वह अपने समय का महान विद्वान, सुखवादी विचारधारा का प्रवर्तक दार्शनिक, मौलिक विचारक तथा उपयोगितावाद का समर्थक राजनीतिज्ञ था. कानून का प्रतिभाशाली विद्यार्थी होते हुए भी उसने कभी वकालत नहीं की. न्यायालय में व्याप्त भ्रष्टाचार को देख उसका मन वहां से ऐसा उचटा कि फिर कभी उस ओर झांका तक नहीं. सिर्फ अपनी कलम पर भरोसा किया और उसी के बल पर जीता रहा. उसने अपना अधिकांश समय प्रचलित राजनीतिक विचारधारा तथा कानून की आलोचना-समीक्षा करने में लगाया. उसने विपुल मात्रा में लेखन किया, किंतु उसके मन में प्रकाशन के प्रति सतत उदासीनता बनी रही. इसीलिए महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद उसके विचारों को उसके जीवन में वह मान्यता नहीं मिल सकी, जिसका वह अधिकारी था. लेकिन उसके विचारों की मौलिकता और स्पष्टवदिता ने लोगों को प्रभावित किया और समय आने पर उसको व्यापक प्रतिष्ठा भी मिली. बैंथम को विद्वानों ने उसको नैतिक दर्शनशास्त्र का महान व्याख्याता स्वीकार किया. तथापि उसके विचार केवल सैद्धांतिक बहसों तक सीमित नहीं थे. तत्कालीन धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध उसने सुख की कामना को मनुष्य के नैतिक कर्तव्यों में शुमार किया. इसपर धार्मिक आडंबरवादी उसके पीछे पड़ गए. अपने विचारों के लिए बैंथम को जोरदार आलोचना का सामना करना पड़ा. बिना घबराए वह डटा रहा.धीरे-धीरे लोगों पर उसके विचारों का असर पड़ने लगा. आज दुनिया-भर के अनेक विद्वान, शोधार्थी उसके आर्थिक सिद्धांतों के विश्लेषण में लगे हुए हैं. यदि किसी विद्वान के विचारों की प्रासंगिकता शताब्दियों बाद भी बनी रहे तो मानना चाहिए कि वह अद्वितीय था, यह निःसंदेह उसकी महानता का प्रतीक है. उसने विद्वानों की पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया, बल्कि उनकी कई पीढ़ियां भी तैयार की हैं. बैंथम की विलक्षणता का भी कोई ठिकाना नहीं. वह मरा तो दसियों हजार पृष्ठों की हस्तलिखित सामग्री छोड़कर, जिसमें उसकी महत्त्वपूर्ण विवेचनाएं, दर्शन-चिंतन और ज्ञान भरा हुआ था.
जैरेमी बैंथम नाम के उस महान विचारक और दार्शनिक का जन्म15, फरवरी सन 1748 को लंदन के हाऊंडिच(Houndsditch)नामक स्थान पर हुआ था. पश्चिमी देशों के इतिहास में वह समय बहुत ही क्रांतिकारी था. अठारहवीं शताब्दी के मध्याह्न में, उन दिनों जब पूरे यूरोप में वैचारिक क्रांति का माहौल था. पूरा समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था, जा॓न ला॓क, डेविड ह्यूम, रेने देकार्ते, रूसो,जोसेफ प्रस्टीले तथा एडम स्मिथ, लियोनार्दो दा विंसी जैसे विद्वानों की मेधा से पूरा-पूरा यूरोप आभा-मंडित था. तकनीकी क्रांति और तज्जनित औद्योगिक विकास के कारण समाज में मध्यवर्ग का उदय उस जमाने की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसने समाज में आर्थिक विषमता की खाई को और भी चैड़ा किया था.औद्योगिकीकरण के कारण समाज में व्यापक बदलाव आए थे.