Sunday 14 July 2013

भारत में संसदीय प्रजातंत्र-स्वरूप, समस्या एवं समाधान


संसदीय लोकतंत्र वर्तमान परिदृष्य में एक संपूर्ण जीवन पद्यति का रूप धारण कर चुकी है जो कि आर्थिक, सामाजिक, समानता, एवं न्याय का वाहक है डा. ओम नागपाल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू आगरा के समीप एक गांव में भाषण दे रहे थे । भाषण समाप्ति के पश्‍चात एक सामान्य सा व्यक्ति उनके पास आकर आक्रोश में पूछा ’’ आपने इस देश के लिए क्या किया है ? नेहरू जी ने शालीनता पूर्वक जवाब दिया - ’’ तुम्हारी यह पूछने की हिम्मत हुई यही क्या कम किया है ? ’’
यही है संसदीय लोकतंत्र की परिभाषा जो कि प्रत्येक व्यक्ति को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करती है यही कारण है कि शासन का यह स्वरूप अरस्तु के जमाने से लेकर वर्तमान समय में अपने स्वरूप को जिंदा रखी हुई है।
भारतीय संसदीय प्रजातंत्र मात्र औपनिवेषिक विरासत का परिणाम नही है।
संविधान सभा में पर्याप्त विचार विमर्ष और बहस के पश्‍चात संसदीय प्रजातंत्र का वेस्टमिनिस्टर माडल अपनाया गया। प्रायः यह उल्लेखित किया जाता है कि भारतीय जनमानस ब्रिटिश संसदीय परंपराओं से परिचित था इस लिए यही प्रणाली भारत के लिए उपयुक्त भी किंतु पंडित नेहरू से लेकर डा अम्बेडकर तक सभी बडे राष्ट्रीय नेता इस बात पर एकमत थे कि भारत जैसे बहुलता प्रधान एवं विषमता मूलक समाज में जहां भाषायी, जातीय, धार्मिक एवं वर्गीय बहुलता अत्यधिक है, तथा जहां समाज का बहुसंख्यक वर्ग सदियों से राजनीतिक और सामाजिक लाभों से बंचित रहा है, ऐसे देश में जहा जातीय अभिजात्यता किसी भी अन्य मूल्य से ऊपर हो वहा राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन के महान लक्ष्य को एक स्थायी कार्यपालिका पर नही छोडा जा सकता था। वस्तुतः संविधान निर्माताओं ने संसदीय प्रजातंत्र को ष्षासन की एक पद्यति से ऊपर उठकर सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के अभिकरण के रूप में भी देखा। वे राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र के लि भी उतने ही चिंतित थे जैसा कि डा अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था ’’ यदि लोकतंत्र का आधार सामाजिक लोकतंत्र नही है तो वह नष्ट हो जाएगा’’ ! सामाजिक लोकतंत्र के प्रति संविधान निर्माताओं की यह चिंता हमें प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जहा स्वतंत्रता और समानता के पूर्व न्याय के आदर्ष को उसमें भी सामाजिक न्याय को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। सामाजिक लोकतंत्र की यह छाया हमें संविधान के लगभग सभी प्रावधानों पर दिखाई देती है इस लिए सिर्फ यह मानना कि संसदीय प्रजातंत्र भारत में केवल औपनिवेषिक विरासत का परिणाम है एक अपूर्ण विवेचन होगा। यह भारतीय सामाजिक संरचना के सर्वाधिक अनुरूप एक सुविचारित प्रणाली है।
इसके अतिरिक्त तत्कालीन समय में एक ओर भारतीय संविधान निर्माण के साथ साथ दूसरी ओर राजनितिक एकीकरण की प्रक्रिया भी चल रही थी जिसमें उन्ही देषी रियासतों को ष्षामिल करने का प्रयास किया जा रहा था जिन्होने 1935 के परिसंघ में ष्षामिल होने से इंन्कार कर दिया था इस लिए संविधान निर्माता संधीय प्रणाली को वेस्ट मिनिस्टर प्रणाली के साथ मिलाकर एक ऐसा संसदीय माडल अपनाने का प्रयास कर रहे थे जिसमें वास्तविक ष्षक्ति संसद के निचले सदन अर्थात जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रतििनधियों