह अर्थशास्त्र एवं एक अर्थविज्ञानी के रूप में कार्य करता रहा. निश्चित रूप से इसके पीछे रिकार्डो के साथ मैत्री एवं बैंथम की प्रेरणाएं भी थीं. दरअसल मिल का अर्थदर्शन रिकार्डो तथा सामाजिक दर्शन बैंथम के चिंतन का ही विस्तार है. वस्तुतः मिल अर्थशास्त्र के क्षेत्र में रिकार्डो का अनुयायी था. किंतु यह मिल ही था जिसने रिकार्डो को उसकी अर्थशास्त्र की पहली पुस्तक के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया था. यही नहीं, मिल के प्रयासों से ही रिकार्डो को ब्रिटिश संसद के लिए चुना गया था. बैंथम, जेम्स मिल तथा रिकार्डोे की तिकड़ी के संबंध के बारे में माना जाता है कि—

‘बैंथम मिल का नैतिक गुरु तथा मिल रिकार्डो का नैतिक गुरु था.’

आगे चलकर रिकार्डो ने भी ‘सुखवाद’ के सिद्धांत की अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्याख्या की. मिल का मानना था कि सरकार को जनजीवन में हस्तक्षेप की नीति से बचना चाहिए. उसके बदले उसको जनता के बीच से ही संसाधन जुटाकर उनपर कार्य होना चाहिए. इसके ठीक विपरीत अपने राजनीतिक चिंतन में वह आर्थिक रूप से विपन्नों को सरकारी संरक्षण दिए जाने की नीति का समर्थक था और मानता था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को संरक्षण प्रदान करने के लिए सरकार को अधिक से अधिक मदद करनी चाहिए.

जेम्स मिल ने भले ही कोई नया सिद्धांत नहीं गढ़ा हो, मगर बैंथम तथा रिकार्डो के विचारों को तार्किक ढंग से आगे ले जाने और उनकी आसान शब्दों में व्याख्या करने में उसका योगदान अविस्मरणीय है. उसका विश्वास था कि जब हम लोगों के समूह के साथ मिलकर कुछ करना चाहते हैं तो उस अवस्था में समूह के हित उसके अधिकांश सदस्यों की अधिकतम संतुष्टि के बराबर होते हैं. दूसरे शब्दों में एक लोकतांत्रिक संगठन में समूह के हितों के साथ-साथ उसके सदस्यों के हित भी समानरूप से सधते चले जाते हैं. एक कल्याणकारी समूह ऐसा ही सपना अपने सदस्यों को लेकर देखता है कि उसके किसी भी कर्तव्य से अधिक से अधिक सदस्य इकाइयों का भला हो सके. इस तरह मिल ने सामूहिक जीवन की विशिष्टताओं का पक्ष लेकर उसके माध्यम से समतावादी समाज की संकल्पना का ही विस्तार किया था.

अपने ग्रंथ ‘एलीमेंट्स आ॓फ पा॓लिटिकल इका॓नामी’ में रिकार्डो के तुलनात्मक लाभों के सिद्धांत का उपयोग करते हुए उसने गणितीय उदाहरण जुटाने की अपेक्षा तर्क का सहारा लिया है. उसका मानना था कि श्रमिक के ग्रहण करने की मात्र केवल उतनी होती है, जितनी वह पूंजी की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करता है. जबकि पूंजीपति का लाभ उसके द्वारा भूमि आदि संसाधनों में किए गए निवेश का आनुपातिक होता है. इन दोनों के अतिरिक्त भूस्वामियों का एक तीसरा भी वर्ग है जो केवल अपना हित देखता है और अपना ही स्वार्थ-साधन चाहता है. मिल की निगाह में असली मुनाफाखोर भी यही है.

मिल ने बैंथम के सुखवाद के विचार का समर्थन किया था, किंतु उसके बहाने वह अनिमित उपभोग को अनुमति देने के विरोध में था. हालांकि सर्वांगीण सामाजिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने उपभोग को नियंत्रित करने की सलाह दी थी. अपनी पुस्तक ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मूलतत्व’ (Elements of Political Economy) में उपभोग को व्याख्यायित करते हुए मिल लिखता है कि—

’उपभोग के दो चेहरे होते हैं: उत्पादक एवं अनुत्पादक. उत्पादक उपभोग से उसका अभिप्राय ऐसे उपभोग से था जो मूलतः उत्पादक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए निवेश के रूप में किया जाता है. इसमें वह सब आ जाता है जो किसी उद्यमी द्वारा, किसी वस्तु के उत्पादन को कार्यरूप देने के लिए किया जाता है. इसमें श्रम, मशीनरी, औजार, कच्चा माल और भवन, जहां पर उत्पादन कार्य संपन्न किया जाना है, यहां तक कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उत्पादकता को बढ़ाने में शामिल मवेशी भी सम्मिलित हैं. इनके अतिरिक्त कच्चे माल भी इनमें उत्पादक उपभोग का ही हिस्सा है.’

दूसरी ओर अनुत्पादक उपभोग में मजदूरी तथा अन्य ऐसे सभी उपभोग सम्मिलित हैं जिनका उत्पादकता से कोई संबंध नहीं है. साफ है कि पूंजीपति द्वारा किया जाने वाला निवेश बहुआयामी होता है, उसके लिए उद्यमी को अधिक खतरा भी उठाना पड़ता है. इस कारण उसका लाभ भी अधिक, उसके द्वारा लगाई गई पूंजी के अनुपात में बढ़ता चला जाता है. मजदूर द्वारा किया गया निवेश जिसमें सामान्यतः उसका श्रम ही शामिल है, इसलिए अनुत्पादक वर्ग में सम्मिलित है, क्योंकि उसमें सिवाय श्रम कौशल के और कुछ नहीं है.

जेम्स मिल का मानना था कि वितरण तथा विनिमय माध्यमिक क्रियाएं हैं; जिनके द्वारा उत्पाद को उसके उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता है. विनिमय अपने आप में लक्ष्य नहीं है, उसका कर्तव्य उत्पाद-विशेष को, समय रहते उपभोक्ता को उपलब्ध पहुंचाना है. ताकि सतत उपभोग के द्वारा वह अपनी मांग को बनाए रख सके. उपभोक्ता को उत्पाद का सीधा संबंध उसके उपभोग से होता है. कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु का निर्माण या अर्जन इसलिए करता है, क्योंकि वह उसकी कामना करता है. जैसे ही वस्तु विशेष के प्रति उसकी कामनाएं तृप्त हो जाती हैं; फिर उस वस्तु के निर्माण का उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता. बावजूद इसके यदि कोई व्यक्ति अपनी अपेक्षा से अधिक वस्तु का उत्पादन करने में सफल है और वैसी कामना भी रखता है, तो इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि वह कुछ अन्य वस्तुओं की कामना करता हैं जिन्हें वह अपने उत्पाद के बदले प्राप्त करना चाहता है. यदि वह किसी ऐसी वस्तु का उत्पादन करता है जो उसकी निजी कामनाओं से बाहर है अथवा जिसकी तात्कालिक आवश्यकता उसको अपेक्षाकृत कम है, तो इसका आशय होगा कि वह ऐच्छिक वस्तु की अपेक्षा उस वस्तु का उत्पादन एवं विपणन अधिक सफलतापूर्वक कर सकता है.

जेम्स मिल की पुस्तक ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मूलतत्व’ एक तरह से रिकार्डो की विचारधारा का ही विस्तार थी. इस पुस्तक में मिल ने जहां एक ओर बैंथम के सुखवाद की नई व्याख्या करते हुए उसे लोकप्रिय बनाने में सफलता प्राप्त ही, वहीं रिकार्डो की उत्पादकता संबंधी विचारधारा को भी आगे बढ़ाने का काम किया. यह पुस्तक एक तरह से इन दोनों के सिद्धांतों का ही प्रस्तुतीकरण है. यह बताना भी शायद अप्रासंगिक न हो कि जेम्स मिल व्यक्तिगत रूप से बैंथम के अपेक्षाकृत अधिक निकट था. मिल और उसका परिवार वर्षों तक बैंथम के किरायेदार रह चुके थे. यही नहीं बैंथम ने जेम्स मिल के पुत्र जान स्टुअर्ट मिल की शिक्षा का भी प्रबंध किया था.

बैंथम की विचारधारा से प्रभावित होकर मिल ने ‘वेस्टमिनिस्टिर रिव्यू’ नामक अंगे्रजी पत्रिका में कई लेख लेख लिखे. मिल का सबसे मौलिक काम लोकतंत्र तथा नागरिक अधिकारों को लेकर लिखे गए उसके लेखों में देखने को मिलता है. उसका मानना था कि नागरिकों को राजनीतिक गतिविधियों में अधिक से अधिक हिस्सा लेना चाहिए, ताकि उनमें अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूकता आए. 1820 में लिखे गए अपने एक लेख में मिल ने नागरिक अधिकारों का पक्ष लेते हुए उन्हें न केवल प्राकृतिक अधिकारों के निकट बताया, बल्कि उल्लेख किया कि मानवमात्र के कल्याण तथा उससे अधिकतम सुख पहुंचाने के लिए भी लोकतंत्र एवं जनआधिकारिता अनिवार्य है.

यह बात भी ध्यान में रखने की है कि मिल आर्थिक मामलों में सरकार के कम से कम दखल का पक्षधर था. शिक्षा के प्रसार-प्रसार की अनिवार्यता को लेकर लिखे गए अपने लेखों में मिल ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार को सरकार के अतिमहत्त्वपूर्ण दायित्व के रूप में स्वीकार किया. वह शिक्षा को बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए सुलभ बनाना चाहता था. वा॓ल्स के अनुसार मिल ने एक यादगार और विशिष्ट लेख लिखा था, जिसमें उसने शिक्षा पर जोर देते हुए लिखा था कि—

‘शिक्षा केवल पादरियों के लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए पूरी तरह सुलभ होनी चाहिए.’

जनसंख्या के सवाल पर भी उसके विचार बड़े स्पष्ट थे. उसका मानना था कि विकास में नैरंतर्य बनाए रखने के लिए जनसंख्या के साथ संसाधनों में आनुपातिक वृद्धि भी अनिवार्य है, अन्यथा यह लोगों की आय पर नकारात्मक असर डालती है. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जेम्स मिल ने अपने विचारों को बड़ी ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है. वह राजनीति और अर्थव्यवस्था के कल्याणकारी रूप का समर्थक था. उसने अनावश्यक कराधान के लिए सरकार की आलोचना की है.

मिल के अनुसार सरकार को चाहिए कि वह कराधान, विशेषकर भूमि और श्रमसंबधी नियम बनाते समय, जनसामान्य की कठिनाइयों और क्षमताओं का ध्यान रखे. इस तरह उसने कल्याणकारी अर्थनीति का समर्थन किया है. मिल का सारा लेखन इसी मान्यता के लिए समर्पित है. उसने शिक्षा, लोकतंत्र, उद्योगनीति, जनअधिकारिता को आगे ले जाने का महत्त्वपूर्ण दायित्व वहन किया था.  इन्हीं कारणों से मिल की गिनती अपने समय के सबसे मेधावी एवं मौलिक विचारकों में होती है.

जेम्स मिल के विचारों को आगे चलकर उसके पुत्र जा॓न स्टुअर्ट मिल ने विस्तार दिया. हालांकि उसके आलोचकों में यह मानने वाले भी कम नहीं हैं, जिनके अनुसार मिल ने अपनी ओर से कोई नया सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किया. उसका समस्त चिंतन बैंथम और रिकार्डो की विचारों का ही विस्तार है. यह भी मिल की प्रतिभा का ही परिणाम था का कि एक बेहद साधारण लोगों के बीच से उठकर उसने इंग्लैड की तात्कालिक राजनीति और बुद्धिजीवियों में अपने लिए सम्मानित स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की थी.

