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Sunday, 14 July 2013

सामाजिक संविदा का सिद्धांत:एक विवेचन



सामाजिक संविदा (Social contract) सामाजिक संविदा कहने से प्राय: दो अर्थों का बोध होता है। 
प्रथमत: सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या ठहराव किया, अत: यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है।
 दूरे को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले।
ऐतिहासिक विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए। 
इतिहास......
यद्यपि सामाजिक संविदा का सिद्धांत अपने अंकुर रूप में सुकरात के विचारों, सोफिस्ट राजनीतिक दर्शन एवं रोमन विधान में मिलता है तथा मैनेगोल्ड ने इसे जनता के अधिकारों के सिद्धांत से जोड़ा, तथापि इसका प्रथम विस्तृत विवेचन मध्ययुगीन राजनीतिक दर्शन में सरकारी संविदा के रूप में प्राप्त होता है। सरकार के आधार के रूप में संविदा का यह सिद्धांत बन गया। यह विचार न केवल मध्ययुगीन सामंती समाज के स्वभावानुकूल वरन् मध्ययुगीन ईसाई मठाधीशों के पक्ष में भी था क्योंकि यह राजकीय सत्ता की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायक था। 16वीं शताब्दी के धार्मिक संघर्ष के युग में भी यह सिद्धांत बहुसंख्यकों के धर्म को आरोपित करने वाली सरकार के प्रति अल्पसंख्यकों के विरोध के औचित्य का आधार बना। इस रूप में इसने काल्विनवाद तथा रोमनवाद दोनों अल्पसंख्यकों के उद्देश्यों की पूर्ति की। परंतु कालांतर में सरकारी संविदा के स्थान पर सामाजिक संविदा को ही हॉब्सलॉक और रूसो द्वारा प्रश्रय प्राप्त हुआ। स्पष्टत: सामाजिक संविदा में विश्वास किए बिना सरकारी संविदा की विवेचना नहीं की जा सकती, परंतु सरकारी संविदा पर विश्वास किए बिना सामाजिक संविदा का विवेचन अवश्य संभव है। सामाजिक संविदा द्वारा निर्मित समाज शासक और शासित के बीच अंतर किए बिना, और इसीलिए उनके बीच एक अन्य संविदा की संभावना के बिना भी, स्वायत्तशासित हो सकता है। यह रूसी का सिद्धांत था। दूसरे, सामाजिक संविदा पर निर्मित समाज संरक्षण के रूप में किसी सरकार की नियुक्ति कर सकता है जिससे यद्यपि वह कोई संविदा नहीं करता तथापि संरक्षक के नियमों के उल्लंघन पर उसे च्युत कर सकता है। यह था लॉक का सिद्धांत। अंत में एक बार सामाजिक संविदा पर निर्मित हो जाने पर समाज अपने सभी अधिकार और शक्तियाँ किसी सर्वसत्ताधारी संप्रभु को सौंप सकता है जो समाज से कोई संविदा नहीं करता और इसीलिए किसी सरकारी संविदा की सीमाओं के अंतर्गत नहीं है। यह हाब्स का सिद्धांत था।
सामाजिक संविदा के सिद्धांत की आलोचना एवं विरोध........
सामाजिक संविदा के सिद्धांत पर आघात यद्यपि हेगेल के समय से ही प्रारंभ हो गया था तथापि डेविड ह्यूम द्वारा इसे सर्वप्रथम सर्वाधिक क्षति पहुँची। ह्यूम के अनुसार सरकार की स्थापना सहमति पर नहीं, अभ्यास पर होती है, और इस प्रकार राजनीतिक कृतज्ञता का आधार बताया तथा बर्क ने विकासवादी सिद्धांत के आधार पर संविदा की आलोचना की।
सामाजिक संविदा का सिद्धांत न केवल ऐतिहासिकता की दृष्टि से अप्रमाणित है वरन् वैधानिक तथा दार्शनिक दृष्टि से भी दोषपूर्ण है। किसी संविदा के वैध होने के लिए उसे राज्य का संरक्षण एवं अवलंबन प्राप्त होना चाहिए; सामाजिक संविदा के पीछे ऐसी किसी शक्ति का उल्लेख नहीं। इसलिए यह अवैधानिक है। दूसरे, संविदा के नियम संविदा करने वालों पर ही आरोपित होते हैं, उनकी संतति पर नहीं। सामाजिक संविदा के सिद्धांत का दार्शनिक आधार भी त्रुटिपूर्ण है। यह धारणा कि व्यक्ति और राज्य का संबंध व्यक्ति के आधारित स्वतंत्र संकल्प पर है, सत्य नहीं है। राज्य न तो कृत्रिम सृष्टि है और न इसकी सदस्यता ऐच्छिक है, क्योंकि व्यक्ति इच्छानुसार इसकी सदस्यता न तो प्राप्त कर सकता है और न तो त्याग ही सकता है। दूसरे, यह मानव इतिहास को प्राकृतिक तथा सामाजिक दो अवस्थाओं में विभाजित करता है; ऐसे विभाजन का कोई तार्किक आधार नहीं है; आज की सभ्यता उतनी ही प्राकृतिक समझी जाती है जितनी प्रारंभिक काल की थी। तीसरे, यह सिद्धांत इस बात की पूर्व कल्पना करता है कि प्राकृतिक अवस्था मे रहने वाला मनुष्य संविदा के विचार से अवगत था परंतु सामाजिक अवस्था में न रहने वाले के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व की कल्पना करना संभव नहीं। यदि प्राकृतिक विधान द्वारा शासित कोई प्राकृतिक अवस्था स्वीकार कर ली जाए तो ऐसी स्थिति में राज्य की स्थापना प्रगति की नहीं, वरन् परावृत्ति की द्योतक होगी, क्योंकि प्राकृतिक विधान के स्थान पर बल पर आधारित राज्य सत्ता अपनाना प्रतिगमन ही होगा। यदि प्राकृतिक अवस्था ऐसी थी कि वह संविदा का विचार प्रदान कर सके तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य तब भी सामान्य हित के प्रति सचेत था; इस दृष्टि से उसे सामाजिक सत्ता तथा वैयक्तिक अधिकार के प्रति भी सचेत होना चाहिए। और तब प्राकृतिक और सामाजिक अवस्थाओं में कोई अंतर नहीं रह जाता। अंत में, जैसा ग्रीन ने कहा, इस सिद्धांत की प्रमुख त्रुटि इसका अनैतिहासिक होना नहीं वरन् यह है कि इसमें आधार की कल्पना उन्हें समाज से असंबद्ध करके की गई है। तार्किक ढंग पर अधिकारों का आधार समाज की सहमति है; अधिकार उन्हीं लोगों के बीच संभव है जिनकी प्रवृत्तियाँ एवं अभिलाषाएँ बौद्धिक हैं। अतएव प्राकृतिक अधिकार अधिकार न होकर मात्र शक्तियाँ हैं।
परंतु इन सभी त्रुटियों के होते हुए भी सामाजिक संविदा का सिद्धांत सरकार को स्थायित्व प्रदान करने का एक प्रबल आधार है। यह सिद्धांत इस विचार को प्रतिष्ठापित करता है कि राज्य का आधार बल नहीं विकल्प है क्योंकि सरकार जनसहमति पर आधारित है। इस दृष्टि से यह सिद्धांत जनतंत्र की आधारशिलाओं में से एक है........