के पास हो। इस प्रकार भारत में संसदीय प्रणाली का स्वरूप ब्रिटिष प्रणाली का प्रतिरूप होते हुए भी मौलिक रूप से उससे भिन्न है भारतीय प्रजातंत्र में संसद सर्वोच्च तो है किन्तु सम्प्रभु निकाय नही है जैसा कि ब्रिटेन में है! ब्रिटेन में संवैधानिक विधियों एवं संसदीय विधियों में कोई अंतर नही समझाा जाता वहा प्रत्येक संसदीय विधि, संविधान का अंग है इस लिए वहा संविधान का स्वरूप अभिसमयों के बहुत कुछ संसदीय विधियों पर निर्भर है यह संसदीय विधिया न्यायिक पुनरावलोकरन की सीमा से बाहर है किन्तु भारतीय संसद की विधायन ष्षक्ति न मात्र न्यायिक पुनरावलोकन की परिधि में है बल्कि वह केवल उन्ही विषयों पर कानून बना सकती है जो संविधान द्वारा उसे पदत्त है इस लिये भारतीय संसदीय प्रणाली में संसदीय निरंकुषता जैसे तत्व का अभाव है।
भारत में संसदीय प्रजातंत्र के समक्ष उपस्थित संकट:-
विगत साठ वर्षो के कार्य करण में संसदीय प्रजातंत का जो स्वरूप हमारे समक्ष आया है वह निष्चित रूप से संतोषप्रद नही है यह ष्षासन की एक औपचारिक प्रणाली बन कर रह गया है और सामाजिक आर्थिक परिवर्तन तथा सामाजिक प्रजातंत्र के अपने महान लक्ष्य को पूरा करने में यदि पूरी तरह नही तो काफी हद तक असफल रहा हे और उसके समक्ष कई प्रकार की समस्याए उपस्थित है बल्कि किसी हद तक संसदीय प्रणाली के सामने अस्तित्व का ही खतरा पैदा हो गया है जिसके कारण आज कुछ लोगों एवं दलों का विचार है कि अध्यक्षीय प्रणाली अपनाई जानी चाहिए यदयपी अध्यक्षीय प्रणाली की हिमाकत करना भी उचित नही है इसके सम्ुाख उपस्थित निम्न संकटों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
(1) दलीय प्रणाली का अभाव:-
प््रजातंत्र की सफलता बहुत कुछ दलयी प्रणाली पर निर्भर करती है किंतु खेद का विषय यह है कि भारत में सषक्त दलीय पद्त्ति का अभाव रहा है लगभर चार दषकों तक एक ही दल का ष्षासन देष में रहा। कितु इसे भी मै राष्ट्रीय दल कहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनी कहना अधिक उचित समझूगा जिसके अधिकांष ष्षेयर गांधी नेहरू परिवार के पास थे । पार्टी हाईकमान जैसे ष्षब्द लोकतांत्रिक प्रणाली के दलों की बजाय फांसीवादी साम्यवादी और सर्वाधिकवाद दलीय पद्यति में पाये जाते है कितु भारतीय दलीय प्रणाली में पार्टी हाईकमान ही वास्तविक पार्टी है। 1977 और 1989 के दो अवसरों पर गैर कांग्रेसी दलों को यह अवसर मिला कि वह एक नई ष्षुरूवात करें किंतु दोनों ही अवसरों की असफलता ने देष में दलीय प्रणाली के पतन को ही दर्षाया भारतीय जनता पार्टी जेैसे दल का राष्ट्रीय दल के रूप में तेजी से उदय भी दलीय प्रणाली के लिये कोई बहुत संतोषप्रद बात नही है क्योंकि भाजपा उस अर्थो में अभी भी राष्ट्रीय पार्टी नही है जिन अथर्् में कांग्रेस को हम मान सकते है जैसे कि अभी भी भाजपा केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों का दल है इसके अतिरिक्त भाजपा के साथ एक विचित्र विषेषता यह है कि राष्ट्रीय दल से अधिक महत्वपूर्ण आर.एस.एस. जैसा दबाव समूह है अतः कांगेस जैसे दल के पतन के पष्चात दलीय परिदष्य पर एक प्रकार की अराजकता दिखाई देती है जिसमें क्षेत्रीय दलों को मात्र 15 प्रतिषत मदत प्राप्त हुए थे जो 1999 में बढकर 34 प्रशित हो गया क्षेत्रीय दलों तरफ जनता का रूझान और राष्ट्रीय नीति निर्धारत में क्षेत्रीय दलों की निर्णायक भूमिका दलीय प्रणाली के पतन को इंगित करती है।
(2) राजनितिक भर्ती की समस्या:-
