Thursday, 25 July 2013

संघवाद एवं राज्यों की शक्तियां.........


केंद्र और राज्यों के बीच का यह तनाव हाल के दिनों में कई मुद्दों पर सामने आया है। अनेक राज्यों का मानना है कि शिक्षा ट्रिब्यूनल विधेयक, नेशनल एक्रीडिएशन अथॉरिटी विधेयक और शिक्षा का अधिकार जैसे कानून केंद्र व राज्य के बीच सत्ता के विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। मसलन, सर्व शिक्षा अभियान के तहत राज्यों के योगदान को बिना उनकी सहमति के ही बढ़ा दिया गया। केंद्र सरकार ने इस अभियान का खर्च जुटाने के लिए शिक्षा अधिभार का सहारा लिया, जबकि राज्यों को अपने बजट से ही इसका इंतजाम करना था। इसी तरह, आंतरिक सुरक्षा के लिए नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) और प्रस्तावित रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स यानी आरपीएफ ऐक्ट वगैरह ऐसे प्रयास हैं, जिनका हमारे संघीय ढांचे से टकराव हो रहा है, क्योंकि ये राज्यों की शक्तियों को कम करते हैं। मतभेद का ऐसा ही एक और क्षेत्र है- केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं का स्वरूप और उन्हें लागू करने का तरीका, जिनमें सब कुछ केंद्र ही तय करता है।
जहां तक वित्तीय संघवाद का मामला है, तो केंद्रीय बजट में हाल के वर्षों में विशेषाधिकार का इस्तेमाल बढ़ा है, जो संतुलन के लक्ष्य की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा बन गया है। वित्त आयोग ने बराबरी लाने के लिए फंड ट्रांसफर का जो फॉमरूला तैयार किया है, यह काम एक तरह से उसके खिलाफ जाता है। सरकार संघीय वित्तीय संबंधों के लिए कई आयोग बना चुकी है। इनमें पहला प्रशासनिक सुधार आयोग (1966), सरकारिया आयोग (1983), नेशनल कमीशन टु रिव्यू द वर्किग ऑफ कांस्टीटय़ूशन (2000) और एम एम पंछी आयोग (2007) आदि प्रमुख हैं। मोटे तौर पर इन सभी आयोगों की मुख्य सिफारिशें यही रही हैं कि राज्यों के संसाधनों और जिम्मेदारियों के बीच उचित संबंध होना चाहिए, केंद्रीय टैक्सों पर लगने वाले अधिभार को कम किया जाना चाहिए, वित्त आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर राज्यों को दिए जाने वाले धन की मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। उनकी यह भी सिफारिश रही है कि पिछड़े राज्यों को दी जाने वाली केंद्रीय मदद बढ़ाई जाए। लेकिन इनमें से ज्यादातर सिफारिशें कभी लागू नहीं हुईं और केंद्रीय बजट में भेदभावपूर्ण मदद ने कई राज्यों को अलग-थलग कर दिया। ऐसे समय में, जब केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास बढ़ रहा हो, तब यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि केंद्र सरकार देश में वित्तीय संघवाद लागू करने में नाकाम क्यों रही? ये चिंताएं मुख्य रूप से निम्नलिखित मुद्दों के आस-पास केंद्रित हैं-
पहला, बजट बनाने में राज्यों की भूमिका। इसका अर्थ बजट बनाने के मामले में केंद्र सरकार के अधिकार को चुनौती देना नहीं है। इसमें केंद्र और राज्य, दोनों का बराबर का दांव होता है, इसलिए ऐसा तरीका तो बनना ही चाहिए कि दोनों के बीच सार्थक विमर्श हो सके। खासतौर पर उन केंद्रीय योजनाओं के मामले में, जिनका सीधा असर राज्य की वित्तीय स्थिति पर पड़ता हो। अभी स्थिति यह है कि इनके लिए राज्यों के साथ न तो कोई विमर्श होता है और न ही उनकी कोई सहमति ली जाती है। अगर राज्यों से उम्मीद की जाती है कि वे वित्तीय अनुशासन का पालन करें, तो केंद्र की योजनाओं से भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए। केंद्र को राज्यों की वित्तीय नीतियों की समीक्षा का जितना अधिकार है, उतना ही राज्यों को केंद्र की नीतियों की समीक्षा का अधिकार क्यों न दिया जाए?
दूसरा, केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों में संतुलन। विकास के मद में खर्च की ज्यादातर जिम्मेदारियां राज्यों के हवाले होती हैं, जबकि राजस्व उगाहने का महत्वपूर्ण काम केंद्र सरकार के पास रहता है। सालाना विकास खर्च में केंद्र के मुकाबले राज्यों को ज्यादा जेब ढीली करनी पड़ती है। इसके विपरीत प्राप्त राजस्व में राज्यों के पल्ले एक तिहाई हिस्सा ही आ पाता है, जबकि दो तिहाई केंद्र के पास पहुंच जाता है।
तीसरा, केंद्र द्वारा पर्याप्त धन न दिया जाना। विकास खर्च के मामले में केंद्र और राज्यों की हिस्सेदारी में बहुत बड़ा फर्क चिंता का विषय है। विकास का काम करने की जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी जाती है, जबकि केंद्र की भूमिका ज्यादा से ज्यादा राजस्व बटोरने की होती है। राज्यों को अधिक संसाधन न मिलने के कारण सार्वजनिक सेवाओं और जन कल्याण के लिए उनके पास संसाधन ही नहीं बचते।
चौथा, अभी तक ऐसा तरीका नहीं बनाया जा सका, जिससे राज्यों की मदद राजनीतिक भेदभाव से परे हो। जिस तरीके से विभिन्न मंत्रालय राज्यों को मदद देते हैं, उसे न्याय या कुशलता के सिद्धांत के आधार पर उचित ठहराना आसान नहीं है। इसके लिए नतीजे और पात्रता के बीच संतुलन कायम करना बहुत जरूरी है। केंद्रीय बजट में न्याय और कुशलता के आधार पर बनाया गया यह संतुलन नहीं दिखाई देता।
पांचवां, राज्य के वैधानिक अधिकारों का सम्मान करना। चाहे यह हाल ही में हुआ केंद्रीय बिक्री कर का मामला हो, या कर सेवाओं का, फैसला हमेशा एकतरफा रहा है, राज्यों से किसी भी परामर्श के बगैर। केंद्र ने उन सेवाओं पर भी कर लगा दिया, जो राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती हैं और ऐसा कोई वायदा भी नहीं किया गया कि राज्यों को हुए नुकसान की भरपाई की जाएगी।
बजट बनाने की प्रक्रिया को ज्यादा परामर्श वाली और ज्यादा पारदर्शी बनाने की जरूरत है। गठजोड़ की राजनीति के इस युग में केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें तो रहेंगी ही। इसलिए एक ही तरीका है, जिसे वित्त मंत्री ने सहकारी संघवाद कहा है, उसे अपनाया जाए और जिसे उनकी सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने दमनकारी संघवाद कहा है, उससे बचा जाए। एक चीज साफ है कि केंद्र के दबदबे वाले दिन अब लद गए। बदले राजनीतिक समीकरणों ने बागडोर अब क्षेत्रीय दलों को थमा दी है। अब हमें संतुलन को मौजूदा हकीकत के हिसाब से ही ढालना होगा......

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