भारतीय समाज का यथार्थवाद


भारतीय समाज के बारे में सार्थक कार्य करने वाला कोई भी समाज शास्त्री भारत के मनोवैज्ञानिक यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकता. इसलिए भारतीय समाज पर बौद्धिक जनतंत्र की अवधारणा स्थापित करने से पूर्व हमारे लिए भी यह आवश्यक है कि हम भारतीय समाज के मनोवैज्ञानिक यथार्थ का विश्लेषात्मक अध्ययन करें और इसे अच्छी तरह जानें. भारी समाज पूर्ण अथवा आंशिक रूप में गुप्त वंश के शासन के बाद 1947 तक लगभग 1600 वर्ष विदेशी लोगों के अधीन रहा है. 1947 में तथाकथित स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी यह समाज अंग्रेज़ी शासन की रीति-नीतियों - प्रशासनिक सेवा के स्थान पर दमन, उधार के सिन्दूर जैसा संविधान, शासक वर्ग के अनुपम वैभव, शासक-शासित वृहत अंतराल, आदि के अंतर्गत पिस रहा है.  

इस दमनात्मक शासन की दीर्घ अवधि ने भारतीयों के मनोविज्ञान को ऐसा जकड लिया है कि वे किसी ऊपर वाले पर सतत आश्रित रहते हैं और उसके बिना स्वयं को निस्सहाय एवं दींन्-हीन समझते हैं. इस ऊपर वाले में ईश्वर और शासक दोनों सम्मिलित हैं. बच्चों को भी राजा, रानी और राजकुमारों की कथाएँ ही सुनायी जाती हैं जिससे वे स्वयं को उनकी तुलना में दीन-हीन ही स्वीकार करते रहें. इस सब से जन साधारण की मान्यता बन गयी है कि उनमें से प्रत्येक अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम नहीं है और उसे इसके लिए किसी अधिक सशक्त और सुयोग्य व्यक्ति अथवा शक्ति के आश्रय की सतत आवश्यकता बनी रहती है. भारत के तथाकथित जनतांत्रिक राजनेता लोगों की इस मानसिकता का पूर्ण लाभ उठाते रहे हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए स्वयं को उनके सेवक के स्थान पर उनसे श्रेष्ठ शासक के रूप में स्थापित करते रहे हैं. अपने कुत्ते के वैभव के लिए भी वे अनेक लोगों के जीवन को दांव पर लगने से भी नहीं चूक रहे हैं और लोग इस सब को निर्विरोध सहन करते जा रहे हैं.


