Sunday 14 July 2013

ब्रिक्स : एक विवेचना


अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक में अमीर देशों की उपस्थिति के बावजूद यदि स्थानीय मुद्राओं में ही व्यापार, विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं में निवेश, ब्रिक्स बैंक की स्थापना और ब्रिक्स देशों के बीच आपसी कारोबार को बढ़ाने संबंधी सुझावों को धरातल पर उतारा जाये तो अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विकसित और अमीर देशों का एकाधिकार खत्म होना तय है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स असरदार, संगठित और नेतृत्वकारी ताकत बन कर उभर सकता है। क्या ब्रिक्स देशों का एक साथ खड़ा होना पश्चिमी वर्चस्व की मौजूदा विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है? नयी दिल्ली में आयोजित चौथे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में उठे मुद्दों पर गौर किया जाये तो सबसे प्रमुख तथ्य यह उभरकर आता है कि वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव की बात पहले सम्मेलन से हो रही है। लेकिन विडंबना यह है कि वैश्विक संस्थाओं खासकर आर्थिक मामलों से जुड़ी संस्थाओं पर पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने के अपने घोषित मंसूबों के बावजूद ब्रिक्स देश पिछले साल आइएमएफ के अध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति से कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सके। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार चुनने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। आइएमएफ से डोमिनिक स्ट्रॉस कान की विदाई के बाद आइएमएफ प्रमुख पद के लिए भारत के योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का नाम सामने आया था। अमेरिका ने भारत को समझाया और यूरोप ने चीन को। इस तरह से चीन भारत का समर्थन करने से पीछे हट गया। नयी दिल्ली में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में यह बात दोहरायी गयी कि विश्व बैंक और आइएमएफ जैसी संस्थाओं के शीर्ष पदों के लिए चयन प्रक्रिया खुली और पारदर्शी होनी चाहिए। लेकिन विश्व बैंक के अध्यक्ष पद पर एक और अमेरिकी का नामांकन यही दर्शाता है कि चीजें बदली नहीं हैं। आइएमएफ के प्रमुख पद के लिए मैक्सिको के ऑगिस्टन कास्टेंस की जगह क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया गया, क्योंकि अमेरिका और यूरोप समेत तीन ब्रिक्स देशों ने फ्रांस की क्रिस्टीना लेगार्ड का समर्थन किया था। यह विडंबना है कि ब्रिक्स देशों के सम्मेलन के भाषणों में एकता की बात होती है लेकिन जहां बदलाव का अवसर आता है, वहां सब अलग-अलग राग छेड़ने लगते हैं। ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था का आकलन किया जाये तो यह जरूर दिखता है कि पश्चिमी देशों की तुलना में इन देशों ने आर्थिक संकट का सामना बेहतर ढंग से किया है। वैश्विक जीडीपी में इन पांच देशों की हिस्सेदारी 25 फीसद है और दुनिया की 43 फीसद आबादी ब्रिक्स देशों में रहती है। पिछले साल ब्रिक्स देशों का आपसी कारोबार 230 अरब डॉलर का था, जिसे वर्ष 2015 तक बढ़ाकर 500 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा गया है। ब्राजील और रूस उन वस्तुओं के निर्यातक हैं, जिनकी जरूरत भारत और चीन को है। चीन का विनिर्माण, भारत का सर्विस सेक्टर, रूस का तेल-गैस भंडार, ब्राजील का आधारभूत संरचना में विकास और दक्षिण अफ्रीका का मानव और प्राकृतिक संसाधन आपसी कारोबार के आधार स्तंभ हैं। इनके बलबूते विकसित देशों को चुनौती दी जा सकती है। आज विकसित देशों में जहां बाजार परिपक्व होने के कारण मांग में पिछड़ते जा रहे हैं, वहीं ब्रिक्स देशों में तेजी से बढ़ रही युवा आबादी के कारण मांग उफान पर है। इन सकारात्मक चीजों के साथ अगर स्थानीय मुद्रा में व्यापार और ब्रिक्स बैंक की स्थापना की बात धरातल पर उतरती है तो यह पूरे विश्व के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। फिलहाल