जेम्स मिल : उपयोगितावादी विचारक



स्का॓टिश इतिहासकार, अर्थशास्त्री एवं दर्शनशास्त्र के परम विद्वान जेम्स मिल का जन्म 6 अप्रैल 1773 को नार्थवाटर ब्रिज, स्का॓टलेंड में हुआ था. उसके पिता का नाम भी जेम्स मिल ही था. उसका परिवार गरीब था. पिता मोची का काम करते थे. जबकि मां इसबेल फेंटन का संबंध एक संपन्न किसान परिवार से था. वह स्वयं भी विदुषी एवं दूरदर्शी महिला थीं. बालक जेम्स को मां के ही संस्कार अधिक मिले. परिणाम यह हुआ कि उसकी बचपन में अच्छी शिक्षा-दीक्षा हुई. मां की पहल पर ही आगे की शिक्षा कि लिए जेम्स को चर्च द्वारा संचालित धार्मिक पाठशाला में भर्ती करा दिया गया. वहां से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वह मेंट्रोस चला गया; जहां से उसने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. उच्चशिक्षा के लिए लगभग सतरह वर्ष की अवस्था, यानी 1790 में जेम्स एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में भर्ती हो गया. दाखिले के समय जेम्स को कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ा. कारण विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु तेरह-चौदह वर्ष तक सीमित थी. जेम्स को दाखिला दिलाने में सर जा॓न स्टुअर्ट की प्रेरणा और प्रयास दोनों ही काम आए. इस कारण वह उनका सदैव ऋणी बना रहा. यहां तक कि उसने अपने पुत्र का नामकरण भी सर जा॓न स्टुअर्ट की प्रेरणा पर, उने प्रति अपना स्नेह और सम्मान को व्यक्त करने के लिए जा॓न स्टुअर्ट मिल रखा.

एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान जेम्स ने स्वयं को मेधावी विद्यार्थी सिद्ध करते हुए ग्रीक साहित्य का उच्च अध्ययन किया. विशेषरूप से प्लेटो के दर्शन का. एडिनबर्ग में रहते हुए वह उस समय के प्रख्यात दार्शनिक डुगा॓ल्ड स्टीवर्ट (Dugald Stewart) के संपर्क में आया जो उस समय स्का॓टिश पुनर्जागरण के आंदोलन के बेहतरीन व्याख्याकार थे. इसी दौरान उसने बैंथम की पुस्तकों का भी अध्ययन किया. उस समय उसको लगा कि उसका मानसिक प्रस्फुटन हो रहा है. बैंथम के विचारों ने उसको बहुत प्रभावित किया. विशेषकर उसकी सुखवादी विचारधारा, जिसका प्रभाव जेम्स के आगामी लेखन पर भी बना रहा.

अध्ययन के पश्चात जीविका का प्रश्न खड़ा हुआ तो जेम्स को नौकरी की तलाश में जुटना पड़ा. सन 1790 से 1802 तक वह संघर्ष करता रहा. इस बीच चर्च की मामूली नौकरी तथा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हुए उसने 1794 में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की. निरंतर अध्ययन में रहते हुए उसने दर्शन, इतिहास तथा राजनीति का ज्ञान प्राप्त कर लिया. इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ा, साथ ही सुप्त महत्त्वाकांक्षाएं भी. उसके पश्चात जेम्स को लगा कि स्का॓टलेंड में तरक्की के भरपूर अवसर नहीं हैं, तो वह 1802 में वह सर जाॅन स्टुअर्ट के साथ लंदन के लिए रवाना हो गया. जहां जेम्स को उसका पसंदीदा काम भी मिल गया. सन 1803 में वह एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका Literary Journal का संपादक नियुक्त हो गया, जिसपर रहते हुए उसने अनेक शोधपरक आलेख लिखे. परिणामतः पूरे यूरोप में उसकी विद्वता की धाक जमने लगी. इस पत्रिका की शुरुआत 1803 में हुई थी. जेम्स के नेतृत्व में पत्रिका की प्रतिष्ठा में खूब वृद्धि हुई. किंतु 1806 में पत्रिका के अचानक बंद होने से जेम्स के आगे पुनः जीविका का संकट पैदा हो गया. मगर तब तक वह पर्याप्त आत्मविश्वास अर्जित कर चुका था. इस कारण उसने भविष्य में केवल लेखन के सहारे जीने का निर्णय लिया.

सन 1805 में मिल ने एक विधवा स्त्री की बेटी हैरिएट बुरा॓ से विवाह किया. जिससे अगले ही वर्ष उसके पुत्र जा॓न स्टुअर्ट मिल का जन्म हुआ. लगभग उसी वर्ष मिल ने अपनी महत्त्वाकांक्षी पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ पर काम करना प्रारंभ किया जिसे पूरा होने में बारह वर्ष लगे. 1808 में वह बैंथम और डेविड रिकार्डों के संपर्क में आया. दोनों ने ही उसे गहरे तक प्रभावित किया. कुछ ही समय में तीनों गाढ़े मित्र गए. रिकार्डो ने मिल का परिचय अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों से कराया. मिल अभी तक बैंथम के सामाजिक दर्शन से प्रभावित था. लेकिन रिकार्डो के संपर्क में आने के बाद उसकी अर्थशास्त्रीय लेखन में भी रुचि बढ़ने लगी. आश्चर्यजनक रूप में मानवीय ज्ञान की ये दोनों ही धाराएं, उसके मस्तिष्क में अपनी स्वतंत्र सत्ता को बनाए रहीं. बैंथम और रिकार्डो से प्रभावित होने के बावजूद मिल का अपना स्वतंत्र चिंतन भी था. अपने किंचित मतभेदों के कारण, वह न तो बैंथम के सुखवाद का अर्थशास्त्र से तालमेल बिठा पाया, न ही वह सुखवादियों के मूलमंत्र ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ के आधार पर सरकार की मुद्रा एवं कराधान संबंधी नीतियों की समीक्षा कर पाने में असमर्थ रहा.

जो भी हो, मिल को बैंथम की विचारधारा ने बेहद प्रभावित किया था. इसका परिणाम यह हुआ कि आगे कई वर्षों तक वह बैंथम का सहयोगी और समर्थक बना रहा. उसने अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बैंथम के विचारों को प्रचारित कराने में लगा दिया. मिल की रचनात्मकता का अगला चरण 1811 में देखने को मिलता है, जब उसने विलियम एलेन के सहयोग से एक पत्रिका ‘फिलिंथ्रोपिस्ट’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. पत्रिका में मिल ने शिक्षा, प्रेस की स्वाधीनता, मानव-कल्याण तथा कैदियों की समस्याओं तथा उनकी अनुशासनात्मकता को लेकर कई महत्त्वपूर्ण लेख लिखे. मिल से पहले बैंथम भी कैदियों की समस्याओं पर विचार तथा कारागार की अमानवीय परिस्थितियों की आलोचना कर चुका था. कह सकते हैं कि जेलों को अधिकाधिक मानवीय बनाने के पीछे मिल पर बैंथम का ही प्रभाव था. इस दौरान उसे सुखवाद के विचार को लेकर भी कई आलेख पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे. आगे चलकर वे निबंध ‘ब्रिटैनिका एन्साक्लोपीडिया’ के पांचवे खंड में भी प्रकाशित हुए. जिससे जनमानस के बीच मिल की छवि सुखवाद के व्याख्याकार के रूप में बनती चली गई.

सन 1818 में ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ पुस्तक के प्रकाशित होने के साथ ही मिल की गिनती अपने समय के प्रमुख विद्वानों में होने लगी. इस पुस्तक को भारी सफलता प्राप्त हुई. हालांकि इसके कारण उसकी आलोचना भी खूब हुई. इसलिए कि भारत को लेकर मिल का सारा ज्ञान केवल पुस्तकों, अखबारी समाचारों तथा उन अंग्रेज अधिकारियों की टिप्पणियों तक सीमित था, जो या तो भारत में ब्रिटिश सरकार के लिए कार्य कर चुके थे, अथवा किसी न किसी रूप में उससे संबद्ध थे. जाहिर है कि भारत को लेकर उनके विवरण पूर्वाग्रह से भरे और एकपक्षीय थे. इस लिए मिल ने अपनी पुस्तक में एक तरह से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का बचाव ही किया था. उन दिनों ब्रिटिश सरकार अपनी उपनिवेशवादी नीतियों के कारण लोगों की आलोचना झेल रही थी. मिल की पुस्तक उसके उपनिवेशवादी सोच को मान्यता प्रदान करती थी. इसलिए मिल को उसका लाभ भी मिला. पुस्तक लिखने के साथ ही मिल को इंडिया हाउस में नियुक्ति मिल गई. आगे भी विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहते हुए उसे उसने खूब प्रतिष्ठा एवं मान-सम्मान अर्जित किया.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, मिल बैंथम के साथ-साथ रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी चिंतन से भी प्रभावित था. अर्थशास्त्र से उसकी पहली असली मुठभेड़ ‘कार्न ला॓’(Corn Laws) के औचित्य को लेकर लिए गए एक लेख के दौरान हुई. थोड़ा विषयांतर में जाते हुए हम बता दें कि ‘कार्न ला॓’ की व्यवस्था यूरोप में यद्यपि बारहवीं शताब्दी के दौरान की गई थी. इसका विकट रूप सन 1815 में नेपोलियन युद्ध के पश्चात उस समय देखने को मिला जब कृषि-क्षेत्र को घाटे से उबारने के लिए अनाज के आयात पर रोक लगा दी गई. इस व्यवस्था का उद्देश्य किसानों को मंदी की मार से बचाना था. माॅल्थस जैसा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री कार्न ला॓ के पक्ष में था. अनाज पर लगाया गया प्रतिबंध एक सीमा तक तो कारगर सिद्ध हुआ. इसने किसानों को मंदी की मार से उबारने में बड़ी मदद की, किंतु जैसे-जैसे किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरती गई, इससे होने वाली समस्याओं में भी सतत वृद्धि होने लगी. कारण, कानून के प्रभाव से किसानों की आय बढ़ी थी, साथ ही उनका प्रभाव भी. अब वे इस अवस्था में पहुंच चुके थे कि अनाज का मनमाना भाव तय करने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें अथवा अनुकूल समय आने पर उसको महंगे दामों पर बेच सकें. इसका समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ा. दाम बढ़ने से गरीबों की मुश्किलें बढ़ने लगीं. दूसरी ओर चीजों के मूल्य में भी उसी अनुपात में तेजी आई. परिणामतः अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी और ‘कार्न ला॓’ के विरुद्ध माहौल बनने लगा.

1804 में ‘का॓र्न ला॓’ की आलोचना करते हुए जेम्स मिल ने अनाज के आयात पर लगे सभी प्रतिबंध हटा लेने की जनता की मांग का समर्थन किया. उसने पर्याप्त तर्क देते हुए मा॓ल्थस की आलोचना भी की जो उस कानून के पक्ष में था. उससे अगले ही लेख में उसने का॓बेट तथा स्पेंस(Cobbett & Spence) के उस आलेख की पर्याप्त तर्क सहित आलोचना की, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि भूमि, न कि उद्योग, ही वास्तविक राष्ट्रीय संपत्ति है. कि राष्ट्रों के बीच व्यापारिक संबंध घाटे के सौदे रहे हैं. कि कारण जनता की जमाराशि राष्ट्र पर किसी प्रकार का भार नहीं है और लगाए गए कर उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करते हैं. यह भी कि संकट का वास्तविक कारण जमाखोरों की देन है. मिल का यह भी कहना था कि किसी भी राष्ट्र की कुल सालाना बिक्री और सालाना खरीद में सदैव अंतर होता है. अतः व्यापार में स्थायित्व के लिए किसी भी वस्तु की अतिरिक्त आपूर्ति को आवश्यक रूप से अन्य किसी वस्तु की अतिरिक्त मांग द्वारा संतुलित रखना चाहिए.