उपरोक्त प्रकार के जनतांत्रिक शोषण से लोग प्रसन्न हों, ऐसा भी नहीं है. किन्तु वे अपने शिकवे-शिकायत केवल आपसी चर्चा तक ही सीमित रखते हैं, इसके प्रतिकार के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाते. इससे स्पष्ट है कि लोग वर्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं किन्तु अपना आक्रोश व्यक्त करने में असमर्थ हैं. शासन के प्रति इसी असंतोष की अभिव्यक्ति लोगों की ऐसे धर्मगुरुओं के चरणों में पडी भीड़ के रूप में भी दिखाई पड़ती है, जिन्हें वे श्रेष्ठ मान चुके होते हैं. 

इस स्थिति से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - भारत के लोगों को श्रेष्ठों का शासन चाहिए, वे वर्त्तमान व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, और इस परिवर्तन के प्रयास में वे केवल अपनी मूक सहमति दे सकते हैं, सक्रिय योगदान नहीं. इन्हीं तीन तथ्यों के आधार पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के प्रयास करने होंगे.  


प्रबुद्ध वर्ग को जन साधारण के समक्ष वर्तमान शासकों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती. यह वर्ग सर्व-व्यापी है और सर्व-शक्तिमान भी. भारतीय जनमानस उनके शासन को निश्चित रूप से पसंद करेगा, किन्तु इस परिवर्तन में अपना सक्रिय योगदान नहीं देगा. इस कारण से लोग जनतांत्रिक चुनावों का बहिष्कार तो कर सकते हैं किन्तु दमनकारी शासकों के विरुद्ध प्रबुद्ध लोगों का शासन हेतु चयन नहीं कर सकते. वर्तमान संविधान की उपेक्षा तो कर सकते हैं किन्तु नए संविधान की रचना नहीं कर सकते.  वे प्रबुद्ध वर्ग की सरलता और शालीनता के प्रशंसक तो हो सकते हैं किन्तु शासकों द्वारा शोषण का विरोध नहीं कर सकते. अतः बौद्धिक जनतंत्र की स्थापना के लिए प्रबुद्ध लोगों को एक जुट होकर स्वयं ही प्रयास करने होंगे.

Saturday, 13 July 2013

महिला उत्पीड़न के समाजशास्त्रीय एवम् मनोवैज्ञानिक आयाम


नीति, न्याय और सत्ता का तथाकथित कर्ताधर्ता पुरुष नहीं चाहता कि उसकी सत्ता को कोई चुनौती दे। अपनी इस सत्ता को बरकरार रखने के लिए उसने स्त्री को पराश्रित, पराधीन बनाने के लिए सदियों से विज्ञान, कला, संस्कृति, दर्शन, चिंतन की दुनिया से इसलिए दूर रखा ताकि वह शिक्षित, चेतन, सजग, आत्मनिर्भर न बन सके क्योंकि उसे सदैव डर बना रहता है कि स्त्री अपने स्वत्वाधिकारों की माँग न करने लगे? इसलिए उसे निरक्षर, चेतना रहित बनाकर रखना पुरुष सत्ता के लिए अनिवार्य सा हो गया है। सोलहवीं शताब्दी की सामंती सोच पुरुषों में आज भी कायम है। आधुनिक युग में सोचने की दशा एवं दिशा बदली है। 21वीं सदी में ‘स्त्रीधर्म’ की बातें सुनते-सुनते पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता तथा शील एवं सेक्स की मर्यादाओं को तोड़कर स्त्रियों ने पुरुषों के समक्ष एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि अब बात ‘पुरुष धर्म’ की भी होनी चाहिए? समस्या की मूल जड़ यहीं से आरम्भ होती है।

जिस पश्चिमी उपभोक्तावाद को अक्सर हम समाज की मूल्यविहीनता के लिए दोषी ठहराते हैं, उससे जन्मी नई जीवन शैली में स्त्री उत्पीड़न कम होना चाहिए, पर ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि स्त्रियों के मामले में हमारा यह समाज चेतना के स्तर पर सामंती है। शैक्षिक और आर्थिक विकास ने एक नया पाखण्डपूर्ण मानस बना दिया है। यहाँ कहीं न कहीं हमारी नीयत में खोट है। यह बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है कि पुरुष वर्चस्व और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ स्त्रियों में बढ़ रहे प्रतिरोध के कारण उन पर हिंसा भी बढ़ रही है। यह प्रतिरोध ग्लोबल चेतना के कारण बढ़ा है। एक ओर तो हम आधुनिकता की बात करते हैं, बदलाव की बात करते हैं, पर विचारों व मानसिकता में जो बदलाव अपेक्षित है वह बदलाव आज तक नहीं आया। जब-जब स्त्री अधिकारों की बात आती है तो परम्पराओं के नाम पर उसका हनन होता है।

