Sunday 14 July 2013

संविधान अनुसार समाजिक न्याय:एक मूल्यांकन


सामाजिकता हमारी आदिम पहचान है। सभ्यता के आरंभ से ही समाज हमारी व्यापक अवधारणा और व्यवस्था रहा है। यह व्यवस्था हमारे जीवन को एक प्रारूप तो देती ही है- हमारी चाहनाओं, आकांक्षाओं, अभिव्यक्तियों और आवश्यकताओं की पूर्ति कर हमें हमारी संपूर्ण संवेदनाओं के साथ गढ़ती भी है। जीवन को सुंदर बनाने की मानवीय पहल किसी न किसी रूप में सभ्यता की शुरुआत से ही जारी है। जीवन को सुंदर बनाने का उपक्रम मानवीय प्रवृति है। पालने से लेकर मृत्युशय्या तक हम समाज के साथ हैं। हमारा समाज हमारे साथ-साथ है। तभी तो हम मनुष्य हैं। हमारा कौशल, हमारी जीवन प्रणाली (सामाजिक) धरती के तमाम जीवों से हमें अलग और श्रेष्ठ सिद्घ करती है। हम पृथ्वी परिवार के मुखिया हैं। अद्भुत सर्जना हैं! सभी जीव-जंतु और मनुष्य मात्र का विशाल परिवार हमारी पृथ्वी है।


‘वसु़धैव कुटुम्बकम’ की प्राचीन भारतीय अवधारणा सामाजिक न्याय की गहनतम अभिव्यक्ति है। विभिन्न समुदायों-सभ्यता-संस्कृतियों में यह अभिव्यक्ति विविध रूपों में परिलक्षित होती है। चाहे मनुष्य के जीवन और गरिमा की बात हो, गरीबी-आवश्यकताओं की बात हो, जात-पात हो, जकात या दान हों या दुनिया बदल देने की बात-सबकी मूल अवधारणा सामाजिक न्याय का गठन और विस्तार ही है। सामाजिक न्याय कोई अलग बात नहीं बल्कि समाज-निर्माण का ही अभिन्न अंग है। न्याय के बिना समाज की संकल्पना अधूरी है । मानवाधिकार तथा समानता आधार बिंदु हैं। अंतर्राष्टïरीय श्रमिक संगठन के संविधान के अनुसार- ‘‘सामाजिक न्याय के बिना सर्वव्याप्त और अनंत शांति की प्राप्ति बेमानी है। ’’ सामाजिक न्याय दरअसल वैसे समाज या संगठन को स्थापित करने की अवधारणा है जो समानता तथा एकता के मूल्यों पर आधारित हो , साथ ही मानव अधिकारों के मूल्यों को समझे तथा प्रत्येक मनुष्य की प्रतिष्ठा को भी पहचाने। अथर्ववेद के ‘पृथ्वीसुक्त’ में ‘पृथ्वी परिवार’ की परिकल्पना की गई है। पूरी धरती को परिवार मानने की भारतीय संस्कृति सामाजिक न्याय का प्राचीनतम रूप है। धरती के पुरातन शब्द-संग्रह ऋग्वेद में भी मनुष्य, समाज और संस्कृति की श्रम-शक्ति पर प्रकाश डाला गया है। समानता, न्याय दरअसल प्रारंभ से मानवीय सभ्यता का मूल बिंदु रहा है। अलगाव, विभेद, अत्याचार, असमानता आदि सभ्यता की कमजोर कड़ी है। भारतीय समाज में जाति की सच्चाई और शोषण की गाथा एक बड़ा सवाल रहा है। ऋग्वेद के कवियों (ऋषियों-ऋषिकाओं) से लेकर कबीर, रैदास, तुलसी और अन्य अनेकों संत-महात्माओं, समाज-सुधारकों ने किसी-न-किसी रूप में अपने-अपने समय सामाजिक सांस्कृतिक दर्द को और मानवीय आदर्शों को अभिव्यक्त किया है। शोषण, विषमता , अमानवीयता का प्रतिरोध अनेक रूपों में होता रहा है। इन विविधताओं और विषमताओं के मध्य भी हमारा सामाजिक जुड़ाव ही हमारी पहचान है। प्रख्यात निबंधकार पं. विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में-‘‘भारतीयता नि:शेष होने का फक्कड़पन है। सब कुछ सबका है का मूल आदर्श।’’ विविध संस्कृतियों, बोली-बानी बहुरंगी छटाओं और विभिन्न शासनादेशों वाले हमारे देश ने लंबे समय से सामाजिक न्याय की स्थापना को बल दिया है। लंबी दासता से जूझते देश की 15अगस्त, 1947 को आजादी के साथ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का भी उदय हुआ। भारत में लोकतंत्र की स्थापना एक महान क्रांतिकारी परिवर्तन था और ऐसी न्यायिक व्यवस्था की आवश्यकता थी जिसमें न्याय प्राप्ति तो हो ही, इस महान क्रांति की रक्षा भी हो सके। लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद मिली