Sunday 14 July 2013

सार्क:सफल या असफल


वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के देश विभिन्न साझा बाजारों, आर्थिक समुदायों अथवा इकोनॉमिक ब्लॉक्स के जरिए विश्व अर्थव्यवस्था में अपना भविष्य बेहतर बनाने की होड़ में लगे हुए हैं। इसी का परिणाम है कि थोड़ी-बहुत भिन्न प्रकृति के साथ आसियान, नाफ्टा, यूरोपीय संघ, इकोसाक, बिम्सटेक, शंघाई सहयोग संगठन, सेकु, कैरीकाम, सेमैक, ईएसी......जैसे तमाम सहयोग संगठन या साझा बाजार पूरी दुनिया में उपस्थित हो चुके हैं और आगे भी ऎसे ही नए मंचों के निर्माण की संभावना बनी रहेगी। दक्षिण एशिया के देशों ने भी कुछ इसी तर्ज पर आज के लगभग ढाई दशक पहले दक्षेस (सार्क) का गठन कर विश्व अर्थव्यवस्था में अपना भविष्य सुनिश्चित करने की कोशिश की, लेकिन दक्षिण एशिया के देश अपने मकसद में उतने कामयाब नहीं हो पाए, जितने कि आसियान या नाफ्टा जैसे ब्लॉक्स के सदस्य हुए।
सवाल उठता है कि आखिर ऎसा क्यों हुआ?

 इसलिए कि ढाई दशक का सफर तय करने के बाद भी दक्षेस देश अपनी पुरानी मैकेनिज्म को बदलने का जज्बा पैदा नहीं सके या फिर कोई और कारण इसके लिए जिम्मेदार रहा? दक्षेस की अब तक प्रगति पर तो 17 शिखर और उपलब्धि सिफर जैसे शीर्षक भी इजाद हो गए। इसका मतलब तो यह हुआ कि दक्षेस देश अपनी मैकेनिज्म को परिवर्तित करने में नाकाम रहे। इसी के चलते दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे ज्यादा गरीबों का निवास स्थान बन गया। युवाओं और महिलाओं में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है और यह लगातार बढ़ रही है। इस क्षेत्र के 1.64 अरब लोगों में से 60 करोड़ लोग प्रति दिन 1.25 डॉलर से कम पर गुजारा कर रहे हैं। कुपोषित बच्चों की तादाद 25 करोड़ हैं और अधिकांश महिलाओं का प्रसव घर में ही होता है। और तो और इकोवास (इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीका) जैसे संगठन, जिसके सदस्य देशों में बेनिन, बर्किनाफासो, केपवर्डे, कोट ड आइवरी, घाना, माली, नाइजर, सिएरा लियोन....दुनिया के सबसे पिछड़े देश आते हैं, के बराबर ही दक्षिण एशिया की प्रतिव्यक्ति आय है। फिर ऎसा लगता है कि यहां कुछ ऎसा है, जो तमाम देशों को आकर्षित कर रहा है। आज चीन, ईरान, म्यांमार और इंडोनेशिया ही नहीं, बल्कि रूस जैसे देश भी इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं। गौरतलब है कि चीन दक्षेस की सदस्यता प्राप्त करने संबंधी अपनी इच्छा काफी पहले ही प्रकट कर चुका है और पाकिस्तान तथा बांग्लादेश इसकी सदस्यता का समर्थन भी करते हैं। यद्यपि भारत इसका विरोध करता है, लेकिन ढाका सम्मेलन (2005) के दौरान भारत इसे जापान के साथ पर्यवेक्षक का दर्जा देने पर सहमत हो गया था। इंडोनेशिया और म्यांमार की भी स्थिति ऎसी ही है। ईरान जो इसमें स्थान पाने के लिए यह तर्क देता है कि उसके सार्क के दो देशों- पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान, के साथ सशक्त सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संबंध हैं और दक्षेस से जुड़कर वह पूरब तथा पश्चिम के साथ इसे जोड़ने की सुविधा प्रदान कर सकता है। यही नहीं, रूस भी पर्यवेक्षक का दर्जा चाहता है और भारत इसका समर्थन कर रहा है। अगर इतने देशों की निगाहें दक्षेस की ओर लालायित हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि इस क्षेत्र में कुछ ऎसा जरूर है, जिससे इन देशों का लाभ हो सकता है।
आखिर उनके कौन से लाभ यहां छुपे हुए हैं? 

आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक या फिर सभी? शायद 1.6 बिलियन से ज्यादा लोगों का विशाल बाजार और प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के साथ दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था की संभाव्यता, जुड़ाव की इच्छा का पहला कारण है। एक यही कारण दक्षिण एशिया में निहित नहीं है, बल्कि दक्षिण एशिया में कई रणनीतिक समीकरणों का हल भी निहित है। अफगानिस्तान, हिंद महासागर रिम, खाड़ी क्षेत्र, इराक से अमेरिकी सेना की विदाई के बाद मध्य-पूर्व की स्थिति और एशिया प्रशांत में जो नए रणनीतिक समीकरण निर्मित हो रहे हैं, वे दक्षिण एशिया को महत्वपूर्ण बना रहे हैं। दक्षिण एशिया के लिए यह जरूरी है कि वह पहले आर्थिक रूप से समृद्ध बने, जिसकी संभावनाएं अपार हैं। इस क्षेत्र में उभरती हुई आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ सबसे बड़ा देश होने के नाते भारत को बिग ब्रदर की भूमिका निभानी है और पाकिस्तान को अपना चरित्र बदलने की जरूरत है। गौर से देखें तो दक्षिण एशिया रीजन में आर्थिक सहयोग की वृहत्तर संभावना के लिए तीन क्षेत्र हैं- सेवा व्यापार, ऊर्जा सहयोग और लॉजिस्टिकल कनेक्टिविटी। बहुत सी दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं सीधे भारत से सेवाओं को प्राप्त कर सकती हैं, खासकर प्राथमिक चिकित्सा सेवा और शिक्षा जो बाहर के देशों से लेने के कारण उनके लिए अधिक खर्चीली साबित हो रही हैं। जहां तक पर्यटन का की बात है तो विशेषकर अफगानिस्तान और नेपाल के लिए इसे विकास के एक प्रमुख अवसर के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन वहां सुरक्षा समस्या आड़े आ जाती है। गैर परंपरागत क्षेत्रों में ऊर्जा और बिजली सहयोग व्यापार संबंधों को विकसित करने की दिशा में बेहतर ट्रैक साबित हो सकता है। इस क्षेत्र में भूटान और भारत का उदाहरण लिया जा सकता है, विशेषकर हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर के क्षेत्र में। इसी तरह की संभाव्यता बांग्लादेश और नेपाल में भी निहित है। दक्षिण एशिया में इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड को आपस में जोड़ने से ने केवल ऊर्जा कीमतों में कमी आएगी, बल्कि इससे दक्षेस देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र सशक्त प्रतियोगी बन कर उभर सकते हैं। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और भारत इस दिशा में संभावनाओं के महान क्षेत्र हैं।

दक्षिण एशिया के सीमावर्ती देशों, जैसे- म्यामार, ईरान और तुर्कमेनिस्तान ....के पास भी प्राकृतिक गैस की क्षमता आधिक्य में है। इसलिए अखिल-दक्षिण एशियाई संकल्पना को पाइपलाइन इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरिए साकार किया जा सकता है। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो दक्षिण एशिया को आर्थिक हब बनने से कोई नहीं रोक सकता। यह तभी संभव हो सकता है, जब पाकिस्तान भारत के प्रति अपना नजरिया पूरी तरह से बदल ले और आतंकवाद को समूल नष्ट करने की पूरी ईमानदारी से जिम्मेदारी निभाए। यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान और नेपाल चीनी चंगुल से बचे रहें।

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