देश के महानगरों और महानगर बनने की कगार पर खड़े नगरों में कास्मोपालिटिन संस्कृति का प्रभाव उठान पर है; इससे पुरुषों में यौन कुंठा और निराशा दोनों बढ़ी है। नगरों में स्त्रियों के साथ बढ़ रही छेड़खानी और बलात्कार की घटनायें इसकी अभिव्यक्ति है। स्त्रियों से ये छेड़खानी और यौन दुर्व्यवहार की घटनायें लगातार बढ़ती जा रही हैं। सामाजिक जागरूकता और विकास के आँकड़े कुछ भी कहें, हकीकत यह है कि स्त्रियों के प्रति परम्परागत पुरुषवादी रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। आखिर खोट कहाँ है, इसके पीछे कौन से समाजशास्त्रीय कारण हैं? आखिर इस बढ़ती उच्छृंखलता के लिए कौन दोषी है? वर्तमान परिदृश्य से देखें तो आबादी निरन्तर बढ़ रही है साथ ही आर्थिक परिदृश्य भी बदल रहा है। लाखों लोग गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों से बड़े शहरों की तरफ आ रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार के लिए आने वाली यह आबादी बहुत सी चीजें पहली बार देखती है। दरअसल बहुत से लोग पहली बार, पहली पीढ़ी के रूप में शहर आए होते हैं, इन्हें लगता है जो स्त्रियां जींस पहनती हैं, पाश कालोनियों में रहती हैं; वे अनैतिक होती हैं या जो महिला सहकर्मी इनके साथ कार्यालयों में या सार्वजनिक स्थलों पर खुलकर बातें करती हैं या एक ही कक्षा में साथ-साथ अध्ययनरत हैं; उसका भी ऐसे लोग दूसरा अर्थ निकालते हैं। अनेक और भ्रम उनके मन में होते है। ऐसे ही ये भिन्न प्रकार से उत्पीड़न की घटनायें करते हैं। रही बात लालच या दबाव देकर शोषण की तो अवसर के नाजायज लाभ तो उठाए ही जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है कि वर्तमान में पुराना सामाजिक ढाँचा चरमरा रहा है। शहरों में अपनत्व की भावना एवं जानकारी का अभाव रहता है। पहले ग्रामीण संस्कृति थी तो लोग एक दूसरे को जानते पहचानते थे और सामाजिक भय से ऐसी हरकतें करने से डरते थे।

आज हमारा समाज मोनोटाइजेशन की तरफ बढ़ रहा है, संस्कृति में गिरावट आ रही है और लोग निरंकुशता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कुछ भी गलत करके भाग सकते हैं; लिहाजा ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है। इन्हें लगता है कि कोई कुछ करेगा नहीं, पुलिस करप्ट है, कानून व्यवस्था पैनी नहीं है। अधिकारियों और नेताओं को लगता है कि वे सत्ता में है, कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता और ऐसे में वे अपनी इच्छानुसार गलत कार्य करने से परहेज नहीं करते। स्त्रियाँ आज के आधुनिक दौर में जिस प्रकार हिंसा का शिकार हो रही हैं, वह समाज व सरकार के लिए चुनौती है, परन्तु यहाँ वास्तविकता यह है कि पुरुष प्रधान समाज स्त्री की सत्ता को पचा नहीं पाता। उसे लगता है कि स्त्री गम्भीरता से काम नहीं करती। जबकि स्त्री पर जिम्मेदारियों का बोझ अधिक होता है। घर से लेकर बाहर तक वह अपनी जिम्मेदारियाँ समझती है। वह कुछ बेहतर करना चाहती भी है तो करने नहीं दिया जाता। सामाजिक प्रतिबंध और राजनीतिक प्रतिरोध के चलते स्त्रियों का विकास अभी भी जैसा होना चाहिए नहीं हो पाया है। पुरुष प्रधान समाज ने स्त्रियों को आगे बढ़ने से रोका है।

वर्तमान की बात करें तो उदारीकरण और स्त्री मुक्ति के इस दौर ने एक और तो स्त्रियों के लिये बंद कई दरवाजे खोल दिये हैं, साथ ही घर से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाने के लिए अवसर दिए हैं लेकिन दूसरी तरफ स्त्रियों के लिए दिखावा नामक एक जंजीर भी पैदा कर दी है। उपभोक्तावाद और प्रदर्शनवाद ही उसका जीवन सिद्धान्त बन गया और वर्ग का बँटवारा एवं संस्कृति का स्तर तय किया जाने लगा जबकि मध्य, निम्न तथा उच्च वर्ग की स्त्री के बीच आधारभूत अंतर यह है कि उच्च वर्ग की लड़की जब मारी जाती है, तो वह रसोई में जलती नहीं बल्कि गोली से मारी जाती है या छुरे से। उसकी मौत रसोई में नहीं बल्कि होटल में होती है या फिर सड़क पर क्योंकि उसकी जीवन शैली भिन्न है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उच्च वर्ग की स्त्रियों का शिक्षित और आधुनिक होना गलत नहीं है, पर आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में आधुनिक परिवार के स्त्री-पुरुष शारीरिक सम्बन्धों को सिर्फ मनोरंजन भर मानते हैं और यही सम्बन्ध उन्हें एक दिन मरने पर मजबूर कर देते हैं। यहाँ इसके पीछे एक कारण यह है कि स्त्रियाँ पुरुषों से बराबरी करने के लिए नयी जीवन-शैली को अपनाती हैं जिसके कारण उनके अंदर एक अंतर्द्वन्द्व चलता रहता है कि क्या करें क्या न करे? जिससे वे अपने मातृत्व व पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह से अलग हो जाती है। यहीं से पारिवारिक कलह की शुरूआत होती है, जहाँ एक ओर तो इन्हें बच्चों का मोह रहता है, तो दूसरी ओर वे सोचती हैं कि बच्चे उनकी स्वतंत्रता और प्रगति में अवरोधक हैं। इसके निराकरण के लिए जरूरी है स्वयं को व्यवस्थित करना।

