सोवियत
संघ के विघटन के बाद माना जाने लगा कि शीत युद्ध ख़त्म हो गया है. ऐसा
इसलिए, क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद साम्यवादी खेमा कमज़ोर हो गया
था. रूस सामरिक तौर पर तो मज़बूत था, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी
कि वह वैश्विक स्तर पर साम्यवाद के प्रसार के लिए मुहिम छेड़ सके. विश्व
एकधु्रवीय हो गया था, जिसके केंद्र में अमेरिका ही था. लेकिन महज़ बीस साल
बाद ही एक बार फिर शीत युद्ध का ख़तरा मंडराने लगा है. वैश्विक स्तर पर ऐसा
परिदृश्य बन रहा है, लेकिन इस बार साम्यवाद का प्रतिनिधित्व रूस नहीं,
बल्कि चीन कर रहा है. एक दूसरा अंतर यह भी है कि इस बार साम्यवाद और
पूंजीवाद के बीच टक्कर नहीं है, बल्कि अमेरिका यूरोप एवं कुछ अन्य देशों के
सहयोग से अपना वर्चस्व बचाए रखने की कोशिश कर रहा है. दूसरी ओर चीन अपना
वर्चस्व क़ायम करने के लिए गुटबंदी कर रहा है, जिसके लिए वह अमेरिका द्वारा
उठाए गए क़दमों का विरोध करके अपने समर्थकों की संख्या बढ़ा रहा है.
अमेरिका और चीन दोनों ही नव शीत-युद्द के प्रमुख धुरी राष्ट्र बन कर उभर रहें हैं,अमेरिका कभी भी एक धुर्विय व्यवस्था कों दिधुर्विय या फिर बहुधुर्वीय व्यवस्था में तब्दील नहीँ होने देगा,इस् हेतु वह दाम-दण्ड व भेद की नीति का प्रयोग करेगा.ऐसे में गुटनिरपेक्षता का महत्व भी बढ़ेगा .......
इस
व़क्त अमेरिका और चीन कई मुद्दों पर आमने-सामने खड़े हैं. न केवल आर्थिक
मुद्दों पर, बल्कि सामरिक तौर पर भी दोनों देश एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की
कोशिश कर रहे हैं. अमेरिका ने चीन की आर्थिक नीति की जमकर आलोचना की है.
उसका कहना है कि चीन जानबूझ कर अपनी मुद्रा युआन की क़ीमत कम कर रहा है,
ताकि उसका निर्यात बढ़ सके. चीन अपने लाभ के लिए जैसी आर्थिक नीति बना रहा
है, उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं कहा जा सकता. हालांकि चीन ने
अमेरिका की नाराज़गी पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं जताई है, लेकिन उसका
तर्क है कि मुद्रा की क़ीमत धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए, ताकि आर्थिक संतुलन न
बिगड़े और बेरोज़गारी भी न बढ़े, क्योंकि ऐसा करने से वैश्विक विकास
प्रभावित होगा. यही नहीं, यूरोप की मंदी से चीन के व्यापारियों को परेशानी
तो है, लेकिन चीन की सरकार इस बात से ख़ुश है कि यूरोप और अमेरिका इससे
आर्थिक तौर पर कमज़ोर होंगे.
एपेक
की बैठक में भी दोनों देशों के बीच विवाद हुआ. एपेक देशों के बीच मुक्त
व्यापार संबंधी अमेरिकी प्रस्ताव से चीन असंतुष्ट है. उसका कहना है कि
अमेरिका उसे अपने अनुसार चलाने की कोशिश कर रहा है. अमेरिका यह प्रस्ताव
चीन का प्रभाव कम करने के लिए लाया था. इसके अलावा भी कई आर्थिक मुद्दों पर
दोनों देशों के बीच तनातनी है, जिससे साफ होता है कि दोनों देश आर्थिक
महाशक्ति बनने के लिए एक-दूसरे को पीछे छोड़ना चाहते हैं. न केवल आर्थिक,
बल्कि सामरिक तौर पर भी दोनों देश एक-दूसरे को मात देने की कोशिश में लगे
हैं. अमेरिका ने आस्ट्रेलिया के साथ नौसैनिक समझौता किया है, जिसके तहत
2500 अमेरिकी पोत ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी तट पर तैनात किए जाएंगे. चीन ने
प्रशांत महासागर में प्रभाव बढ़ाने के इस अमेरिकी प्रयास का विरोध किया है.