उसने एक और तो शिल्पकारों को परंपरागत आधार पर वर्षों से समाज की सेवा करते आए थे, बेघर-बेरोजगार बनाने जैसा धतकर्म किया था. दूसरी ओर उसने समाज में एक ऐसे वर्ग को भी जन्म दिया था, जो अपने बुद्धि-सामथ्र्य उपयोग करते हुए तेजी से अपनी पहचान बनाने को उन्मुख था. वह पूंजीपतियों और आमजनता के बीच एक कड़ी था. उस मध्यवर्ग की आंखों में सपने थे. मध्यवर्गियों का एक अंश पूंजीपति संस्थानों के समर्थन में लगे रहकर उनका अधिक से अधिक लाभ उठा लेना चाहता था, जबकि उनका दूसरा हिस्सा कतिपय बुद्धिजीवियों एवं आंदोलनकारियों का था, जिन्हें वैचारिक क्रांति की हवा ने पहली बार आत्मनिर्णय एवं अभिव्यक्ति का अवसर दिया था. वही वर्ग व्यवस्था में बदलाव की आकांक्षा के साथ एकजुट होकर आंदोलनरत था. बैंथम के पिता ब्रिटिश संसद के सदस्य थे. अपनी प्रारंभिक शिक्षा उसने इंग्लैंड के वेस्टमिनिस्टर स्कूल से की. बाल्यावस्था में ही पिता को बेटे के मेधावी होने की झलक उस समय देखने को मिली जब उन्होंने बालक बैंथम को इंग्लैंड के इतिहास के भारी-भारी ग्रंथों में डूबे हुए देखा. मात्र तीन वर्ष की अवस्था में बैंथम की शिक्षा आरंभ हो गई. बारह वर्ष की अवस्था में उसको आगे की शिक्षा के लिए आ॓क्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेज दिया गया, जहां से उसने 1763 ईस्वी में विधि-स्नातक एवं 1766ईस्वी में उसने परास्नातक की उपाधि प्राप्त की. 1772 ईस्वी में बैंथम को उच्च न्यायालय में वकालत करने का निमंत्रण मिला.बैंथम उस अवसर का लाभ उठाने के लिए पहुंच गया. लेकिन तभी एक घटना ऐसी हो गई, जिसने बैंथम को न्यायालय में पलने वाले भ्रष्टाचार से परिचित करा दिया. हुआ यह था कि बैंथम को उच्च न्यायाधीश की ओर से एक निमंत्रण प्राप्त हुआ. बैंथम मिलने पहुंचा तो उसने अनेक प्रकार की अड़चनों से गुजरना पड़ा, जिसका तरुण बैंथम पर बहुत अनुचित प्रभाव पड़ा. उसने इंग्लैंड के न्यायिक तंत्र से नफरत हो गई. उसी
के पश्चात बैंथम ने भविष्य में कभी वकालत न करने की प्रतिज्ञा ले ली तथा
अपने जीवन के शेष वर्ष उसने केवल अध्ययन और लेखन के सहारे बिताने का निश्चय
किया. बैंथम के लंबे जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मोड़ उस समय आया, जब वे जेम्स मिल से मिलने के लिए पहुंचा. उससे मिलकर बैंथम उससे बहुत प्रभावित हुआ. मिल से घंटों बतियाने उसने उसने समाजवाद,स्त्री समानता, चर्च तथा राज्य के प्रथक्कीकरण, तलाक, मुक्त व्यापार, गुलामी प्रथा के उन्मूलन आदि खासमखास मुद्दों पर अपने विचार रखे. विचारों की नवीनता एवं मौलिकता के कारण समाज में उसे पर्याप्त ख्याति मिली. हालांकि अपने जीवन में बैंथम को पर्याप्त लोकप्रियता हासिल नहीं हो सकी, तथापि यह भी सच है कि हमेशा कागज-कलम के साथ जीने वाले जैरेमी बैंथम नामक उस अनोखे प्रतिभावान शख्स ने, शब्दों और विचारों की दुनिया के अलावा किसी और संसार की कभी कामना ही नहीं की थी. जबकि
उसके बाद के विद्वानों में से एकाध को छोड़कर सभी ने भौतिक सुखों को जीवन
का ध्येय मानते हुए अपनी विचारणा को उसी पर केंद्रित रखा. मृत्यु के करीब पौने दो सौ वर्ष पश्चात भी बैंथम के कार्य का विधिवत विश्लेषण-मूल्यांकन नहीं हो पाने का एक खासमखास कारण यह भी है. इसके बावजूद बैंथम के विचारों को जितनी मान्यता एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी उसके पीछे, उसके समर्थक विद्वान जाॅन स्टुअर्ट मिल तथा उसके सहयोगियों मानवेतिहास में अपना नाम लिखा चुके हैं. उन्हीं के कारण यह संभव हो पाया है.ध्यातव्य है कि जान स्टुअर्ट मिल, जा॓न आ॓स्टिन आदि ने बैंथम को अपना गुरु मानते हुए उसके चिंतन एवं दार्शनिक-साहित्यिक स्थापनाओं की नए सिरे से व्याख्या की है. यहां तक कि बैंथम को मान-सम्मान दिलाने के पीछे भी उन दोनों स्पष्ट भूमिका रही है.