उच्च वर्ग की पहली और आखिरी विशेषता होती है धन। वह जमाना गया जब धन कमाने में काफी समय लगता था और कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। अब भी जिसे ईमानदारी से धन कमाना है उसके लिए यही रास्ता है लेकिन काला धन बटोरने के लिए कई रास्ते खुल गये हैं। क्योंकि धन का नियम है कि वह जिस रास्ते से आता है उसी रास्ते से जाता है; इसलिए काला धन भी काले रास्ते से जाता है, लेकिन जाते-जाते अपनी चपेट में स्त्रियों को ले जाता है। आखिर इसकी वजह क्या है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्त्रियों में शिक्षास्तर बढ़ा है लेकिन यह शिक्षा उन्हें वैज्ञानिकता, कलात्मकता या सृजन की तरफ नहीं उच्छृंखलता की ओर ले जा रही है। मदिरापान, क्लब एवं पब संस्कृति और अर्धनग्नता को ही सबलीकरण का मापदण्ड माना जा रहा है जबकि पुरुषों के लिए मापदण्ड हमेशा अलग ही रहे। अर्धनग्नता किस तरह हमारी पहचान बनी; इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पहले सिनेमा की हीरोइन कभी ‘कैबरे’ नहीं नाचती थी। आज यदि वह काम और किसी को मिला तो हीरोइन डरती हैं कि इमेज फीकी हो गयी। प्रदर्शन की इस चाह ने तत्काल स्त्रियों को दो जरूरतों में बाँध दिया। पहली जरूरत यह कि उसके पास पर्याप्त पैसे हों और दूसरी यह कि वह सदा आमंत्रक, लुभावनी लगती रहे। देखें तो दोनों बातें एक दूसरे की पूरक भी हैं। किसी उच्च शिक्षित स्त्री के पास ये दोनों हों तो वह क्या नहीं कर सकती है? इसका एक उदाहरण हमारे जेहन में बड़ी गहराई से छाया हुआ है। वह है, एनरान की चर्चित रेबेका मार्क, जिसने भारतीय शासन-प्रशासन के कई दिग्गजों को साम, दाम, दंड, भेद के प्रयोग से नाच नचा दिया और मंतव्य पा ही लिया लेकिन हमारे देश की स्त्रियों के लिये वैसी बात करना कल्पना से भी परे है। फिर किस बात का सबलीकरण? अधिकतर महिलाओं का सपना क्या होता है? यही कि पार्टियों की रौनक बनी रहे। उनके पास कारें तथा सुविधा के अन्य साधन हों और वे जीवन का भरपूर आनंद उठायें, मीडिया और विज्ञापनों ने भी इसे खूब बढ़ावा दिया है। उसने तो एक और सपना भी जोड़ दिया; टी. वी. स्क्रीन पर झलकने का। क्या ऐसे सपने गलत हैं? शायद नहीं, तो फिर विसंगति कहां है? विसंगति यही कि सपने को अपना हक माना जाता है, चाहे योग्यता हो या न हो। जब योग्यता नहीं होती तो माना जाता है कि रूप और यौवन उनके पर्याय हैं। जहाँ धन और सुविधायें है, उनका उपयोग योग्यता बढ़ाने में नहीं बल्कि आनंद उठाने और मौजमस्ती में ही सार्थक समझा जाता है। यह वह दौर है जिसमें सब कुछ जायज है, यहाँ तक कि विवाहेत्तर सम्बन्ध भी। लेकिन यहाँ फिर पुरुष अहंकार को चोट लगती है। खानदान की इज्जत का सवाल उठाया जाता है और कटारा-कांड भी हो जाता है। इन सम्पूर्ण घटनाओं के पीछे उच्च वर्ग का पुरुष कहाँ है? उसे धन और आनन्द के साथ-साथ सत्ता की भी लालसा है, जिसके लिए स्त्री सीढ़ी बन सकती है। विरोध करने पर उसे तंदूर में जलाया जा सकता है और सजा की चिन्ता क्यों हो? आखिर पैसे के बल पर मुकदमे की सुनवाई को जितना मर्ज़ी हो घसीटा जा सकता है क्योंकि आज धन, सत्ता और उनमुक्त आनन्द का त्रिकोण बन गया है। अधिकतर स्त्रियों को यह झटपट चाहिए। हर बड़े महानगर में कई फार्महाउस पार्टी और पब के अड्डे बन चुके हैं; जहां मदिरा है, रूप यौवन है और एक फलसफा है कि असली जिन्दगी यही है। कभी-कभी जब वहाँ से झूमते-झूमते बाहर निकले लड़के-लड़कियाँ कार दुर्घटना में किसी की जान ले लेते हैं तो दो-चार दिन हो हल्ला मचता है और उन्मुक्तता फिर अबाध गति से चलने लगती है। कभी किसी जेसिका की जिद को समाप्त करने के लिए इतने सहज भाव से गोलियाँ दग जाती है, मानों यह कोई रोजमर्रा की बात हो। कोई नहीं पूछता कि क्या गोली चलाने वाला हमेशा से इसका आदी है। यह वास्तविकता है कि यह उन स्त्रियों के हिस्से में दुष्परिणाम आया, जो एक ओर तो उन्मुक्तता की दुनिया की लालसा में थीं पर दूसरी ओर अपने वजूद के लिए विद्रोह भी कर रही थीं; यह भूलकर कि वजूद अपनी योग्यता और कुशलता से बनता है, केवल शराब और सेक्स के दर्शन से नहीं।

