Sunday 14 July 2013

क्षेत्रवाद की राजनीति :एक विवेचनात्मक मूल्यांकन


भारत एक खुशबू हैं, जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली हैं | यह खुशबू कई तरह के फूलो से निकली हैं | फूल और खुशबू के साथ कांटे भी हैं | हम कई तरह की भाषाए बोलते हैं | कई तरह के पहनावे हैं | कई तरह की भौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं | बड़ी व्यापक हैं हमारी अनेकता | 

भारतीय संघीय व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण पहलु क्षेत्रवाद का रहा हैं |  क्षेत्रवाद की प्रगति को  राष्ट्रीय एकता के प्रतिकूल माना जाता हैं | कुछ दूसरे लोग अनुभव करते हैं कि क्षेत्रीयता की पहचान  अपने में राष्ट्रीयता एकता को बढाने में अवरोधक नहीं हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं  | वास्तव में, किसी भी समाज में क्षेत्रवाद के नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पहलू होते हैं |     
क्षेत्रवाद के लक्ष्य में , किसी भू-भाग के एक भाग की पहचान पृथक क्षेत्र के रूप में होती हैं |  किसी भू-भाग को क्षेत्र का रूप देने वाले तत्त्व हैं ---भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई, लोकाचार, तथा रीतिरिवाज , विकास के सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक चरण, समान एतिहासिक परम्पराए तथा अनुभव , रहने के सामान तरीके तथा इससे भी अधिक साथ रहने की व्यापक अनुभूतियाँ इत्यादि |   
 क्षेत्रवाद सामान्य तौर पर चार विभिन्न तरीको से व्यक्त किया जाता हैं , जो इस प्रकार हैं........
1.भारतीय संघ से कुछ निश्चित क्षेत्र का सम्बन्ध विच्छेद करने हेतु जनता की मांग |  
2. एक निश्चित क्षेत्र को पृथक राज्य बनाने हेतु जनता की मांग |  
3. कुछ क्षेत्रों को पूर्ण राज्य का दर्जा देने हेतु जनता की मांग |  
4.अंतर्राज्य  मसालों का उनके पक्ष  में समाधान हेतु जनता की मांग जैसे कि:-कुछ निश्चित क्षेत्र या प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व या उपयोग |   
राज्यों के गठन की बहस आजादी के बाद तेलंगाना की मांग के साथ ही शुरू हुयी थी |  पोट्टी श्रीरामालु की मौत के बाद जैसे ही फसाद शुरू हुए , सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग की घोषणा की |  आयोग की सिफारिश पर आँध्रप्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा , पंजाब, हिमाचलप्रदेश आदि राज्यों का गठन हुआ |  
नए राज्यों के गठन के लिए तर्क दिया जाता हैं कि छोटे राज्यों में विकास तेज गति से होता हैं |  पर अभी तक यह तुजुर्बा रहा हैं कि कुछ राज्यों को छोड़कर शेष राज्य अपनी उम्मीदों पर उतने खरे नहीं उतरे हैं जित्यानी उनसे उम्मीद की जा रही थी | मसलन, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ तेज गति से विकास नहीं कर पाए, जबकि हिमाचलप्रदेश, हरयाणा, पुनजब और उत्तराखंड ने तेज गति से विकास के नए पैमाने तय किये हैं |  