आज भारतीय संसद प्रणाली तीन गम्भीर व्याधियों से जूझ रही है 1 भष्टाचार 2 राजनीति का अपराधीकरण 3 दल बदल । वस्तुतः यह समस्याओं का सरलीकरण है वास्तविक समस्या राजनीतिक भर्ती की है क्यो कि राजनीतिक व्यवस्था में भर्ती अपने राजनीति भर्ती की है क्यो राजनीतिक व्यवस्था में भर्ती अपने पर्यावरण से होती है और सामाजिक पर्यावरण से बुद्धजीवि वर्ग पूर्णतः पलायन कर चुका है ऐसे में स्वाभाविक रूप से असामाजिक तत्वों की भर्ती राजनीतिक व्यवस्था में होनी ही है डेविड इस्टन ने अपने उततर व्यवहार वादी आंदोलन में इस बात का आह्वान किया था कि बुद्धजीवि वर्ग की समाज में एक विषिष्ट भूमिका है जो सक्रिय रूप से निभानी चाहियें !मेरे विचार में भारतीय लोकतंत्र के सम्मुख सबसे बडा खतरा बुद्धजीवि वर्ग के पलायन का ही है क्योकि बुद्धजीवि वर्ग पूर्णतः यथास्थितिवादी हो गया है और व अखबारों में लेख लिखने और सेमीनारों में भाषण देने से समझता है कि देष में परिवर्तन आ जायेगा। विष्व के लगभग सभी विकसित दषों में डाक्टर इंजीनियर, वकील उद्योगपति और षिक्षाविद राजनीति में भाग लेते रहे है लोक प्रषासन के प्रेणता प्रा. उडरो विल्सन जैसे लोगों को हम कैसे भुल सकते है किन्तु भारत में आज राजनीति एक अत्यंत गंदा व्यवसाय माना जाता है। लेकिन इस बात की षिकायत बेमानी है क्योंकि जिस देष में डा राधाकृष्णनन और डा जाकिर हुसैन पैदा होना बंद जो जायेगें वहा निष्चित रूप से आनंद मोहन सिहं और मुख्तार अंसारी जैसे लोग पैदा होंगें ही और इसके लिये सर्वाधिक जिम्मेदार वही वर्ग है जो बोट डालना भी समय की बरबादी समझता है।
(3) त्रुटिपूर्ण कार्य करण:-
निष्चित रूप से संसदीय प्रणाली, सामाजिक परिवर्तन के महान लक्ष्य को पूरा करने में सफल नही रही क्योकि आजादी के 64 वर्षो के बाद भी जब हम अनुसुचित जाति एवं अनुसाूचित जन जातियों के लिये आरक्षण प्रत्येक दस वर्षो तक बढाते है तथा महिलाओं को आरक्षण देने की बात करते है तो निष्चित रूप से हमें यह स्वीकरना होगा कि हमारी सामाजिक विषमताये उसी प्रकार विद्यमान है जैसे आजादी के पहले थी। वरना 64 वर्षो के कार्यकरण में इन सभी वर्गों का स्वतः पर्याप्त प्रतिधित्व संसद में होना चाहिए था जो नही हो सका। इसके अतिरिक्त इसका एक सैद्धाांतिक कारण भी है वह यह है कि हमारे देष में संविधानिक सषोंधन द्वारा सामाजिक विकास प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन सामाजिक ष्षक्तियों द्वारा लाया जाता है। राजनीतिक ष्षक्तिया केवल उत्प्रेरक का कार्य करती है किन्तु खेद का विषय है कि राजनीतिक ष्षक्तियों द्वारा यहा परिवर्तन लाया जाता है !राजनीतिक षक्तिया उत्प्रेरिक करने के बजाय धर्म और जाति जैसे ताकतों को और मजबूत करन अपने लिये उर्जा प्राप्त की है। जहा आजादी के 64 वर्षो के बाद भी आधी आबादी निरक्षर हो वहा क्या ष् िाक्षा को मौलिक अधिकार बनाने मात्र से सब साक्षर हो जायेगें। महिला आयोग क्या महिलाओं का उत्पीडन रोक पाया है? अल्पसंख्यक आयोग ने क्या अल्पसंख्यकों का कल्याण किया है ? मानवअधिकार आयोग ने क्या पुलिस हिरासत में मौते बंद करवा दी है? वास्तव में राजनीति नष्तरों से सामाजिक फोंडो का इलाज करने की प्रवृत्ति से हमें बाज आना होगा।
