अगर
मार्क्स का यह कहना सही था कि ‘राजनीति, अर्थतंत्र का संकेंद्रित रूप है’
तो मानना पड़ेगा कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पिछले दो दशकों में
अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय राजनीति का भी ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ काफी
हद तक बदल गया है.
यह
बदलाव सिर्फ नेताओं, पार्टियों और मुद्दों के स्तर पर ही नहीं बल्कि
भारतीय राजनीति के चरित्र और अंतर्वस्तु के मामले भी साफ देखा जा सकता है.
सच पूछिए तो इस बदलाव की गहराई और गति इतनी तेज है कि कई मामलों में यह
पहचानना मुश्किल होने लगता है कि क्या यही भारतीय राजनीति है?
भारतीय
राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर
जैसे-जैसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का नियंत्रण बढ़ता गया है, तेज रफ़्तार
से बढ़ती अर्थव्यवस्था से निकलनेवाली समृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ में
सिमटती गई है और पहले से हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे गरीबों, किसानों,
आदिवासियों और दलितों को और हाशिए पर धकेल दिया गया है, वैसे-वैसे राजनीति
पर भी अमीरों का दबदबा बढ़ता गया है और उसके साथ राजनीति की मुख्यधारा से
गरीब और कमजोर वर्ग और उनके मुद्दे बाहर होते गए हैं. आश्चर्य नहीं कि संसद
और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में करोड़पतियों-अरबपतियों की
संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
यही
नहीं, आज राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या भी
तेजी से बढ़ रही है जो सीधे-सीधे किसी न किसी बड़े कारपोरेट समूह याके
मुखिया हैं या उसके प्रमुख अधिकारी रहे हैं या सीधे तौर पर जुड़े रहे हैं.
बात यहीं नहीं खत्म नहीं होती. राजनीति पर बड़ी पूंजी का नियंत्रण किस हद
तक बढ़ गया है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सरकार में अपने
समर्थक मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति के लिए कारपोरेट समूह जमकर
लाबीइंग कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं.
ऐसे
उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें देशी-विदेशी कारपोरेट समूह केन्द्र और
राज्यों में अपनी पसंद के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और
उन्हें अनुकूल मंत्रालय दिलवाने में कामयाब हुए हैं.
यह
किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में सरकार चाहे किसी भी पार्टी या
गठबंधन की रही हो लेकिन इन कारपोरेट समूहों के समर्थक मंत्रियों और अफसरों
की तादाद बढ़ती ही गई है. असल में, यह बदलाव एक गहरी राजनीतिक-आर्थिक
प्रक्रिया के तहत हुआ है. इस प्रक्रिया को उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण
की नव उदारवादी वैचारिकी निर्देशित कर रही है जो न सिर्फ अर्थव्यवस्था में
राज्य (सरकार) की सीमित भूमिका की वकालत करती है बल्कि आर्थिक नीति
निर्माण की प्रक्रिया को राजनीति से मुक्त रखने पर जोर देती है.
याद
रहे, उदारीकरण के शुरूआती वर्षों में उसके पैरोकारों ने सबसे अधिक जोर इस
बात पर दिया था कि अर्थनीति को राजनीति से अलग रखा जाना चाहिए.
एक
मायने में यह अर्थनीति को राजनीति से स्वतंत्र करने की मांग थी. इस मांग
के बहुत गहरे निहितार्थ थे. उन्हें समझना बहुत जरूरी है. अगर बिना किसी
लाग-लपेट के कहा जाए तो अर्थनीति को राजनीति से अलग रखने की मांग का अर्थ
यह है कि उसे आम लोगों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग रखने की
मांग की जा रही है.
आखिर
राजनीति क्या है? राजनीति और कुछ नहीं बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की
जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है. ऐसे में,
लोगों की जरूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अर्थनीति का
राजनीति के मातहत होना जरूरी है.
जाहिर
है कि अगर अर्थनीति, राजनीति के नियंत्रण से बाहर होगी तो वह लोगों के
नियंत्रण से भी बाहर होगी. उदारीकरण के पिछले दो दशकों में यही हुआ है. इस
दौर की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि अर्थनीति लगभग पूरी तरह से राजनीति के
नियंत्रण से बाहर हो गई है.
इसका
सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पिछले दो दशकों में अलग-अलग रंगों और झंडों की
पार्टियों या गठबंधनों की सरकारें आईं लेकिन उनकी अर्थनीति में कोई खास
फर्क नहीं आया. सभी ने उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों को आगे
बढ़ाया है.
यही
नहीं, इस दौर में सरकार और नीति निर्माण प्रक्रिया में न सिर्फ बड़ी पूंजी
का सीधा हस्तक्षेप बढ़ा है बल्कि उसकी सीधी भागीदारी को एक संस्थाबद्ध
मान्यता भी दी गई है. याद रहे, एन.डी.ए के कार्यकाल में प्रधानमंत्री की
आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन किया गया जिसमें लगभग सभी बड़े देशी-विदेशी
कारपोरेट समूहों के मालिकों को शामिल किया गया.
यही
नहीं, कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए बड़े उद्योगपतियों की अध्यक्षता में
कार्यदल गठित किये गए और उनके सुझावों के आधारों पर नीतियां निर्धारित की
गईं. एन.डी.ए की विदाई के बाद भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है.
यह
कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि इस प्रक्रिया में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी ने न
सिर्फ अर्थनीति को राजनीति से हाइजैक कर लिया है बल्कि राजनीति को अपना
चाकर बना लिया है. इस पूरी प्रक्रिया का चरम संसद द्वारा पारित वित्तीय
उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून है जिसके तहत बजट में वित्तीय घाटे यानि
सरकारी खर्च की सीमा निर्धारित कर दी गई. यह एक तरह से राजनीति के हाथ
बांधने जैसी बात है.
राजनेता,
पार्टियां और राजनीति अगर गरीबों और कमजोर वर्गों के कल्याण पर खर्च करना
भी चाहें तो इस कानून के कारण नहीं कर सकते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि
यह कानून विश्व बैंक-मुद्रा कोष के निर्देश और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के
दबाव में लाया गया था और सरकार किसी भी रंग और झंडे की हो, वह उसका आँख
मूंदकर पालन करती है.
आश्चर्य
नहीं कि राजनीति को आज देश में 80 फीसदी गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की
चिंता नहीं रह गई है. वह अमीरों और बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने और
उनकी रक्षा में जुटी हुई है. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय
बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के
जरिये 22 लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं
हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़
रूपये की छूट दी गई है. लेकिन जब भी गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा और उन्हें
भोजन का अधिकार देने की बात होती है, राजनीति और बड़ी पूंजी को सब्सिडी और
वित्तीय घाटे की चिंता सताने लगती है. हालांकि इसमें सिर्फ 75 हजार से
अधिकतम एक लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है लेकिन हंगामा ऐसा होता है
कि जैसे पूरा खजाना लुट रहा हो.
साफ
है कि राजनीति और राजनेता अब गाँधी जी की वह जंत्री भूल चुके हैं जिसमें
उन्होंने कहा था कि ‘कोई भी फैसला करने से पहले यह जरूर सोचो कि उससे सबसे
गरीब भारतीय की आंख के आंसू पोंछने में कितनी मदद मिलेगी.’ कारण यह कि खुद
राजनीति की आंख का पानी सूख चुका है और उसने बड़ी पूंजी नियंत्रित
अर्थतंत्र के आगे घुटने टेक दिए हैं.
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