चीन यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके पास के क्षेत्रों में अमेरिकी नौसेना
मौजूद रहे.
ऑस्ट्रेलिया
ने भी भारत को यूरेनियम देने की बात मान ली है. हालांकि उसके देश में ही
इसका विरोध हुआ है, जबकि अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया के इस क़दम का स्वागत किया
है. एक तरह से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच इस समझौते से भारत को कोई
दिक्कत नहीं है, क्योंकि चीन से भारत को भी परेशानी है. अमेरिका ताइवान का
समर्थन करता रहा है. उसने हाल-फिलहाल 4 बिलियन पाउंड के हथियार ताइवान को
बेचे हैं, जिसका चीन ने जमकर विरोध किया. चीन भी गुटबंदी का कोई मौक़ा नहीं
छोड़ रहा है. जब अमेरिका ने पाकिस्तान को हक्कानी नेटवर्क से संबंध रखने
के कारण धमकी दी तो चीन के उप प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान का दौरा किया और
किसी भी स्थिति में उसका साथ देने की बात कही.
हाल
में नाटो सेना ने पाकिस्तानी क्षेत्र पर हमला किया, जिसमें 25 सैनिक मारे
गए तो चीन ने उसे पाकिस्तान की संप्रभुता पर हमला बताया और पाक के साथ अपने
संबंध मज़बूत करने की कोशिश की. ईरान के मुद्दे पर भी चीन ने अमेरिकी
प्रतिबंधों का विरोध किया है. उसने तर्क दिया कि ऐसे प्रतिबंधों से ईरान
अलग-थलग पड़ जाएगा, लेकिन बात कुछ और है. यही नहीं, उसने लीबिया और सीरिया
को भी गुपचुप तरीक़े से समर्थन दिया. यह भी उसकी कूटनीति का हिस्सा है.
देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र संघ हो या आसियान, दक्षेस हो या कोई अन्य
क्षेत्रीय संगठन, हर जगह पर चीन और अमेरिका आमने-सामने होते हैं. बात अगर
चीन और अमेरिका के बीच की होती तो यह कोई गंभीर मुद्दा नहीं था, क्योंकि
कोई भी देश हो, वह आगे बढ़ने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाना
चाहेगा. अभी चीन और अमेरिका सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियां हैं. सामरिक तौर पर
भी चीन किसी रूप में अमेरिका से कम नहीं है, लेकिन बात है गुटबंदी की.
दोनों देश विश्व को दो गुटों में बांटने की कोशिश कर रहे हैं. अमेरिका अपने
समर्थकों की सूची बढ़ा रहा है और चीन अपने समर्थकों की. यही स्थिति
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पैदा हुई थी और पूरी दुनिया चालीस सालों तक
युद्ध के ख़ौ़फ के साए में रही. चूंकि दोनों गुट परमाणु शक्ति संपन्न थे,
इसलिए युद्ध नहीं हुआ, लेकिन डर तो बना ही रहा. इस गुटबंदी का असर अल्प
विकसित और अविकसित देशों पर पड़ा, क्योंकि उन्हें किसी एक का सहयोग ही मिल
पाया. हथियार हासिल करने की होड़ मच गई, जिससे विकास का पैसा हथियारों पर
ख़र्च होने लगा. अगर वही स्थिति फिर आती है तो उसका खामियाजा विकासशील और
अल्प विकसित देशों को ही भुगतना पड़ेगा. ऐसे में एक बार फिर गुट निरपेक्ष
आंदोलन को मज़बूत करने की ज़रूरत है, ताकि शीत युद्ध के ख़तरे से दुनिया को
बचाया जा सके.
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