बैंथम की मां धार्मिक विचारों की महिला थीं और पिता अपना काम दिमाग से संभालते थे. इस प्रकार बैंथम का पिता के तर्कों और मां के भक्तिभाव से भरे वातावरण में बीता. उसने अपनी पढ़ाई लैटिन से प्रारंभ की. जिन दिनों बैंथम का जन्म हुआ, उसके परिवार पर खुशहाली का साम्राज्य था. 1760 में बैंथम ने क्वीनस् कालिज,आ॓क्सफोर्ड में प्रवेश लिया. वहां से 1763 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उसने आगे कानून की पढ़ाई के लिए लिंकन-इन विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लिया.अध्ययनकाल से ही बैंथम की प्रतिभा का प्रस्फुटन होने लगा था.उसी दौरान उसने पत्र-पत्रिकाओं में कई लेख लिखे, जिन्होंने विद्वानों का ध्यान अपनी ओर खींचा. सन 1766 में कानून की स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद बैंथम ने लिखना-पढ़ना प्रारंभ कर दिया. लेखन कार्य को आगे बढाने के लिए बैंथम ने कभी किसी की परवाह न की. उसपर लेखन का जैसे जूनून सवार रहता था.करीब दस-बारह घंटे रोज नियमित रूप से लिखना और पढ़ना. उसने विपुल मात्रा में लिखा, महत्त्वपूर्ण लिखा, बावजूद इसके यह भी सचाई है कि उसने अपने लिखे को प्रकाशित कराने पर बहुत कम ध्यान दिया. उसके द्वारा लिखे गए कागजों का ढेर लगता गया.उसकी कृतियां मृत्यु के पश्चात ही प्रकाशित हो सकीं. बैंथम को जो सम्मान आज प्राप्त है वह जेम्स मिल जैसे मित्र और जा॓न स्टुअर्ट मिल जैसे उसके शिष्यों के कारण ही संभव हो सका है. बैंथम की विश्लेषण क्षमता बेजोड़ थी. उसका अधिकांश कार्य कानून और राजनीति के विवेचना के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है. जिसमें उसमें मनुष्य के कल्याण के राज्य और कानून को अधिकतम नैतिक बनाने के लिए अनेक सुझाव दिए हैं. उसकी निर्णय लेने की शक्ति का भी अपने समय मे कोई मुकाबला नहीं है. सन 1781 के बाद वह और अर्ल मिलकर काम करने लगे. इसी बीच उनका संपर्क कई समकालीन विद्वानों तथा दार्शनिकों से हुआ. सन 1785 में वह रूस चला गया जहां उसका भाई काम करता था. वहां उसने अपने लेखन संबंधी कार्य को और अघिक तत्परता से करना प्रारंभ कर दिया. रूस में उसने अपने कुछ साथियों के साथ कारागार का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया. उसका मानना था कि कैदियों को खुले स्थान पर रखा जाए. उनपर अदृश्य पेहरा बैठाया जाए. प्रकट रूप में वे अपने ही अनुशासन में हों जिससे उन्हें आत्मवलोकन का अवसर मिल सके.इससे वे अपने कार्य के अच्छे-बुरे पर विचार कर सकेंगे. बैंथम के इस प्रयास की लोगों ने हंसी भी उड़ाई थी. कुछ ने उसको सनकी कहा तो कुछ ने पागल बताया. तो भी आलोचनाओं से प्रभावित हुए बगैर वह निरंतर अपना कार्य करता रहा. 1788 में वह वापस इंग्लैड लौट आया और स्वयं को पूरी तरह अध्ययन और लेखन में डुबो दिया.उसने लंदन विश्वविद्यालय की स्थापना में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया. 