दुनिया के 18 फीसद कारोबार और 53 फीसद विदेशी पूंजी प्रवाह पर ब्रिक्स देशों का नियंत्रण है। विकसित देशों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए ब्रिक्स देश आपसी कारोबार और निवेश बढ़ाने के लिए रियाल, रूबल, रुपये, युआन और रेंड में व्यापार कर सकते हैं। यूरोपीय जोन के संकट ने दुनिया को यह बता दिया है कि साझा मुद्रा के रहते हुए मुद्रा का अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। कर्ज संकट में फंसे किसी एक देश को जब आर्थिक सहायता देकर उबारने की कोशिश की जाती है तो उसी समूह का दूसरा देश कर्ज संकट में फंस जाता है। धीरे-धीरे एक ही मुद्रा का इस्तेमाल करने वाले समूह के सारे देश संकट में फंस जाते हैं। इसे "डोमिनो प्रभाव' कहा जाता है। डोमिनो प्रभाव से बचने के लिए स्थानीय मुद्रा कारगर साबित होती है। इससे डॉलर और यूरो जैसी मुद्राओं पर ब्रिक्स देशों की निर्भरता कम हो जायेगी। लिहाजा स्थानीय मुद्रा में कारोबार से विनिमय के उतार चढ़ाव और मुद्रा के अवमूल्यन की समस्या से निजात मिलेगी। ब्रिक्स बैंक की स्थापना से समूह देशों को आधारभूत संरचना के निर्माण जैसी परियोजनाओं के लिए सस्ता धन मिलेगा। इससे कारोबार सुविधाजनक होगा, लेन-देन की लागत भी घटेगी। लेकिन इसकी सफलता के लिए राजनीतिक स्थिरता की आवश्यकता है, जिसका रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में अभाव दिखता है। साथ ही इन दो सुझावों के सफल होने के लिए ब्रिक्स देशों की आपसी टकराहट को कम करना आवश्यक है ताकि दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने की पश्चिम की क्षमता न बढ़े। पश्चिमी देशों में बहुआयामी और लगातार संपर्क का एक लंबा इतिहास रहा है। चाहे युद्ध का समय हो या शांति का दौर, पश्चिमी देशों ने आपसी संपर्क के जरिये एक दूसरे और उनके कामकाज के तौर-तरीकों के प्रति भी अच्छी समझ विकसित की है। लेकिन जहां तक ब्रिक्स देशों का सवाल है, वहां भौगोलिक दूरी के साथ-साथ मानसिक दूरियां भी बढ़ी हैं। भारत और चीन के बीच संपर्क और व्यवहार का एक समृद्ध इतिहास रहा है। लेकिन आज की तारीख में यह लगभग नहीं के बराबर है। ब्रिक्स देशों में राजनीतिक विचारधाराओं का अंतर भी इस समूह की एक बड़ी कमजोरी बन कर उभरा है, खास कर जब विचारधारा के तौर पर ज्यादा संगठित पश्चिमी देशों से इसकी तुलना होती हो। ब्रिक्स देशों में सैन्य और सामरिक मोर्चे पर भी आपसी अविश्वास है। ब्रिक्स के आलोचक चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का मुद्दा उठाते हैं। इसी तरह मध्य एशिया या साझा सीमा पर चीन के इरादों पर रूस की शक भरी निगाह आपसी विश्वास की कमी दिखाता है। ब्रिक्स देशों की कमजोर कड़ी के रूप में भारत की अर्थव्यवस्था भी है। सन् 2001 में ब्रिक्स शब्द गढ़ने वाली टीम के प्रमुख गोल्डमैन सैस के जिम ओ'नील ने कहा था कि ब्रिक्स देश वैश्विक ताकत की परिभाषा बदलेंगे और भारत इस बदलाव का नेतृत्व करने में सक्षम होगा। लेकिन पिछले एक दशक बाद ओ नील ने कहा कि ब्रिक्स देशों में भारत कमजोर कड़ी बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार और नीति निर्माण के क्षेत्र में भारत की कमजोरी खुलकर सामने आ रही है। "द इकोनॉमिस्ट' ने हाल ही में राजकोषीय स्थिति के आधार पर देशों को रैकिंग प्रदान की है। भारत को इस सूची में नीचे से दूसरा स्थान मिला है। निस्संदेह दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत बाकी तीन ब्रिक्स देशों से काफी पीछे है। ब्रिक्स देशों की अगुवाई करने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को नौ फीसद की विकास दर पर लाना होगा। बहरहाल, यह माना जा सकता है कि व्यावहारिक सहयोग के मामलों में ब्रिक्स देश अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि सामूहिक तौर पर ये राजनीतिक और आर्थिक ताकत हैं और दुनिया में बेहतरी के वाहक बन सकते हैं।

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