आज
के राजनीतिक दौर में कुछ खास राजनीतिक छवि देखने को नहीं मिल रही है।
अर्थात अच्छे राजनीतिज्ञ या अच्छे नेतृत्वकर्ताओं का आभाव साफ देखने को मिल
रहा है। आज के हर राजनीतिक दल के चाल, चरित्र एवं चेहरे पर गौर करें तो
कोई खास सुखद अनुभूति देखने को नही मिलती है।
लोकतंत्र
की मजबूती का आधार ही राजनीतिक सुदृढ़ता एवं परिपक्वता है। पर देश का
राजनीतिक परिवेश खुद एक प्रकार से अदूरदर्शिता का शिकार बनता चला जा रहा
है। आज किसी भी पार्टी को लेकर चाहे वो क्षेत्रिय हो या राष्ट्रीय, सबके
अपने-अपने सिद्धांत एवं विचारधारा है। सबकी अपनी-अपनी नितियाँ हैं। हर
चुनावी घोषणापत्र में, इन दलों की नीतियों का बखान किया जाता है। पर जब बात
आती है ऐसी नीतियों या सिद्धांतों पर चलने की तो शायद ही कोई राजनीतिक दल
इसके प्रति दिलचस्पी दिखाए। कुछ पार्टियों को छोड़ भी दें जैसे वामपंथी
पार्टी या फिर भारतीय जनता पार्टी, वंशवाद के सवाल पर इन दलों में कोई
स्थान नही है। पर वहीं इन्हे छोड़ देश की जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं वह
पूर्णरुपेण वंशवाद की शिकार हो चलीं हैं। हर दल किसी ना किसी परिवार विशेष
की जागीर बन चुका है। यह तो महज एक छोटा सा उदाहरण है। तो भला हम सभी एक
अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसे दलों के उद्देश्य एवं लक्ष्य कितने सार्थक
होंग। ऐसे दलों में सगठन का कितना महत्व होगा। आज इसका परिणाम ही है कि आज
का सम्पूर्ण राजनीतिक वातावरण एक प्रकार से नेतृत्व शून्यता की स्थति में
खड़ा है। देश की लोकतांत्रिक या संसदीय व्यवस्थाऐं तभी तक अपनी सार्थक
भूमिका निभा सकती हैं, जब तक राजनीति का दृष्टिकोण व्यापक एवं आदर्शशात्मक
ना हो।
राजनीति
लोकतंत्र का एक सच्चा वाहक है। राजनीति की दशा-दिशा ही लोकतंत्र की
दशा-दिशा तय करती है। जितनी पारदर्शिता, जितनी स्पष्टता, जितनी दृढ़ता
राजनीतिक आचार-विचार मे देखने को मिलेगी, लोकतंत्र या कहें संसदीय
व्यवस्थता उतनी ही संतुलित दिखेगी।
आज
के इस राजनीतिक वातावरण में ज्यादा कुछ कहने की जरुरत नहीं है। पंचायत
चुनाव से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक कैसी परिस्थितियां होती है, किस
प्रकार की नीतियां कार्य कर रही होती हैं, सबको पता है। हर जगह अनैतिक
कुटिल स्वार्थपरक नीतियां कार्य कर रही होती हैं। आज आम जनमानस ऐसे किसी भी
राजनीतिक दल या नेता के प्रति अपना अविश्वास प्रसतुत करता है अर्थात एक
प्रकार से संदिग्धता की परिधि मे आँकता है। इसके लिए दोषी कौन है? इस संर्दभ मे जिम्मेदार किसे ठहराया जाए?अगर
ऐसी राजनीतिक विक्षोभ भरी परिस्थितियां लगातार बनी रहीं तो निश्चित मानिए
कि हम लोकतंत्र हो या संसदीय परम्परा को ज्यादा दिनों तक कायम नही रख
पाऐंगे। फिर क्या होगा, क्या देखने को मिलेगा? आप अंदाजा लगा सकते हैं।
विश्व
में लोकतांत्रिक व्यवस्था से बढ़कर कोई व्यवस्था नही हो सकती। हर
अव्यवस्था का विक्लप ही सुव्यवस्थित लोकतंत्र है। लोकतंत्र का कोई विकल्प