(4) संसद का अभिजात्यवादी स्वरूप:- अपने वर्गीय चरित्र में संसद अभी भी अभिजात्यवादी बनी हुई है संसद और विधान समाओं में अभी भी राजे और महाराजे की भरमार है सरकार में प्रमुख विभाग भी इसी अभिजात्य वर्ग के पास रहते हैं वर्तमान संसद में कर्थित तौर पर 50 प्रतिषत संासद किसान है जो उच्चवर्गीय भूस्वामी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है अैर कृषि पर आय कर लगाने के घोर विरोधी है आरक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व भी उसी वर्ग के राजनीतिक अभिजनवाद का षिकार हो गया है।
(5) संसद के कार्य एवं स्तर में कमी:- संसद में अधिकांष संासद महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा के दौरान अनुपस्थित रहते है अनेकों महत्वपूर्ण विधेयक बिना किसी बहस के पारित हो जाते है संसद का अधिकांष समय ष्षोरषराबे और बहिष्कार में बीतता है यहा तक की बजट पर भी वहस के लिये संसद के पास समय नही होता। 1995-96 में केवल दो मंत्रालयों के मांगों पर बहस हो सकी। पिदले दस वर्षों का विष्लेषण यह बताता है कि 50 से 85 प्रतिषत तक धनराषि संसद की नजर में आये बिना ही पास हो जाती है संसद में विधायन की बजाय अध्यादेष जारी करने की प्रवृत्ति बढी है 1963 में पंडित नेहरू की सरकार ने कोई अध्यादेष जारी नही किया और अगले दष वर्षो में यह संख्या केवल 69 रही जबकि 1992 से 1998 तक के समय में ही अध्यादेषों की संख्या 166 है जिसमें 1993 म ेंह ी 34 अध्यादेष जारी किये गये। इसके अतिरिक्त पंडित नेहरू के अलावा अन्य किसी भी प्रधानमंत्री के संसद को उनके जितना समय नही दिया । सांसदों द्वारा गैस कनेक्षन एवं फोन कनेक्षन बेचा जाना आम बात है।
(6) त्रुटिपूर्ण राजनीतिक संस्कृति का पालन :- काग्रेसी ष्षासनकाल हो अथवा गैर कांग्रेसीश् ष्षासनकाल इन दोनो में कतिपय त्रुटिपूर्ण राजनितिक परंपराओं का विकास हुआ है।
1. प्रंातों के मुख्यमंत्रीयों को हाई कमान द्वारा मुगल सूबेदारों की भाति बदला गया।
2. राज्यपालों को सरकारी अधिकारियों की तरह तबादला किया गया।
3. दल के पराजित नेताओं को राजनितिक तुष्टिकरण के रूप में राज्यपालों के पद नियुक्ति किया गया।
4. अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु धारा 356 जैसे संवैधानिक प्रावधानों का दुरूपयोंग किया गया।
5. और अपने हितों के अनुकूल संवैधानिक संषोधन का प्रयास किया गया।
(7) जनता से निराषावाद:- राजनीतिक दलों की स्वार्थपूर्णता और सत्ता लोलूपता ने दलीय प्रणाली पर आधात तो पहुचाया ही है साथ ही जनता के मन में राजनीतिक व्यवसथा के प्रति एक निराषा भी भर दी है मध्य प्रदष में किननरों का विधान सभा में प्रवष इस निराषावाद की परिणति मानी जा सकती है भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और अस्थिरता ने लेागों के मन में संसदीय कार्यप्रणाली के प्रति एक संदेहश् उत्पन्न कर दिया है उससे भी बडा खतरा यह है कि जनता के इस निराषावाद का लाभ उठाकर कुछ महत्वांकांक्षी लोग या दल स्थायी कार्यपालिका तथा निष्चित कार्यकाल वाली संसाद जैसे प्रयोगों का नारा देकर संसदीय प्रणाली को समाप्त करने का प्रयास करते है जो उचित नही हैैं ।
(8) राष्ट्रीय चरित्र का अभाव:- जेनिग्स जैसे अेनक पाष्चात्य विद्धनों ने भारत में संसदीय प्रणाली की सभ्यता पर संदेहश् व्यक्त किया था। उनका संदेहश् तो निर्मुल सिद्ध हुआ लेकिन एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि हमारे देष में राजनीतिक मूल्यों संविधान और संसदीय परम्पराओं के प्रति भी कोई गम्भीर आस्था नही है। उसका प्रधान कारण है कि हमारे देष में राष्ट्रीय चरित्र की कमी है केवल वाह्य आक्रमण या किसी बडी प्राकृतिक आपदा के समय ही राष्ट्रवाद दिखाई देता है अन्यता क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता पद सदैव हाबी रहती है।
