Sunday 14 July 2013

धर्मनिरपेक्षता:एक विश्लेषणात्मक मूल्यांकन


धर्म मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही किसी न किसी रूप में मानव-जीवन को प्रभावित करता रहा है। धर्म मानव का अपने से परे एक ऐसी शक्ति में विश्वास है जिससे वह अपनी संवेगात्मक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है तथा जीवन में स्थिरता प्राप्त करता है और जिसे वह उपासना व सेवा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। एक व्यापक अभिवृत्ति के रूप में यह मानव जीवन के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, व राजनैतिक सभी प्रवृत्तियों को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है।  

कालान्तर में धर्म के विस्तार के साथ ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा ने भी जन्म लिया। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार-‘‘धर्मनिरपेक्षता माने धर्म से स्वतन्त्र (निरपेक्ष) या गैर आध्यात्मिक (अनाध्यात्मिक) या लौकिकता या सांसारिकता सम्बन्धी विचार।’’ धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) जीवन का एक आधुनिक दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण मूलतः पाश्चात्य जगत की पैदाइश है। राज्य के धर्म (चर्च) से अलगाव सिद्धान्त के पश्चात आधुनिक राज्य निर्माण की परिस्थितियों में मानव इतिहास और राजनैतिक संस्थाआंे के नियंता रूप में ईश्वर नहीं, बल्कि स्वयं जन या जनसमुदाय को मान्यता दी गई। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता आधुनिक बौद्धिकता का कारगर सैद्धान्तिक हथियार बन गई और परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति के निजी जीवन में धर्म व अन्धविश्वास की बजाय विज्ञान और बुद्धि को महत्व मिलना शुरू हो गया।

‘‘सेक्युलरिज्म’’ शब्द के प्रणेता जॉर्ज जेकब होलियाक (1851 में) ने धर्मनिरपेक्षता को  पारिभाषित करते हुए कहा था कि- श्धर्मनिरपेक्षता भौतिक साधनों  द्वारा मानव-कल्याण में अभिवृद्धि और दूसरों की सेवा को जीवन का आदर्श बनाने वाला साधन है।श् उसने धर्म के रूढ़िगत आयामों पर कुठाराघात किया पर उसका ये भी मानना था कि धर्मनिरपेक्षता माने नास्तिक या धर्म विरोधी नहीं। उसने सभ्य समाज के धार्मिक आधार पर समाजवादी मानवतावादियों की तरह प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा- श्ऐसे रूढ़िवादी धर्म से एक गरीब व्यक्ति को क्या लेना-देना है, जो अपनी शुरूआत ही उसे एक दीन- हीन प्राणी बता कर करता है और अन्त उसे एक असहाय गुलाम बनाकर करता है। एक गरीब व्यक्ति स्वयं को एक हथियारबन्द दुनिया में पाता है, जहाँ शक्ति ही ईश्वर है और गरीबी बेड़ी है। कालान्तर में चार्ल्स ब्राडलॉफ, जिसने सन् 1860 के बाद धर्मनिरपेक्ष आन्दोलन को बहुत प्रभावित किया, जोर देकर कहा कि एक धर्मनिरपेक्षतावादी को कट्टर निरीश्वरवादी (नास्तिक) होना चाहिए। कालान्तर में इसी दृष्टिकोण को मार्क्सवादियों, समाजवादियों और साम्यवादियों ने भी अपनाया।

