Sunday 14 July 2013

एक नोट:भारतीय विदेश नीति वर्तमान संदर्भ में


विदेश नीति किसी भी राष्ट्र का वैश्विक मंचों पर एक आधार तय करती है, अर्थात आपका स्वरुप किस प्रकार का हो, ठीक इसी आधार पर आपकी नीतियां किन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कार्य कर रही है तय करता है। विदेश नीति अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर एक पहचान बनाती है। ठीक इसी अनुरुप विश्व के अन्य देश आपसे विभिन्न प्रकार के राजनयिक, सामरिक, कूटनीतिक, वाणिज्यिक-व्यापारिक संबंध बनाने की पहल करते हैं।

जहाँ तक वर्तमान में भारत की विदेश नीति का सवाल है, तो निश्चित तौर पर अगर देखा जाऐ तो कोई स्पष्ट, पारदर्शी, उद्देश्यपरक रणनीति देखने को नहीं मिल रही है। आजादी के बाद के आरम्भिक दौर से भारत की विदेश नीति की दशा दिशा का अवलोकन करें तो आज की तुलना मे स्थिति बेहतर एवं स्पष्ट थी। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उस समय भारत की विदेश नीति को लेकर एक स्पष्ट रणनीति बनाई थी। यह बात सत्य है कि समय-समय पर वैश्विक नीतियां बदलती रहती हैं ठीक इसी अनुरुप हर देश सामरिक जरुरत के हिसाब से अपनी-अपनी कूटनीति या विदेश नीति तय करते हैं। नेहरु जी के कार्यकाल में विश्व में कूटनीतिक, सामरिक वातावरण में दो ध्रुविय व्यवस्था कार्य कर रही थी। वह शीतयुद्ध का दौर था। उस समय साम्यवादी संयुक्त रशिया के नेतृत्व में एक गुट था तो पूँजीवादी अमेरिका के नेतृत्व में दूसरा गुट। उस समय विश्व के अधिकांश राष्ट्र चाहे विकसित हों या विकासशील, गरीब हों या अमीर किसी ना किसी राजनीतिक, कूटनीतिक उद्देश्य के कारण किसी ना किसी गुट में अवश्य सम्मलित थे। भारत को अपनी आरम्भिक आजादी के दौरान ही अपने दो निकटतम पड़ोसी चीन एवं पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा। इस दौरान भारत को बहुत कुछ सीखने को मिला सुरक्षा से लेकर विदेश नीति तक।

लगभग 60 के दशक में वैश्विक परिवेश में असमंजसता की स्थिति को ध्यान में रखते हुऐ उस समय मार्शल टीटो जैसे विचारकों के साथ मिलकर नेहरु जी के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई गई। इस नीति के तहत ऐसे राष्ट्र सम्मिलित हुए जो ना तो साम्यवादी गुट के पक्षधर थे और ना ही पूँजीवादी गुट के समर्थक। ठीक इसी अनुरुप भारत की विदेश नीति कार्य करने लगी। इंदिरा गाँधी के कार्यकाल से ही गुटनिरपेक्षता की नीति में थोड़ा सा ही सही बदलाव देखने को मिलने लगा। उस समय कुछ ऐसी राजनीतिक, राजनयिक घटनाऐं घटी जैसै- 1971 में पूर्वी पाकिस्तान का बंगला देश के रुप में एक राष्ट्र का बनना और इस पर उस दौरान विभिन्न देशों से मिले राजनयिक सहयोग। फिर मध्यपूर्व में विशेषकर इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को लेकर भारत का स्पष्ट दृष्टिकोण। इस मसले पर भारत प्रारम्भ से ही फिलिस्तीन राष्ट्र का समर्थक रहा है। 1967 में इजराइल द्दारा फिलिस्तीन के विभिन्न ठिकानों जैसे –गाजा पट्टी, येरुशलम, पश्चिमी क्षेत्र आदि पर जबरन कब्जा करना। भारत ने इस मुद्दे पर इजराइल का खुलकर विरोध किया जो अमेरिका का सबसे बड़ा हितैषी था और वर्तमान में आज भी है।

फिर समय-समय पर विभिन्न मसलों को लेकर रशिया जैसे विभिन्न देशों का समर्थन, कहीं ना कहीं यह सारी गतिविधियाँ भारत की गुटनिरपेक्ष नीति को प्रभावित करती रही है। लेकिन इंदिरा गाँधी के कार्य काल में या कहें 70 से लेकर 90 के दशक तक भारत की विदेश नीति ज्यादा सबल एवं मजबूत दिखती थी। 1974 में पोखरण में भारत का पहला परमाणु परीक्षण तथा इसके बाद विश्व के मजबूत राष्ट्र अमेरिका के नेतृत्व में विभिन्न राष्ट्रों द्दारा भारत पर विभिन्न प्रकार का आर्थिक, वाणिज्यिक प्रतिबन्ध, उसके बाद भी भारत का इस विपरीत परिस्थिति में मजबूती के साथ खड़ा रहना, अपने आप में भारत की सशक्त विदेश नीति की कहानी कहता है। 90 के दशक में खाड़ी युद्ध के मुद्दे पर भारत ने अपना स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था, तथा अमेरिका द्दारा इराक में हमले को गैरलोकतांत्रिक करार दिया था। 1990 के बाद से जब रशिया विभिन्न राष्ट्रों में विभक्त हुआ तो अमेरिका के नेतृत्व में पूरे विश्व में एक ध्रुवीय व्यवस्था कार्य करने लगी, जो आज तक कायम है। भले ही यह संभावना व्यक्त की जा रही हो कि उदारीकरण, वैश्वीकरण के कारण अब पूरा विश्व बहुध्रुवीय व्यस्था में तबदील हो जाऐगा। 1990 से ही हमने उदारीकरण की नीति अपनाई। अपने बजार विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिए, ठीक इसी अनुरुप हमने अपनी आर्थिक नीति तय की। इसी आधार पर विदेश नीति को भी अमली जामा पहनाया। एक ओर हमें जरुरत थी संसाधन, विदेशी निवेश, देश की आर्थिक संमृद्धि की वहीं दूसरी ओर विश्व के अन्य खासकर विकसित देशों को जरुरत थी एक बड़े एवं सस्ते बाजार की जो उन्हें भारत के रुप में मिला। धीरे-धीरे ये राष्ट्र अपने आर्थिक हितों के साथ-साथ अपने कूटनीतिक हित भी भारत पर थोपने लगे। चाहे इसके पीछे जो भी कारण रहा हो, भारत ने हाँ-ना कहते हुए अंततः इसे स्वीकार किया। मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल मे भारत ने अमेरिकी दबाव मे आकर असैन्य परमाणु सहयोग संधि को पारित किया।

