Monday 15 July 2013

सीरिया बनाम शेष विश्व :एक आंकलन



सीरिया के बारे में कहा जा रहा है कि उसके शासक असद के पास रासायनिक तथा जैविक हथियार हैं, जिनका प्रयोग वह निहत्थे नागरिकों पर कर सकते हैं। लंदन स्थित ‘सीरिया वेधशाला’ हो या तुर्की की सरहद पर तैनात ‘इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज’ के पर्यवेक्षक- सभी इस लाल बुझक्कड़ी में लगे हैं किंतु कम लोगों को याद होगा कि इराक में भी सद्दाम के खात्मे के पहले ‘वैपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन’का हल्ला मचा सैनिक दखलंदाजी का माहौल बनाया गया था। बगदादी पहाड़ खुद गया और उसके मलबे में सद्दाम दफना भी दिया गया पर इस सबके बीच भयानक हथियारों वाली मरी चुहिया भी हाथ नहीं लगी   
लगता है कि इराक, लीबिया और मिस्र में ‘सत्ता परिवर्तन’ के बाद अब सीरिया की बारी आन पहुंची है। पिछले कई महीनों से राष्ट्रपति असद हिंसक बगावत का सामना कर रहे हैं तथा यह बात भी जगजाहिर है कि वह विद्रोहियों का दमन बर्बर बल प्रयोग से कर रहे हैं। वह अपने ही नागरिकों के खिलाफ बेहिचक टैंक, तोपों एवं बमवषर्क वायुयानों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिस कारण अंतरराष्ट्रीय मीडिया तथा जनमत उनके विरु द्ध होता गया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जो प्रस्ताव रूसी तथा चीनी वीटो के कारण पारित नहीं हो सका, उसमें सीरिया सरकार की र्भत्सना की गयी थी तथा मानवीय आधार पर बहुराष्ट्रीय सैनिक हस्तक्षेप की जमीन तैयार की जा रही थी। उल्लेखनीय है कि भारत ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था और इस बात पर निराशा व्यक्त की थी कि रूस तथा चीन के फैसले की वजह से उस देश में पुन: शांति स्थापित कराने के संयुक्त राष्ट्र के प्रयास में गतिरोध आ गया है। अब समाचार मिल रहे हैं कि सीरिया की आर्थिक राजधानी तथा दूसरे सबसे बड़े शहर अलेप्पो पर कब्जा करने के लिए सरकारी फौज तथा विद्रोहियों के बीच आर-पार की लड़ाई जारी है। इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि सीरिया गृहयुद्ध के कगार तक पहुंच चुका है। भारत की नीति के बारे में बात करने से पहले इस समस्या की उलझी गुत्थी सुलझाने का संक्षिप्त ही सही, पर प्रयत्न जरूरी है। सीरिया में वंशवादी सरकार का राज चौथाई सदी से भी ज्यादा समय से चल रहा है। इराक की ही तरह वहां भी समाजवादी रुझान की बाथ पार्टी से प्रेरित फौजी तानाशाही इस्रइल से लगे संवेदनशील सरहदी मोर्चे वाले इस राज्य पर शासन करती रही है। असद अलवाई शिया संप्रदाय के अनुयाई हैं जबकि अधिसंख्य आबादी सुन्नी है। असद को ईरान का समर्थन प्राप्त है तथा लेबनान की हिजबुल्ला पार्टी का भी। यह दोनों बातें अमेरिका तथा इस्रइल को नागवार हैं। सीरिया की सीमा तुर्की से भी जुड़ती है जिसका आरोप है कि सीरिया उसके यहां रहने वाली कुर्द आबादी को बगावत के लिए भड़काता रहा है। वैसे भी वह यह नहीं चाहते कि हिंसा का लावा सीरिया से बह कर उनके देश में बह आये। पिछले कुछ महीनों से सीरिया में जिच की सी स्थिति चली आ रही थी पर दसेक दिन पहले बागियों ने सरकार के किले के सबसे सुरक्षित भाग में जबर्दस्त धमाका कर विद्रोह के दमन में सक्रिय भूमिका निभा रहे असद के बहनोई तथा पूर्व रक्षा मंत्री समेत सेना के अनेक अफसरों को मार डाला। तभी से कुछ विकट सवाल पूछे जा रहे हैं? क्या असद अपनी सेना तथा गुप्तचर संगठन में ही बेअसर हो चुके हैं? क्या यह ‘आतंकवादी’ हमला विदेशी ताकतों द्वारा प्रायोजित था? सीरिया के घटनाक्रम को भी अंतरराष्ट्रीय मीडिया उतने ही उत्साह से दिखा रहा है जैसे उसने ‘अरब वसंत’ का प्रदशर्न कर उसके पक्ष में जनमत तैयार किया था। फिलहाल पिछले दिनों संपन्न हुए विंबलडन तथा इन दिनों चल रहे ओलंपिक खेलों के कारण इस अभियान में थोड़ा बाधा पड़ी है पर माना जा रहा है कि कुछ समय बाद इसमें फिर से तेजी आ जाएगी। इस बार भी यह प्रचार किया जा रहा है कि असद के पास रासायनिक तथा जैविक हथियार हैं, जिनका प्रयोग वह अपने निहत्थे नागरिकों पर कर सकते हैं। इस भीषण आशंका