अमेरिका
और चीन आज दुनिया के दो सर्वाधिक श्क्तिशाली देश हैं। इन दोनों
केअंतर्संबंध इतने जटिल हैं कि उनकी सरलता से व्याख्या नहीं की जा सकती।
उनके बीच न कोई सांस्कृतिक संबंध है, न सैद्धांतिक, बस शुद्ध स्वार्थ का
संबंध है। इसलिए न वे परस्पर शत्रु हैं, न मित्र। इनमें से एक भारत का
पड़ोसी है, दूसरा एक नया-नया बना मित्र। पड़ोसी घोर विस्तारवादी व
महत्वाकांक्षी है। ऐसे में भारत के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह अमेरिका
के साथ अपना गठबंधन मजबूत करे। यह गठबंधन चीन के खिलाफ नहीं होगा, क्योंकि
अमेरिका भी न तो चीन से लड़ सकता है और लडऩा चाहता है। लेकिन चीन की बढ़ती
शक्ति से आतंकित वह भी है और भारत भी। इसलिए ये दोनों मिलकर अपने हितों की
रक्षा अवश्य कर सकते हैं, क्योंकि चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए,
वह अमेरिका और भारत की संयुक्त शक्ति के पार कभी नहीं जा सकता।
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21वीं शताब्दी के लिए अमेरिका-चीन संबंधों को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि विश्व का 21वीं शताब्दी का स्वरूप अमेरिका चीन संबंधों के स्वरूप पर निर्भर करेगा। भारत के लिए भी आज अमेरिका चीन संबंधों का बहुत महत्व है।भारत का चीन के साथ संबंध इस समय शत्रुभाव की तरफ झुका हुआ है, जबकि अमेरिका के साथ वह साघन मैत्री की तरफ बढ़ रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका और चीन का संबंध न शत्रुतापूर्ण है न मित्रतापूर्ण। दोनों के आपसी संबंध बहुत ही जटिल ढंग से आपस में गुंथे हुए हैं और दोनों परस्पर प्रतिद्वंद्विता के रास्ते पर अग्रसर है। चीन और अमेरिका के आर्थिक संबंध शायद सर्वाधिक घनिष्ठ है, लेकिन अमेरिका की चिंता यह है कि उनका व्यापारिक संतुलन चीन की तरफ द्ब्राुका हुआ है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ भी चीन ही उठा रहा है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा साहूकार भी है। उसने काफी बड़ी रकम अमेरिका को कर्ज दे रखी है। इस व्यापारिक असंतुलन को सुधारने के लिए अमेरिका सर्वाधिक चिंतित है। इसी चिंतावश पिछले दिनों उसने चीनी इस्पात की पाइपों पर 99 प्रतिशत का आयात कर लगा दिया। उसने चीनी टायरों के आयात पर भी अंकुश लगाया है। चीन अपने माल से अमेरिकी बाजार को पाट रहा है, ससे अमेरिकी सरकार की चिंता बढऩा स्वाभाविक है, क्योंकि इसके कारण अमेरिकी उद्योग प्रभावित हो रहे हैं और युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है। वस्तुत: अमेरिका में चीनी माल सस्ता पड़ता है, जिसके कारण अमेरिकी उपभोक्ता भी उसकी तरफ आकर्षित होते हैं।
वास्तव में चीनी माल के सस्ते होने के तीन बड़े कारण हैं। एक तो चीन में मजदूरी दर कम है। कोई श्रमिक कानून न होने के कारण कर्मचारी कम वेतन में अधिक घंटे काम करके अधिक उत्पादन करते हैं। जबर्दस्त मशीनीकरण का भी इसमें भारी योगदान है। दूसरे वहां कच्चामाल, खनिज, बिजली, पानी सस्ते दर पर उपलब्ध हैं। तीसरे चीन की सरकार ने जान-बूझ कर अपनी मुद्रा का मूल्य कम कर रखा है, जिससे निर्यात को बढ़ावा मिले। अब अमेरिका पहले दो कारणों को लेकर तो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन वह चीन पर इसके लिए दबाव डाल सकता है कि वह अपनी मुद्रा का