Monday, 15 July 2013

भारतीय विदेश नीति :एक अवलोकन

सन् 1950 के दशक के अंत तक भारतीय विदेश नीति और राजनय अंतरराष्ट्रीय मंच पर असाधारण रूप से सक्रिय और प्रभावशाली रहे थे। भारत नवोदित राज्य था और उसके आर्थिक और सैनिक संसाधन बड़ी शक्तियों की तुलना में नगण्य थे, तब भी गुटनिरपेक्षता का विकल्प सुझा कर भारत ने अफ्रीका और एशिया के देशों के बीच अपनी अलग खास पहचान बना ली थी। नेहरू-युगीन भारत साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध तीसरी दुनिया के संघर्ष में सहज भाव से नेता और पथ प्रदर्शक के रूप में प्रकट हो चुका था। आज आजादी के 65 वर्ष बाद हमारी स्थिति बहुत बदल गयी हैै। नेतृत्व-क्षमता की बात तो छोड़िए, इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक के अंत के बाद का भारत खुद अपनी संप्रभुता और एकता-अखंडता की रक्षा करने में असमर्थ लगता है। इसका दोष सिर्फ अप्रत्याशित रूप से बदले हुए अंतरराष्ट्रीय परिवेश को नहीं दिया जा सकता। विदेश नीति की असमर्थता और कुंठित राजनय का योगदान भी इसमें कम नहीं। सबसे पहले यह याद रखने की जरूरत है कि भारतीय विदेश नीति का श्रीहीन होना किसी एक व्यक्ति विशेष के निकम्मेपन के कारण या किसी एक घटना/दुर्घटना का परिणाम नहीं है। विचारधारा का अभाव और राष्ट्रहित को दूरदर्शी ढंग से परिभाषित करने के बाद कुछ मूल्यों को सामने रख कर लक्ष्य निर्धारित करने की चुनौती से मुंह चुराने के कारण ही यह दुर्दशा हुई है। जब से हमारी सरकार ने आंख मूंद कर आर्थिक सुधारों को अपनाया है और यह मान लिया है कि भूमंडलीकरण का कोई विकल्प नहीं है, तभी से समाजवादी अर्थात् समता-पोषक सपनों को तिलांजलि दे दी गयी है और भारतीय विदेश नीति अपने पथ से बुरी तरह भटक गयी है। आजादी के ठीक बाद से ही भारत ने आर्थिक विकास का जो तरीका अपनाया, वह सोवियत संघ के मॉडल पर आधारित केंद्रीय नियोजित विकास वाला था। भले ही मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर नेहरू की सरकार ने इसमें महत्वपूर्ण संशोधन किया और निजी क्षेत्र की भूमिका को कुछ नियंत्रणों के बाद स्वीकार किया, लेकिन कुल मिलाकर हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति का रुझान समता-पोषक समाजवादी ही रहा। यह रेखांकित करना जरूरी है कि भारत के संदर्भ में समाजवाद का अर्थ किसी भी तरह का साम्यवाद नहीं लगाया जाना चाहिए। नेहरू भले ही अंग्रेजी मिजाज के अंग्रेजपरस्त फेबियन सोशलिस्ट रहे हों, आम हिंदुस्तानी की नजर में समाजवाद का मतलब गरीबों की हिमायत करने वाली नीतियां ही थीं। यह स्थिति कमोबेश इंदिरा गांधी के शासनकाल में भी बनी रही। भले ही एकछत्र निरंकुश शासन की महत्वाकांक्षा के कारण उन्होंने अनेक लोक-लुभावन नारे और नीतियां प्रस्तावित कीं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या रजवाड़ों और शाही थैलियों का उन्मूलन, उनकी सरकार साफ-साफ वंचितों और उत्पीड़ितों के पक्ष में अपने को प्रतिष्ठित करने में लगी रही। इसे मात्र संयोग नहीं समझा जाना चाहिए कि श्रीमती गांधी के शासनकाल में ही भारत की विदेश नीति सर्वाधिक स्वाधीन रही और हमारा राजनय काफी असरदार। सन् 