को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप को जायज तथा अनिवार्य ठहराने का अभियान जोर-शोर से जारी है। लंदन स्थित ‘सीरिया वेधशाला’ हो या तुर्की की सरहद पर तैनात ‘इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज’ के पर्यवेक्षक- सभी निरंतर इस लाल बुझक्कड़ी में लगे हैं। यह बात आज कम लोगों को याद रह गयी है कि इराक में सद्दाम हुसैन के खात्मे के पहले भी ‘वैपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन’ का हल्ला मचा कर सैनिक दखलंदाजी का माहौल बनाया गया था। बगदादी पहाड़ खुद गया और उसके मलबे में सद्दाम को दफना भी दिया गया पर इस सबके बीच भयानक हथियारों वाली मरी चुहिया भी हाथ नहीं लगी। विडम्बना यह है कि इस बार भी इराकी त्रासदी को दुहराते हुए असद सरकार के एक प्रवक्ता ने बयान दिया है कि सीरिया की मौजूदा सरकार इन हथियारों का इस्तेमाल करने से यथासंभव बचना चाहती है तथा अपने नागरिकों को इनका निशाना कभी नहीं बनाएगी। विदेशी एजेंटों एवं हमलावर आतंकवादियों के प्रतिरोध के लिए ही यह काम में लाये जा सकते हैं। यह काफी हद तक ब्लफ वाली धमकी ही लगती है। कभी ऐसी ही बड़बोली धौंस की कीमत सद्दाम हुसैन ने अपनी जान देकर और अपने देश की तबाही से चुकाई। यही हश्र गद्दाफी का भी हुआ। दरअसल, अमेरिका तथा पश्चिम की इसको लेकर सबसे बड़ी चिंता यही है कि कहीं ये जहरीले हथियार लेबनान में हिजबुल्ला के हाथ ना लग जाएं। यह याद रखने लायक है कि अमेरिका में यह राष्ट्रपति के चुनाव का वर्ष है। राष्ट्रपति के पद के उम्मीदवार बराक ओबामा या रोमनी में से कोई भी असरदार यहूदी लॉबी तथा मतदाता को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते। समर्थ-सक्षम विदेश नीति विषयक सोच दर्शाने के लिए सीरिया के प्रति नरम रु ख नहीं रखा जा सकता जबकि कडुवा सच यह है कि अफगानिस्तान तथा इराक से अमेरिकी सैनिकों को घर वापस लौटा लाने के बाद अमेरिका दूसरे ऐसे किसी दलदल में फंसना नहीं चाहता। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में बहुराष्ट्रीय सैनिक हस्तक्षेप के लिए उसका राजनय सक्रिय है। जहां तक भारत का प्रश्न है, यूपीए-2 सरकार ने अपनी विदेश नीति को अमेरिका का पिछलगुवा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पहले पाकिस्तान फिर अफगानिस्तान के बारे में अमेरिका के सोच-सुझाव को वेद वाक्य मान कर फिर ईरान के मामले में धमकी भरे दिशा निर्देश को सर माथे पर रख कर लगता है उसने अपने तमाम विकल्प नष्ट कर दिये हैं। इसका लाभ पता नहीं कब मिलेगा पर नुकसान सामने आने लगे हैं। मध्यपूर्व और पश्चिम एशिया में हमारे हित आज अमेरिका के सामरिक स्वार्थों से अलग परिभाषित करना असंभव सा हो गया है। फिलिस्तीनी, जो हमारे पारंपरिक मित्र माने जाते थे, आज हमसे दूर हो चुके हैं। मिस्र तथा इराक में भारतीय उद्यमियों-उद्योगपतियों ने जो जमीन तैयार की थी, उस पर अमेरिकी फसल काटने की कोशिश में हैं। गुट निरपेक्ष आंदोलन के दौर की बात तो आज पौराणिक लगती है पर हाल के वर्षो तक भारत इतना पराधीन नहीं लगता था। ऐसा जान पड़ता है कि अमेरिकी आकाओं को खुश करने के लिए सरकार ने यह फैसला कर लिया है कि इस भूभाग में (या अन्यत्र भी) स्वाधीन विदेश नीति की कोई दरकार नहीं। जहां तक अल्पसंख्यक मतदाता वाले वोट बैंक को सलामत रखने की चुनौती है तो माना जा सकता है कि घरेलू राजनीति में तुष्टीकरण की नीति से यह काम साधा जा सकता है। सदियों पहले सीरिया का शुमार भी प्राचीन सभ्यताओं में होता था। दमिश्क जैसे शहर मध्ययुग में दुनिया भर में मशहूर थे। अलेप्पो की ख्याति का पता शेक्सपियर के नाटकों से भी चलता है। यह शोक संताप का ही विषय समझा जाना चाहिए कि एक मदांध चरमशक्ति का निरंकुश आचरण आज उस ऐतिहासिक बुलंदी को पस्ती में बदलने पर आमादा है। यह न समझें कि हम कुनबापरस्त तानाशाही के समर्थक हैं पर राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता वाली स्थापना के बारंबार उल्लंघन का मूक दशर्क बने रहना भी आत्मघातक सिद्ध हो सकता है।

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