मूल्य बढ़ाए। चीन सामान्य स्थिति में तो अमेरिका की एक न सुनता, लेकिन वह जनता है कि उसके उत्पादित माल की सर्वाधिक खपत अमेरिका में होती है और यदि अमेरिका ने अपने बाजार उसके लिए बंद कर दिये तो उसे भारी व्यापारिक हानि उठानी पड़ सकती है, इसलिए वह अपनी मुद्रा का मूल्य कुछ बढ़ाने का निर्णय ले सकता है। वैसे यह मसला एकदम एकतरफा नहीं है। व्यापारिक संतुलन भले ही चीन के पक्ष में हो, लेकिन चीन अमेरिकी माल के लिए भी एक बहुत बड़ा बाजार है। आशय यह कि अमेरिका की चीन को जितनी जरूरत है उससे कम जरूरत अमेरिका को चीन की नहीं है। इसीलिए अपनी यात्रा के प्रथम चरण में जापान की राजधानी टोक्यो में बोलते हुए ओबामा ने कहा कि विश्व स्तर पर चीन की बढ़ती भूमिका पर अंकुश लगाने का कोई इरादा नहीं है। इसके विपरीत हम चीन की बड़ी भूमिका का स्वागत करते हैं। क्योंकि इस भूमिका में चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ उसकी जिम्मेदारियां भी जुड़ी हैं। एक समृद्ध व सशक्त चीन का आगे बढऩा पूरे विश्व के हित में हो सकता है। वास्तव में अमेरिका को चीन के सहयोग की जरूरत है, क्योंकि 21वीं सदी की चुनौतियों का कोई भी देश अकेले सामना नहीं कर सकता।
ओबामा का यह चीन पहुंचने पूर्व का बयान है। जाहिर है कि वह इस तरह के बयान के द्वारा चीन के साथ वार्ता की पृष्ठïभूमि तैयार कर रहे हैं। चीन वास्तव में एक नितांत संकीर्ण स्वार्थी देश है। उसने अब तक कोई वैश्विक भूमिका निभाने की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया, न कभी इसकी महत्वाकांक्षा ही व्यक्त की। वह केवल अपनी आर्थिक व सामरिक शक्ति बढ़ाने की एकांत साधना में लगा रहा। अब इन दोनों क्षेत्रों में महाशक्तियों के समकक्ष स्थान पा लेने के बाद वह अपनी वैश्विक भूमिका की तरफ आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी यह वैश्विक भूमिका भी नितांत उसकेआर्थिक व सामरिक हितों से नियंत्रित है। वह दूसरे देशों से संबंध बढ़ा रहा है तो केवल सस्ते कच्चेमाल तथा बाजार की तलाश में। वह यदि कुछ देशों के साथ सामरिक सहयोग कर रहा है तो केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरने तथा अपने शक्ति विस्तार के लिए। उसने कभी मानवाधिकार, रंगभेद, आर्थिक विषमता आदि को विदेश नीति का आधार नहीं बनाया। लोकतंत्र का तो वह स्वयं अनुपालक नहीं है तो दुनिया की लोकतांत्रिक लड़ाई में वह क्यों कोई भाग लेता। उसने केवल अपने राष्ट्रीय हित को विदेश नीति का आधार बनाया। इसलिए उसने तमाम तानाशाही सरकारों के साथ अच्छे संबंध और उसका लाभ उठाया। वह कभी किसी न्याय की लड़ाई का दावा नहीं करता। म्यांमार में लोकतंत्र का दमन हो रहा है या नहीं इससे उसका कोई लेना देना नहीं। उसने वहां लोकतंत्र के विरुद्ध सैनिक 'जुंटा का समर्थन किया तो केवल इसलिए कि इससे उसे वहां के जंगलों की कीमती लकड़ी तथा कच्चा तेल सस्ते में मिल सकता है। इसी तरह का उसका संबंध पाकिस्तान व अन्य देशों के साथ चला आ रहा है। जबकि भारत का रवैया सदा इसके विपरीत रहा है।