समाधान/ विष्लेषण:-
इन सभी समस्याओं का यदि विष्लेषण किया जाए तो स्पष्ट होगा कि यह राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में आने वाले स्वाभाविक गतिरोध है क्योंकि जिस व्यवस्था को विकसित होने में ब्रिटेन को सैकडों वर्ष लग गए उसे हमने एक रेडीमेट माडल के रूप में स्वीकर किया। ब्रिटेन में संसदीय पंरपराए सदियों में विकसित हुई कहा ब्रिटेन को ..सैकडोकृष्षाल का अनुभव है एवं दूसरी ओर हमने विकास की प्रक्रिया में मात्र 64 वर्ष का रास्ता तय किया है भारत में विकास हो तो रहा है पर न्यून लेकिन विकसित होने की जो हमारी प्रक्रिया है उसमें सुधार की गुजाईष है हमारी सामाजिक व्यवस्था अभी भी पूर्णत: परम्परावादी है जिसमें जाति धर्म, भाषा क्षेत्र और सम्प्रदाय निर्णायक भूमिका निभाते है। जबकि हमारी राजनीतिक व्यवस्था पूर्णत: आधुनिक है जो समानता स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यों पर आधारित है यदि हम व्यवस्थावादी विष्लेषण लागू करे तो यह स्पष्ट होगा कि राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था रूपी अपने पर्यावरण से अनतह क्रिया करती है और यह अन्तः क्रिया हमारे देष में स्वस्थ्य नही है जिके कारण हम लूसियन पाई की ष्षब्दावली में कह सकते है कि ’’ हम एक डेवलपमेन्ट ट्रैप - (विकास फन्द) में फस गये है जहा हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने समानता और विभेदीकरण प्राप्त किये बिना क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया है राजनितिक विकास राजनीतिक सामाजीकरण, आधुनिकीरण आदि के प्रयासों पर विचार करने के बाद विष्लेषण के आधार पर भारतीय संसदीय प्रणाली बारे में निम्न निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
1. भारतीय संसदीय प्रणाली परंपरागत से आधुनिकता की ओर विकसित हो रही व्यवस्था है जो संक्रमण काल से गुजर रही है ऐसे समय में वर्तमान व्यवस्था को नष्ट कर नवीन भवन बना लेने की बात सोचना या कहना पूर्णतः अव्यवहारिक होगा। क्योकि इसमें भारतीय लोकतंत्र की ज्वलंत समास्याओं का समाधान संभव नही वर्तमान विकार किसी हद तक अस्थाई माने जा सकते है इस लिये अधिक निराषावाद की आवष्यकता नही है।
2. रिग्स की भाषा में वर्तमान में भारतीय समाज एवं ट्रान्जिषियाश् समाज है जिसमें परम्परागत और आधुनिक दोनों समाजेां के लक्षण है अतः आवष्यकता है राजनीतिक आधुनिकीकरण और समाजीकरण की गति को तेज करने की/ राजनीतिक साक्षरता और दायित्व बोध की कमी के करण भारतीय समाज दोषों से मुक्त है।
3. राजनितिक संरचनाए भारत में असाल मे न तो अधिक विभेदीकृत है और न विषेषीकृत एकी ही संरचना कई प्रकार की कार्य करती है।
4. जनता ने अभी समानता के स्तर को प्राप्त नही किया फिर भी संसदीय प्रणाली इतनी कार्य सक्षम हो गई है कि मांगों के रूप में तनावों का सामना कर सकें। अतः इस व्यवस्था के ध्वस्त होने की संभावना बिल्कुल नगण्य है।
इस प्रकार संसदीय प्रजातंत्र सफलता के नवीन सोपान पर चढता जा रहा है और आवष्यकता है राजनीतिक साक्षरता एवं राजनितिक समाजीकरण की प्रक्रिया को तेज करने की! इस प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका बद्धिजीबी वर्ग को निभानी है ।
दूसरी आरे हमारे राजनीतिक दलों के रजानितिज्ञाो में त्याग एवं सेवा की भावना विकसित हो जाए तो लडखडाता लोकतंत्र परिपक्व हो जायेगा।

No comments:

Post a Comment