सन 1808 में अपनी पत्रिका Commerce Defended के एक लेख में उसने साफ किया कि—

‘किसी भी राष्ट्र के पास कोई एक वस्तु उसकी आवश्यकता से बहुत अधिक हो सकती है, यद्यपि वह अपनी विश्व-भर में कुल मांग से अधिक कभी नहीं हो सकती. ऐसी वस्तु की अतिरिक्त मात्र को जरूरत के स्थान पर आसानी-से ले जाना संभव है, किंतु ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं कि वहां से कोई और आवश्यक वस्तु उचित मात्र में उपलब्ध न हो सके. अतः सवाल उठता है कि उस समय क्या किया जाए जाए जब बाजार में कोई वस्तु अतिरिक्त मात्रा में मौजूद हो…उस अवस्था में उस वस्तु के उत्पादन में लगे संसाधनों का उपयोग, संतुलन की अवस्था तक, उस वस्तु के निर्माण के लिए करना उचित होगा, जिसका कि अभाव बना हुआ है. संतुलन की स्थिति में बाजार में न तो कोई वस्तु अपनी मांग से अधिक उपलब्ध होगी, न ही किसी वस्तु का अभाव हो सकेगा.’

मिल ने रिकार्डो को उसकी अर्थशास्त्र संबंधी टिप्पणियों को प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया. जिसके कारण आगे चलकर उसे ब्रिटिश संसद की सदस्यता से सम्मानित किया गया. 1821 में उसने लंदन में ‘पा॓लिटिकल इकाना॓मी क्लब’ की स्थापना में मदद की जो आगे चलकर रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी विचारों तथा बैंथम के सुधारवाद का प्रमुख विमर्श-स्थल सिद्ध हुआ. इसी वर्ष मिल की एक और विशिष्ट कृति Elements of Political Economy प्रकाशित हुई, जिसमें उसने रिकार्डो के अर्थशास्त्र संबंधी विचारों की विस्तार सहित विवेचना की गई है. यह पुस्तक कुछ ही समय में रिकार्डो के विचारों को समझने का मुख्य माध्यम बन गई. इस पुस्तक को प्र्रकाशन के साथ ही खूब लोकप्रियता मिली. केवल तीन सालों में पुस्तक का तीसरा संस्करण बाजार में आ गया. सन 1831 से 1833 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रवक्ता के पद पर रहते हुए मिल ने कई कानूनी मामलों में कंपनी की मदद की. 1834 में ‘लंदन रिव्यू’ में उसने चर्च के विधान में सुधार की संभावनाओं पर केंद्रित एक लेख लिखा, जिसने खूब चर्चा प्राप्त की. जिससे उसकी गिनती उस समय के प्रसिद्ध सुधारवादियों में होने लगी.

1836 में निधन होने तक वह लगातार लेखन करता रहा. हालांकि उस समय तक उसके दोनों फेफड़े क्षतिग्रस्त हो चुके थे. 23 जून 1836 को लंबी बीमारी के पश्चात उसका निधन हो गया. उसका लेखन विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों पर मौलिक विचारात्मक टिप्पणियों से भरा पड़ा है, जिससे उसकी विलक्षणता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. मिल की अंतिम पुस्तक Fragment on Mackintosh मृत्यु से मात्र एक वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी. हालांकि उसे उसकी बाकी पुस्तकों जितनी प्रशंसा नहीं मिल सकी. लेकिन वह अपने विचारों से आने वाले विचारकों को प्रभावित करने में सक्षम रहा, जिनमें कार्ल मार्क्स, जान स्टुअर्ट मिल आदि शामिल थे.

वैचारिकी

एक बेहद साधारण परिवार में जन्मे, कठिनाइयों में पले, बचपन से ही मेधावी मिल अपने अध्वसाय से जो ख्याति अर्जित की, उसके कारण उसकी गिनती विश्व के उन महान दार्शनिकों में होती है, जो मानवमात्र के सुख की चिंता करते थे. जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन रचनात्मक लेखन को समर्पित किया था. जो मात्र अपनी प्रतिभा के बल पर एक सामान्य परिवार से आगे बढ़कर समाज में अपना खास स्थान हासिल कर सके और जिनके कारण समाज में सत्य एवं नैतिकता अपना सुरक्षित स्थान बनाए रख सके हैं. जेम्स मिल ने भी अपनी अद्वितीय मेधा के दम पर बौद्धिक जगत में अपने लिए विशिष्ट स्थान बनाया.

विलक्षण प्रतिभा के धनी मिल ने दर्शनशास्त्र के अध्ययन की शुरुआत प्लेटो के दर्शन से की. उसने विद्यार्थीकाल में प्लेटो की दर्शन की समालोचना करने वाले अनेक निबंध लिखे. जिसके कारण उसको प्लटो के दर्शन का आधिकारिक विद्वान माना गया. यही नहीं उसने अध्ययन के दौरान ही ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं का स्तरीय ज्ञान प्राप्त किया तथा उनमें सृजनात्मक लेखन की छाप छोड़ी. अपनी युवा अवस्था के दिनों में वह बैंथम के विचारों के संपर्क में आया और उसके सुखवाद से प्रेरणा लेकर उसके विचार को आगे विस्तार दिया. मिल उच्च कोटि का विद्वान, इतिहासकार, साहित्यकार, राजनेता एवं दार्शनिक था. उसका सारा साहित्य मौलिकता की श्रेणी में आता है. रिर्काडो तथा बैंथम से प्रेरणा लेते हुए उसने सुखवाद के विचार को मान्यता दी तथा उसके प्रचार के लिए अनेक पुस्तकें तथा लेख आदि लिखे, जिन्हें विद्वानांे की भरपूर सराहना प्राप्त हुई. उसका लेखन अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि क्षेत्रें में फैला हुआ है. कुछ विद्वानों को उसके विचारों में यत्र-तत्र विरोधाभास भी नजर आता है, किंतु यह कोई अनोखी बात नहीं है. इस प्रकार के विरोधाभास तो प्रायः सभी विलक्षण प्रतिभा-संपन्नों के साथ होते रहे हैं.

इंग्लैंड की उपनिवेशवादी राजनीति को स्थिर बनाने एवं उसको वैचारिक-बौद्धिक समर्थन देने में जितना अधिक योगदान जेम्स मिल का रहा, उतना शायद ही किसी और विद्वान लेखक-साहित्यकार का रहा हो. इसका उसको लाभ भी मिला. ब्रिटिश सरकार ने उसको उच्च पद एवं विविध सम्मान से उपकृत किया. हालांकि ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों का समर्थन करने के लिए उसको आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा था. उसके आलोचकों की बात में दम भी है. क्योंकि कई स्थान पर वह ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों का मूक समर्थक नजर आता है. जिससे उसके आलोचकों को उसकी निष्ठा पर संदेह होने लगता है.

मिल ने भारत को लेकर अपनी पुस्तक में एक स्थान पर चैंका देने वाला उल्लेख किया कि—

‘‘ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को सभ्य बनाने, उसका नागरीकरण करने में मदद की थी… अंग्रेजों के आने से पहले भारत एक बर्बर युग से बाहर आने के लिए छटपटा रहा था.’ हालांकि बाद में मिल ने अपने ही कथन का उलट करते हुए भारत में ब्रिटिश राज को ‘समाज के संपन्न तबके के लिए बाहरी मदद उपलब्ध कराने वाला व्यापक तंत्र’’ कहकर ब्रिटिश राज्य की वास्तविक खामियों की ओर इशारा भी किया था.

एक ओर व्यक्ति-स्वातंत्रय और जनवादी विचारधारा का पक्ष लेना तथा दूसरी ओर एक औपनिवेशिक सत्ता के समर्थन में भारी-भरकम तर्क गढ़ना, ये जेम्स मिल के जीवन के अंतर्विरोध हैं. लेकिन ऐसे अंतर्विरोधों से शायद ही कोई बच पाया हो. ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ नामक ग्रंथ से जेम्स मिल की इतिहास में रुचि जाहिर होती है. किंतु उसका योगदान केवल ऐतिहासिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है. सच में तो मिल का लेखन मानवीय स्वतंत्रता एवं समानता के लिए समर्पित था. उसने अपने लेखों तथा व्यक्तिगत प्रयासों से उदारवादी राजनेताओं को प्रभावित किया, जिसका फ्रांसिसी क्रांति पर व्यापक प्रभाव पड़ा. मिल की पुस्तक Elements of Political Economy(1821)’ में उसके उदारवादी विचारों की झलक देखी जा सकती है.

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, इतिहास मिल का प्रिय विषय था. मगर उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी. राजनीति और अर्थशास्त्र को लेकर उसने जो लेख लिखे उनकी भरपूर सराहना हुई. कई विश्वविद्यालयों ने उसको अपने पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया था. पुस्तक में सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता, उसके लक्ष्य और समस्याओं की गंभीर विवेचना की गई थी. उसमें मिल ने दर्शाने का प्रयास किया है कि जनसंख्या वृद्धि विकास की प्रमुख समस्याओं में से एक है. क्योंकि जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि होती है, उस अनुपात में संसाधनों का विकास नहीं हो पाता. उसने संसाधनों के अनियमित बंटवारे को भी विकास की समस्याओं से जोड़ा तथा माना कि किसी वस्तु की वास्तविक कीमत उसमें लगे श्रम के आधार पर आंकी जानी चाहिए, न कि उसके निर्माण में प्रयुक्त कच्चेमाल अथवा किसी ओर कारण से. पुस्तक में वस्तुतः डेविड रिकार्डो के विचारों को ही विस्तार दिया गया था. मिल ने उसमें राजनीति पर दिए गए अपने वक्तव्य संकलित किए गए हैं, जिनमें से एक लेख में जेम्स मिल ने जनसंख्या-वृद्धि और संसाधनों के अंतर्संबंध को स्पष्ट किया है. लेख में उसने एक स्थान पर लिखा है कि—

‘सामान्यतः, यदि बाकी सब लक्षण अपरिवर्तित हों और पूंजी एवं जनसंख्या वृद्धि का अनुपात एकसमान रहे तो मजदूरी में प्रभावी वृद्धि भी अपरिवर्तनीय बनी रहती हैं. यदि जनसंख्या की अपेक्षा पूंजीनिवेश में अध्कि वृद्धि हो तो मजदूर वर्ग की आय पर उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. परिणामतः औसत मजदूरी बढ़ने लगती है. यदि ये दोनों ही स्थितियां न हों और यदि पूंजीनिवेश अनुपात में वृद्धि होती है, तब मजदूरी में भी आनुपातिक वृद्धि होगी. लेकिन इसके विपरीत यदि जनसंख्या वृद्धि के सापेक्ष पूंजी अनुपात में गतिरोध है, यानी पूंजीनिवेश की मात्रा में ठहराव बना रहे तो निश्चित रूप से इसका असर मजदूरी पर पड़ेगा और वह तेजी से गिरने लगेगी.’

जेम्स मिल की कमी थी कि उसने अपने राजनीतिक दर्शन तथा आर्थिक विचारों में कभी समन्वय स्थापित करने की नहीं सोची. इतिहास में रुचि के कारण उसने ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ लिखा, जिसमें उसने निहित पूर्वग्रहों के कारण औपनिवेशिक ब्रिटिश राजनीति का समर्थन किया. तथापि समानांतर रूप से वह अर्थशास्त्र एवं एक अर्थविज्ञानी के रूप में कार्य करता रहा. निश्चित रूप से इसके पीछे रिकार्डो के साथ मैत्री एवं बैंथम की प्रेरणाएं भी थीं. दरअसल मिल का अर्थदर्शन रिकार्डो तथा सामाजिक दर्शन बैंथम के चिंतन का ही विस्तार है. वस्तुतः मिल अर्थशास्त्र के क्षेत्र में रिकार्डो का अनुयायी था. किंतु यह मिल ही था जिसने रिकार्डो को उसकी अर्थशास्त्र की पहली पुस्तक के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया था. यही नहीं, मिल के प्रयासों से ही रिकार्डो को ब्रिटिश संसद के लिए चुना गया था. बैंथम, जेम्स मिल तथा रिकार्डोे की तिकड़ी के संबंध के बारे में माना जाता है कि—

‘बैंथम मिल का नैतिक गुरु तथा मिल रिकार्डो का नैतिक गुरु था.’

आगे चलकर रिकार्डो ने भी ‘सुखवाद’ के सिद्धांत की अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्याख्या की. मिल का मानना था कि सरकार को जनजीवन में हस्तक्षेप की नीति से बचना चाहिए. उसके बदले उसको जनता के बीच से ही संसाधन जुटाकर उनपर कार्य होना चाहिए. इसके ठीक विपरीत अपने राजनीतिक चिंतन में वह आर्थिक रूप से विपन्नों को सरकारी संरक्षण दिए जाने की नीति का समर्थक था और मानता था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को संरक्षण प्रदान करने के लिए सरकार को अधिक से अधिक मदद करनी चाहिए.