1971 में बांग्लादेश का उदय हो या सन् 1974 में पोखरण में आण्विक विस्फोट, अमेरिका जैसी महाशक्ति के निरंतर बढ़ते दबाव का उन्होंने बखूबी सामना किया। यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि भले ही सोवियत संघ के साथ इस पूरे दौर में भारत के रिश्ते घनिष्ठ मैत्री वाले रहे, इस दोस्ती की वजह से भारत ने कभी विकल्प चुनने की अपनी स्वाधीनता को बंधक नहीं बनने दिया। तत्कालीन सोवियत संघ और चीन के बीच संबंध तनावग्रस्त रहने के बावजूद हमने अपने संबंध क्रमशः सामान्य किये। इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उन दिनों भी अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य बेहद संकटग्रस्त था।दक्षिण-पूर्व एशिया में वियतनाम युद्ध चरम सीमा पर पहुंच चुका था और मध्य पूर्व का संकट कम विकट नहीं था। देश की आंतरिक स्थिति भी सन् 1969-71 के बीच नक्सलवादी विद्रोह के कारण और बाद में खालिस्तानी अलगाववाद के कारण जोखिमों से भरपूर थी। कुछ लोगों को आज भी यह बात याद होगी कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में बगावत पूरे उफान पर थी और एक बार जब इंदिरा गांधी मिजोरम में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं, गोली-बारी निरंतर जारी रही थी। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए यह बात भी समझी जा सकती है कि विदेश नीति और राजनय के क्षेत्र में तत्कालीन उपलब्धियां कितनी महत्वपूर्ण थीं। अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जा था और विश्व भारत के अपवाद को छोड़ उस महाशक्ति के खिलाफ खड़ा था। इन्हीं वर्षों में भारत ने फिलिस्तीनियों के साथ भाईचारा सार्थक ढंग से निभाया और यासिर अराफात और फीदेल कास्त्रो दोनों ही के साथ इंदिरा गांधी के रिश्ते आत्मीय और भारतीय राष्ट्रीय हितों के लिए लाभदायक रहे। इतिहास के इन पन्नों को इस घड़ी पलटना बेहद जरूरी है ताकि विदेश नीति और राजनय के क्षेत्र में विचारधारा और मूल्यों के सर्वोपरि महत्व को ठीक से समझा जा सके। इसके अभाव में समसामयिक भारतीय विदेश नीति और राजनय का मूल्यांकन असंभव है। राजीव गांधी के कार्यकाल में बदलाव शुरू हो चुका था। भले ही आज कुछ लोग इसका पूरा श्रेय गद्दीनशीन मनमोहन सिंह और कभी उनके संरक्षक रहे नरसिंह राव को ही देना चाहते हैं, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत को इक्कीसवीं सदी में ले जाने और इस देश में कॉरपोरेट तबके को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपने वाली परियोजना की रूपरेखा राजीव के काल में ही तैयार की गयी थी। यहां जोड़ने की जरूरत है कि इसके बावजूद राजीव के शासनकाल में विदेश नीति को भारत के राष्ट्रहित पर ही रखने का भरसक प्रयत्न किया गया। इसके कारण कभी-कभी भारतीय राजनय स्वरूप पड़ोसियों को उग्र, विस्तारवादी और आक्रामक तक नजर आने लगा था। श्रीलंका में पहले लिट्टे का प्रशिक्षण, फिर आईपीकेएफ दस्ते का भेजा जाना, नेपाल की नाकेबंदी, मालदीव में हस्तक्षेप इसी का उदाहरण है। राजीव को इस बात को पूरा एहसास था कि स्वदेश में वे निश्चंत शासन तभी कर सकते हैं जब अंतरराष्ट्रीय परिवेश अनुकूल