आजादी की कमाई को बड़ा अर्थ देना महान नेताओं का सपना था । पं० जवाहर लाल नेहरू ने संविधान समिति के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘‘ इस सभा का सर्वप्रमुख कार्य स्वतंत्र भारत के लिए ऐसी सांवैधानिक व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए जिससे वंचितों को संपूर्ण भोजन और वस्त्र तो मिले ही सभी भारतीयों के लिये उन्नति के उत्कृष्टï अवसर प्राप्त हों’’ इस तरह सामाजिक न्याय भारतीय संविधान की आधारशिला है। यद्यपि सामाजिक न्याय को संविधान में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। फिर भी भारतीय संविधान का प्रमुख स्वर और अनुभूति सामाजिक न्याय ही है। यहां समाज और न्याय के प्रति लचीला रूख अपनाते हुए न्यायिक व्यवस्था को मुक्त रखा गया है ताकि सामाजिक परिस्थितियों, आयोजनों, संस्कृति समय तथा लक्ष्य के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किये जा सकें। अथक शाश्वत सेनानी बाबा साहेब डा .अंबेडकर ने अन्याय और शोषण के खिलाफ एक नैतिक सामाजिक व्यवस्था की मुहिम चलाई। उनका कहना था कि-‘‘लोकतंत्र को बनाये रखने केे लिए संवैधाानिक मूल्यों-अधिकारों का पालन करना होगा।’’ भारतीय संविधान अपनी विधि और संप्रभुता का प्रतीक है। संविधान के मूलाधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और अन्य संदर्भों में भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने का प्रयास किया गया है। संवैधानिक मूल्यों में जनहित का भी हित निहित है। राष्टï्रहित है। वंचित सपनों के महामनीषी डॉ. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक न्याय के इतिहास-पुरुष हैं। प्रेरणा पुंज हैं। विविध वर्णों-वर्गों में बंटी भारतीय मानवता को कानून की मदद से संविधान के दायरे में लाने और सामाजिक न्याय की स्थापना का उनका प्रयास अतुलनीय है। ‘सोशलिस्ट’, ‘सेक्यूलर’, ‘डेमोक्रेटिक’ और ‘रिपब्लिक’ जैसे शब्द इसी प्रयास के सुंदर उदाहरण हैं। भारतीय संविधान अपनी संरचना - सुदृढ़ता और लोकतांत्रिक मूल्यों के कारण निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है। सामाजिक एकता और न्याय से ओत-प्रोत संविधान के निर्माणकर्ताओं ने ‘सोशल वेलफेयर स्टेट’ (सामाजिक कल्याणकारी राज्य)की स्थापना को बल दिया जिसकी मूल धारणा आय, पद और प्रतिष्ठा में असमानता को समाप्त करना हो। गैर बराबरी का निषेध । इसके लिए आर्थिक समानता और आय के समान वितरण को प्रभावी प्रारूप दिया गया। अब जाति ,रंग, समूह, धर्म, लिंग आदि के स्तरों पर हमें समान अधिकार प्राप्त हंै। संविधान में ‘न्याय’ शब्द का अर्थ सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सुरक्षा से है। इसके अंतर्गत समान अधिकारों की बात तो की ही गई है निम्न श्रेणी वाले वर्गों के उत्थान को भी बल दिया गया है ताकि निम्न वर्ग एक समान स्तर की प्राप्ति तो कर ही ले। ‘समानता’ शब्द से तात्पर्य समान भावना से ही है जिसमें किसी खास वर्ग को उत्कृष्टï ठहराना गलत है तथा बिना किसी भेदभाव के समान अवसरों को प्रदान करना है। इस प्रकार सामाजिक न्याय के अंतर्गत हमें निम्न अधिकारों की प्राप्ति होती है- (1) कानून के समक्ष समानता (धारा 14)
(2) धर्म, जाति, वर्ग और लिंग जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव का बहिष्कार (धारा 15) 
(3) सार्वजनिक आयोजनों और रोजगारों में समानता का अवसर (धारा 16) 
(4) अस्पृश्यता का अंत (धारा 17) 
(5) जाति-सूचक उपनाम का अंत (धारा 18) 