  एक बार फिर पता नहीं कब के विस्मृतियों के में खो चुके पोट्टी श्रीरामालु की शहादत की जिन्न नई दिल्ली से नागपत्तम  की सड़को पर विचरने लगा था |  चंद्रशेखर राव ने श्रीरामालु का का रास्ता चुना |  केंद्र ने राज्य के पुनर्गठन के लिए समिति बना दी पर पुरे देश में फैले छोटे राज्यों के हमजोलियों को फिर से नयी राहगुजर हासिल हो गयी हैं  | उत्तरप्रदेश में पूर्वांचल और हरितप्रदेश , जम्मू-कश्मीर में लद्दाख, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, आसाम  में बोडोलैंड, केरल में त्रावनकोर, कर्णाटक में कुर्ग और पूर्व में गोरखालैंड आदि  | बेहतर हैं  कि हम इन सब मांगो को नए परिप्रेक्ष्य में देखे और नए सिरे से सोचे  |  इस बात में कोई बुराई नहीं कि हम एक नया आयोग बनाये , जो राष्ट्रियेकीकरण के तमाम मसालों पर विचार करे और दीर्घकालीन योजना दे  |  सबसे बड़ी जो बात हैं,  वह हैं - विकास  |  उसका रास्ता क्या हो ? इसके बारे में सोचे  |  जरुरत इस बात कि हैं कि सरकार किस तरह जनता के करीब जाए  |  भाषा , संस्कृति और भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार विकास हो  |   
जब भारत आजाद हुआ था तब एक भय उग्र क्षेत्रवाद था  |  यह लगता था कि एक नवस्वतंत्र देश को यह भावना खंडित न कर दे  |  पूर्वोत्तर, दक्षिण और उत्तर के कुछ राज्यों में उग्र प्रांतीयता के खतरे देश ने झेले और अब हम संतोष के साथ कह सकते हैं कि अब देश उस दौर से उबार गया हैं  |  लेकिन एक नए खतरे की और संकेत हैं कि संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए कुछ राजनैतिक ताकतें अब क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रही हैं  |     
संविधान में मौलिक अधिकारों द्वारा अनुच्छेद १९ में नागरिको को देश के किसी भी भू-भाग में स्वतंत्र रूप से घुमाने, बसने व् आजीविका अपनाने का अधिकार हैं |    अतः आवश्यकता इस बात की हैं कि सरकार सही नीतियों को अपनाकर सभी नागरिको के लिए सामाजिक न्याय को उपलब्ध कराएँ ताकि सभी क्षेत्रों का सामान विकास हो सके |     
      भारत में राज्यों के बीच कटुता का एक कारण नदी जल विवाद भी हैं | पंजाब , हरियाणा और राजस्थान के मध्य सतलज, रावी व्यास का तथा कर्णाटक, तमिलनाडु, केरल तथा  पुडूचेरी के बीच कावेरी नदी जल विवाद महत्त्वपूर्ण हैं | एक राज्य दूसरे राज्य को उसके हिस्से का पानी नहीं देना चाहता हैं | संसाधन सिमित है और उसकी आवश्यकता असीमित हैं अतः संसाधनों एवं आवश्यकतायों के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित करना होगा | वर्षा के जल की एक-एक बूँद का उपयोग किया जाए | नदी जल के बंटवारे के समय एक दूसरे की आवश्यकतायों को भी ध्यान में रखना होगा |  
भारत में क्षेत्रवाद एक और तो विभिन्नतायों और एतिहासिक तथ्यों की उपज हैं तथा दूसरी और स्वतंत्रता के बाद की स्थिति में यह राजनीतिक केन्द्रीयकरण की प्रक्रियां एवं भेदभावपूर्ण विकास का परिणाम हैं | भारत में आज मिश्रित संस्कृति हैं जिसको वर्त्तमान सामाजिक आर्थिक खण्डों के साथ , एक दूसरे को प्रभावित करने एवं मिलाने के आदिकालीन दरारें हैं | लेकिन भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा भूगोल भारत के एकीकरण के लिए महत्त्वपूर्ण साधन तथा परिकल्पनाएं प्रस्तुत करतें हैं |     
  संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद राष्ट्र निर्माण का संकट नहीं हैं | यह विकास का संकट हैं ,इसका समाधान एक नए समाज के निर्माण में हैं | एक वह समाज जिसका आधार पूर्ण स्वतंत्रता का आदर करना तथा बहुलवाद एवं सभी समाजों में अवास्तविक सिद्धांत को ख़त्म करना हो

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