जेम्स मिल ने भले ही कोई नया सिद्धांत नहीं गढ़ा हो, मगर बैंथम तथा रिकार्डो के विचारों को तार्किक ढंग से आगे ले जाने और उनकी आसान शब्दों में व्याख्या करने में उसका योगदान अविस्मरणीय है. उसका विश्वास था कि जब हम लोगों के समूह के साथ मिलकर कुछ करना चाहते हैं तो उस अवस्था में समूह के हित उसके अधिकांश सदस्यों की अधिकतम संतुष्टि के बराबर होते हैं. दूसरे शब्दों में एक लोकतांत्रिक संगठन में समूह के हितों के साथ-साथ उसके सदस्यों के हित भी समानरूप से सधते चले जाते हैं. एक कल्याणकारी समूह ऐसा ही सपना अपने सदस्यों को लेकर देखता है कि उसके किसी भी कर्तव्य से अधिक से अधिक सदस्य इकाइयों का भला हो सके. इस तरह मिल ने सामूहिक जीवन की विशिष्टताओं का पक्ष लेकर उसके माध्यम से समतावादी समाज की संकल्पना का ही विस्तार किया था.

अपने ग्रंथ ‘एलीमेंट्स आ॓फ पा॓लिटिकल इका॓नामी’ में रिकार्डो के तुलनात्मक लाभों के सिद्धांत का उपयोग करते हुए उसने गणितीय उदाहरण जुटाने की अपेक्षा तर्क का सहारा लिया है. उसका मानना था कि श्रमिक के ग्रहण करने की मात्र केवल उतनी होती है, जितनी वह पूंजी की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करता है. जबकि पूंजीपति का लाभ उसके द्वारा भूमि आदि संसाधनों में किए गए निवेश का आनुपातिक होता है. इन दोनों के अतिरिक्त भूस्वामियों का एक तीसरा भी वर्ग है जो केवल अपना हित देखता है और अपना ही स्वार्थ-साधन चाहता है. मिल की निगाह में असली मुनाफाखोर भी यही है.

मिल ने बैंथम के सुखवाद के विचार का समर्थन किया था, किंतु उसके बहाने वह अनिमित उपभोग को अनुमति देने के विरोध में था. हालांकि सर्वांगीण सामाजिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने उपभोग को नियंत्रित करने की सलाह दी थी. अपनी पुस्तक ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मूलतत्व’ (Elements of Political Economy) में उपभोग को व्याख्यायित करते हुए मिल लिखता है कि—

’उपभोग के दो चेहरे होते हैं: उत्पादक एवं अनुत्पादक. उत्पादक उपभोग से उसका अभिप्राय ऐसे उपभोग से था जो मूलतः उत्पादक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए निवेश के रूप में किया जाता है. इसमें वह सब आ जाता है जो किसी उद्यमी द्वारा, किसी वस्तु के उत्पादन को कार्यरूप देने के लिए किया जाता है. इसमें श्रम, मशीनरी, औजार, कच्चा माल और भवन, जहां पर उत्पादन कार्य संपन्न किया जाना है, यहां तक कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उत्पादकता को बढ़ाने में शामिल मवेशी भी सम्मिलित हैं. इनके अतिरिक्त कच्चे माल भी इनमें उत्पादक उपभोग का ही हिस्सा है.’

दूसरी ओर अनुत्पादक उपभोग में मजदूरी तथा अन्य ऐसे सभी उपभोग सम्मिलित हैं जिनका उत्पादकता से कोई संबंध नहीं है. साफ है कि पूंजीपति द्वारा किया जाने वाला निवेश बहुआयामी होता है, उसके लिए उद्यमी को अधिक खतरा भी उठाना पड़ता है. इस कारण उसका लाभ भी अधिक, उसके द्वारा लगाई गई पूंजी के अनुपात में बढ़ता चला जाता है. मजदूर द्वारा किया गया निवेश जिसमें सामान्यतः उसका श्रम ही शामिल है, इसलिए अनुत्पादक वर्ग में सम्मिलित है, क्योंकि उसमें सिवाय श्रम कौशल के और कुछ नहीं है.

जेम्स मिल का मानना था कि वितरण तथा विनिमय माध्यमिक क्रियाएं हैं; जिनके द्वारा उत्पाद को उसके उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता है. विनिमय अपने आप में लक्ष्य नहीं है, उसका कर्तव्य उत्पाद-विशेष को, समय रहते उपभोक्ता को उपलब्ध पहुंचाना है. ताकि सतत उपभोग के द्वारा वह अपनी मांग को बनाए रख सके. उपभोक्ता को उत्पाद का सीधा संबंध उसके उपभोग से होता है. कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु का निर्माण या अर्जन इसलिए करता है, क्योंकि वह उसकी कामना करता है. जैसे ही वस्तु विशेष के प्रति उसकी कामनाएं तृप्त हो जाती हैं; फिर उस वस्तु के निर्माण का उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता. बावजूद इसके यदि कोई व्यक्ति अपनी अपेक्षा से अधिक वस्तु का उत्पादन करने में सफल है और वैसी कामना भी रखता है, तो इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि वह कुछ अन्य वस्तुओं की कामना करता हैं जिन्हें वह अपने उत्पाद के बदले प्राप्त करना चाहता है. यदि वह किसी ऐसी वस्तु का उत्पादन करता है जो उसकी निजी कामनाओं से बाहर है अथवा जिसकी तात्कालिक आवश्यकता उसको अपेक्षाकृत कम है, तो इसका आशय होगा कि वह ऐच्छिक वस्तु की अपेक्षा उस वस्तु का उत्पादन एवं विपणन अधिक सफलतापूर्वक कर सकता है.

जेम्स मिल की पुस्तक ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मूलतत्व’ एक तरह से रिकार्डो की विचारधारा का ही विस्तार थी. इस पुस्तक में मिल ने जहां एक ओर बैंथम के सुखवाद की नई व्याख्या करते हुए उसे लोकप्रिय बनाने में सफलता प्राप्त ही, वहीं रिकार्डो की उत्पादकता संबंधी विचारधारा को भी आगे बढ़ाने का काम किया. यह पुस्तक एक तरह से इन दोनों के सिद्धांतों का ही प्रस्तुतीकरण है. यह बताना भी शायद अप्रासंगिक न हो कि जेम्स मिल व्यक्तिगत रूप से बैंथम के अपेक्षाकृत अधिक निकट था. मिल और उसका परिवार वर्षों तक बैंथम के किरायेदार रह चुके थे. यही नहीं बैंथम ने जेम्स मिल के पुत्र जान स्टुअर्ट मिल की शिक्षा का भी प्रबंध किया था.

बैंथम की विचारधारा से प्रभावित होकर मिल ने ‘वेस्टमिनिस्टिर रिव्यू’ नामक अंगे्रजी पत्रिका में कई लेख लेख लिखे. मिल का सबसे मौलिक काम लोकतंत्र तथा नागरिक अधिकारों को लेकर लिखे गए उसके लेखों में देखने को मिलता है. उसका मानना था कि नागरिकों को राजनीतिक गतिविधियों में अधिक से अधिक हिस्सा लेना चाहिए, ताकि उनमें अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूकता आए. 1820 में लिखे गए अपने एक लेख में मिल ने नागरिक अधिकारों का पक्ष लेते हुए उन्हें न केवल प्राकृतिक अधिकारों के निकट बताया, बल्कि उल्लेख किया कि मानवमात्र के कल्याण तथा उससे अधिकतम सुख पहुंचाने के लिए भी लोकतंत्र एवं जनआधिकारिता अनिवार्य है.

यह बात भी ध्यान में रखने की है कि मिल आर्थिक मामलों में सरकार के कम से कम दखल का पक्षधर था. शिक्षा के प्रसार-प्रसार की अनिवार्यता को लेकर लिखे गए अपने लेखों में मिल ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार को सरकार के अतिमहत्त्वपूर्ण दायित्व के रूप में स्वीकार किया. वह शिक्षा को बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए सुलभ बनाना चाहता था. वा॓ल्स के अनुसार मिल ने एक यादगार और विशिष्ट लेख लिखा था, जिसमें उसने शिक्षा पर जोर देते हुए लिखा था कि—

‘शिक्षा केवल पादरियों के लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए पूरी तरह सुलभ होनी चाहिए.’

जनसंख्या के सवाल पर भी उसके विचार बड़े स्पष्ट थे. उसका मानना था कि विकास में नैरंतर्य बनाए रखने के लिए जनसंख्या के साथ संसाधनों में आनुपातिक वृद्धि भी अनिवार्य है, अन्यथा यह लोगों की आय पर नकारात्मक असर डालती है. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जेम्स मिल ने अपने विचारों को बड़ी ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है. वह राजनीति और अर्थव्यवस्था के कल्याणकारी रूप का समर्थक था. उसने अनावश्यक कराधान के लिए सरकार की आलोचना की है.

मिल के अनुसार सरकार को चाहिए कि वह कराधान, विशेषकर भूमि और श्रमसंबधी नियम बनाते समय, जनसामान्य की कठिनाइयों और क्षमताओं का ध्यान रखे. इस तरह उसने कल्याणकारी अर्थनीति का समर्थन किया है. मिल का सारा लेखन इसी मान्यता के लिए समर्पित है. उसने शिक्षा, लोकतंत्र, उद्योगनीति, जनअधिकारिता को आगे ले जाने का महत्त्वपूर्ण दायित्व वहन किया था.  इन्हीं कारणों से मिल की गिनती अपने समय के सबसे मेधावी एवं मौलिक विचारकों में होती है.

जेम्स मिल के विचारों को आगे चलकर उसके पुत्र जा॓न स्टुअर्ट मिल ने विस्तार दिया. हालांकि उसके आलोचकों में यह मानने वाले भी कम नहीं हैं, जिनके अनुसार मिल ने अपनी ओर से कोई नया सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किया. उसका समस्त चिंतन बैंथम और रिकार्डो की विचारों का ही विस्तार है. यह भी मिल की प्रतिभा का ही परिणाम था का कि एक बेहद साधारण लोगों के बीच से उठकर उसने इंग्लैड की तात्कालिक राजनीति और बुद्धिजीवियों में अपने लिए सम्मानित स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की थी.

रूसो:जनतंत्रवाद



यदि हम आधुनिक समाज की किसी एक विशेषता के बारे में सवाल करेंतो लोग 


सामान्यतः लोकतंत्र अथवा मानवाधिकार का नाम लेंगेहांकुछ लोग ऐसे भी हो 


सकते हैं जो भावुकतावश धर्म या फिर संस्कृति को यह सम्मान देना चाहेंगेयह 


उनकी व्यक्तिगत आस्था या फिर जानकारी हो सकती हैमगर यह तो वे भी मानेंगे ही 


कि धर्म एक तो आधुनिक अवधारणा नहीं हैदूसरे दुनिया के प्रायः सभी धर्मों का 


अतीत इतना भ्रामकअंतर्विरोधी,अनिश्चितरूढ़िवादी और खूनखराबे वाला रहा है 


कि उनमें मानवाधिकार के नाम पर सिवाय सुबह-शाम की आरती-नमाज अथवा कुछ 


तयशुदा कर्मकांडों-दान-दक्षिणा आदि केशायद ही कुछ और उल्लेखनीयस्मरणीय


 जान पड़ेइसके बावजूद उनके अनुयायियों में अपने-अपने धर्म के प्रति लगभग 


अंध-आस्था जैसी होती हैऔर उनकी अपेक्षा भी होती है कि उनकी मान्यताओं को 


संदेह से परे रखकर परखा जाना चाहिएनिहित स्वार्थों के कारण धर्म के प्रचार-प्रसार

 

में लगे धर्माचार्यपंडित-मौलवी-पादरी आदि इस अंध-ऋद्धा को निरंतर पोषित करते

 

रहते हैंइस कारण उनके निष्कर्षों में वस्तुनिष्ठता नहीं आ पातीन वे तर्क की कसौटी

 

पर खरे उतर पाते हैं.