सोवियत संघ के बिखरने के बाद दुनिया ने एक ध्रुवीय रूप धारण कर लिया और अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति बन गया, लेकिन सोवियत संघ का भय खत्म होने के साथ ही अमेरिका के साथ मजबूरी में चिपके हुए देश भी अपने को स्वतंत्र महसूस करने लगे। इससे अमेरिका केभी वैश्विक प्रभुत्व में कमी आई। इस वातावरण में चीनी महत्वाकांक्षा का जगना स्वाभाविक था। अब वह बदली दुनिया में अमेरिका को पीछे छोड़कर स्वयं दुनिया की प्रथम महाशक्ति बनना चाहता है। इसके लिए उसने अपनी आर्थिक शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करना शुरू किया। उसने एशियायी देशों पर ही नहीं अफ्रीकी व दक्षिण अमेरिकी देशों पर भी अपना प्रभाव विस्तार कार्यक्रम शुरू किया।
यह अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती है। अमेरिका की प्रशांत क्षेत्र पर सोवियत काल से ही काफी मजबूत पकड़ बनी हुई थी। जापान, ताइवान, हांगकांग, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपिन्स, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर ये सब उसके प्रभाव क्षेत्र वाले देश हैं। यद्यपि विभिन्न राजनीतिक कारणों से इन देशों पर अभी भी अमेरिकी वर्चस्व कायम है, लेकिन वह क्रमश: क्षीण हो रहा है। अब ओबामा के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य है इस क्षेत्र पर अमेरिकी प्रभुत्व को बरकरार रखना।
जापान तो अमेरिकी क्षत्रछाया में ही पल रहा था। उसकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी अमेरिका पर ही है, लेकिन अब जापानी जनता भी चाहती है कि अमेरिका वहां से निकल जाए। जापान के ओकीनावा द्वीप पर अमेरिका का एक मजबूत सैनिक अड्डा था ,जो धीरे-धीरे उपेक्षित हो गया। अब अमेरिका फिर वहां एक श्क्तिशाली अड्डा कायम करना चाहता है तो जापानी उसका विरोध कर रहे हैं।
अमेरिका और चीन इस समय दुनिया को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले देश हैं। वे प्रतिस्पर्धी भी हैं और परस्पर निर्भर भी। चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है तो अमेरिका का स्थान चौथा है, चीन की जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक है तो इस दृष्टिï से अमेरिका का स्थान तीसरा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो दूसरा स्थान चीन का है। ये दोनों देश ही खनिज ईंधन का सर्वाधिक उपयोग करने वाले देश हैं तो ग्रीन हाउस गैसें छोडऩे में भी ये ही दो शीर्ष स्थान पर हैं।
आज दुनिया की जो भी बड़ी समस्याएं हैं उनके समाधान की बात चीन के सहयोग के बिना सोची भी नहीं जा सकती। मामला चाहे पर्यावरण यानी ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव का हो या परमाणु अप्रसार का, विश्व अर्थव्यवस्था का हो या व्यापारिक संतुलन का हर मामले में अमेरिका को चीन की जरूरत है। परमाणु अप्रसार की अमेरिकी नीति को धता बताने में चीन की बड़ी भूमिका रही है। आज यह कोई रहस्य की बात नहीं कि पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने की क्षमता चीन से मिली। अभी बीते हफ्ते की ताजा खबर है कि चीन ने दो परमाणु बम बनाने लायक संवर्धित यूरेनियम पाकिस्तान को दिया। ईरान का परमाणु कार्यक्रम हो या उत्तर कोरिया का, इनको चीनी सहायता के बिना नियंत्रित करना कठिन है। सुरक्षा परिषद में चीन के सहयोग के बिना ईरान या दक्षिण् कोरिया किसी के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता। वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) मामले में कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रश्न पर भी चीनी सहयोग आवश्यक है, क्योंकि ऐसी गैसों के उत्सर्जन में अमेरिका के बाद दूसरा स्थान चीन का ही है। यदि चीन अपने क्षेत्र में कोई कटौती योजना स्वीकार नहीं करता तो कोई भी दूसरा विकासशील देश इसके लिए तैयार नहीं होगा। अमेरिका का व्यापारिक घाटा चीन के साथ उसकी सीधे जुड़ी समस्या है।