हम कितना ही प्रगतिशील होने का ढोंग क्यों न करें, सच यह है कि हमारी मानसिकता स्त्रियों के प्रति हमेशा दकियानूसी रहती है। पुरुष मानता है कि स्त्री का स्थान घर की चारदीवारी के अंदर ही है। ‘नताशा कांड’ पर एक नामी-गिरामी वकील ने टी. वी. कैमरे के सामने टिप्पणी की कि वह आधी रात के समय घर से बाहर क्या कर रही थी, वह माँ थी, उन्हें अपने बच्चों के साथ होना चाहिए था। यह एक कटु सत्य है कि जब पुरुष ही आज सड़क पर सुरक्षित नहीं है तो मध्य रात्रि में सड़क पर अकेली स्त्री कैसे सुरक्षित रह सकती है? मुख्य समस्या यहाँ यह है कि स्त्री, पुरुष की बराबरी का दम भरने के लिए नयी जीवन शैली अपनाती है परन्तु इस शैली को अपनाने के लिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का ज्ञान और अहसास नहीं होता है। यहाँ एक दूसरी बात जो नयी घटित हुई है; वह यह कि हिंसा और लूट में अब स्त्रियों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया है। इसलिए अब वे इन सबकी शिकार भी हैं और हिस्सेदार भी।

भारत में हर बात के लिए पश्चिम को दोषी ठहराने का रिवाज है, पर विकसित समाजों में उतना स्त्रियों पर अत्याचार नहीं होता जितना सामंती समाजों में होता है। भारतीय समाज में पुरुषों की सामंती मानसिकता का मूल संकट भी यही है कि एक ओर उसे पवित्रता और आज्ञाकारी पत्नी चाहिए तो दूसरी ओर शाम को एक आधुनिक स्त्री। पिछले कुछ दशकों में हुए बड़े सामाजिक आर्थिक बदलावों के बाद महिलाओं का जो शिक्षित और स्वावलम्बी तबका विकसित हुआ है; वह एक साथ इन दोनों जरूरतों को पूरा करने में पिस रहा है। उच्च वर्ग का पुरुष शाम की पार्टियों में दूसरी स्त्रियों के साथ ड्रिंक और डांस तो करना चाहता है, पर जैसे ही उसकी अपनी पत्नी, बहन या बेटी किसी दूसरे के साथ ड्रिंक और डांस करने लगती है, तो वह क्रोधित हो जाता है यानी आर्थिक विकास और गतिशीलता के बावजूद सामंती चेतना नहीं टूटी है। मूल समस्या यहीं है क्योंकि स्त्री; पुरुष प्रधान समाज की एक कृति रही है। वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही अनेकों नियमों के ढाँचे में ढालता चला गया। सौन्दर्य, भाव संवेदना, सेवा-साधना, अशीम धैर्य, अनन्त ममत्व और बोधगम्यता जैसी अनेकानेक विशेषताओं के रहते हुए भी स्त्रियों को इतने प्रतिबंधों, दबावों के बीच रहने के लिए क्यों बाधित होना पड़ रहा है? इसका एक समाजशास्त्रीय कारण यह है कि निर्बल पर सबल हमेशा भारी रहा है और संत्रस्त लोग आपस में ही निपटते रहते हैं। यह उदाहरण स्त्री वर्ग में ही बहुलता के साथ चरितार्थ होते देखा जाता है। अक्सर कन्या के जन्म पर पिता की तुलना में माता को ही अधिक दु:खी होते देखा गया है। वही पुत्र को अधिक दुलारती और सुविधा देती देखी गयी है। सास-बहू की लड़ाई कुत्ता-बिल्ली के वैमनस्य की तरह प्रख्यात है। ननद का व्यवहार भी भाभी के प्रति ऐसा ही रहता है, मानो उसे जीवन भर ननद का रुतबा ही प्राप्त रहेगा, कभी किसी की भाभी बनने का अवसर आएगा ही नहीं। दहेज अधिक लेने का आग्रह और न मिलने पर आक्रोश प्रकट करने में वे ही पुरुषों की तुलना में अग्रणी रहती हैं। नारी प्रगति के लिए कुछ किये जाने का प्रसंग जब कभी सामने आता है तो इसमें अधिक विरोध, व्यवधान घर की बड़ी-बूढ़ी कहीं जाने वाली महिलायें ही बनती हैं। इस मनोवृति को क्या कहा जाये कि जिनकी लड़कियाँ काली-कुरूप हैं वे उनको तो किसी भी लड़के के हाथ सौंपना चाहती है, किन्तु अपने काले-कुरूप लड़के के लिए सुन्दर बहू तलाश करती हैं। नाक-नक्श में तनिक भी कमी रहने पर वे ही नापंसद करने में अग्रणी रहती हैं, जिनकी अपनी बच्चियाँ पराये घरों की तुलना में भी अधिक हल्की पड़ती है। बेटी और बहू के साथ होने वाले बर्ताव में जमीन आसमान जैसा अंतर रहने का कारण उस घर के पुरुष उतना नहीं बनते जितना कि महिलायें जमीन-आसमान सिर पर उठाए रहती हैं।

निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि स्त्री उत्पीड़न की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया घर की दैहरी को लाँघकर सम्पूर्ण समाज को अपनी मुट्ठी में कसती चली जा रही हैं क्योंकि आज छोटे परदे से लेकर बड़े परदे तक एवं अखबारों पत्र-पत्रिकाओं सभी में नारी देह को भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नग्न देह लिए वह उत्पाद की प्रचारक बन गयी है। मसाज पार्लर, फ्रेंडशिप क्लब,सौन्दर्य प्रतियोगितायें और इण्टरनेट के जरिये स्त्रियों की देह का बाजार चलाया जा रहा है, चाहे सौन्दर्य उद्योग हो या सिनेमा अथवा व्यवसाय, सब पर पुरुषों का कब्जा है। इसलिए उन्होंने नारी शरीर का बाजारीकरण करके अपना ब्रांड बेचने का जो अंतहीन सिलसिला शुरू किया उसका कुप्रभाव स्त्रियों पर उत्पीड़न (छेड़छाड़, बलात्कार, अमानवीय कृत्य) के विविध रूपों में हमारे समक्ष उद्घाटित हो रहा है। इस उत्पीड़न के अंत के लिए पुरूष को आज अपनी परम्परावादी मानसिकता को बदलना होगा और इसके साथ ही महिलाओं को अधिक महत्वाकांक्षाओं का त्याग कर व्यवहारिक धरातल पर कुछ समझौते करने होगें।

