Sunday 14 July 2013

जातिविहीन लोकतन्त्र बनाम जातिवादी व्यवस्था :एक विश्लेषण


स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जो पहला कार्य किया, वह था जाति उन्मूलन। सभी सरकारी रिकार्डों, रजिस्टरों और आवेदन फार्मों से जाति का स्तम्भ हटाया गया था। एक औपनिवेशिक विधा को त्यागा गया था और स्वतन्त्रता से पूर्व किए गए वादे का अनुपालन किया गया था। भेदभाव के कलंक को हटाने में राष्ट्र को लगभग 88 वर्ष लगे थे।
स्वतन्त्रता सेनानियों ने शायद ही यह संदेह दिया हो कि संप्रभुता संपन्न भारतीय गणराज्य की संसद स्वतन्त्रता के 62 वर्षों में ही ब्रिटिश सत्ता की निशानी को वापस ले आएगी। विडम्वना यह भी है कि जो कांग्रेस स्वयं को ब्रिटिश सत्ता को उखाड फ़ेंकने की श्रेय देती रही है, उसी ने इस सप्ताह यह घोषणा की है कि 2011 में अगली जनगणना में एक स्तम्भ जाति को दर्ज करने के लिए भी रहेगा। वस्तुत: जनगणना करने वाले यह पूछेंगे कि किस की क्या जाति है। मनमोहन सिंह सरकार ऐसा कदम उठाते हुए हिचकिचा रही थी, क्योंकि कुछ कैबिनेट मंत्री यह तर्क दे रहे थे कि जाति स्वाधीनता आंदोलन के लोकाचार के विरुद्व है। किंतु ऐसा लगता है, उनमें से कोई भी एक जातिविहीन समाज के लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्व होना, जबकि यही एक ठोस लोकतांत्रिक प्रणाली की पूर्व-पीठिका है।
विपक्षी राजनीतिक दलों की ही चली, क्योंकि अपनी वीरत्वयुक्त हाव-भाव दर्शाने के बाद सरकार झुक गई। किंतु वह प्रयास करती और सिद्वांतों पर अडिग रहती तो सरकार बहुमत जुटा सकती थी। उसे अन्य पिछडे वर्गों (ओबीसी) के नेताओं को, सत्ता में बने रहने के लिए रिझाने की भी जरूरत नहीं पडता। लगता है कि सरकार ने दशकों संकीर्णता की राह पर लौटाने की परिणतियों को नहीं समझा। यह रास्ता तो वह है जो ब्रिटिश सत्ता ने फुट डालो और राज करो की नीति का अवलम्वन कर अपनाया था। वस्तुत: चाहे समाज का स्तरीकरण करने वाली ताकतें कितनी भी मजबूत हों, समाज को एकीकृत होना ही होगा। सरकार को कम से कम राष्ट्रीय एकता परिषद तो गठन करना ही चाहिए था, जिसका काम ऐसी समस्याओं पर विचार-विमर्श करना है। जाति एक ऐसा पक्ष है जो कुल मिलाकर राष्ट्र को प्रभावित करेगी। संसद जो 50 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती वह देश को अंधकार युग में वापस नहीं धकेल सकती।
चुनावी राजनीति ने, तीन यादव नेताओं-जनता दल के एक गुट के नेता शरद यादव और दो पूर्व मुख्यमंत्रियों, उत्तर प्रदेश के मुलायम सिंह यादव और बिहार के लालू प्रसाद यादव की दृष्टि हर ली है। उन्होंने अपने मतदाताओं साजवादी डा. राम मनोहर लोहिया और गांधीवादी जय प्रकाश नारायण से भी विश्वासघात किया है, जिन्होंने जातिविहीन समाज के गठन पर जोर दिया था। आपातकाल के बाद जय प्रकाश नारायण के सफल आंदोलन ने ही इन दोनों को मुख्यमंत्री पद पर आसीन कराया था। यादव नेताओं ने यह दलील दी है कि उनका टोला अन्य पिछडा वर्ग कि जनगणना के बाद, रोजगार और शिक्षण संस्थानों में और अधिक आरक्षण का अधिकारी हो जाएगा। उन्हें यह आशा है कि उनके जाति अनुभागियों का अनुपात और बढ ज़ाएगा। उन्हें पहले ही 27 प्रतिशत कोटा प्राप्त है, जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों से चार प्रतिशत अधिक है, जबकि मात्र ये ही हैं जिन्हें संविधान के माध्यम से आरक्षण मिला था। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को 50 प्रतिशत सीमित किया है, यदि ओ.बी.सी. नेता और अधिक चाहते हैं तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाना होगा। जनगणना ही तो उन्हें और अधिक आरक्षण नहीं देगी। न ही संसद। मंच तो सर्वोच्च न्यायालय है, जो अपने निर्णयों में यह सोचता आया है कि कम से कम 50 प्रतिशत रोजगार और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश 'मेरिट' के आधार पर होना चाहिए।