माक्र्सवाद और गांधी के विचारों का समग्र भारतीय संविधान सामाजिक न्याय की व्यवस्था, हक-हकूक तथा बराबरी को महत्व तो देती है सभी तरह के शोषण के विरुद्घ भी न्याय प्राप्ति की व्यवस्था करती है। आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में ‘‘हम संकीर्णता को बढ़ावा नहीं दे सकते क्योंकि वह देश महान नहीं बन सकता जिसके लोगों के विचार संकीर्ण हों।’’ इस तरह हमारी अभिव्यक्तियां भी स्वतंत्र होती जाती हैं और पूरा देश हमारा अपना घर बन जाता है। इस घर का कोना-कोना, कतरा-कतरा हमारा है। हम कहीं भी आ जा सकते हैं और अपनी हर बात रख सकते हैं। भारतीयता हमारी पहचान है। भारत हमारा समाज है और स्वतंत्र अभिव्यक्तियां संविधान का हमारे लिए सामाजिक न्याय। सामाजिक न्याय की यह प्रक्रिया हमें आपस में जोड़ती है। हम सभी मुख्यधारा का अंग बन जाते हैं। विभिन्न जातियों-जनजातियों का उत्थान सभी को एक प्लेटफार्म पर लाकर खड़ा कर देता है। हमारी गुणवत्ता, आदान-प्रदान, आवश्यकतायें और चुनाव सामाजिकता के मददगार हाथ बन जाते हैं। विविधता में भी हमारी एकता सुदृढ़ होती जाती है। संस्कृतियों का संगम। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो ‘विरुद्धों का सामंजस्य’...। और लोकतंत्र है भी क्या? डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में-‘‘लोकतंत्र में दूसरों के दृष्टिïकोण का सम्मान करने की इच्छा और समझौते की क्षमता जरूरी है।’’ सामाजिक न्याय के सांवैधानिक प्रयास यहीं खत्म नहीं हो जाते। हमारी जरूरतों के हिसाब से सामाजिक लाभों के वितरण के लिए ढेरों योजनायें है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के समान अवसर सामाजिक न्याय के आधार स्तंभ हैं। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर यह प्रक्रिया हमारे साथ है। बच्चों और युवाओं के लिए राज्यों को निर्देश है कि वे ऐसी (नीतियों)पॉलिसियों का निर्माण करें जिससे बच्चों का स्वस्थ विकास हो (धारा 41)। उन्हें समान अवसर, स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा मिले। साथ ही साथ किसी भी तरह के बहिष्कार और शोषण से उनकी रक्षा की जा सके (धारा 42)। बेरोजगारी, वृद्घावस्था, बीमारी, अपंगता और अन्य अवांछित कारकों के लिये भी राज्यों को निर्देश हैं कि रोजगार, शिक्षा और जनहित के लिये प्रभावशाली प्रावधानों का निर्माण करें। मातृत्व-सुरक्षा की रक्षा, मानवीय मूल्यों की रक्षा सामाजिक न्याय के अभिन्न बिंदु हैं (धारा 43)। इसके अतिरिक्त आर्थिक संस्थानों में कार्यरत सभी कर्मचारियों चाहे वे कृषि से जुड़े हों उद्योग से जुड़े या अन्य क्षेत्रों से उन्हें आजीविका भत्ता पाने का, एक उत्कृष्टï जीवन जीने, खाली समय का आनंद लेने तथा सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी का अधिकार प्राप्त है। ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों की स्थापना से रोजगार वृद्धि के अवसर भी प्रदान किय गये हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार ‘‘सभी कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन मिलने ही चाहियें और न्यूनतम वेतन का नहीं दिया जाना मानवीय गरिमा के प्रति अत्याचार है जिसे शोषण की संज्ञा दी जा सकती है।’’ इसी प्रकार क्षतिपूर्ति न्याय द्वारा सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिये भी विभिन्न धाराओं का निर्माण किया गया है। धारा 15 (4) में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जातियों, जन-जातियों के लिए विशिष्टï रोजगारों के प्रावधान की बात कहीं गई है। धारा 16 (4) बराबरी की सैद्घांतिकता प्रदान करता है। वहीं धारा ४६ कमजोर तबकों की संरक्षा को बढ़ावा देती है। इसमें विशेष तौर पर अनुसूचित जातियों और जन-जातियों को अन्याय तथा शोषण से रक्षा को बल दिया गया। इस प्रकार समुचित रूप में सामाजिक न्याय प्रकिया को वितरण तथा क्षतिपूर्ति का न्याय कहा जा सकता है। तथा दो स्पष्टï दृष्टिïगत भागों में विभाजित किया जा सकता है-(1) वितरण संबंधी न्याय-जिसके अंतर्गत समान लोगों के बीच समान व्यवहार की बात कही गई है। तथा (2) क्षतिपूर्ति संबंधी न्याय-जिसके अंतर्गत वंचितों या शोषितों के साथ हुई क्षति की भरपाई का प्रावधान है। समान अवसरों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने लाभों के वितरण और क्षतिपूर्ति न्याय के मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है। मुख्य न्यायाधीश गजेंद्रगडकर के शब्दों में-सामाजिक न्याय ‘‘सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में सभी को समान अवसर की प्राप्ति और असमानता की समाप्ति है।’’ भारतीय न्याय-व्यवस्था ने सामाजिक न्याय की स्थापना में महती भूमिका निभाई है। लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का सामाजिक न्याय की दिशा में योगदान तथा दायित्व है। साथ ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका को भी नकारा नहीं सकता। जन-जागरूकता में मिडिया की भूमिका अद्वितीय है जिससे सामाजिक न्याय जन-जन तक पहुंच सका है। उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को सैद्धांतिक प्रधानता प्रदान की है। सामाजिक न्याय की अवधारणा न्यायिक उद्घोषणा की निर्देशन बल भी रही है। न्याय के पालन को सुनियोजन करने के लिये न्यायालय द्वारा विभिन्न सरकारी प्रयासों को प्रारूप दिया जाता रहा है। वितरण संबंधी और क्षतिपूर्ति संबंधी दोनों ही तरह की न्यायिक गतिविधियों को व्यावहारिक प्रारूप न्यायालय ही प्रदान करते हैं। न्यायालय इस बात का न्याय या फैसला करते है कि संसाधनों का समान और न्यायसंगत वितरण हो सके। हमारा संविधान भी यह स्वीकार करता है कि औपचारिक समानता के सख्त अनुपालन से ही वास्तविक सामाजिक समानता की स्थापना हो सकती है। लोकतंत्र के सांवैधानिक मूल्यों की स्थापना सिर्फ न्यायालय का ही नहीं हम सभी का दायित्व है। संविधान में सामाजिक न्याय की संकल्पना एक बहुत बड़ा मूल्य और मार्गदर्शक है। इसे व्यापक अर्थों में देखा जाना चाहिये। गुणवत्ता, आवश्यकता, समानता, स्वतंत्रता, समान रुचियों आदि में न्यायसंगता को प्रारूप देने के बाद भी न्यायालयों के सामने समानता-असमानता के बीच विभेद और न्याय को पहचानना एक बड़ी चुनौती है। दायित्व है। न्यायिक प्रक्रिया के बहुतेरे आकार और आयाम हो सकते हैं। इसे किसी खास सैंद्धांतिक या पारंपरिक ढांचे में भी ढाला नहीं जा सकता। फिर भी उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक न्याय को वैधानिक कार्यप्रणाली के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया है। सामाजिक न्याय की प्रक्रिया में न्यायसंगत न्याय के लिये महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू के विचार का प्रयोग किया जा सकता है कि-‘‘समान न्याय समान परिस्थितियों में समान व्यवहार की अवधारणा है। अगर समान मामलों में असमान व्यवहार किया जाता हो तो यह अन्याय है।’’ अरस्तू ने न्याय के दो विभेद किये हैं- १. वितरणात्मक और २. प्रतिकारात्मक अरस्तू के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य तो हो सकता है लेकिन नागरिक वह तभी कहलायेगा, जबकि वह राज्य की राजनीति में सक्रिय रूप से योगदान करता है और इसी संदर्भ में सक्रिय रूप से योगदान करता है और इसी संदर्भ में संदर्भ में अरस्तू कहते हैं कि किसी भी राज्य या समाज में किसी व्यक्ति का जो सक्रिय योगदान होता है उसके समानुपात में समाज की सम्पत्ति का उचित वितरण वितरणात्मक न्याय कहलाता है और इसका निषेध वितरणात्मक सामाजिक अन्याय कहलाता है। लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है। व्यवहार में यह कहीं पर भी लागू नहीं है क्योंकि व्यक्ति सदस्य के योगदान का ठीक-ठीक आंकलन संभव नहीं है। इसका कोई पैमाना नहीं है। सीमा रेखा नहीं है! अरस्तू के अनुसार , राज्य के कारणों का तद्नुरूप उचित पालन प्रतिकारात्मक न्याय है और इसका निषेध प्रतिकारात्मक अन्याय है जिसके प्रतिकार के रूप में राज्य दण्ड का प्रावधान करता है। ऐसा न्याय भी सामाजिक न्याय की परिधि में ही आता है। एक कल्याणकारी राज्य वही है जिसमें वितरणात्मक एवं प्रतिकारात्मक दोनों प्रकार के सामाजिक न्याय सन्निहित हों। सामाजिक न्याय पाने की दिशा में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सहित तमाम केन्द्रों के प्रयास कहीं न कहीं गलत कार्यान्वयन और असंतुलन के कारण फलीभूत नहीं हो पा रहे हैं। जरूरत और समय की मांग है कि उचित और संतुलित नीतियों -व्यवहारों को लागू किया जाये जिससे कि सामाजिक न्याय को सामाजिक प्रगति का हिस्सा बनाया जा सके। समाज के वंचित, शोषित,उपेक्षित और कमजोर वर्गों के उत्थान के लिये संावैधानिक व्यवस्था के अनुरूप प्रयास किये जाने चाहिये। जब तक अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक विकास के साथ की किरण नहीं पहुंच पाती है तब तक सामाजिक न्याय का सपना अधूरा ही रहेगा। अधुरेपन को पाटने के प्रयास जीवन के हर क्षेत्रों से साकार करने होंगे। देश के विभिन्न क्षेत्रों में नक्सलवाद, माओवाद आदि के जो अलगाव बिंदु हैं उसके पीछे भी शोषण और असमानता प्रमुख कारक है। उपेक्षा की अनंत गाथाएं शामिल हैं। संविधान की आत्मा का ही कचोट है । आजादी के 65 से अधिक वर्षों बाद भी विकास और न्याय लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये हैं। नून-तेल-लकड़ी यानि जीवन की जरूरी जरूरतें शिक्षा, स्वास्थ्य, अवसर की समानता सभी तक नहीं पहुंच पाई है। यह अलगाववाद का एक प्रमुख कारण है। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों, बच्चों का सशक्तिकरण न्याय को न्याय प्रदान करने के लिये बेहद आवश्यक है। प्रशासनिक, राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्रों से भी यह बात बार-बार प्रकट होती रही है कि वामपंथी चरमपंथ को हराने के लिये विकासात्मक गतिविधियों और कल्याणकारी पहल को आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। आदिवासी क्षेत्रों की समृद्ध खनिज सम्पदा और उनके जल-जंगल -जमीन कॉरपोरेटों के हवाले करना जहां उनको जमीन और आजीविका से मरहूम करता है वहीं असंतोष और अलगाव को भी बढ़ावा देता है। आदिवासी एवं पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य सुनिश्चित करना और न्याय प्रदान करना केन्द्र तथा राज्यों की बुनियादी और संवैधानिक जिम्मेवारी है। इसके द्वारा भटके हुए लोगों जिन्होंने हिंसा का मार्ग अख्तियार कर लिया है उन्हें भी लोकतांत्रिक मुख्यधारा में लाया जा सकता है। केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने मौलिक और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। विकास के लिए नागरिकों को उचित अवसर प्रदान किये ही जाने चाहिये। सामाजिक न्याय की प्राप्ति और बुद्ध, गांधी, अंबेडकर, लोहिया और अन्य अनेकों राष्ट्र सपूतों के सपने को आकार मिलेगा, और फिर सही मायनों में एक संपूर्ण प्रभुता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य साकार हो सकेगा।

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