ऐसा नहीं है कि ओबामा की इस यात्रा में कोई बड़ा फैसला हो जाएगा या चीन राष्ट्रपति ओबामा के सारे अनुरोधों को मान लेगा, लेकिन इस यात्रा में इन वैश्विक समस्याओं के प्रति चीन का रुख अवश्य स्पष्टï हो जाएगा। चीन अमेरिका के लिए या दुनिया के भविष्य के लिए अपनी महत्वाकांक्षा का मार्ग त्यागने वाला नहीं है, किन्तु वह अमेरिकी बाजार का अधिकतम उपयोग करने के लिए जितना आवश्यक होगा उतना परिवर्तन अवश्य स्वीकार कर लेगा। ओबामा निश्चय ही मानवाधिकारों के मसले भी उठाएंगे, लेकिन वह केवल खानापूरी की बात होगी, क्योंकि चीन मानवाधिकार के मसले को उस तरह कोई महत्व देता ही नहीं, जिस तरह दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देश देते आ रहे हैं।
अब इसके साथ ही भारत की भूमिका भी सामने आएगी। इस महीने की 25 तारीख को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब अमेरिका पहुंचेंगे तब ओबामा की इस करीब एक सप्ताह की एशियायी यात्रा की पृष्ठïभूमि में एशियायी मसलों पर बात हो सकेगी। चीन के बाद भारत एशिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आर्थिक विकास की दृष्टिï से वह चीन के बाद दुनिया में सर्वाधिक तीव्रगति से विकास करने वाला देश है। स्वाभाविक है एशिया में चीन का प्रतिस्पर्धी भारत ही है। चीन और भारत के बीच भी व्यापार तीव्रगति से बढ़ रहा है, किन्तु समस्या यहां भी वही है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। चीन से भारत को निर्यात अधिक है आयात कम। चीन के साथ भारत का सीमा विवाद भी दोनों देशों के बीच खटास का एक बड़ा कारण है। दक्षिण पूर्व एशियायी या प्रशांत सागरीय देशों केसाथ भारत के संबंध विस्तार में चीनी प्रभाव सबसे बड़ा अवरोध है। भारत की एक और बड़ी समस्या है। वह यह है कि, वह लगभग चारों तरफ से चीनी प्रभाव क्षेत्र से घिरा है। उत्तर की तरफ वह स्वयं है। बीच में स्थित नेपाल भौगोलिक दृष्टिï से भारत की गोद में होते हुए भी चीनी प्रभाव से अधिक संचालित होता है। बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान यानी हरतरफ चीनी उपस्थिति से भारत घिरा है। एशियायी क्षेत्र में कोई ऐसा और देश नहीं है जिस पर भारत भरोसा कर सके। मतलब यह है कि भारत के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मजबूत करे और एशियायी क्षेत्र में उसके साथ मिलकर काम करे।
आज के समय में किसी समस्या के समाधान के लिए युद्ध के विकल्प को नहीं चुना जा सकता। मसला चाहे आर्थिक हो या राजनीतिक, सीमा विवाद का हो या व्यापारिक असंतुलन का, केवल कूटनीतिक उपायों से ही इनका समाधान ढूंढ़ा जा सकता है। लेकिन यह कूटनीति भी अपनी राजनीतिक व आर्थिक सामथ्र्य पर निर्भर है। इसलिए भी यह जरूरी है कि नई विश्व व्यवस्था में अमेरिका व भारत जैसे देश परस्पर सहयोग करें।