धर्म के प्रशंसक सामान्यतयह दावा करते हैं कि धर्म की समाज में मौजूदगी उसमें नैतिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए जरूरी हैवे यह डर भी दिखाते हैं कि धर्म-रहित होते ही समाज में नैतिकता का स्तर जमीन छूने लगेगाइतना कि उसके वर्तमान ढांचे को बनाए रखना असंभव होगालेकिन यह भी उनके सोचे-समझे षडयंत्र का नमूना हैबात इसके पूरी तरह उलट है.नैतिकता अपने आप में संपूर्ण हैउसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है.जिसे हम सामान्यतः मनुष्यता के नाम से जानते हैंवह दरअसल नैतिकता का ही पर्याय हैयही कारण है कि विभिन्न धर्मों की अध्यात्म-संबंधी मान्यताएं अलग-अलग होने के बावजूद उनकी सामाजिक आचारसंहिता में एकरूपता होती हैजो नैतिकता की लोकमान्य अवधारणाओं से विनिर्मित होती है.

धर्म की उत्पत्ति मनुष्य की पारलौकिक जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए की गई थीउसी कार्य को धर्म अर्से सेबल्कि आज भी करता आ रहो हैइस बीच में धर्म से संबंधित मान्यताएं और रीति-रिवाज भी बदले हैंमगर उनके परंपरागत स्वरूप में अभी तक कोई खास परिवर्तन नहीं हो पाया हैहालांकि इस बीच मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उपलब्धियों के नए-नए कीर्तिमान गढ़े हैंधर्म ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हुए आविष्कारों का लाभ तो उठायाकिंतु अपने कर्मकांडों को पुख्ता करने और गाहे-बगाहे उन्हें विज्ञानसम्मत दिखाने के लिएहालांकि ऐसा करने से धर्म की अपनी कमजोरियां ही जाहिर होती थींयह बात अलग है कि वैज्ञानिक उपकरणों और सिद्धांतों के सहारा लेकर धर्म ने जनसाधारण को लुभाने में कामयाबी हासिल की थी.लेकिन उनके उपयोग से अपना परिष्कार कर पाने में असमर्थ रहा हैयही धर्म की सीमा हैजो दोनों के मूल स्वभाव से प्रेरित है.

धर्म और विज्ञान में फर्क भी यही है कि विज्ञान जहां संदेह को ही सबकुछ मानकर चलता हैवैज्ञानिक तर्कसम्मत एवं पुष्ट होने तक अपनी प्रत्येक परिकल्पना को संदेह की दृष्टि से देखता है और परिकल्पना के नियम बनने तक उसपर परीक्षण-अन्वेषण का सतत प्रयोग करता रहता हैनियम बन जाने के बाद भी वैज्ञानिक अपनी खोज को लेकर पूर्णतः संतुष्ट नहीं हो जाता,बल्कि उसकी नजर उन स्थितियों पर लगी रहती हैजिनमें उस नियम या सिद्धांत की असफलता सिद्ध होती होनिश्चय ही इसके पीछे सत्य तक पहुंचने की लालसा ही होती हैसत्य की खोज तथा उस तक पहुंचने के लिए धर्म भी प्रयासरत रहता हैकिंतु वह अपनी शुरुआत ही विश्वास से करता हैवह यह मानकर चलता है कि परमसत्य उसके परिचय और पहुंच के दायरे में जिसके लिए धर्माचरण का पालन करना अत्यावश्यक हैसंदेह की कम से कम गुंजाइश होने के कारण धार्मिक मामलों में नएपन के लिए अवसर कम से कम होते हैं.

धर्म मानव समाज की विवेकशीलता की प्रारंभिक पहचान है.सभ्यता की और शनै-शनै बढ़ते प्राचीन मानव ने प्रारंभ में अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए ही धार्मिक प्रतीकों की कल्पना की होगीधर्म की इसी ताकत एवं पहुंच का लाभ उठाने के लिए दुनिया के मनीषियों ने उसको समाज-संस्कृतिनैतिकता की परंपरा एवं लोकाचार से जोड़ाजिससे अर्से तक सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी धर्म के कंधों पर बनी रही.कतिपय अर्थों में वह आज भी हैधर्म की व्यापकता और सर्वमान्यता ने इसे और भी आक्रामक एवं ताकतवर बनाया;जिससे वह मनुष्य के जीवन में ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ करता चला गयादूसरी ओर उसका तेजी से सांस्थानिकीकरण हुआ है.धर्म और राजनीति अथवा पूंजी और धर्म के गठजोड़ के परिणाम आज हम देख ही रहे हैंहम कह सकते हैं कि इसी के साथ धर्म में वैचारिक जड़त्व की शुरुआत हुई हैजिसने भारतीय मानस को इतने जोर से पकड़ा हुआ है कि भारतीय समाज के संदर्भ में धर्म का वास्तविक अर्थ लगभग भुला ही दिया गया है.

सांस्थानिकृत होने के बाद से ही धर्म का विधायी स्वरूप अपना प्रभाव खोता चला गयाउसके स्थान पर अज्ञानरूढ़िवादिता,अवैज्ञानिकता और गुरुडम जैसी कुरूतियां स्थान पाती चली गईं.दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला धर्म खुद नैतिकता से परे छिटकता चला गयाइसलिए सामाजिक परिवर्तन की चाहत रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने धर्म और धार्मिक जड़ता का जमकर विरोध कियायह भी सच है कि उसको पहली चुनौती स्वार्थी धार्मिक संस्थाओं की ओर से ही मिलीयह स्वाभाविक भी था,क्योंकि लंबे समय से धर्म की जनमानस पर गहरी पकड़ ने इसे ताकतवर एवं उपयोगी बनाया हैलेकिन वह वर्ग जिसको धर्म के कर्मकांड के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई थीइसमें हुए परिवर्तनों को अपने हितों पर हमले के रूप में देखता हैइसीलिए किसी भी प्रकार के परिवर्तनों का निषेध करता हैयही कारण है कि आमूल परिवर्तन के करीब-करीब हर समर्थक को धार्मिक संस्थाओंव्यक्तियों के विरोध से भी गुजरना पड़ा है.

दुनिया के प्रायः सभी धर्म इन अंतर्विरोधों के शिकार हैंप्रकट में वे यही ऐलान करते हैं कि उनकी भांति दूसरों को भी परमसत्य की पहचान हैइसीलिए वे एक हैंएक जैसी नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैंउनमें आपसी मतभेद जरा भी नहीं हैंकिंतु सचाई इसके ठीक उलट हैयथार्थ में वहां सिवाय आत्मव्यामोह एवं मतभेद के कुछ भी नहीं हैविशिष्टता के नाम पर वे अपने दायरे को निरंतर संकीर्ण बनाते चले जाते हैंवहां वैचारिकता कमअंधानुसरण ज्यादा होता हैइससे ज्ञान की परंपरा के अवरुद्ध होने या अपने लक्ष्य से भटक जाने का खतरा सदैव बना रहता हैजो समय के साथ-साथ निरंतर बढ़ता ही जाता हैधर्म की इन्हीं कमजोरियों के कारण आधुनिक समाज की विशेषताओं में उसका स्थान कहीं नजर नहीं आताहालांकि वह समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कारकों में से एक हैअपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए धर्म स्वयं को नैतिकता के वाहक के रूप में दर्शाने की कोशिश करता रहा हैधार्मिकों द्वारा दर्शन और नीतिशास्त्र को मिलाकर सिद्धांत गढ़े गएआज भी नीतिशास्त्र को दर्शनशास्त्र के साथ एक विषय के रूप में पढ़ाए जाने का रिवाज हैमेरी दृष्टि में नीतिशास्त्र का जितना संबंध मानवव्यवहारशास्त्र से हैउतना धर्म से नहीं हैखुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नैतिकता का सहारा लेना धर्म की विवशता भी हैपरंपरा भी धर्म और नीति को एक ही विषय के धर्म की इसी जकड़बंदी से प्रभावित होकर रूसो को यह कहना पड़ा था किः

मनुष्य आजाद जन्मा हैफिर भी वह हर कहीं शृंखलाओं में कैद हैहरेक मनुष्य स्वयं को दूसरों का मालिक/मास्टर मानता है.जबकि वह गुलामी के पहले से घने दलदल में फंसता जा रहा है.’

जीन जैकुइस रूसो (Jean-Jacques Rousseau) का जन्म 28जून 1712 को जिनेवा में हुआ थाइसे विडंबना कहें कि संघर्ष की शुरुआतप्रसव के समय आए बुखार के कारण उसकी मां सुजान बनार्ड रूसो का निधन हो गयाशिशु रूसो उस समय केवल नौ दिन का थापिता इसाक मामूली घड़ीसाज थाऊपर से पत्नी की मृत्यु ने उसे गहरी हताशा में डुबो दिया थाउन्हीं दिनों की बात है कि रूसो के पिता का एक फ्रांसिसी कप्तान से झगड़ा हो गया.इससे वह घबरा गयागिरफ्तारी के भय से उसने हमेशा के लिए जिनेवा छोड़ दियामां थी नहींपिता भगोड़ा बना गयाऐसे में बालक रूसो का पालन-पोषण किया उसकी मामा और मामी ने.लेकिन मामी निष्ठुरमना स्त्री थीवह बालक रूसो को हर समय प्रताड़ित करती रहतीबचपन के इन आघातों का रूसो पर गहरा असर पड़ामाता-पिता के प्यार से वंचित रूसो नीरस और उदंड बन गयासूखानीरसबात-बात पर झगड़ पड़ना उसकी आदत,अस्थिरता उसके स्वभाव का हिस्सा बन गईसामाजिकता के साथ सामंजस्य वह आगे भी कभी नहीं बैठा सका.

विलक्षण प्रतिभा के लक्षण रूसो में बचपन से ही दिखने लगे थे.प्रारंभिक शिक्षा के दौरान उसने कल्विन तथा प्लूटार्क का अध्ययन किया थासोलह वर्ष की अवस्था में उसने जिनेवा छोड़ दिया और रोजगार एवं जीवन में स्थायित्व की खोज के लिए यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा पर निकल पड़ाजीविका के लिए उसने कई काम किएसंगीत में उसकी रुचि थीइसलिए उसने संगीत सीखने का काम भी प्रारंभ कर दियाफ्रांस पहुंचकर रूसो के जीवन में कुछ ठहराव आयाइसी बीच वह एक धनी स्त्री के संपर्क में आयाजिसका नाम था—फ्रांसकोइस लुइस दि वार्न (Louise de Warens)वार्न आयु में रूसो से बारह वर्ष बड़ी थीबावजूद इसके दोनों परस्पर प्यार के बंधन में बंध गएउसके संपर्क में आने के पश्चात रूसो की आस्था परंपरागत धर्म के प्रति बढ़ी और वह स्वयं को कैथोलिक मानने लगा. 1725 में उसने जीविकोपार्जन के लिए लकड़ी पर नक्काशी करने का कार्य शुरू कियाजिसे वह लंबे समय तक न साथ सकाउसके जिनेवा छोड़ते ही सारे कार्य छूटते चले गएजीवन का भटकाव उसे अनुभव की दृष्टि से समृद्ध बना रहा थाइसी अनुभव ने उसको जीवन को समझने की मौलिक दृष्टि दीइसके तीन ही वर्ष के पश्चात अनेक देशों की यात्राएं उसने कीं.

सन 1741 रूसो के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष सिद्ध हुआजब वह पेरिस की यात्रा पर निकलाउन दिनों फ्रांस में बौद्धिक नवजागरण की हवा बह रही थीअनेक जाने-माने दार्शनिक पेरिस में रह रहे थेजिनके तर्कों से नए विचारों एवं ज्ञान की की आंधी-सी आई हुई थीपेरिस में रूसो वाल्तेयरदेकार्ते आदि अपने जमाने के प्रतिष्ठित दार्शनिकों से मिलालेकिन अपनी पहली भेंट के दौरान रूसो उन्हें प्रभावित कर पाने में असफल रहाइस बीच रूसो की संगीत में रुचि पैदा हुई और उसने संगीत देने और सिखाने का कार्य प्रारंभ कर दिया.