1826 में जब लंदन विश्वविद्यालय का॓लेज[University College London (UCL)] की स्थापना हुई उस समय वह 78 वर्ष का वृद्ध हो चुका था. उससे पहले जा॓न स्टुअर्ट मिल के साथ मिलकर 1823 में वह साप्ताहिक ‘दि वेस्टमिनिस्टिन रिव्यू’ की शुरुआत कर चुका था. इस साप्ताहिक ने इंग्लैंड और फ्रांस के वौद्धिक हलकों में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने में कामयाबी प्राप्त की थी. बैंथम की तुलना विलियम गुडविन से की जाती है. दोनों को परस्पर पूरक माना जाता है. दोनों ने अहिंसक सामाजिक क्रांति पर जोर दिया. लेकिन दोनों की कार्यपद्धति में अंतर था. बैंथम ने क्रांति के लिए वैधानिक सुधारों पर जोर दिया है तो गुडविन तर्क के आधार पर क्रांति के औचित्य को सिद्ध करना चाहता था. अपनी सन 1776 में प्रकाशित पुस्तक ‘सरकार की रहस्यनीति पर कुछ विचार’(Fragment on Government) में बैंथम ने ब्लैकस्टोन की पुस्तक ‘का॓मेंट्रीस आ॓न ला॓ आ॓फ इंग्लैंड’(Commentaries on the Laws of England) की प्राकृतिक अधिकार की अवधारणा संबंधी समर्थन-नीति की आलोचना की है. मगर बैंथम की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक जिसने उसको मौलिक विचारकों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है, 1780 में प्रकाशित होने वाली उसकी पुस्तक ‘नैतिकता एवं विधान के सिद्धांत: एक परिचय’(Principles of Morals and Legislation) थी, जिसने उसको सहसा प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. इस पुस्तक में उसने प्राणिमात्र को सुख पहुंचाना मानव जीवन का नैतिक उद्देश्य माना है. पुस्तक में बैंथम लिखता है कि—‘प्रकृति ने मनुष्यता को दो स्वयंभू स्वामियों के नियंत्रण में सौंपा हुआ है. ये हैं— पीड़ा और आनंद. यह हमारे ऊपर है कि हम इन दोनों में से किसका चयन करते है; या हमें इनमें से किसका चयन करना चाहिए. हमारे एक ओर सही और गलत के मानक हैं; तो दूसरी ओर कारणों और कारकों को परस्पर जकड़े हुए एक लंबी शृंखला है. वे हमारे प्रत्येक कार्य पर, हमारे कहन पर, हमारे सोच-विचार पर, यहां तक कि इस अधीनता को उखाड़ फेंकने के लिए हम जो भी प्रयास करते हैं, उनपर भी नियंत्रण रखे हुए हैं. हमारे कार्य और आचरण इसी को और पुख्ता तथा ताकतवर बनाते हैं.’
बैंथम ने नैतिकता को सुख के साथ जोड़ा गया है. इसी
पुस्तक में बैंथम के चिंतन का मूल सिद्धांत ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम
सुख’ लोगों के सामने आया जिसने बैंथम को सुखवादी विचारकों में अग्रणी बना
दिया. उसने अपने लेखन द्वारा सभी प्रकार के अतिवादियों का विरोध किया है. जीवन के अंतिम वर्षों में उसने लंदन विश्वविद्यालय की स्थापना की. सन 1832 में ही राजनीतिक सुधार की कामना कोे लेकर दो बिल संसद में प्रस्तुत किए गए थे. जिनपर बैंथम के चिंतन की छाप थी. 1832 में 6 जून को बैंथम का निधन हो गया. मृत्यु के समय उसने लगभग पचास लाख शब्दों की लिखित पांडुलिपियां छोड़ी थीं. बैंथम की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उसकी देह को लकड़ी के एक ताबूत में लंदन विश्वविद्यालय में सुरक्षित रखा गया है. जिस समय बैंथम के शरीर को संरक्षित करने का काम चल रहा था, उसका सिर बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया था. उसके
स्थान पर विशेष रूप से निर्मित प्लास्टिक से बने सिर के साथ उसकी देह को
परिषद की बैठक या अन्य महत्त्वपूर्ण अवसरों पर प्रदर्शन के लिए बाहर लाया
