Sunday 14 July 2013

भारतीय दल प्रणाली और लोकतंत्र


जार्ज वाशिंगटन और जयप्रकाश नारायण जैसे राजनीति के महान् सेवक दलविहीन लोकतंत्र के समर्थक रहें है। लेकिन 21 वीं सदी तक के राजनीतिक विकास ने दलों की अनिवार्यता स्थापित कर दी है । आज लार्ड ब्राइस का यह कथन पूर्णतः स्थापित हो चुका है कि - ‘‘कोई भी स्वतंत्र देश इनके बिना नहीं रह सकता है । किसी व्यक्ति ने यह नहीं दिखाया कि लोकतंत्र दलों के बिना कैसे चल सकता है ।’’
वास्तव में राजनीतिक दल ही वह तत्व है जो जनता और सरकार को जोड़े रखता है । जिसे हम जनइच्छा कहते है वह निर्वाचनों द्वारा दलों के माध्यम से ही व्यक्त होती है, जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार राजनीतिक दल किसी राजनीतिक समाज का आईना होते है । राजनीतिक दलों की प्रकृति, स्वरूप, कार्यकरण, और राजनीतिक भर्ती की स्थिति आदि को देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है कि कोई राजनीतिक समाज कितना स्वतंत्र, परिपक्व और विकसित है ? इस आधार पर भारतीय दलीय पद्धति और राजनीतिक समाज को एक संक्रमणकालीन समाज या देश कहा जा सकता है, जिसमें प्राचीनता और आधुनिकता के लक्षण एक साथ उपस्थित रहतें है ।
वास्तव में भारतीय राजनीति की जो समस्याएं जाहिर तौर पर हमें दिखायी देती है । जैसे भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाई भतीजावाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता, आदि पर ये सभी वास्तव में दलीय प्रणाली के परिपालन की समस्याएं है । दूसरे शब्दों में दलीय प्रणाली के विकास के साथ ही वे विकसित हुई है ।
मूल्य विहीनता - स्वतंत्रता, समानता, न्याय आदि वे उच्च राजनीतिक मूल्य या आदर्श है, जिन्हें न केवल संविधान में सर्वोच्च स्थान दिया गया है बल्कि इन्हीं के आधार पर राजनीतिक दल कार्य करने का दावा करते है, किन्तु क्या एक भी राजनीतिक दल आज ऐसा है जो राजस्थान में जाकर बाल विवाह के विरूद्ध आंदोलन कर सकें ? या हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों का विरोध कर सकें?
स्वयं भू बाबाओं के आश्रमों से निकल रही अरबों खरबो की सम्पत्ति के राष्ट्रीकरण की बात कर सके ? संतो मंदिरों में मत्था टेकने वाले और संतो को महिमा मण्डल करने वाले लोगों पर कारवाई की मांग कर सकें ? आजादी के 66 वर्षो बाद भी देश में समान नागरिक संहिता नहीं बन सकी है । इसका प्रधान कारण है कि चुनाव जीतने की लालसा में ‘‘तात्कालिन समझौतावाद’’ की प्रवृत्ति बढ़ती गयी और धीरे-धीरे राजनीतिक दलों का मूल्यात्मक पतन हो गया । 1967 के बाद राजनीतिक दल अपना राष्ट्रीय चरित्र खोते गए, फलतः स्थानीय स्तर पर जीतने की जुगाड़ प्रवृत्ति बढ़ती गयी और दलों का मूल्यात्मक पतन होता गया । वास्तविकता यह है कि मूल्य विहीनता ही आज सबसे बड़ा मूल्य है । इसके लिए निश्चित रूप से जो दल जितने बड़े है, उतने ही ज्यादा जवाबदार है ।
राजनीतिक परम्पराओं के प्रति अनास्था - कल्पना करें कि यदि लोकसभा या राज्य विधान मण्डलों के स्पीकरों को यह सुविधा दे दी जाए वे जब तक चाहे चुनाव लड़ सकते है और उनके विरूद्ध कोई दल प्रत्याशी नहीं खड़ा करेगा । निश्चित रूप से अधिकांश स्पीकर मृत्यू शैय्या पर रहने तक चुनाव लड़ते रहेगें किन्तु निर्विरोध चुना जाना पंसद करेगें । इसी प्रकार यदि संसद द्वारा पारित अधिनियम न्यायालय की सुनवाई के अधिकार (न्यायिक पुनरावलोकन) से बाहर हो जाए तो भारतीय संसद किस के लिए कानून बनाएगी ? यह दोनों परम्परा ब्रिटेन में है, जहां से हमने संसदीय लोकतंत्र का माडल उधार लिया है ।
लोकतांत्रिक प्रणाली की सफलता इस बाद पर निर्भर करती है कि राजनीतिक समाज लोकतांत्रिक मूल्यों और संसदीय परम्पराओं की कितनी रक्षा और सम्मान करता है तथा किस प्रकार की नवीन परम्पराएं विकसित करता है । स्वर्गीय बालयोगी तक स्पीकर के जिस उच्च आर्दशों का संघ में पालन हुआ वह राज्यों में नहीं हुआ। राज्यों के स्पीकरों ने अपनी दलीय निष्ठा के अनुरूप दलों में विभाजन कराया, अपने दल की सरकारें बचायी । झारखण्ड में एक स्पीकर ने स्वयं सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत कर दिया । स्वर्गीय बालयोगी ने यदि दलीय निष्ठा का पालन किया होता तो बाजपयी जी की सरकार एक वोट से पराजित नहीं होती । एक चार्जशीटेड व्यक्ति यदि अमुक दल में है तो अपराधी और भ्रष्टाचारी होता है किन्तु दूसरे दल में जाते ही ईमानदार हो जाता है । जिस बम्बई नगर निगम एवं विधानसभा में सरफिरोज शाह मेहता और दादा नौराजी ने स्थान बनाया हो वहां अरूण गवली को देखकर क्या कहा जा सकता है ।