हो। उन्होंने अपने नाना और माता के पदचिह्नों का अनुसरण इसीलिए किया कि अफ्रीका और एशिया की एक जैसी समस्याओं से जूझते देशों का संयुक्त मोर्चा कमजोर न होने पाये। इसीलिए उन्होंने "अफ्रीका फंड' की स्थापना की घोषणा की और छह राष्ट्रीय संवाद द्वारा नाभिकीय ऊर्जा विषयक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को समतापूर्ण बनाने का प्रयास भी किया। दुर्भाग्य से बोफोर्स घोटाले में बदनाम और पंगु होने के बाद राजीव को पदत्याग करना पड़ा और इसके बाद देश में अस्थिर मौकापरस्त सरकारों का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसमें विदेश नीति और राजनय की निरंतर उपेक्षा होती रही। कहने को इंदर कुमार गुजराल विदेश नीति के विशेषज्ञ और वामपंथ- साम्यवादी विचारधारा के समर्थक थे, लेकिन वास्तव में वे जमाने की चाल के साथ चलने वाले "सहयात्री' भर थे। विचारधारा उनके संदर्भ में हाथी के दिखावटी दांत जैसा ही मामला रही। जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली, तभी से अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने की प्रक्रिया तेज हो गयी। आज भले ही इसका पूरा श्रेय जसवंत सिंह अकेला लेना चाहते हों, लेकिन यह याद दिलाना बेहद जरूरी है कि अमेरिका के प्रति झुकाव और आर्थिक सुधारों को लागू कराने के काम नरसिंह राव ने ही शुरू कर दिया था। एक बार आर्थिक हितों का संयोग हो जाने के बाद सामरिक समीकरण खुद-ब-खुद बदलने लगे। यह भी साफ करने की आवश्यकता है कि जब हम आर्थिक हितों की बात करते हैं तो तात्पर्य भारत के आम आदमी के हित नहीं, बल्कि ताकतवर उद्यमियों के तबके के हितों से हैं। भूमंडलीकरण का तर्क जिन हितों के साम्य की बात करता है, उनके बारे में भी यह बात लागू होती है।इसी सबका नतीजा है कि आज भारत की विदेश नीति या तो गतिरोध से ग्रस्त, लाचार या एक ऐसे भंवर में फंसी दिखलाई देती है जो उसे रसातल के गर्त तक ही पहुंचा सकती है। आज भारत बहुत सारे फैसले अमेरिकी विदेश विभाग के दबाव में लेता नजर आता है। यह बात सिर्फ ईरान-बनाम इजरायल तक सीमित नहीं। फिलिस्तीनियों को हम पूरी तरह भुला चुके हैं और अफ्रीका महाद्वीप भी हमें नक्शे में दिखलाई देना बंद हो चुका है। अमेरिकियों के अफगानिस्तान से बेआबरू होकर वापस लौटने के बाद उनके हितों की रखवाली के लिए उस जानलेवा दलदल में धंसने-फंसने के लिए आज भारत उतावला हो रहा है। अमेरिकी नेताओं और खाद्य विश्लेषकों ने भारत को एक घातक मरीचिका में फंसा दिया है। हमें यह बताया जा रहा है कि हम एक उदीयमान शक्ति हैं और हमें बड़ी शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप जिम्मेदारी और खर्च का बोझ स्वीकार करना ही होगा।अफ-पाक मोर्चे पर भारत की गर्दन में फंदा पहनाने के लिए तो भारत अमेरिका को उदीयमान शक्ति नजर आता है, लेकिन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता या परमाणविक हथियारों के स्वामित्व के संदर्भ में भारत की टेक्नोलॉजी के हर प्रयास को बाधित करने के हर संभव प्रयास करता रहा है। इसी का नतीजा है कि भूमंडलीकरण के बहाने अपना माल तो अमेरिका भारत के बाजारों में भेजता रहा है और अब खुदरा व्यापार पर कब्जा करना चाहता है, लेकिन भारतीय उत्पाद सेवाओं और कारीगरों-इंजीनियरों पर कड़े नाजायज प्रतिबंध लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ता।