जाता है.बैठक में बैंथम की प्रतीकात्मक उपस्थिति मानी जाती है, जो, ‘मौजूद है मगर मतदान में हिस्सा नहीं लेता.’ कुछ दिनों तक कृत्रिम सिर के साथ-साथ असली सिर को भी प्रदर्शन के लिए लाया जाता रहा. लेकिन विद्यार्थियों की लगातार छेड़छाड़ के कारण बाद में उसको वहां से हटाकर सुरक्षित स्थान पर रख दिया गया. विचारधारा बैंथम पर वाल्तेयर, डेविड ह्यूम, डिडोराट, हेलिवियस के अतिरिक्त जा॓न ला॓क, जेम्स मिल तथा रूसो के विचारों का भी प्रभाव पड़ा था.वह पहला संभवतः सबसे बड़ा तत्ववादी दार्शनिक था, जिसका मानना था कि मनुष्य का पहला लक्ष्य सुख प्राप्त करना है और सुख की कामना करना कहीं भी अनैतिक व्यवहार नहीं हैं. बैंथम के इस विचार की गइराई के लिए हम प्राचीन दर्शन-परंपरा को देख सकते हैं.भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों की परंपरा में त्याग और बलिदान को श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों में सम्मिलित किया गया है.प्राचीन यूनान में पाइथागोरेस के अनुयायी मोक्ष की कामना में शरीर को कष्ट देते रहते थे. आज भी भारत में नाथ संप्रदाय की कुछ प्रवृत्तियां ऐसी हैं, जो सुख के निषेध पर जोर देती हैं. त्याग और तपश्चर्य उनकी दृष्टि में मुक्ति के प्रथम सोपान हैं. ईसाई धर्म भी त्याग और संयम को जीवन मोक्ष की अनिवार्यता मानता है.आलोचना
की परवाह न करते हुए बैंथम ने सुख को मानव जीवन का लक्ष्य मानते हुए उसको
मनुष्य के प्राथमिक कर्तव्यों में शामिल करने की अनुशंसा की थी. उसके सुखवाद (Utilitarianism) के विचार को आगे चलकर जा॓न स्टुअर्ट मिल ने विस्तार दिया. सुखवाद
की अवधारणा के अनुसार किसी भी कार्य का औचित्य इस तथ्य से आंका जा सकता है
कि वह कितने व्यक्तियों को अधिक से अधिक कितना सुख प्रदान कर सकता है. उसका विचार था कि मनुष्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही स्तर पर सुख की कामना करते हुए दुःख के प्रभाव से बचना चाहता है. इसलिए नैतिक कर्तव्य वही है जो अधिक से अधिक लोगों को अधिकतम सुखी बना सके, उनकी आकांक्षाओं का मूर्तिकरण कर सके और उनकी कामनाओं को तृप्ति प्रदान कर सके. बैंथम ने कानून को मानवीय एवं सुलभ बनाने पर भी जोर दिया है. उसका मानना था कि कानून को लिंग एवं हैसियत से परे रहकर समतावादी आचरण करना चाहिए. वह कानून को बल एवं प्रतिष्ठा का प्रतीक बनाने के बजाए उसके मानवीय पक्ष को उभारने के प्रति आग्रहशील था. उसने स्वतंत्रता को व्यापक संदर्भों में देखा है. यहां तक कि उसने समलिंगी कामसंबंधों को भी अनुमेय बनाने पर जोर दिया है. अपने लेख Offences against One’s Self: Paederasty में बैंथम समलिंगी कामसंबंधों की ऐतिहासिकता की ओर इशारा करते हुए उन्हें कानूनी मान्यता दिए जाने की मांग की थी. हालांकि बैंथम के जीवनकाल में विरोध की संभावना को देखते हुए कोई भी व्यक्ति इस लेख को छापने के लिए तैयार नहीं हुआ था. पहली बार यह लेख 1978 में ‘जनरल आ॓फ होमोसेक्युअल्टी’ में प्रकाशित हो सका. बैंथम जीवन में नैतिकता एवं उच्चतम मानवीय मूल्यों के प्रति बहुत समर्पित था. उसकी संवेदनशीलता केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं थी. उसने पशुओं के प्रति करुणा दर्शाने का विचार रखा. उसको पशुओं के अधिकारों के सबसे पहले समर्थकों में से माना जाता है. प्राणियों
के प्रति दया एवं करुणा की मांग करते हुए उसने तर्क दिया था कि प्रताड़ित
किए जाने पर उन्हें भी उसी दर्द की अनुभूति होती है, जैसी कि हम मनुष्यों को.उसने जोर देकर कहा कि—
‘एक ऐसा दिन भी आ सकता है जब दुनिया के सारे पशु जमा होकर अपने अधिकारों की मांग करेंगे, जो आगे फिर कभी पद या कानून के दुरुपयोग, बलप्रयोग द्वारा उनसे वापस नहीं लिए जा सकेंगे.’