संगीत के अध्ययन-अध्यापन के दौरान रूसो ने कुछ नए प्रयोग भी किए थेजिन्हें वह लोगों के बीच लाना चाहता थापेरिस यात्रा का उसका उद्देश्य अपने आविष्कार को विज्ञान अकादमी के सेमीनार में प्रस्तुत करना भी थारूसो ने उस सेमीनार में हिस्सा लिया थाकिंतु विड़बना देखिए कि वह वहां भी विद्वानों को प्रभावित कर पाने में वह असमर्थ ही रहाविद्धानों ने उसके आविष्कार को खारिज कर दियारूसो इससे निराश हुआकिंतु वह आगे प्रयास करता रहाकुछ ही अर्सा बाद फ्रांस की यात्रा उसके लिए लाभदायक होने लगी. 1743 में रूसो वेनिस पहुंचा तथा वहां के राजदूत के सचिव के रूप में काम करने लगाएक वर्ष बाद ही वह वापस पेरिस आ गया और इस बार वह थेरेसा लेवाशियर(Thérèse Lavasseur) नामक स्त्री से प्रेम करने लगा.थेरेसा एक नौकरानी थीदोनों के पांच बच्चे हुएउन बच्चों के पालन-पोषण के लिए रूसो ने उनको चर्च के अनाथालय में भर्ती करा दिया.

आगे के वर्षों में रूसो ने संगीत के क्षेत्र में कई मौलिक कार्य किए.उसने बालमनोविज्ञान को लेकर भी कुछ लेख लिखेजिनकी वाल्तेयर ने कटु आलोचना कीभरसक प्रयास के बावजूद वह संगीत के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना पाने में असफल ही रहापरंतु रूसो जैसे प्रतिभाशाली को बहुत दिनों तक इंतजार नहीं करना पड़ावह दार्शनिकों एवं बुद्धिजीवियों के संपर्क में आया,जिससे कई विद्वानों तथा दर्शनशास्त्रियों से उसकी दोस्ती हो गईसन 1749 में रूसो डिर्डाट (Diderot) से मिलने के लिए विंसेनिस की यात्रा पर थाउसी दौरान उसको डिजान एकादमी द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता की सूचना मिली.प्रतियोगिता का विषय था—‘विज्ञान एवं कला की प्रगति क्या सामाजिक शुचिता को निखारती है अथवा यह नैतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है?’ विषय बहुत ही मौलिक किस्म का था और कतिपय जटिल भीलेकिन रूसो की प्रतिभा को प्रस्फुटन के लिए मानो इसी अवसरी की प्रतीक्षा थीया फिर सौभाग्य उसके दरवाजे पर खुद आकर दस्तक देने में लगा थाप्रतियोगिता की सूचना मिलते ही वह उछल पड़ा.

उस क्षण की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के बारे में रूसो ने स्वयं लिखा है—

उस समय मैंने अनुभव किया कि हजारों स्फुर्लिंग में भीतर सहसा दमक उठे होंमस्तिष्क में तरह-तरह के विचारों का उद्दाम आवेग उमड़ने लगाकुछ समय के लिए उसने मेरे दिमाग को भ्रांति के गर्त में ढकेल दियाजिससे मेरे लिए कोई भी फैसला कर पाना नामुमकिन थाभ्रांति ने मुझे अव्यक्तअंतहीन तनाव की आग में झोंक दिया थामुझे लगा कि मेरा दिमाग घूम रहा है और मैं अचेतावस्था के भंवर में बहुत तेजी से धंसता चला जा रहा हूं.’

रूसो ने तत्काल अपना निबंध लिख भेजाउसके द्वारा लिए गए आलेख का शीर्षक थाµ‘कला एवं विज्ञान पर विमर्श.’ अपने चिंतन को नया रंग देते हुए रूसो ने विषय के नकारात्मक पहलुओं को अपने लेख में उभारा थाअप्रत्याशित रूप से रूसो के उस आलेख को प्रथम स्थान प्राप्त हुआलेख को लेकर खूब वाद-विवाद हुएनिबंध में रूसो ने तर्क देते हुए अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान की विकास करने की क्षमता पर सवाल उठाए थेजिन्हें पढ़कर प्रगतिशील नाराज भी हुएकुछ लोगों को वह लेख विज्ञान और तकनीक के विरुद्ध भी जान पड़ातो कुछ लोग तो विज्ञान विरोधी तथा संस्कृतिधर्मपरंपरा आदि के नाम पर यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैउन्हें वह लेख अपनी भावनाओं के अनुकूल जान पड़ाइस बहस के बीच रूसो की ओर विद्वानों का ध्यान जाना स्वाभाविक ही थावही हुआकुछ ही दिनों में उसकी ख्याति पूरे यूरोप में फैल गई.

इससे पहले तक रूसो केवल संगीत-शिक्षा के क्षेत्र में स्वयं को स्थापित करना चाहता थाउस लेख से रूसो को एक नई दिशा अनायास ही मिल गईरूसो देकार्ते से प्रभावित थाउससे अपनी प्रथम मुलाकात का वर्णन करते हुए रूसो ने लिखा है कि जैसे ही उसने देकार्त के कमरे में प्रवेश कियाउसे एक दिव्यानुभूति हुई.देकार्त द्वारा दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में किए गए कार्य को वह अपने समय का सबसे मौलिक अवदान मानता थातो भीयहां तक कि देकार्त से वह भेंट रूसो की संगीत के प्रति दीवानगी को कम नहीं कर सकीविलक्षण प्रतिभा के धनी रूसो ने एक ओर संगीत के क्षे़त्र में नए-नए प्रयोग किएवहीं गंभीर वैचारिक क्षेत्र में भी अपनी मौलिक सोच से समाज को नई दिशा दी.

सम्राट पंद्रहवें लुईस के आग्रह पर सन 1752 में रूसो ने एक नाटक की रचना कीजिसे खूब चर्चा मिलीउसके ठीक दो वर्ष पश्चात यानी 1754 में रूसो पुनः जिनेवा लौट गयाइस बीच बौद्धिक विमर्श के प्रति उसके रवैया में भी बदलाव आया थाइस बार उसका इरादा अपने वैचारिक लेखन को आगे बढ़ाने का था.जिनेवा पहुंचकर उसने दुबारा मार्टिन लूथर के आर्थिक विचारों तथा काल्विनिज्म का गहन अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया तथा वहां की नागरिकता प्राप्त कर ली.

देखा जाए तो यह उसका कायाकल्प थाअगले ही साल उसने एक और महत्त्वपूर्ण कार्य को अंजाम दियाअपनी नई पुस्तक में रूसो ने समाज में व्याप्त असमानता और उसके कारणों को अपने विवेचन-विश्लेषण का आधार बनाया थापुस्तक का शीर्षक था— ‘सामाजिक असमानता का उद्भव एवं आधारएक विमर्शइस निबंध से बौद्धिक जगत में खलबली व्याप गईफ्रांस सरकार को भी वह आलेख आपत्तिजनक लगा था. 1750 के आसपास ही उसकी पुस्तक ‘फर्स्ट डिस्कोर्स’ (First Discourse) प्रकाशित हुईयह पुस्तक प्रकाशन के साथ ही चर्चा में आ गईअभी तक जो लोग रूसो की प्रतिभा को हल्का करके आंक रहे थेउनकी विचारधारा बदलने लगीरूसो स्वयं कलाकार थासंगीत का उसको स्तरीय ज्ञान थाबावजूद इसके उसने अपनी पहली पुस्तक में कला एवं विज्ञान के उपयोग की आलोचना की थी.इससे समाजविज्ञानी और प्रगतिशील दोनों ही रूसो के दुश्मन बन बैठेमगर रूसो की अक्खड़ छवि के कारण स्थिति बिगड़ते-बिगड़ते रह गईरूसो ने स्वयं भी स्वीकार किया था कि—

मैं विज्ञान को दोष नहीं दे रहामैं तो केवल मनुष्यता के पक्ष में सदगुणों की सुरक्षा कर रहा हूं.’

उसी साल अपने अनूठे स्वभाव का परिचय देते हुए रूसो ने मांटमोरेंसी के घने जंगलों में अपना अस्थायी ठिकाना बना लिया तथा एक झोंपड़ी डालकर उसमें अकेला रहने लगाएकांतवास के दौरान रूसो ने दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की रचना कीये हैं—दि सोशल कांट्रेक्ट [The Social Contract (Du Contrat Social)]तथा ‘एमाइल’ या ‘आन एजुकेशन (Émile, or On Education)आन एजुकेशन में रूसो ने बच्चों के जीवन में आदर्श शिक्षा की उपयोगिता का वर्णन किया थाजबकि ‘दि सोशल कांट्रेक्ट’ के सरोकार व्यापक एवं मानवीय थेउसमें सामाजिक विमर्श को आगे बढ़ाने का काम किया गयादोनों ही पुस्तकें रूसो के गहन अध्ययन का परिणाम थींउनमें धार्मिक संस्थानों एवं यथास्थितिवाद की पोषक शक्तियों की आलोचना की गई थीएमाइल में बच्चों की शिक्षा की अपरिहार्यता को दर्शाते हुए वर्तमान परिवेश की आलोचना भी की थीसोशल कांट्रेक्ट में रूसो की प्रतिभा अपने चरम पर रही होगीइस पुस्तक के प्रारंभ ही उसने लिखा था कि—

मनुष्य मुक्त जन्मा जरूर हैमगर हर जगह वह बेड़ियों में कैद है.’

इस पुस्तक को बेहद लोकप्रियता मिलीदोनों ही पुस्तकों के बाद रूसो सरकार की आंखों की किरकिरी बन गयाबल्कि बाद की पुस्तकों से तो पूरे समाज में खलबली-सी मच गईफ्रांस तथा जिनेवा की सरकार दोनों पुस्तकों पर पाबंदी थोप दीरूसो को इसका लाभ तो अवश्य हुआउसकी पुस्तकें धड़ाधड़ बिकने लगीं.इस पुस्तक के आने पर प्रगतिशील के साथ-साथ परंपरागत सोच वाले व्यक्ति भी रूसो से नाराज हो गएलेकिन परिस्थितियों से बिना घबराएदबावों से डरे बिना ही रूसो ने एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक Profession of Faith of the Savoyard Vicar की रचना कीइस पुस्तक में उसने धर्म के अतार्किक और रूढ़िवादी स्वरूप की आलोचना करते हुए उसको कठघरे में खड़ा किया गया थाजाहिर है कि इससे उन लोगों पर असर पड़ना स्वाभाविक ही थाजो निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग करते आ रहे थे.इस पुस्तक के विरोध में कट्टरपंथी एकजुट होने लगेउनके दबाव में रूसो को कैद कर लिया गयाउसपर स्विटजरलेंड के बर्न तथा मोंटियार नामक क्षेत्रों में घुसने पर पाबंदी लगा दी गईयही नहीं गुस्से से बलबला रहे उग्रवादियों ने उसके घर को आग लगा दी.

स्विटजरलेंड में भारी दबाव झेलते हुए रूसो वहां से तंग आ गया थाइससे उसका लिखना बाधित हुआ थाएक दिन उसने जिनेवा फिर छोड़ दियावहां से वह इंग्लेंड पहुंचा तथा अपने मित्र डेविड ह्यूम से जाकर मिलासुप्रसिद्ध दार्शनिक डेविड ह्यूम से रूसो की दोस्ती थीयह सब होते हुए भी उसने ह्यूम के घर जाकर ही नौकरी कीवहां वह करीब अठारह महीने लगातार रहाउसी प्रवास के दौरान रूसो ने अपनी एक और चर्चित पुस्तकConstitutional Project for Corsica (Projet de Constitution pour la Corse) नामक पुस्तक की रचना की.इस पुस्तक में भी उसने धर्म को निशाना बनाया थाएक बार फिर प्रगतिशील रूसो के विरुद्ध मोर्चा साधने में लग गए.

