सिंगापुर में हुए
एशियाई सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पनेटा ने कहा कि
अमेरिका अब एशिया प्रशांत क्षेत्र के समुद्रों में पहले से अधिक युद्धपोतों
को तैनात करेगा. अमेरिका अभी अपने युद्धपोतों का पचास प्रतिशत अटलांटिक
में और पचास प्रतिशत एशिया प्रशांत क्षेत्र में तैनात किए हुए है, लेकिन अब
वह एशिया प्रशांत क्षेत्र में युद्धपोतों का प्रतिशत बढ़ाकर साठ प्रतिशत
करेगा. हालांकि अमेरिका का कहना है कि उसकी एशिया प्रशांत नीति के केंद्र
में चीन नहीं है और न वह चीन को विश्व शक्ति बनने से रोकने के लिए यह क़दम
उठा रहा है, लेकिन क्या इस वास्तविकता को झुठलाया जा सकता है कि अमेरिका की
एशिया प्रशांत नीति किसी न किसी रूप में चीन को नियंत्रित करने की कोशिश
है. वह चीन की बढ़ती ताक़त से चिंतित है और एशिया में अपनी स्थिति मज़बूत
करके शक्ति संतुलन स्थापित करना चाहता है. चीन भी जानता है कि अमेरिका चीन
को घेरना चाहता है. चीन की प्रतिक्रिया भी इसका प्रमाण है. अमेरिका की
एशिया प्रशांत की ओर विशेष ध्यान देने की बात इससे पहले बराक ओबामा भी कर
चुके हैं. बराक ओबामा की घोषणा के बाद ही चीनी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के
संपादकीय में कहा गया था कि अमेरिका का एशिया प्रशांत में स्वागत है, लेकिन
इस क्षेत्र में सैनिक गतिविधियां बढ़ने से यहां की शांति को खतरा
पहुंचेगा. इस क्षेत्र में अमेरिकी सैनिक गतिविधियां बढ़ने से क्षेत्रीय
विवाद खत्म नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे. स्वाभाविक है कि अमेरिका की एशिया
में मज़बूत होती स्थिति से सबसे ज़्यादा परेशानी चीन को होगी. चीन महाशक्ति
बनने की ओर बढ़ रहा है. वह न केवल आर्थिक ताक़त है, बल्कि उसके पास सामरिक
ताक़त भी है. एशिया में भारत को छोड़कर कोई भी देश चीन से प्रतिद्वंद्विता
करने की स्थिति में नहीं है. चीन भारत को घेरने की नीति अपना रहा है और
भारत चीन की इस नीति को विफल करने की कोशिश कर रहा है. सोवियत संघ के पतन
के बाद शीतयुद्ध का अंत हो गया, क्योंकि दो ध्रुवों में विभाजित विश्व एक
ध्रुवीय हो गया.अमेरिका विश्व की एक मात्र महाशक्ति बन गया है. चीन जिस तरह
से अपनी आर्थिक और सामरिक ताक़त बढ़ा रहा है, उससे अमेरिका को ऐसा लगने
लगा है कि कहीं चीन पूर्व के सोवियत संघ जैसा न बन जाए, जिससे उसके
महाशक्ति बने रहने पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा. यही कारण है कि अमेरिका एशिया
प्रशांत क्षेत्र में सैनिक गतिविधियां बढ़ा रहा है. उसने ऑस्ट्रेलिया के
साथ समझौता किया है, जिसके अनुसार 2017 तक वह 2500 मेराइन ऑस्ट्रेलिया के
उत्तरवर्त्ती तटों पर तैनात करेगा. चीन ने इस समझौते पर भी आपत्ति जताई थी.
जापान के साथ भी अमेरिका ने समझौता किया है. कुछ समय पहले अमेरिका ने
फिलिपींस, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास
किया था. भारतीय रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सिंगापुर में हुए एशिया सुरक्षा
सम्मेलन में कहा कि समुद्री आज़ादी का मज़ा केवल कुछ ही देशों को नहीं
मिलना चाहिए. हमें देशों के अधिकार और विश्व समुदाय की आज़ादी के बीच का
रास्ता ढूंढना होगा. ग़ौरतलब है कि जब भारत ने दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ
देशों से प्रशांत महासागर में तेल की खोज के संबंध में समझौते किए थे, तो
चीन की ओर से प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आई थीं. चीन का कहना था कि इन
क्षेत्रों में भारत की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं की जाएगी. इस कारण भारत को भी
अमेरिका के इस फैसले से खुश होना चाहिए.
अमेरिका
की एशिया प्रशांत नीति से चीन के चिंतित होने का एक और कारण है. चीन का
दक्षिण चीन सागर में फिलिपींस, जापान, वियतनाम और मलेशिया के साथ कुछ
आइलैंड पर क़ब्ज़े को लेकर विवाद है. फिलिपींस और चीन की नौसेनाएं नांसा
आइलैंड के विवाद के कारण बहुत दिन तक आमने-सामने भी रही थीं. ग़ौरतलब है कि
विवादित आइलैंड खनिज संसाधनों विशेषकर खनिज तेल से भरपूर है. चीन इनसे
अपना क़ब्ज़ा हटाना नहीं चाहता है और जिन देशों के साथ चीन का विवाद है,
उनकी नौसैनिक शक्ति चीन की तुलना में का़फी कम है. फिलिपींस ने हाल में
अमेरिका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किया है. अमेरिका इस क्षेत्र में
अपनी स्थिति मज़बूत करना चाहता है. अगर दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के
साथ अमेरिका का समझौता होता है तो फिर चीन को कठिनाई तो होगी. चीन को ऐसा
लगने लगा है कि अमेरिकी पहुंच बढ़ने से इस क्षेत्र पर उसका दावा कमज़ोर
पड़ने लगेगा. अमेरिका को उम्मीद है कि एक तऱफ तो वह चीन की बढ़ती ताक़त पर
ब्रेक लगाने में अपने एशियाई सहयोगियों का सहारा ले सकता है और उनका सहारा
बन सकता है, तो दूसरी तऱफ इस क्षेत्र के तेल से भरपूर आइलैंड का दोहन करने
का मौक़ा उसे मिल सकता है. उसने 2020 तक इस क्षेत्र में अपने युद्धपोतों की
संख्या बढ़ाने का लक्ष्य रखा है. अमेरिका की इस एशिया प्रशांत नीति में भी
कहीं न कहीं तेल की राजनीति छुपी है.
अमेरिका
ने तो चीन को घेरने के लिए रणनीति बना ली. उसने चीन के आसपास के देशों के
साथ समझौता और साझीदारी स्थापित करनी शुरू कर दी. चीन अमेरिका को चेतावनी
भी दे रहा है. अब देखना यह है कि चीन अमेरिका की इस नीति का तोड़ कैसे
निकालता है. वह अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाकर अमेरिका की ओर उनके
बढ़ते क़दम को रोकता है या फिर अमेरिका को ही इस ओर बढ़ने से रोकता है.
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