धर्मनिरपेक्षता को पाश्चात्य एवं भारतीय सन्दर्भों में समझना ज्यादा सटीक होगा। पाश्चात्य दृष्टिकोण के अनुसार - धर्मनिरपेक्षतावाद वह दर्शन है जिसमें परम्परागत धर्मों व आध्यात्मिकता की अवहेलना की जाती है एवं मानव को अपने पार्थिव हितों की ओर ध्यान देना सिखाया जाता है।श् इसके अनुसार ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद दोनों को ही उपेक्षित करना चाहिए क्योंकि वैज्ञानिक रीति से इन्हें न तो स्वीकार किया जा सकता है एवं न ही खण्डित। इस सिद्धान्त का समकालीन विचार में प्रत्यक्षवादियों, अर्थ क्रियावादियों, भाषा-विश्लेषणवादियों, तार्किक भाववादियों और कुछ अस्तित्ववादियों ने समर्थन व प्रतिपादन किया। जहाँ प्रत्यक्षवाद का मानना है कि ज्ञान की कुछ ऐसी भी विधियाँ हैं, जिनको आधार मानकर धार्मिक मान्यताओं, ईश्वरवादी कथनों एवं तत्ववैज्ञानिक सिद्धान्तों का खण्डन किया जा सकता है वहीं तार्किक भाववादियों ने सत्यापन के सिद्धान्त के माध्यम से तत्वविज्ञान का उन्मूलन किया व धर्मनिरपेक्ष चिन्तन की प्रवृत्ति का पोषण किया। 

ऐसे में धर्मों के प्रति उपेक्षा व तटस्थता या उदासीनता अपनाना ही पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता का मूल है। पाश्चात्य मत से परे भारतीय विचारकों के मत में- श्धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता नहीं। इसका अर्थ सभी धर्मो के प्रति समान आदर भाव एवं सभी व्यक्तियों हेतु समान अवसर है, चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। जहाँ पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता धर्म व आध्यात्मिकता की अवहेलना करती है, वहीं भारतीय समाज प्राचीन आध्यात्मिक परम्परा को स्वीकार करते हुए सभी धर्मों के प्रति सहनशील होना व उन सबका समान रूप से आदर करना ही धर्मनिरपेक्षता मानता है। वस्तुतः पाश्चात्य और भारतीय दोनों मत क्रमशः धर्मनिरपेक्षता के अभावात्मक एवं भावात्मक रूप का प्रतिपादन करते हैं पर इस अन्तर के बावजूद दोनों ही वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को अपनाते हुए बौद्धिक एवं वैज्ञानिक उपायों द्वारा व्यापक अर्थों में मानव-कल्याण हेतु मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार दोनों ही मत राजकीय कार्यों में किसी भी धर्म को संरक्षण नहीं देते हैं। 

समग्र रूप में कहा जाय तो- ‘‘धर्मनिरपेक्षता एक प्रकार का मानवतावादी जीवन दर्शन है जो राजनीति, प्रशासन व कानून इत्यादि को धर्म व सम्प्रदायों से पृथक रखते हुए एवं मानव को अलौकिक या दैवी शक्तियों पर आश्रित रहने के स्थान पर पूर्णतया आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देकर उसके वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण हेतु मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता हर व्यक्ति को बिना किसी भेद-भाव के स्वतन्त्र रूप में व्यक्तित्व विकास का अवसर देती है और इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, धार्मिक कट्टरता, सम्प्रदायवाद एवं संकीर्णतावाद इत्यादि का परित्याग कर व्यापक अर्थों में समाज एवं राष्ट्र निमार्ण का मार्ग प्रशस्त करती है।’’ यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार बुद्ध ने तत्वमीमांसीय प्रश्नों पर मौन साधकर ष्आत्मदीपोभवष् का उपदेश दिया था। 

भारतीय परम्परा में धर्म की एक विस्तृत अवधारणा रही है और धर्म को कर्तव्यपूर्ण न्याय संहिता व नैतिकता से भी जोड़ा गया है। यही कारण है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बयालीसवें संशोधन द्वारा ष्पंथनिरपेक्षताष् शब्द जोड़ा गया। पंथनिरपेक्ष राज्य इस विचार पर आधारित है कि राज्य का विषय मात्र व्यक्ति व व्यक्ति के बीच सम्बन्ध से है, व्यक्ति व ईश्वर के बीच सम्बन्ध से नहीं। यह सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तःकरण का विषय है।अनेकता में एकता स्थापित करने वाले बहुधर्मी एवं बहुभाषीय राष्ट्र भारत के लोगों की एकता व उनमें बन्धुत्व स्थापित करने हेतु संविधान में पंथनिरपेक्ष राज्य का आदर्श रखा गया  अर्थात राज्य सभी मतों की समान रूप से रक्षा करेगा और किसी भी मत को राज्य के पंथ के रूप में नहीं मानेगा। 

संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद का प्रतिषेध करता है तो अनुच्छेद 25 से 28 तक में अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। यही नहीं, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के लिए अनुच्छेद 29 में उपबन्ध किया गया है कि राज्य उन पर सम्प्रदाय की अपनी संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति अधिरोपित नहीं करेगा तो अनुच्छेद 30 प्रतिपादित करता है कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन का अधिकार होगा और राज्य ऐसी शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह किसी धार्मिक समुदाय के प्रबन्ध में हैं। 

यहाँ पर स्पष्ट करना जरूरी है कि किसी भी रूप में यह निरपेक्षता या तटस्थता नकारात्मक नहीं वरन् सकारात्मक है अर्थात यदि कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड या पूजा पद्धति लोक स्वास्थ्य या सदाचार के विरूद्ध है या धार्मिक पद्धति का सारवान अंग नहीं है और किसी समाजिक, आर्थिक या राजनैतिक विनियमन करने वाली विधि का उल्लघंन करती है, तो राज्य हस्तक्षेप कर सकेगा।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता की परम्परा सकारात्मक रूप में सर्वधर्मसमभाव का पोषण करती है। इस रूप में भारत में धर्मनिरपेक्षता आयातित अवधारणा न होकर मूल अवधारणा है। सिन्धु घाटी सभ्यता काल में जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सद्भाव व सामंजस्य पर जोर दिया जाता था, वही भारत की धर्मनिरपेक्षता  आज भी विद्यमान है। भारत की धर्मनिरपेक्षता की परम्परा प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक काल की संस्कृतियों की विभिन्न विचारधाराओं और विशिष्टताओं मसलन- सहिष्णुता, शांति, अहिंसा, सामंजस्य व समन्वय, निरन्तरता एवं विकास का सम्मिलित रूप है, जिसमें रूढ़ कर्मकाण्डों की बजाय सहज करूणा-मैत्री पर आधारित धर्म पर जोर दिया जाता है। महात्मा बुद्ध और महावीर जैन ने तत्कालीन धर्म की बुराइयों को दूर करने पर जोर दिया एवं अष्टांगिक मार्ग, चार आर्य सत्य व पंचमहाव्रत के माध्यम से ऐसे आचरण के सिद्धान्तों को सामने रखा जो हर धर्म हेतु मान्य हैं। मौर्य सम्राट अशोक ने व्यक्तिशः बौद्ध होते हुए भी धर्म आधारित शासन व्यवस्था की नींव रखी, जो कि नैतिकता एवं सभी के लिए समानता के सिद्धान्त पर आधारित थी। 

मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर ने सुलह-ए-कुल स्थापित किया जो सभी के लिए शान्ति और सम्मान के सिद्धान्त पर आधारित था। कालान्तर में अकबर ने दीन-ए-इलाही का प्रचार किया, जिसके अनुसार साम्राज्य के सारे लोग समान हैं एवं हिन्दू-मुस्लिम अनुयायियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने धर्म का आचरण करने की स्वतन्त्रता है। मध्यकाल में ही सूफी सन्तों ने भी दोनों धर्मो से अच्छी बातों को लेकर प्रचार किया। सिख धर्म के पाँचवें गुरू अर्जुन देव ने आदिग्रन्थ की रचना की जिसमें सिक्खों के गुरू तथा हिन्दू व मुसलामन सन्तों की वाणियों को संकलित किया गया है, यह ग्रन्थ धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है। वसुधैव कुटुम्बकम् वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति की पहचान रही है, यही कारण है कि भारत ने बाहर से आए विभिन्न धर्मों को आत्मसात किया और वे यहीं के होकर रह गए। आधुनिक काल में संविधान की प्रस्तावना व इसके अनुच्छेदों के माध्यम से एक राष्ट्र के रूप में भारत ने सांस्कृतिक ही नहीं वरन् संवैधानिक दृष्टि से भी पंथनिरपेक्षता व सर्वधर्मसमभाव की परम्परा को कायम रखा। स्वयं राष्ट्रपिता गाँधी जी का ‘सर्वधर्मसमभाव’ इन अनूठी परम्पराओं का  निचोड़ था।            