वास्तविकता यह है कि हर राजनीतिक गतिविधि को नियंत्रित करने के लिए कानून नहीं बनाया जा सकता बल्कि उन्हें परम्पराओं से संरक्षित करना पड़ता है । परिणामतः राजनीतिक दल परम्पराओं के सम्मान की बात तो दूर सवैधानिक प्रावधानों के दुरूपयोग की नित नवीन तकनीकि इजाद करते रहें है । जहां तक नयी स्वस्थ परम्पराओं के विकास की बात है तो एक परम्परा दिखायी देती है कि यदि कोई विधायक या सांसद मर जाए या भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाए या गिरतार हो जाए तो उसके पुत्र, पुत्री, पत्नि आदि को टिकट दे दिया जाए । यह परम्परा कितनी स्वस्थ है इसका निर्णय पाठक ही करें । वैसे इस परम्परा के जनक स्वर्गीय नरसिंह राव जी माने जा सकते है ।
दल नहीं व्यक्ति है :- जय ललिता, ममता बैनर्जी, चन्द्राबाबू नायडू, फारूख अबदुल्ला, मुलायम सिंह यादव ओमप्रकाश चैटाला, नवीन पटनायक, मायावती, देवेगौड़ा, करूणानिधि आदि में से किसी के दल में स्वयं उनके या उनके परिवारों के सदस्यों के अतिरिक्त पार्टी पर कोई काबिज हो सकता है ? एक ही उत्तर है नहीं । कांग्रेस पार्टी में तो दल और व्यक्तित्व में कोई अंतर ही नही रहा है । जनता पार्टी परिवार में जितने व्यक्ति थे उतने दल बन गए । कांग्रेस में जिसने व्यक्ति थे उतने दल बन गए । कांग्रेस में जिसने व्यक्तित्व से अलग राह पकड़ी उसे अलग दल बनाना पड़ा । केवल साम्यवादी दल और किसी हद तक भाजपा, राजनीतिक दल की परिभाषा में ठीक बैठते है कि भा.ज.पा. के भी तीस वर्षो के इतिहास में 18 वर्षो तक अटल जी और आडवानी जी अध्यक्ष रहे है और आज भी पार्टी उनका प्रभावी विकल्प नही पैदा कर पायी है और सबके ऊपर संघ तो है ही ।
वस्तुतः भारतीय दल प्रणाली के विकास में कांग्रेस (आई) का जन्म एक ऐसी दुर्घटना है जिसने दलों की बजाए प्राइवेट लि. कम्पनी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया, और अन्य दलों ने कार्य प्रणाली में उसका अंधानुकरण किया । परिणामतः आज परिवारवाद भारतीय दल प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषता बन गया है । जो कि कभी गैर कांग्रेसवाद के जन्म का आधार था इसी कारण मूर्धन्य राजनीतिक विद्धान प्रोफेसर रजनी कोठारी अन्य दलों को कांग्रेसी क्लोन (कांग्रेस की फोटो कापी) कहते है। क्योंकि जिस राजनीतिक अपसंस्कृति का निर्माण कांग्रेस आई या इंदिरा कांग्रेस ने किया उसका अंधानुकरण सत्ता प्राप्ति पर अन्य दलों ने किया जैसे -
1. व्यक्ति केन्द्रित दलों का निर्माण ।
2. दल के पराजित उम्मीदवारों को राज्यपाल बनाना ।
3. दल के प्रतिवफादार नौकर शाहों को महत्वपूर्ण पद देना ।
4. संवैधानिक संस्थाओं जैसे विभिन्‍न आयोगों आदि पर राजनीतिक आधार पर नियुक्तियां करना ।
5. राज्यपालों का तबादला मुगल सुबेदारों जैसा करना ।
6. दल में आंतरिक निर्वाचन न कराना ।
7. सरकार पर संगठन को हावी कराना ।
8. परिवार वाद को बढ़ावा देना ।
9. तुष्टीकरण की राजनीति को बढ़ावा देना ।
10. नौकरशाही को सरकार के प्रति नहीं दल के प्रति निष्ठावान बनाना ।
11. मुख्यमंत्रीयों का चयन विधायकों द्वारा न चयन कर हाईकमानों द्वारा थोपा जाना ।
यह सूची और भी लम्बी हो सकती है किन्तु संक्षिप्त में यही कहा जा सकता है कि गैर कांग्रेसवाद ने नवीन राजनीतिक संस्कृति का विकास नही किया । फिर प्रश्न यह है कि क्या होगा ? तो उत्तर यह है कि निराशावाद का कोई कारण नहीं है । क्योंकि अमेरिकी और ब्रिटिश व्यवस्था को विकसित होने में शताब्दियां लगीं है और हम अभी केवल 66 वर्ष के हैं । राजनीतिक इतिहास में यह शैशवावस्था ही कही जाएगी जैसा कि प्रारंभ में ही कहा चुका है कि यह संक्रमणकाल है । संतोष और आशा की बात यह है कि भारतीय राजनीति का न केवल आधार बढ़ रहा है बल्कि नए राजनीतिक वर्ग भी पैदा हो रहें है । यदि राजनीति विज्ञान की भाषा में कहा जाए तो राजनीतिक अभिजनों का प्रत्यावर्तन तीव्र हो गया है, जो भारतीय दल प्रणाली और राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक शुभ लक्षण है ।

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