बैंथम का कहना था कि दूसरों को होने वाली परेशानी न कि उसके कारण, ही उनके प्रति हमारे व्यवहार को तय करने का मानदंड होना चाहिए. यदि केवल वस्तुनिष्ठता ही हमारे फैसलों के मापदंड बनी तो कमजोर प्राणियों यहां तक कि विकलांग और मासूम बच्चों के साथ भी, निर्जीव वस्तुओं की भांति आचरण किया जाने लगेगा. सभी के प्रति समता भरा आचरण, यहां तक कि पशुओं के प्रति भी करुणाशील होना जनसामान्य की आकांक्षाओं के बहुत अनुकूल पड़ता है. बैंथम ने अर्थशास्त्रीय गवेषणाओं को लेकर अलग से तो कोई पुस्तक नहीं लिखी. लेकिन वह अपने समय में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हो रहे कार्य के प्रति चैतन्य था. एडम स्मिथ की चर्चित कृति ‘वैल्थ आ॓फ नेशनस्’ का प्रकाशन बैंथम के जीवनकाल में हो चुका था. उसका
मानना था कि पूंजी का उपयोग इस तरह किया जाना चाहिए कि वह ज्यादा से
ज्यादा लोगों को रोजगार देकर उनकी सुखवृद्धि में सहायक बन सके. सरकार के कर्तव्यों की व्याख्या करते हुए उसने लिखा कि—
‘सरकार का कर्तव्य दंड और पुरस्कार की व्यवस्था के सहारे समाज के सुख में निरंतर वृद्धि करते रहना है.’
ध्यान रहे कि बैंथम की सुख की अवधारणा केवल भोग तक सीमित नहीं थी, न वह सुख को विशिष्ट वर्गों तक सीमित रखना चाहता था.सुख को नैतिक कर्तव्य मानते हुए वह उसकी सबके लिए उपलब्धता चाहता था. मनुष्य की यह स्वाभाविक कमजोरी होती है कि वह उन सभी चीजों को अपनी प्रस्तावित योजनाओं में समेट लेना चाहता है,जिन्हें वह अपनी सुख-समृद्धि और बेहतर भविष्य के लिए अनिवार्य मानता है. मनुष्य की सुख की वांछा उसकी सामाजिक स्थिति से नियंत्रित होती है. लेकिन भूख पर वैसा कोई अनुशासन लागू नहीं होता. वह सबसे पहले नैतिकता को ही दबोचती है. इसलिए नैतिक बने रहने के लिए भूख से दो-चार होना मानवजीवन की कड़वी सचाई है. अपने उपयोगिता के सिद्धांत के माध्यम से बैंथम ने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि—
‘उपयोगिता से वह सिद्धांत अभिप्रेत है जो किसी कार्य को इस आधार पर स्वीकार अथवा अस्वीकार करता है, कि उसके माध्यम से परिवीक्षाधीन व्यक्ति की प्रसन्नता में कितनी वृद्धि अथवा कमी हुई है. दूसरे शब्दों में वह मनुष्य के सुख में कितना विकास अथवा हृास लाता है.’