आज भारत की कूटनीतिक स्थिति किस मुकाम पर देखने को मिल रही है? सार्क देशों के सगठन के तहत आने वाले निकटतम पड़ोसी देश के संदर्भ में बात करें तो कहीं भी हम एक सफल नेतृत्व कर्ता के रुप में नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। पाकिस्तान जो भारत का शुरु से ही विरोधी रहा है और आज भी है, इनमें कभी-कभी वाणिज्य–व्यापार के मसले पर सहमति दिखती है। चीन हमारा सबसे बड़ा प्रतिद्दंदी है, वह हमारी कूटनीति को बहुत हद तक कमजोर कर चुका है। नेपाल से लेकर वर्मा तक हम कहीं भी कूटनीति स्तर पर एक सार्थक मूमिका में नजर नहीं आ रहे हैं। बंग्लादेश जिसका उदय भारत के सहयोग से हुआ, वहाँ भी सत्ता परिवर्तन के साथ भारत के प्रति कूटनीतिक भूमिका बदलती रहती है। हाल में मालदीव में हुए सत्ता परिवर्तन को लेकर भारत की असमंजसता की स्थति चिंता जनक है।

श्रीलंका जो पहले भारत के काफी करीब था, जहाँ भारत की कूटनीतिक भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी आज स्थिति ठीक इसके विपरीत है। सबसे आश्चर्य की बात है कि अब हमारी कूटनीति पर देश की आंतरिक राजनीतिक मजबूरी हावी होती देखी जा रही। जैसे श्रीलंका में तमीलों की स्वायत्ता के मामलों को लेकर।

अब हम सभी अंदाजा लगा सकते हैं कि जब अपने पड़ोसी राष्ट्रों के बीच यह स्थिति है तो विश्व में कैसी स्थिति होगी।  आज जिस प्रकार से वैश्विक मंच पर ईरान, सीरिया, इजराइल को लेकर गतिरोध की स्थिति बनी हुई है पर इस मसले पर आज भी भारत अनिर्णय, अदूरदर्शिता की स्थिति में मूक बना बैठा है। ऐसा क्यों? ईरान के मसले पर I.E.A.E में कभी समर्थन करते दिखता है तो कभी विरोध, सिर्फ अमेरिकी दबाव में।

अगर एक प्रकार से कहा जाए कि भारत की विदेश नीति दबाव की स्थिति में है चाहे कारण जो भी रहा हो, वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए, सही प्रतीत होता है।

मसला चाहे आतंकवाद का हो, वैश्विक व्यापार का हो, पर्यावरण संतुलन का हो या फिर मानवाधिकार का हो। हम नेतृत्व कर्ता की भूमिका में नजर नहीं आते हैँ। उदाहरण के तौर पर लैटिन अमेरिकी देश वैनेजुऐला, क्यूबा आदि को ही लें, जो एक समय अमेरिका के नापाक इरादों का प्रमुख स्थल हुआ करता था। आज वहाँ से उसकी जड़ें समाप्त हो चुकी हैं। लेकिन लैटिन अमेरिकी राष्ट्र ने खुलकर अमेरिकी नीति का विरोध कर अपनी सामरिक जरुरतों के आधार पर अपनी विदेश नीति तय की है। फिर हम क्यों नहीं!

अगर आतंकवाद से लड़ने की बात हो तो हम दूसरों का मुँह देखते हैं। आर्थिक नीतियां तय करना हो तो दूसरा देश हम पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से दबाव बनाए रखता है। किस राष्ट्र के साथ किस प्रकार का कूटनीतिक संबंध कायम करना है दूसरा साधन संपन्न देश हमें राह बताता है। हाल के ईरान के मसलों को लें। ईरान से तेल आयात करने के मुद्दे पर अमेरिका लगातार दबाव बनाए बैठा है। आज की परिस्थिति में हम गुटनिरपेक्षता की नीति से बिल्कुल विमुख हो चुके हैं।

आज जिस प्रकार से वैश्विक वातावरण में विभिन्न विषयों को लेकर हलचल की स्थिति देखने को मिल रही है, जरुरत है वैश्विक नेतृत्व की। भारत में वो क्षमता है वो ताकत है नेतृत्वकर्ता की भूमिका अदा करने की। बशर्ते पहले भारत अपनी नीतियां, लक्ष्यों के प्रति सशक्त दिखे, सबों को एकजुट रखने की क्षमता के साथ-साथ विदेश नीति को लेकर राजनीतिक क्षमता दिखाने की कोशिश करे। तभी अंतरराष्ट्रीय मंच पर हम अपनी एक अलग पहचान स्थापित कर पाऐंगे।

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