नही हो सकता। राजनीति लोकतंत्र का प्रमुख आधार स्तम्भ है और राजनीतिक दल
ऐसे स्तम्भ को बनाऐ, बचाऐ रखने का महत्वपूर्ण कारक।
सन
1947 के बाद से लेकर 80 के दशक तक राजनीति में सिद्धातों एवं विचारधाराओं
ने अपनी मजबूती बनाई रखी, पर इसके पश्चात धीरे-धीरे ही सही राजनीतिक दलों
से ऐसी विचारधाराओं का विलोप होना शुरु हो गया। दल में व्यक्ति विशेष,
परिवार विशेष हावी होते चले गए। पहले जो पार्टी की धुरी नीतियों के आधार पर
संगठन पर केंन्द्रित थी, ठीक इसी नीतियों के आभाव में पार्टी की धुरी
व्यक्ति विशेष, परिवार विशेष पर आकर केन्द्रित हो गई। फिर क्या था राजनीति
में शुरु हो गई अनैतिकता, चापलूसी, बाहूबल, धनबल का बोलबला ।आज इन सभी के
सामने जिसप्रकार से अदूरदर्शिता पुर्ण राजनीतिक माहौल देखने को मिल रहा है,
ठीक इसी का ही तो परिणाम है।
आज
किसी भी दल की ना तो कोई दशा है और ना ही दिशा। उद्देश्य महज केवल सत्ता
प्राप्ति है। चाहे इसके लिए जिस प्रकार के हथकण्डे अपनाए जाऐं, किस प्रकार
की अनैतिक नीतियों को बढ़ावा दिया जाए। भला ऐसे माहौल में किसी भी दल को ना
तो कर्मठ कार्यकर्ता मिलेगा और ना ही अच्छा संगठन। फिर भला राजनीति चलेगी
कैसे? चलेगी जात, धर्म, वर्ग, लिंग, क्षेत्र के आधार पर। तब बाँटो एवं राज करो की नीति सर्वोपरि होगी।
अब रही बात कि इस अदूरदर्शितापूर्ण राजनीतिक परिपेक्ष्य में आखिर नुकसान किसका हो रहा है? नुकसान तो होगा, नुकसान हो भी रहा है इस लोकतंत्र का, इस संसदीय परम्परा का, देश की आवाम का।
जब
राजनीतिक जड़ें ही सिद्धांत, विचारधारा विहीन हों तो भला लोकतंत्ररुपी
स्वस्थ्य पेंड़ की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं। आज इसका परिणाम है देश में
अच्छे राजनीतिक नेतृत्व की कमी। देश में राजनीतिक विरोधाभास का अभाव।
ऐसी
बात नही है कि हमारे राजनीतिक दलों के पास मिशन का अभाव है, नीतियों का
अभाव है, नेता का अभाव है। सब कुछ है सभी के पास पर जो नही है इनके पास, वो
है राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति की। लोकतंत्र के प्रति संसदीय व्यवस्था के
प्रति त्याग, समर्पण की।
आज भारतीय लोकतंत्र के सामने सिद्धांत एवं विचारधारा का संकट है। नीतियों एवं कार्ययोजनाओं का संकट है। इसकी भरपाई कौन करेगा? इसकी
भरपाई इन्हीं राजनीतिक दलों को अपने चाल, चरित्र, चेहरे में बदलाव लाकर
करना होगा। आम लोगों से जुड़ना होगा, संगठन बनाना होगा और एक स्पष्ट
पारदर्शी लक्ष्य तय करना होगा। जिस प्रकार की राजनीतिक शून्यता की स्थति
देखने को मिल रही है, इसकी भरपाई इन्हीं कार्यों द्दारा संभव है। तभी देश
को एक सबल एवं सफल नेतृत्व मिलेगा। रास्ता काफी लंबा होगा, पर धैर्य के साथ
निरंतर संघर्ष करते हुऐ आगे बढ़ना होगा, वरना जो दिशाहीन राजनीति आज देखने
को मिल रही है बिना ऐसे बदलाव के शायद यह लम्बे समय तक कायम रहे।
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