करीब चार वर्ष से अधिक एक स्थान से दूसरे स्थानएक देश से दूसरे देश तक घूमने से वह बोर हो गया थाइससे उसका लेखन भी बाधित हुआ थाअतः जिंदगी को एक पटरी पर लाने के लिए रूसो जिनेवा वापस लौट आयाइसी दौरान उसने थेरेसा से विवाह भी किया. 1770 में रूसो को पेरिस में आने की सशर्त अनुमति मिल गईजिसके अनुसार उसके लेखन पर पाबंदी लगा दी गई थीतो भी उसने 1772 में ‘कन्फेशन’ नामक एक पुस्तक पूरी की,लेकिन यह पुस्तक सन 1782 मेंरूसो की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो सकी. 1772 में एक अच्छा अवसर तब आया जब पौलेंड की सरकार ने उसे अपना नया संविधान लिखने के लिए आमंत्रित कियारूसो का वह राजनीति पर अंतिम कार्य था.लगातार पड़ने वाले सरकारी दबाव तथा लिखने पर पाबंदी ने रूसो को तोड़ कर दिया थावह हताश और परेशान रहने लगालगातार तनाव के कारण वह काफी कमजोरी का अनुभव करने लगा था.

अंततः जुलाई 1778 का वह दिन भी आ गयाजब उस मनुष्यता के सबसे बड़े समर्थक ने अंतिम सांस लीउस दिन वह प्रातःकाल घूमने के लिए निकला हुआ था कि दिमाग की नसें फटने से उसकी मृत्यु हो गईरह गया राजनीति और समाजशास्त्र के क्षेत्र में किया गया उसका अनूठा काम जिसने उनीसवीं शताब्दी में पूरी दुनिया को प्रभावित किया.

विचार.......

एक लेखक और विचारक के रूप में रूसो के वैचारिक अवदान की तुलना माक्र्स तथा फ्रायड से की जा सकती हैवह अठारहवीं शताब्दी का अकेला ऐसा विचारक है जिसने कठिन जीवन-संघर्ष से निकलकरअपनी प्रतिभा एवं संघर्ष के दम पर अपनी पहचान स्थापित कीवैचारिक ईमानदारी की रक्षा करते हुए उसने जैसा उसको बौद्धिक रूप से जंचावैसा ही लिखानिर्भीक अभिव्यक्ति के कारण अनेक बार कठिनाइयों का सामना कियाउसके लिए निर्वासन और कारावास दोनों ही भोगेकिंतु वह अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहाउसने जीवन में नैतिकता को सर्वोपरि माना और अपने मौलिक विचारों के दम पर अठारहवीं शताब्दी में मनुष्यता के सबसे बड़े विचारक और प्रचारक के रूप में उभराजिसके विचारों से प्रेरणा लेकर उनीसवीं शताब्दी में जनतंत्र और मानवाधिकार आंदोलनों को बढ़ावा मिला.

व्यक्तिवादी चिंतन को बढ़ावा देते हुए रूसो ने मानवाधिकारों के सरंक्षण पर जोर दियाहालांकि व्यक्तिवादी चिंतन का प्रवत्र्तक वह अकेला और पहला विद्वान नहीं थाउससे पहले जान लाक एवं थामस हाब्स भी व्यक्तिवादी विचारधारा का समर्थन कर चुके थेहालांकि उन दोनों के विचारों में किंचित भिन्नता थीहाब्स का कहना था कि मानव स्वभाव विशुद्ध रूप से स्वार्थ से नियंत्रित होता हैइसलिए वह सबसे पहले अपने सुख को महत्त्व देता है.सुख की सुनिश्चतता के लिए उसको समाज में रह रहे अन्य प्राणियों के साथ सतत संघर्ष करना पड़ता हैइस तरह समाज में प्राकृतिक न्याय को अधिमान्यता मिलती हैजिसका आशय है ताकतवर की विजयहाब्स का विचार मानवतावादी विचारकों को स्वीकार्य नहीं हो सकाविशेषकर उन लोगों को मानवीय संवेदनाओं को ही सबकुछ मानते रहे हैं.

हाब्स की भांति जान लाक भी व्यक्तिवादी विचारधारा का समर्थक थाउसका मानना था कि सभ्यता के बढ़ते क्रम में मनुष्य अपने सुख के लिए सहअस्तित्व को महत्त्व देता हैयह अस्तित्व से यहां आशय हैदूसरों के जीने के अधिकारउनके फैसला करने के अधिकारनिजी संपत्ति रखने के अधिकार आदि सम्मिलित हैं.रूसो ने हाब्स के ‘आत्मरक्षा हेतु सतत संघर्ष’ के विचार का निषेध कियाकिंतु उसने माना कि आत्मरक्षा की भावना मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व एवं उसके व्यवहार को नियंत्रित करने का कार्य करती हैलेकिन उसने यह भी कहा कि बौद्धिक प्राणी होने के नाते मनुष्य पशुवत व्यवहार नहीं कर सकतासमाज को नियंत्रित करने के लिए रूसो ने नैतिकता को आवश्यक और सर्वोपरि माना है.

रूसो ने जान लाक के सहअस्तित्व के सिद्धांत का भी समर्थन किया थाव्यक्तिवादी चिंतन में विज्ञान और कलाओं के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकताजीवन में विज्ञान और कलाओं की उपयोगिता प्रासंगिकता को लेकर रूसो ने कई सवाल खड़े किए थे.उसने विज्ञान समेत सभी कलाओं यहां तक कि ज्योतिष को भी समाज में असमानता के लिए जिम्मेदार माना थाजिससे परंपरावादी नाराज हो गए.

रूसो राजनीति मानवाधिकार को लेकर गंभीर चिंतन किया है.उसके विचार ‘विज्ञान एवं कला संबंधी विमर्श’ जिसे रूसो का समाजविज्ञान को लेकर पहला गंभीर कार्य माना जाता हैमें मौजूद हैंपहली बार यह पुस्तक सन 1750 में प्रकाशित हुई थी,जिसमें रूसो ने विज्ञान एवं कलाओं को सामाजिक असमानता का कारक मानते हुए जीवन में उनकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए थेआगे चलकर उसने ‘सामाजिक असमानताः उद्भव एवं मूल स्थापनाओं पर विमर्श’ नामक एक लंबा निबंध लिखा जिसको उसने उसी दुजोन संस्था द्वारा आयोजित प्रतियोगिता को भेजाजिसने उसके पिछले लेख को पुरस्कृत किया थाउस लेख की काफी चर्चा हुई थीकिंतु इस बार रूसो को निराश होना पड़ाअपने दूसरे आलेख में रूसो ने सामाजिक असमानता के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों का विवेचन करते हुएएक समरस समाज की संकल्पना की थी.

रूसो का आग्रह सहज-प्राकृतिक जीवन को अपनाने पर थाउसका आग्रह था कि मनुष्य अपनी आत्मसत्ता को पहचाने तथा दूसरों की जीवन एवं सम्मान की रक्षा करते हुए नैतिक आचरण पर जोर देजीवन में नैतिकता एवं मानवमूल्यों की स्थापना के लिए वह व्यक्तित्व की शुभता को निखारने पर बहुत जोर देता थारूसो की प्रसिद्ध कृति ‘सोशल कांट्रेक्ट’ में उसके धर्मराजनीति संबंधी विचार आए हैंउसकी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘दि एमाइल’(Émile, or On Education) अथवा शिक्षा हैजिसमें उसने स्त्री शिक्षा एवं समानता बच्चों की शिक्षा आदि समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक विषयों पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया है.

गौरतलब है कि अठारहवीं शताब्दी के दौरान यूरोपीय समाज में स्त्री की अवस्था अत्यंत दयनीय थीहालांकि औद्योगिकीकरण,नई शिक्षा एवं वैचारिक चेतना के चलते समाज में समाजवादी विचारों का आगमन हो चुका थाव्यक्ति-स्वातंत्रय एवं नैतिकता आदि विषयों पर गंभीर काम हो रहा थाबावजूद इसके समाज में सामंती विचारधारा के अवशेष बाकी थे. ‘दि एमाइल’ में रूसो ने स्त्री आधिकारिता पर विचार कियाइसी पुस्तक में उसने बच्चों की शिक्षा तथा उनके अधिकारों के संरक्षण पर जोर दिया है.बालसंरक्षण संबंधी विचारों को लेकर रूसो के सिद्धांत एवं व्यवहार के बीच मौजूद विरोधाभास भी सामने आते हैंजैसे कि एक ओर तो उसने बच्चों के अधिकार एवं उनकी विधिवत शिक्षा पर काफी जोर दिया हैमगर दूसरी ओर विसंगति देखिए कि अपने ही पांच बच्चों को उसने एक बालगृह के हवाले कर दिया थाहालांकि कथनी और करनी के बीच का यह अंतर अकेला नहीं हैदुनिया के अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैंजिनका आचरण उनके अपने ही सिद्धांतों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.

रूसो की मनुष्यता में गहरी आस्था थीउसका मानना था कि मनुष्य अपनी मूल प्रकृति से अच्छा होता हैलेकिन परिस्थितियां कभी-कभी उसे विवश कर देती हैं कि वह ऐसा कार्य भी करे जो वह सामान्य स्थितियों में बिलकुल भी करना नहीं चाहतामानव समाज को लेकर रूसो का मानना था कि सभ्यता के पहले मनुष्य एक विनम्र जंगली के समान थामगर सामाजिकीकरण की प्रक्रिया ने मनुष्य को चतुराई से काम लेनादूसरों को धोखा देकर अपना काम निकालना सिखाया हैमानवेच्छाओं का वर्गीकरण करते हुए उसने लिखा है कि—

सबकी इच्छा तथा सामान्य इच्छा में सामान्यतः अंतर होता है.सामान्य इच्छा आमतौर पर समूह के सदस्यों की सामान्य अभिरुचि अथवा अभिरुचियों को दर्शाती हैजबकि सबकी इच्छा से ताकत और दबाव के संकेत उभरते हैं.’

रूसो के इस कथन से लोकतंत्र के प्रति उसकी आस्था के संकेत मिलते हैंसंभवतः सामाजिक असमानता एवं विपन्नता के शिकार व्यक्तियों को देखकर ही रूसो ने कहा था कि—

मनुष्य आजाद जन्मा हैलेकिन उसके लिए बंधन प्रत्येक स्थान पर हैं.’

आगे चलकर मानवमूल्यों के पक्षधर विद्वानों के लिए रूसो का यही वाक्य प्रेरक एवं मागदर्शक बनाजिसने उनीसवीं शताब्दी के मानवतावादी आंदोलनों के लिए सूत्र-वाक्य का कार्य किया.

विज्ञान और कलाओं की जीवन में उपयोगिता को लेकर रूसो का मानना था कि केवल विज्ञान तथा कलाओं के विकास द्वारा मनुष्य के स्वभाव तथा उसके नैतिक चरित्र में कोई सुधार नहीं लाया जा सकतामानवीय आचरण में सुधार लाने के बजाय वे असमानतासुस्ती तथा विलासिता को बढ़ावा देता हैजिससे धन का केंद्रण समाज के एक ही स्थान होने लगता हैधन का एक ही स्थान पर ठहराव सामाजिक असमानता का कारण बनता हैयह स्थिति आगे आने वाले दिनों में वर्ग-विभाजन को प्रश्रय देती है.विज्ञान की आलोचना करते हुए एक स्थान पर रूसो ने यहां तक लिखा है कि—

यदि विज्ञान सचमुच कुछ अच्छा करने में सक्षम होता हैयदि वह मनुष्य को अपने देश की आजादी के लिए खून बहाना सिखाता हैयदि वह उनके साहस को ऊंचाइयों तक ले जाता हैतब तो प्रौद्योगिकी संपन्न देशों के लोगों को बुद्धिमानसाहसी तथा चिंतामुक्त हो जाना चाहिएउन्हें ऐसा करने का अधिकार है.लेकिन यदि वे हरेक पाप में जकड़े हुए हैंसभी तरह के अपराधों से परिचित हैंन ही उनके न्यायाधीश इतने योग्य हैं कि अपराधी को दंडित करा सकेंन ही वे कानून के बल पर सुरक्षित हैं और न ही वहां प्रजा की सम्मिलित महाशक्ति सम्राट को मनमानी करने से रोक पाती हैन ही उनके अमानवीय अत्याचारों से उनकी रक्षा कर पाती हैऐसे में उनकी कला-प्रवणताबुद्धि-कौशल तथा उनकी पढ़ाई-लिखाई का क्या लाभ है?’