यह बात अमेरिका तक ही सीमित नहीं। चीन ने (जो खुद भूमंडलीकरणवादी व्यवस्था का कट्टर विरोधी है) अनायास भारत का पहले नंबर का आर्थिक साझेदार बनने में सफलता हासिल कर ली है। आज स्थिति यह है कि हमारे प्रधानमंत्री यह फरमाने लगे हैं कि यदि चीन हमारी सीमा का अतिक्रमण करता भी है तो इसे ठंडे दिमाग से विचारकर अनावश्यक तूल नहीं देना चाहिए क्योंकि उस देश के साथ हमारे आर्थिक रिश्ते सीमा विवाद से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो चुके हैं। भारत ने पूरब की ओर देखने की जब पहल की थी, आज उसकी किसी को याद नहीं रह गयी है। और न ही उस गैस-तेल पाइप लाइन की, जिसके बारे में कभी यह कहा जाता था कि जब यह आजरबाइजान- ईरान से बरास्ता अफगानिस्तान-पाकिस्तान भारत तक पहुंचेगी, तो हमारी ऊर्जा सुरक्षा सुदूर भविष्य तक सुरक्षित हो जायेगी। इसी के लिए साइबेरिया में साखालिन में अरबों डॉलर का निवेश भारत सरकार ने ओएनजीसी के जरिये किया था।जबसे मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार दांव पर लगा कर अमेरिकी सरकार के साथ परमाणविक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग वाले करार पर हस्ताक्षर किये, तभी से हमारा ऊर्जा राजनय भी मृतप्राय हो गया है। जब अमेरिका अपने सामरिक हितों के दबाव में अच्छे और बुरे तालिबान में फर्क करने लगता है, तब अचानक हिंदुस्तान को अपने अकेले छूट जाने का एहसास होता है। यह बात जाहिर होती है कि अमेरिका ने दहशतगर्दी के खिलाफ जो जंग छेड़ने का ऐलान किया था उसकी असलियत क्या थी? यानी आर्थिक विकास का पूंजीवादी रास्ता चुनने के बाद भी हम अमेरिका के सहोदर-सगे, अपने नहीं बन सके। हमारे जैसा गरीब देश वास्तव में पूंजीवादी हो भी कैसे सकता है? देश में संपन्न तबका बहुत सीमित शासक वर्ग ही है। वर्तमान विदेश नीति और आंतरिक नीतियां व्यापक राष्ट्रहित में नहीं समझी जा सकतीं। यह सिर्फ अदूरदर्शी ही नहीं, तात्कालिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकती। पड़ोस की तमाम हलचल को अनदेखा कर हमारी विचारधारा के बोझ से मुक्त नीति निर्धारकों की निगाहें दूरस्थ क्षितिज पर ही टिकी रहती हैं। नेपाल, बांगलादेश, म्यांमार या मालदीव, सभी जगह भारतीय विदेश नीति तथा राजनय लकवाग्रस्त दिखाई दे रहा है।भारत की संप्रभुता का जिस तरह अवमूल्यन हुआ है वह भी शर्मनाक है। नॉर्वे में भारतीय दंपती से उनके बच्चे छीनना हो या इटली के जहाज पर सवार निशानेबाजों द्वारा केरल के मछुआरों को मार गिराना, सब यही दर्शाते हैं कि ढुलमुल, मौकापरस्त आचरण के क्या दुष्परिणाम होते हैं। इसके पहले भी ऑस्ट्रेलिया में या ब्रिटेन में नस्लवादी हिंसा के शिकार भारतीय नागरिकों को न्याय दिलाने में हमारी सरकार असमर्थ रही। यह स्थिति अकस्मात पैदा नहीं हुई है। इसके लिए सर्वोच्च नेतृत्व की उदासीनता और पेशेवर राजनयिकों की बिरादरी में रीढ़ की हड्डी का अभाव जिम्मेदार है।

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