इस बात की क्या गारंटी है कि जनगणना में संख्याओं की मात्रा सही-सही ही दर्ज होगी? झूठ की जोखिम भी तो है ही। जनगणना करने वाला जब किसी सामान्य व्यक्ति के पास जाकर उससे उसकी जाति के बारे में पूछेगा तो कोई अधिकाधिक दिशा-निर्देशन तो है नहीं, जिसका उपयोग कर जनसंख्या की गणना करने वाला इस तथ्य का पता लगा सके कि उसके सवाल को जो उत्तर दिया गया है, वह सही है। उसका काम तो मात्र इतना ही है कि उसे जो कुछ बताया जाए, उसे दर्ज कर ले। परंपराओं और रीति-रिवाजों ने भी भारत को तथा शेष उपमहाद्वीप को भी इस ढंग से प्रभावित किया है कि जाति प्रणाली, मुस्लिमों, सिखों और ईसाइयों को भी प्रभावित किया है। इस्लाम समानता का उपदेश देता है और यही वह कारण है जो हिंदुओं ने इस बारे में कहा था कि आरक्षण हेतु मुसलमानों में जाति का हवाला नहीं दिया जाना चाहिए। करांची के एक श्रमिक नेता से थोडे दिन पूर्व मेरी दिल्ली में भेंट हुई थी, उसने मुझे बताया कि पाकिस्तान में श्रमिकों में भ्ीा जाति के आधार पर विभाजन हो गया है। भारत में अन्य पिछडे वर्गों से संबंधित मुस्लिम उदाहरणत:, बढर्ऌ, जुलाहे और लुहार भी अपने हिंदू समकक्षों के समान आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। अनुसूचित जातियों के कोर्ट में मुस्लिम दलितों को स्थान दिए जाने की मांग भी उभरी है। मुस्लिमों की दशा को जानने के लिए गठित हुई सच्चर समिति ने भी यह मान्य किया है कि मुस्लिम समुदाय में भी दलित हैं। कानून के बारे में मेरा ज्ञान चाहे कितना भी सीमित हो, फिर भी वह मुझे बताता है कि जनगणना करने वाले जो फॉर्म भरेंगे उसमें जाति का कॉलम संविधान में बुनियादी ढांचे की अवहेलना करता है। प्रस्तावना में कहा गया है कि हम लोग भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लेते हैं। केशवानन्द माही केस में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि प्रस्तावना में जो उद्देश्य वर्जित हैं, वे संविधान के बुनियादी ढांचा को व्यक्त करते हैं, जिसमें उस अधिकार में भी संशोधन नहीं किया जा सकता, जिसका संसद उपयोग करती है (अनुच्छेद 368)। जाति लोकतंत्र अथवा समाजवादी विचारधारा की विरोधाभासी है। जाति पहचान को पुन: लागू करने संबंधी कोई भी कार्रवाई, जो जनसंख्या की गणना के लिए करने का प्रयास होगा, वह असंवैधानिक है। इस पर भी यदि सरकार जाति वर्गीकरण की राह पर आगे बढना चाहती है तो उसे इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय को सौंपना चाहिए, यह काम अब ही क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
जातीय पहचान पर भारतीय जनता पार्टी की सहमति आश्चर्यजनक ही है। यह पार्टी हमेशा देश की भावनात्मक एकता की दुहाई देती रहती है, उसका किसी भी विभाजक बात को समर्थन मात्र चुनावी ऊहापोह को लेकर ही है। यह खुद को यादव नेताओं के साथ देखा जाना चाहती है, जो जातियों की जनगणना को प्रगति की दिशा में रखा कदम जताने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा भी अन्य राजनीतिक दलों के समान यह जानती है कि जाति मात्र ही नहीं, अपितु उपजातियों का चुनावी मुकाबले में आह्वान किए जाने का सिलसिला बढता जा रहा है। देश में निर्धनता मात्र अन्य पिछडे वर्गों तक ही तो सीमित नहीं है, जहां चालीस प्रतिशत लोग एक डॉलर से भी कम ही कमाते हैं। राजनीतिक दलों को मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि लोगों को कैसे उन दयनीय आर्थिक स्थितियों से उबारा जाए, जिनसे वे संत्रस्त हैं। यही समय है कि जब आरक्षण का आधार जाति नहीं अपितु निर्धनता को बनाया जाए। यह बदलाव समय की मांग है। मापदंड न जाति हो और न ही मत, अपितु यह होना चाहिए कि व्यक्ति कितना कमाता है। आरक्षण के चाहे जो भी लाभ हों, उन्हें बुनियादी तौर पर ओ.बी.सी. और अनुसूचित जातियों और जनजातियों की मलाई परत नेताओं ने ही समेटा है। सर्वोच्च न्यायालय एक से अधिक बार कह चुका है कि मलाई परत को परिभाषित किया जाना चाहिए, ताकि लाभ अगली पीढी क़ो मिल सके, किंतु इन समुदायों के नेता खासतौर पर यादव ऐसा करने से इनकार करते हैं, क्योंकि वे इन लाभों को संजोए रखना चाहते हैं। असली समस्या तो यह है कि उनके एकाधिकार को कैसे समाप्त किया जाए, जाति के आधार पर जनसंख्या की तो अंकुश लगाना ही होगा।

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