भारत एक बहुधर्मी राष्ट्र है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर संस्कार किसी न किसी रूप में धर्म से जुड़ा हुआ है। यदि धर्मनिरपेक्षता माने धर्म का बहिष्कार है तो भारतीय परिपे्रक्ष्य में पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता मान्य नहीं हो सकती क्योंकि तब राज्य को एक ऐसी सार्वभौमिक जीवन पद्धति का इजाद करना होगा, जो धार्मिक संस्कारों की जगह ले सके। वस्तुतः राज्य कोई जड़ उपकरण नहीं है वरन् यह व्यक्तियों से संचालित होता है। अगर व्यक्ति धर्म से संचालित है तो राज्य को भी किसी न किसी रूप में धर्म से संचालित होना होगा। धर्म से राज्य तभी अलग हो सकता है जबकि समाज में धर्म का अस्तित्व ही न हो। ऐसे में एक धर्मपरायण राष्ट्र से धर्म के बहिष्कार के रूप में धर्मनिरपेक्षता की कल्पना करना हास्यास्पद है। 

धर्म के प्रति तटस्थता, इहलौकिकता में विश्वास, अलौकिक शक्तियों की बजाय विज्ञान व उसकी उपादेयता में विश्वास एवं नैतिकता का  धर्म से पृथक्करण, धर्मनिरपेक्ष राज्य की मूलभूत विशेषताएँ मानी जाती है। किन्तु आज भी हमारे देश में शिक्षा, कानून, राजनीति, संस्कृति, कला एवं सामाजिक जीवन पर धर्म का काफी प्रभाव है। न्यायालयों में धर्म-ग्रन्थ गीता के उपर हाथ रखकर सच बोलने की शपथ ली जाती है तो मन्त्रीगण सत्यनिष्ठा और ईश्वर के नाम पर अपने पद की शपथ लेते हैं। समान नागरिक संहिता के अभाव में विभिन्न धर्मो के अनुयायी अपने परम्परागत धार्मिक कानूनों का पालन करते हैं तो अल्पसंख्यकों द्वारा धार्मिक आधार पर आरक्षण की माँग एवं राजनैतिक दलों व उनके प्रत्याशियों द्वारा परोक्ष रूप से धर्म से जुडे़ मुद्दों पर मत माँगे जाते हैं। 

राजकीय अधिकारियों और मंत्रियों द्वारा सार्वजनिक रूप से धर्म विशेष के समारोहों में भाग लिया जाता है और इनमें धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है। जबकि उनसे आशा की जाती है कि पंथनिरपेक्ष राज्य के अनुरूप वे किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय के आयोजनों में भाग लेकर उस सम्प्रदाय को प्रोत्साहित करने से बचें। इसी प्रकार धार्मिक या जातीय पंचायतें एवं फतवे भी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के विपरीत हैं। अधिकतर धार्मिक संस्थायें नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक सिद्धान्तों, विश्वासों व कर्मकाण्डों की शिक्षा देती हैं एवं धर्म व नैतिकता में कोई अलगाव नहीं मानतीं।   
                   
यदि हम निष्पक्ष विश्लेषण करें तो साम्प्रदायिकता और जातिवाद हमारे धर्मनिरपेक्षता के मार्ग  में सबसे बड़ी बाधा हैं क्योंकि यह समाज और शासक दोनों को ही तुष्टिकरण की नीति अपनाने के लिए बाध्य करती हैं। वास्तुस्थिति यह है कि हमने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को तो अपना लिया है पर धर्मनिरपेक्षता अब तक हमारे सामाजिक जीवन का अंग नहीं बन पायी है। संवैधानिक तौर पर  भले ही भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया गया हो और भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है व न ही धर्म के आधार पर किसी भेदभाव को संविधान प्रश्रय देता है, किन्तु इसके बाद भी संवैधानिक तौर पर भारत  भले ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हो पर सामाजिक तौर पर नहीं।     

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