इस धरती पर अमेरिका, चीन और भारत ही नहीं, बल्कि सभी अन्य देशों के विकास के लिए पर्याप्त अवसर हैं। लेकिन यदि कोई देश किसी अन्य देश की कीमत पर विकास करना चाहे अथवा अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति से किसी की विकासगति को अवरुद्ध करना चाहे तो वहां उस देश पर अंकुश लगाना जरूरी हो जाता है। यह अंकुश बिना शक्ति के नहीं लग सकता। कल को हो सकता है कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक या सामरिक शक्ति बन जाए, अमेरिका दूसरे स्थान पर आ जाए लेकिन यदि भारत और अमेरिका जैसे दो लोकतंत्र एक साथ रहे तो चीन कितना भी शक्तिशाली हो जाए, लेकिन वह भारत व अमेरिका की संयुक्त आर्थिक व सामरिक शक्ति को कभी पार नहीं कर सकता। इसलिए यह भविष्य की आवश्यकता है कि भारत और अमेरिका की मैत्री प्रगाढ़ हो।
यहां उल्लेखनीय है कि चीन के साथ भारत का राजनीतिक संबंध या आर्थिक संबंध 1950 के पूर्व नाममात्र का था लेकिन हमारे सांस्कृतिक संबंध हजारों वर्ष पुराने हैं। इसके विपरीत चीन और अमेरिका की परस्पर आर्थिक निर्भरता तब से है जब से अमेरिका और चीन का परस्पर परिचय हुआ लेकिन उनके बीच कोई सांस्कृतिक संबंध कभी विकसित नहीं हो सका। पुराने जमाने में द्विपक्षीय संबंधों के निर्वाह में प्राय: तीसरे की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन आज की दुनिया में कोई संबंध नितांत द्विपक्षीय हो ही नहीं सकते।
हम पुराने भारत चीन संबंधों की बात करते हैं तो केवल सांस्कृतिक व व्यापारिक संबंधों की चर्चा करते हैं। व्यापारिक संबंधों में भी शायद चीन एकमात्र ऐसा देश था जिसके साथ हमारा व्यापार एकतरफा था। यानी हम चीन से कुछ मंगाते थे, लेकिन वहां भेजते कुछ नहीं थे। हमारे प्राचीन साहित्य चीनी रेशमी वस्त्रों (चीनांशुक) की चर्चा से भरे पड़े हैं। यह शायद चीनी रेशम की लोकप्रियता का प्रभाव था कि भारत व अरब को जाने वाले चीनी व्यापारिक मार्ग का नाम ही 'रेशमीपथ (सिल्क रूट) पड़ गया। लेकिन यह चीन के साथ हमारा कोई सीधा व्यापारिक संबंध नहीं। शायद व्यापारिक दलों के किसी तीसरे माध्यम से यह चीनी वस्त्र भारत आ जाया करता था। हां, चीन और भारत के बुद्धिजीवियों व बौद्ध आचार्यों का आना जाना अवश्य सामान्य था। चीन में शाओलिन के प्रसिद्ध बौद्ध केन्द्र की स्थापना भारत गये बातुओ (464-495 ए.डी.) बौद्ध संत द्वारा की गई। चीनी यात्री फाह्यान , ह्वेंत्सांग (इवान च्वांग), इत्सिंग आदि का नाम तो यहां परिचित है ही। चीन के 'चान व 'जेन मत के आचार्य भी भारत से गये। चीन के पुराने इतिहासज्ञ झान्ग्कियांग (113 बी.सी.)तथा सिमा कियान (145-90 बी.सी.) भारतीयों से परिचित थे। वे भी इन्हें 'सेन्धु का 'सिंधु से स्पष्ट संबंध देख सकते हैं। चीन से आज भी हमारा यह सांस्कृतिक या बौद्धिक संबंध बना रहता और कोई राजनीतिक द्वंद्व न खड़ा होता यदि बीच में तिब्बत का स्वतंत्र राष्ट्र बना रहता।
हमारी चीन के साथ सारी समस्या इसलिए खड़ी हो गई है कि इस तिब्बत पर चीन ने कब्जा कर लिया है और इसके साथ ही हमारी उत्तरी रक्षा प्राचीर (हिमालय की पर्वत श्र्रृंखला) भी चीन के कब्जे में चली गई। अब हमारी उत्तरी सीमा की रक्षा हिमालय से नहीं हमारे अपने शक्ति संतुलन से ही हो सकती है। अब यदि हमारी अकेली शक्ति इसके लिए काफी नहीं है तो हमें ऐसे गठबंधन बनाना चाहिए जिसकी संयुक्त शक्ति चीन की कुल शक्ति से अधिक हो।