रूसो को विश्वास था कि केवल ईमानदार एवं प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहने वाले कार्यकर्ता ही सदगुणों के वास्तविक एवं भरोसेमंद स्वामी हो सकते हैंक्योंकि वहां उन्हें प्रकृति की विराटता का एहसास सतत बना रहता हैसभ्यता के क्रम वे समाज का गठन तो करते हैंजिसके साथ रहकर वे निरंतर शैक्षिक एवं तकनीकी विकास की ओर अग्रसर होते हैंमगर आधुनिकता के दबाव एवं वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण निरंतर सुविधामय जीवन जीते हुए वे अपने आप में सिमटते चले जाते हैंपरिणामस्वरूप वे शेष समाज से कटने लगतेधीरे-धीरे उसमें वे सभी बुराइयां आने लगती हैंजो सामंती संस्कारों से युक्त समाज में होती हैंइस कुंठा और हताशा से बचने के लिए रूसो के इस विचार का उपयोग एडगर राइस बुरोघ ने अपनी पुस्तक ‘टार्जन’ में किया है—

जमीनखेतीबाड़ी तथा धातुओं के आविष्कार से सारे कारोबार और निजी संपत्ति की अवधरणा का विकास हुआ हैजिससे समाज गरीब और अमीर में बंटा हैसामाजिक असमानता में वृद्धि हुईकानून ने राज्य को स्थायित्व और मजबूती प्रदान जरूर की हैऐतिहासिक विकास की अंतिम मंजिल निरंकुश राज्य में होती है….हम इसलिए समान हैंक्यों कि हम सभी एक ही मालिक के दास हैं.’

रूसो की विचारधारा का सबसे स्पष्ट एवं मुख्य स्वर हमें उसके ग्रंथ ‘सोशल कांटेªक्ट’ में देखने को मिलता हैइस पुस्तक में उसने आग्रहपूर्वक कहा है कि—

मनुष्य मुक्त जन्मा हैलेकिन हर कहीं वह शृंखलाओं में कैद है.हर मनुष्य स्वयं को दूसरों से बढ़करउनका स्वामी समझता है.बावजूद इसके वह दूसरों की अपेक्षा केवल अच्छा चाकर ही सिद्ध हो पाता है.’

रूसो का मानना था कि प्रारंभिक समाज धनी एवं ताकतवर मनुष्यों के अधिकार में थाधीरे-धीरे समाज के शक्तिशाली लोगों ने जनसामान्य को अपने प्रभाव में लेना प्रारंभ कर दिया.परिणामस्वरूप असमानता बढ़ती चली गईआगे उसको सामाजिकता के प्रमुख लक्षण के रूप में स्वीकार्यता भी मिलती चली गईरूसो का कहना था कि केवल इच्छाओं के सामान्यीकरण के दौरान ही मनुष्य सबसे अधिक आजादी का अनुभव करता हैइससे वह अपने ही जैसे बाकी लोगों के बीच होता हैरूसो सामूहिक जीवन को श्रेष्ठतर मानता थाउसके अनुसार सामान्य इच्छा निश्चित रूप से सामान्य कल्याण की ओर ले जाती हैंसंगठित समुदाय के नागरिक अपनी प्रकृति प्रदत्त आजादी का आदान-प्रदान अपेक्षाकृत अच्छे कार्यनैतिक स्वाधीनता के लिए करते हैंइस विचारधारा में राजनीतिकों को सामाजिक कल्याण तथा सामूहिक इच्छाओं के लिए व्यक्तिमात्र की स्वैच्छिक अधीनता करते हुए देखा गया हैरूसो की यह विचारधारा लोकतंत्र सहकारिता के सिद्धांत के अनुरूप हैइसीलिए उसे अठारहवीं शताब्दी के सबसे बड़े मानवतावादी विचारकों में स्थान दिया गया है.

ज्ञान को लेकर भी रूसो के विचार अपने समकालीनों से अलग और अछूते थेउसने तर्क देकर बताया कि ज्ञान का विकास सरकार को और अधिक शक्तिशाली तथा निरंकुश बनाता हैजो मनुष्य को व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समाप्त कर देता हैवस्तुतः जिस ज्ञान का निरंकुशता का वाहक बताते समय रूसो के दिमाग में अवश्य ही विज्ञान एवं आधुनिकता के दुरुपयोग की स्थिति रही होगी.इसमें कोई संदेह नहीं है कि नए ज्ञान तथा उसके उपकरणों का सर्वाधिक लाभ सरकार तथा ताकतवर ही उठाते हैंकिंतु यह तो दुनिया के किसी भी संसाधन के बारे में सत्य हैज्ञान का लाभ भले ही सत्ताधारी वर्ग उठाता आया होकिंतु इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि सत्ताधारी और शक्तिशाली के उत्पीड़न से बचाव का रास्ता भी ज्ञान के नवीनतम उपकरणों से ही सृजित होता है.

रूसो संभवतः पहला विचारक था जिसने निजी संपत्ति की अवधारणा का जमकर विरोध किया थाइसीलिए कुछ विद्वान उसको आधुनिक समाजवाद एवं साम्यवाद का आदिप्रणेता भी स्वीकार करते हैंउसका कहना था कि सरकार का कर्तव्य अपने नागरिकों की स्वाधीनतासमानता की रक्षा करना तथा उनके लिए न्याय की सुनिश्चितता करना हैकिंतु वह यह मानने के लिए हरगिज तैयार नहीं था कि बहुमत सदैव सही होता हैअपने राजनीतिक दर्शन नामक ग्रंथ में रूसो ने उल्लिखित किया है कि राजनीति तथा नैतिकता को अलग नहीं किया जाना चाहिए.उसका मानना था कि—

प्रकृति ने समग्र मानव सृष्टि को दो स्वयंभू मालिकोंदुःख एवं आनंद में बांटा हुआ हैयह केवल उन दोनों पर निर्भर करता है कि आगे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिएउसके एक ओर उचित एवं अनुचित हैंएक ओर कार्य और कारणों की लंबी कतार हैजिसने हमारे जीवन के प्रत्येक अवसर को अपनी गिरफ्त में लिया हुआ हैदूसरी ओर गहरी खाईहमारे प्रत्येक कर्म के लिए जिम्मेदार हैंहम सभी समान हैंक्योंकि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं.’

सामाजिक संविदा (Social Contract) को रूसो के सर्वश्रेष्ठ कार्य के रूप में मान्यता प्राप्त हैयह पुस्तक सन 1762 में प्रकाशित हुई थी और लगभग ढाई शताब्दी के पश्चात आज भी राजनीतिक दर्शन पर महत्त्वपूर्ण दस्तावेज मानी जाती हैइस पुस्तक के माध्यम से रूसो ने धार्मिक आस्थावादियों पर कटाक्ष करते हुए दावा किया है कि धार्मिक होना नैतिक होने की कसौटी नहीं है.जीसस के सच्चे अनुयायी लोगों को अच्छे नागरिक नहीं बना सकतेयह कथन धार्मिक आस्थावादियों पर सीधी चोटउनकी सत्ता के लिए एक चुनौती के समान थीअतः इसपर जिनेवा समेत पूरे यूरोप में हंगामा मच गयाबाद में रूसो ने सफाई देने का प्रयास भी किया थातथापि पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

रूसो ने यूरोपीय वैचारिक क्रांति को जन्म दिया थाउसको फ्रांस की क्रांति का भी जन्मदाता माना जाता हैरूसो अठारहवीं शताब्दी के एक और विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान वाल्तेयर का समकालीन थाबावजूद इसके उन दोनों में कभी सहज संबंध नहीं बन सकेदोनों परस्पर कटु आलोचक बने रहेरूसो ने अपनी पुस्तक सामाजिक संविदा की प्रति वाल्तेयर को भेंट की तो प्रतिक्रिया में उसका पत्र मिलाजिसमें लिखा था:

मुझे तुम्हारी नई पुस्तक जो मनुष्यता के विरुद्ध हैमिली,धन्यवादपाठकों को मूर्ख बनाने के लिए ऐसा चतुराई-भरा कार्य इससे पहले कभी नहीं किया गयातुम्हारी पुस्तक के संदेश को पहचाने तो हम सबको चार पैरों पर चलना शुरू कर देना चाहिए.लेकिन में यह आदत तो साठ वर्ष पहले ही छोड़ चुका हूंइसकी असंभाव्ययता को स्वीकारते हुए भी मुझे दुख होता है…’

रूसो एक अंतर्मुखी व्यक्ति थाउसके व्यक्तित्व की एक कमजोरी यह भी थी कि वह दूसरों के साथ आसानी से घुल-मिल नहीं पाता थाबात-बात पर झगड़ पड़ना उसका स्वभाव बन चुका था.समाज के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण वह भीड़ से दूर,एकांत की शरण में भागता थाये कमजोरियां निश्चित रूप से उसके बचपन की त्रासदियों की देन थींउन अभावों और विड़ंबनाओं की भी देन थींजिनके बीच उसे आजीवन रहना पड़ा.उसने जीवन में अपने लिए प्यार सहानुभूति की कमी सदैव महसूस कीबावजूद इसके वह विलक्षण प्रतिभा का धनी था.उसके दिल में करुणा थी और प्राणियों के प्रति बेशुमार प्रेमवह सदैव उत्पीड़ितों और वंचितों के पक्ष में आवाज उठाता रहाजहां तक व्यक्तिगत उपलब्धियों का सवाल हैजीवन के पहले सेंतीस वर्षों में वह कुछ खास नहीं कर पाया थासिवाय संगीत में कुछ प्रयोगों और छिटपुट लेखन केजिन्हें उस समय तक विद्वानों ने विचारयोग्य भी नहीं माना थामगर बाद के जीवन में रूसो ने जो लिखा उसने उसको अठारहवीं शताब्दी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक चिंतक के पद पर आसीन कर दिया.

आगे आने वर्षों में रूसो ने नवजागरण को न केवल प्रेरित किया,बल्कि उसको वैचारिक समर्थन और समृद्धि भी प्रदान कीरूसो को मनुष्यता में अटूट विश्वास थाउसी के लिए वह अपनी कलम को हथियार बनाकर सतत संघर्ष करता रहाउसने समाज तथा मानव प्रकृति के मौलिक अंतर को स्पष्ट किया हैअपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल कांट्रेक्ट’ में उसने मनुष्यता के प्रति अपने विश्वास को और भी दृढ़ता के साथ अभिव्यक्त किया हैउसने लोकतंत्र की भी मुक्त कंठ से सराहना की हैध्यातव्य है कि अठारहवीं शताब्दी के लगभग सभी सुधारवादी विद्वानों और अर्थशास्त्रियों ने अध्यात्मस्वाधीनतामुक्त बाजारविज्ञान और कलाओं का विकासव्यक्तिगत स्वतंत्रतामानवाधिकार तथा अभिव्यक्ति एवं प्रेस की आजादी का पक्ष लिया है.

उनसे अलग रूसो ने अध्यात्मनैतिकता तथा व्यक्तिगत संपत्ति संबंधी प्रचलित अवधारणाओं का सतत विरोध करते हुए भी प्रसिद्धि प्राप्त की थीउसका कहना था कि विज्ञान तथा तकनीक ने मनुष्य को अपने पंजों में जकड़ रखा हैमनुष्य पाषाणकाल में ही सुखी थाउसने इन पर प्रतिबंध लगाने पर जोर दिया है ताकि ये सब मनुष्य को भ्रमित न कर सकेंवर्तमान परिवेश में उसकी सभी मान्यताओं से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकताकिंतु इससे उसके विचारों की प्रामाणिकता एवं उनका औचित्य कहीं बाधित नहीं होतावाल्तेयर के बाद रूसो ही ऐसा विचारक था जिसने मनुष्यता को सर्वोपरि मानते हुए उसकी रक्षा के लिए कलम को हथियार बनाया और अपनी लगन एवं प्रतिभा के दम पर अपने लक्ष्य में सफलता भी प्राप्त कीजिसके लिए उसके योगदान को भुला पाना असंभव है.