बैंथम का कहना था कि किसी वस्तु का उपयोगी होना ही उसका श्रेष्ठ होना है. उपयोग का आशय किसी वस्तु आदि की प्राप्ति पर मिलने वाले सुख से है. दूसरे शब्दों में श्रेष्ठ कार्य वह है जो अधिकतम व्यक्तियों के लिए अधिकतम सुख का सृजन करता हो,इस संबंध में बैंथम ने सूत्रवाक्य दिया था—अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख, जो चलकर सुखवादी विचारकों के लिए मूलमंत्र बना. इसी सिद्धांत के आधार पर बैंथम ने नैतिकता को परिभाषित करने का प्रयास किया है. बैंथम के अनुसार: ‘नैतिकता का अभिप्राय उस कला से है जो मनुष्य की गतिविधियों को इस प्रकार निर्देशित करती है, ताकि उससे अधिक से अधिक मात्रा में सुख की व्युत्पत्ति हो सके.’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी बैंथम ने अपना पूरा जीवन लेखन को समर्पित कर दिया था. उसने बेशुमार साहित्य लिखा, जिसकी मौलिकता असंद्धिग्ध है. उसने न केवल कानूनी तथा सामाजिक सुधारों का समर्थन किया, बल्कि निरंतर एक समर्थ एवं कर्मठ कार्यकर्ता की भांति उसके प्रसार में लगा रहा, भले ही उसे अपने समय में वह मान-सम्मान एवं प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी जिसका कि वह अधिकारी था. और बाद के वर्षों में भी उसके विचारों में मौलिकता के अभाव का आरोप विद्वतसमाज द्वारा लगाया जाता रहा. तथापि उसकी उपयोगिता एवं प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता. अगर तात्कालिक समय के अनुसार बैंथम का आकलन करें तो उसको निर्विवाद उसको एक क्रांतिकारी विचारक पाते हैं. उस समय तक समाज पर सामंतवादी संस्कार हावी थे तथा यह माना जाता था कि समाज किसी भी व्यक्ति से ऊपर है, बैंथम ने सभी के कल्याण एवं सुख की कामना को दर्शन के क्षेत्र में लाकर उसको अमूर्तन से मूर्त बनाने का कार्य किया. धार्मिक
और नैतिकतावादियों की परवाह किए बगैर उसने जोर देकर कहा कि सुख प्राप्त
करना प्रत्येक मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति
का कर्तव्य यह है कि वह अपने कर्तव्यों का निर्धारण दूसरे व्यक्ति के सुख
को आधार मानकर करे. बैंथम ने माना—
‘चार अलग-अलग स्रोत हैं जहां से सुख और दुःख की सतत आवृत्ति होती है. इन स्रोतों को भौतिक, राजनीतिक, धर्मिक एवं नैतिक वर्ग में बांटा जा सकता है. बावजूद इसके सुख एवं दुःख (प्रसन्नता एवं कष्ट) दो ऐसे प्रमुख कारक हैं, जो इन चारों ही से संबंधित हैं तथा किसी भी नियम को प्रभावित करने का पूरा-पूरा सामर्थ्य रखते हैं.’
बैंथम ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसका सुखवाद का सिद्धांत पूरी तरह मौलिक नहीं था. इस संबंध में वह जोसेफ प्रस्टीले जो सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक था, से प्रभावित था. सुखवाद का मूल विचार वस्तुतः इटली के दार्शनिक, विद्वान केसर मार्किव्स आ॓फ बकारिया(Cesare, Marquis of Beccaria or the Marchese de Beccaria-Bonesana) का था. इस संबंध में बैंथम ने स्वयं भी लिखा है कि—
‘प्रस्टीले वह पहला इंसान था जिसने मेरे होठों को इस पवित्र शब्द को पुकारना सिखाया: कि अधिकतम मनुष्यों का अधिकतम सुख ही न्याय एवं नैतिकता की सच्ची आधारशिला है.’
मुद्रा से संबंधित बैंथम के विचार अपने समय के अर्थशास्त्रियों से काफी अलग थे. सुख और उपभोग को प्रधानता देने के बावजूद बैंथम मुद्रा के प्रसार की नीति का समर्थक था. उसका मानना था कि इससे रोजगार के अवसरों में इजाफा होगा. वह बचत को भी आवश्यक मानता था तथा बचत तथा निवेश के अंर्तसंबंध की जानकारी भी उसको थी. इस संबंध में अपने विचारों का विस्तृत विवेचन उसने अपने निबंधों एवं पुस्तकों में किया है. स्पीगेल के अनुसार बैंथम ने लिखा है कि—
‘आनंद एवं पीड़ा का स्तरीकरणः उनकी मूल्यवत्ता या विस्तार माने उनके आवेग, स्थायित्व, अवधि के आधार पर किया जा सकता है.उसका अभिप्राय आनंद अथवा पीड़ा की अधिकता और न्यूनता से था, उसके अनुसार उपभोक्ता आर्थिकी को आगे बढ़ाने लिए तथा कल्याण अर्थशास्त्र के विचार को नया स्वरूप देने के लिए यही दोनों जिम्मेदार हैं.’
