वित्तीय समावेशन
भारत की आर्थिक नीतियों में तथा बैंकों की घोषित दृष्टिकोण पत्रों में हम अक्सर वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) शब्द को सुनते हैं।
वित्तीय समावेशन का अर्थ :
वित्तीय समावेशन समाज के हर वर्ग के व्यक्ति, विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर लोग, तक उपयुक्त वित्तीय उत्पाद तथा सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रारंभ की गई एक नीति है। इसमें वित्तीय उत्पाद तथा सेवाओं को मुख्यधारा की वित्तीय संस्थाओं द्वारा इन्हें यथोचित मूल्य तथा पारदर्शी तरीके से उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाता है। यानि ऐसा न हो कि गरीब वर्ग को वित्तीय सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर ऐसी वित्तीय संस्थाओं को मौका दे दिया जाय जो इसका अनुचित लाभ उठाएं।
वित्तीय समावेशन या फाइनेंशियल इन्क्लूशन (Financial Inclusion) शब्द का आसान भाषा में अर्थ यह होता है कि समाज के निचले से निचले स्तर पर बैठे व्यक्ति को देश की वित्तीय मुख्य धारा (Financial Mainstream) का हिस्सा बनाया जाय। वित्तीय विश्लेषकों के अनुसार वित्तीय धारा से जोड़ने का सबसे सहज तरीका और पहला कदम होता है बैंक में खाता खोलना। इसलिए कहा जा सकता है कि वित्तीय समावेशन का उद्देश्य ही यह सुनिश्चित करना है कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति का बैंक में खाता हो।
लेकिन जब समाज के सबसे निचले स्तर पर बैठे व्यक्ति को बैंक से जोड़ने की बात की जाती है तो यह बात भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि बैंकों से लोगों को जोड़ते समय इस बात का ध्यान रखा जाय कि वर्तमान स्थितियों में बैंकों के तामझाम ऐसे लोगों के मन में डर ने पैदा करे। यानि वित्तीय समावेशन नो फ्रिल बैंकिंग (दिखावा तथा आडम्बर रहित बैंकिंग – No-Frill Banking) प्रणाली अपनाने पर जोर दिया जाता है।
वित्तीय समावेशन का एक और पहलू है यह सुनिश्चित करना कि आम लोगों को समय पर सस्ता कर्ज मिल सके तथा समाज के निचले तबले के प्रति भी सभी वित्तीय संस्थान जबावदेही सुनिश्चित करें।
वर्ष 2004 में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने भारत में वित्तीय समावेशन की जाँच करने के लिए खान आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर RBI ने देश के वाणिज्यिक बैंकों को एक मूलभूत नो-फ्रिल बैंक एकाउण्ट (basic no-frill account) बनाने की अपील की। भारत में आधिकारिक रूप से वित्तीय समावेशन को एक बैंकिंग नीति के रूप में वर्ष 2005 में के.सी. चक्रवर्ती समिति की रिपोर्ट के बाद अमल में लाना शुरु किया गया। इसके बाद बैंकों ने निचले स्तर पर रहने वाले लोगों को ध्यान में रखकर बैंक खाता खोलने की शर्तों को आसान करने की प्रक्रिया शुरू की।
वित्तीय समावेशन की नीति बनाने कि आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि भारत की जनसंख्या का अधिसंख्य हिस्सा कृषि कार्य में संलग्न है। और कृषि वर्ग को तमाम समस्याओं से दो चार होना पड़ता है जैसे ऊँची ब्याज दर, कृषि क्षेत्र में भारी अनिश्चितता, इस क्षेत्र में बीमा कवर का अभाव, लगातार बढ़ती लागत, महाजनी सूद का लगातार मजबूत होता शिकंजा, आदि। इन समस्याओं के चलते यह वर्ग बैंकिंग क्षेत्र से भी उसी तरह के दुराग्रह पालने लगता है जैसे महाजनों तथा अन्य सूदखोर प्रवृत्ति के लोगो के प्रति उसने पाला था। इसलिए यह आवाश्यक है कि वित्तीय क्षेत्र, विशेषकर बैंकिंग के प्रति इस वर्ग के दुराग्रहों को दूर किया जाय । इसलिए वित्तीय समावेशन की नीति के तहत निचले तथा अभी तक वित्तीय क्षेत्र के प्रति उपेक्षा रखने वाले वर्ग को वित्तीय धारा से जोड़ने का प्रयास किया गया।
वित्तीय समावेशन पर हाल फिलहाल के समय में केन्द्र सरकार तथा भारत की तमाम वित्तीय संस्थाओं द्वारा ध्यान दिए जाने का एक प्रमुख कारण यह है कि इनका मानना है कि वित्तीय समावेशन ही समावेशित विकास (Sustainable Growth) को प्राप्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम है।
वित्तीय समावेशन से जुड़े मुख्य तथ्य
- 1) वित्तीय समावेशन का अर्थ है समान के निचले से निचले स्तर पर बैठे वर्ग तक वित्तीय उत्पादों तथा सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराना
- 2) वित्तीय समावेशन मे यह ध्यान रखा जाता है कि ऐसा करते समय मुख्यत: मुख्य धारा की वित्तीय संस्थाओं की ही मदद ली जाय।
- 3) वित्तीय समावेशन का सबसे लोकप्रिय व आसान तरीका बैंक खाता खोलना माना जाता है।
- 4) वित्तीय समावेशन को समावेशित विकास को प्राप्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम माना जाता है
- 5) केरल, हिमाचल प्रदेश तथा पाण्डिचेरी 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशित प्रशासनिक क्षेत्र घोषित किए जा चुके हैं।
- 6) मंगलम (पाण्डिचेरी), भारत का पहला पूर्णतया वित्तीय समावेशित राज्य था
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