अमेरिका और चीन का व्यापारिक संबंध बहुत पुराना है। चीन की वर्तमान उत्पादन व व्यापार की तकनीक भी कोई नई नहीं है। दूसरों की जरूरत समद्ब्राकर उनके लिए माल तैयार करना और उनके बाजार में छा जाना चीन का पुराना कौशल रहा है। अमेरिका के पहले लखपतियों की श्रृंखला उन्हीं की खड़ी हुई जो चीनी माल का व्यापार करते थे। 1784 में पहली बार चीन का एक व्यापारिक जहाज (इंप्रेस आफ चाइना) अमेरिका के कैंटम बंदरगाह पर उतरा था। इसके साथ ही चीन को एक शानदार बाजार मिल गया था। ऐसा नहीं कि अमेरिकियों व यूरोपियों ने भारत की तरह चीन पर कब्जा जमाने की कोशिश नहीं की लेकिन चीनी भारतीयों की तरह सहिष्णु और उदार नहीं थे। हमारे यहां कांग्रेस के गठन के करीब 14 वर्षों बाद 1899 में चीन एक संगठन बना जिसे अंग्रेज इतिहासकारों ने अंग्रेजी में 'सोसायटी आफ राइट एंड हार्मोनियस फिस्ट नाम दिया है। इस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्व रूप कह सकते हैं। इसका लक्ष्य था देश से यूरोपीय विदेशियों व ईसाई मिशनरियों को मार भगाना। इन्हें अंग्रेजों ने 'विद्रोही बाक्सर(बाक्सर रिबेलियन) की भी संज्ञा दी है। इस संगठन के लोगों ने वर्ष 1900 में बीजिंग पर हमला बोल दिया और वहां स्थित यूरोपीय देशों के 230 कूटनीतिज्ञों (डिप्लोमेट्स) व्यापारिक अधिकारियों व मिशनरी नेताओं को मार डाला। उन्होंने उन चीनी नागरिकों पर भी हमला कर दिया जो ईसाई बन गये थे। हजारों की संख्या में ऐसे धर्मांतरित चीनी ईसाई मार डाले गये। ऐसे हमलों ने चीन के भीतरी हिस्सों में यूरोपियनों व अमेरिकियों के पांव उखाड़ दिये। वे केवल समुद्रतटीय इलाकों में ही यत्र-तत्र रह सके। इसीलिए चीन यूरोपियनों का गुलाम होने से बच गया।
खैर, ये सब तो इतिहास की बातें हैं और यह इतिहास बहुत पीछे छूट चुका है, लेकिन हम इतिहास से बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमें अपने इतिहास से भी सबक सीखना चाहिए और दूसरों के इतिहास से भी। हमें अपने अहंकार में जीने के बजाए व्यावहारिक दृष्टिïकोण अपनाना चाहिए। हमें युद्ध के बारे में नहीं सोचना चाहिए किन्तु किसी भी तरह के युद्ध के खतरे के प्रति तैयार रहना चाहिए। यदि हमारा कोई पड़ोसी अधिक शक्तिशाली हो तो शांति से जीने के लिए एक शक्तिशाली मित्र मंडल बनाना चाहिए। हमें किसी दूसरे को दबाने की रणनीति नहीं अपनानी चाहिए लेकिन दूसरों के दबाव से बचने की रणनीति तो अवश्य अपनानी पड़ेगी, अन्यथा हम कुचल दिए जाएंगे।
भारत की चीन से कभी कोई निरपेक्ष मैत्री नहीं हो सकती, क्योंकि चीन एक विस्तारवादी देश है। एशिया में यदि शांति और शक्ति संतुलन को बनाए रखना है तो भारत और अमेरिका को एक मजबूत गठबंधन कायम करना ही होगा। आज की दुनिया में अमेरिका न तो अमेरिका तक सीमित रह कर जी सकता है, न भारत अपनी भारतीय सीमा में सीमित रह कर। इसलिए हमें एक ऐसी विश्व व्यवस्था कायम करने की जरूरत है जिसमें कोई भी देश बिना किसी दूसरे देश के मार्ग का रोड़ा बने विकास कर सके। ऐसा नहीं कि अमेरिका व यूरोप के देश बहुत दूध के धोए हैं। उन्होंने भी दूसरों की कीमत पर अपना विकास किया है। इसलिए उनको सीमा में रखने के लिए रूस और चीन जैसे देशों का विकास आवश्यक था। अब आज यदि चीन हमें दबाने की कोशिश कर रहा है तो हमें अमेरिका और यूरोप के साथ अपने रणनीतिक संबंध विकसित करने में गुरेज नहीं करना चाहिए। यही राजनीति का तकाजा है और यही समय की मांग भी है।
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