बैंथम
के चिंतन की महानता इससे भी जाहिर होती है कि आज से दो शताब्दी से भी पहले
उसने स्त्री स्वतंत्रता एवं बच्चों के अधिकार के पक्ष में आवाज उठाई थी. स्त्री आधिकारिता का पक्ष लेते हुए उसने तलाक एवं पुनर्विवाह का समर्थन किया है. वह दासता की समाप्ति के भी पक्ष में था तथा व्यापार को मुक्त करने का हामी. यहां तक कि उस समय जब लोकतंत्र का पर्याप्त विस्तार नहीं हो पाया था बैंथम का समलैंगिकता के समर्थन में उतर आना हैरान कर देता है. बैंथम के अन्य कार्यों में कैदियों को अधिक आजादी तथा जेल में उनके साथ किए जाने वाले व्यवहार के मानवीय पहलुओं को लेकर है.उसका मानना था कि कैदियों को खुले स्थान में रखा जाए तथा उनपर अदृश्य नजर रखी जानी चाहिए, ताकि उन्हें अपने कार्यों पर जिसके लिए वे सजा पा रहे हैं एकांत में विचार करने का अवसर मिल सके. उसका मानना था कि—
‘समाज का गठन अच्छाई की उम्मीद की वजह से न होकर, बुराई के आतंक के कारण हुआ है.’
शिक्षा को लेकर बैंथम के विचार भी आधुनिक विचारधारा से मेल खाते हैं. उसका मानना था कि शिक्षा की व्यावहारिक हो तथा उसकी उपलब्धता आमजन तक होनी चाहिए. भले ही उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो. सन 1826 में जब लंदन विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, उसकी आयु 78 वर्ष थी. बैंथम के प्रभाव के कारण ही लंदन विश्वविद्यालय विश्व का पहला ऐसा संस्थान बना जहां प्रवेश पाने के लिए विद्यार्थी के धर्म, जाति अथवा राजनीतिक विचारधारा का कोई महत्त्व न था. बैंथम का सुखवाद कोरे भौतिक सुखों तक सीमित नहीं था. बल्कि उसके सुख की परिभाषा में समस्त मानवता समाहित थी. ध्यान
रहे कि बैंथम के विचार ऐसे समय में आए जब चर्च समेत समस्त धार्मिक संस्थान
सांसारिक सुखों की उपेक्षा का दिखावा करते हुए जनता को पारलौकिक सुखों के
प्रलोभन के आधार पर लूट रहे थे. अज्ञान और अशिक्षा में डूबे लोग उन्हीं के इशारे पर एक पलायनवादी जीवन जीते आ रहे थे. ऐसे ही लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिए बैंथम ने शिक्षा और समानता पर जोर दिया.समाज में व्याप्त असंतोष को देखते हुए उसने कहा कि—
‘सामन्जस्य की भावना मनुष्य का दुर्लभ गुण है.’
हालांकि बैंथम के उपयोगितावाद की काफी आलोचना भी हुई. अपने जीवनकाल में बैंथम को पर्याप्त महत्त्व नहीं मिल पाया. बैंथम की मृत्यु के पश्चात उसके शिष्य जाॅन स्टुअर्ट मिल ने उसके सुखवाद को नए सिरे से परिभाषित किया. परिणामतः बैंथम के विचारों को भी स्वीकार्यता मिली. बैंथम के बारे में मिल ने अपने एक आलेख ‘बैंथम’ में लिखा है कि—
‘किसी भी कसौटी अथवा मूल्यांकन के माध्यम से, यदि हमने अपना कार्य पूरी ईमानदारी एवं न्यायभावना के साथ किया है, तो हम निर्विवाद रूप से पाएंगे कि बैंथम का स्थान दुनिया के महानतम बुद्धिजीवियों एवं उद्धारकों में सर्वथा सुरक्षित है. उसका लेखन विश्व के श्रेष्ठतम व्यावहारिक चितकों की शिक्षा एवं सोच का बेहतरीन और अविभाज्य हिस्सा है. अतः हमें उसके विचारों का एक संग्रह प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाना चाहिए. ताकि वह उसके समय को जान सके अथवा उसके लाभकारी हिस्से को किसी भी रूप में अपने काम में ला सके.’
निश्चित रूप से आधुनिक विचारकों में बैंथम का स्थान बहुत ऊंचा है. उसके प्रभावस्वरूप जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने का चलन शुरू हुआ. राबर्ट ओवेन, जेम्स
मिल आदि विचारकों ने बैंथम के विचारों से प्रेरणा लेकर अपने सिद्धांत गढ़े
जिससे एक नई विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ और मानवीय चिंतन को ऐसी दिशा
मिली जो कल्याण का बहुस्तरीय बंटवारा करने की पक्षधर थी.
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