समलैंगिकता : समाजशास्त्रीय विवेचन


समलैंगिकता के संबंध में भी वैसी ही वर्जनाएँ तथा अनुमतियां होती हैं, जैसी कि अन्य प्रकार की यौन गतिविधियों में। हिमालय के लैपचा लोगों में यदि कोई पुरूष आंडू सूअर का मांस खा लेता है तो उसे समलैंगिक माना जाता है। लैपचा का कहना है कि उनके यहाँ समलैंगिकता अनजानी है और उसकी चर्चा भी अरूचिकर मानी जाती है। अनेक समाज यह मानते हैं कि उनके यहाँ समलैंगिकता का अस्तित्व नहीं है। इसलिए प्रतिबंधों वाले समाजों में समलैंगकता के विषय में कोई जानकारी उपलग्ध नहीं है। मुक्त समाजो में समलैंगिकता में विविधता होती है। कुछ समाजों में समलैंगिकता विद्यमान तो है, किंतु यह कुछ विशोष अवसरों तथा व्यक्तियों तक सीमित रहती है। उदाहरण के लिए, दक्षिणपिश्चमी संयुक्त राज्रू के पपागों में कुछ आनंदोत्सव की राते’’ होती है, जिनमें समलैंगिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति की जा सकती है। पपागो में अनेक ऐसे पुरूष होते थे, जो स्ति्रयों जैसे वस्त्र पहनते थे, उनके जैसे कार्य करते थे ओर विवाहित नहीं भी होते थे तो भी उनके पास अन्य पुरूष आते थे। स्ति्रयों को इस प्रकार की भावनाएँ प्रदिशर्त करने की अनुमति नहीं थी। वे आनंदोत्सवों में सम्मिलित हो सकती थी, किंतु केवल पति से अनुमति प्राप्त करके तथा वे पुरूषों के समान व्यवहार नहीं कर सकती थी।
अन्य समाजों में समलैंगिकता और भी व्यापक रूप से फैली हुई है। उत्तर अफ्रीका के सिवान लोगों में सभी पुरूषों से समलैंगिकता की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में, पिताअपने अविवाहित पुत्रों को उनसे आयु में बडें लोगों के पास समलैंगिक व्यवस्था के अनुसार भेजते थे। सिवान रिवाज के अनुसार एक पुरूष का एक ही अन्य पुरूष से संबंध होता था। सरकार के भय के कारण यह कार्य गुप्त बन गया था, किंतु सन 1909 से पहले यह कार्य खुले आम होता था। लगभग सभी पुरूष लड़कपन में समलैंगिक संबंध कर चुके होते थे। बाद में 16 से 20 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह लड़कियों से होता था। सबसे अधिक समलैंगिकता को प्रोत्साहन देने वाले समाजो में से एक न्यू गिनी का ऐटोरो समाज था, जिसमें लोग विपरीत लिंग के व्यक्तियों के बजाए समलैंगिक संबंधों को पसंद करते थे। वर्ष में 260 दिन विपरीत लिंग के लोगों के साथ यौन संबंध वर्जित होते थे; और घर या बगीचे के निकट भी। इसके विपरीत पुरूषों के बीच समलैंगिक संबंध किसी भी समय वर्जित नहीं होते थे और यह विश्वास किया जाता था कि ऐसे संबंधों से फसल भरपूर होती है और लड़के बलवान बनते है।
भारतीय समाज में भी देखा जाए तो समलैंगिकता कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल में राजशासन में राजा कई विवाह करते थे और अपनी पत्नी के साथ ज्यादा से ज्यादा एक या दो बार ही यौन संबंध स्थापित करते थे और इसी प्रकार उनकी कई रखैले होती थी जिनके साथ केवल राजा ही यौन संबंध स्थापित कर सकता था। राजाओं के इस्तेमाल के बाद इन सभी को एक जगह पर रहने दिया जाता था और इनके निवास स्थानों पर किसी पुरूष का प्रवेश वर्जित होता था ऐसी स्थिति में स्वभाविक यौन तृप्ति के लिए यह महिलाएँ समलैंगिक संबंध स्थापित करती थी। भारतीय समाज समलैंगिकता पर पूर्णतः मौन है लेकिन गुप्त रूप से इस प्रकार के संबंध यहाँ भी रहे है।
प्रतिबंधता के कारण
किसी समाज में अन्य समाजों की तुलना में अधिक प्रतिबंध क्यों होते है, इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व हमें यह जानना आवश्यक है कि क्या सभी प्रतिबंध एक साथ लगाए जा सकते है। अभी तक किए गए शोधकार्य से पता चलता है कि जिन समाजों में विपरीतलिंगी यौन संबंधों का कोई पहलू प्रतिबंधित होता है, उनमें अन्य पहलूओं पर भी प्रतिबंध होते हे। इस प्रकार, जिन समाजों में बालको द्वारा यौन संबंधों की अभिव्यक्तियों को बुरी नजर से देखा जाता है, उनमें विवाहपूर्व तथा विवाहेत्तर यौन संबंधों को भी उचित नहीं माना जाता। इसके अतिरिक्त ऐसे समाजों में शालीन पहनावे और बातचीत में संयम बरतने पर बल दिया जाता है। किंतु जो समाज विपरीतलैंगिक संबंधों को प्रतिबंधित करते है, उनमें समलैंगिक संबंधों का प्रतिबंधित होना आवश्यक नहीं । यह आवश्यक नहीं कि जिन समाजों में विवाहपूर्व यौन संबंध प्रतिबंधित हो, वे समलैंगिक संबंधों को कम या अधिक प्रतिबंधति करें। विवाहेत्तर यौन संबंधों की बात अलग है। जिन समाजों में समलैंगिक संबंध अधिक होते है, वे आमतौर पर पुरूषों के विवाहेत्तर विपरीतलैंगिक संबंधों को उचित नहीं मानते। यदि हम प्रतिबंधों की बात करे तो हमें समलैंगिक तथा विपरीतलैंगिक संबंधों के विषय में अलगअलग विचार करना होगा।
कुछ समाजों में समलैंगिक संबंध अधिक होते है, जबकि अन्य समाज उन्हें सहन नहीं करते। लोगों के समलैंगिक संबंधों में रूचि होने की अनेक मनोवैज्ञानिक व्याख्याएँ है, और इनमें से अनेक व्याख्याओं का संबंध बालकों के मातापिता से आरंभिक संबंधों से जुडा है। अभी तक हुए शोध कार्य से कोई सही तस्वीर उभर कर सामने नहीं आई है। यद्यपि पुरूषों के समलैंगिक संबंधों के कुछ संभावित कारण असंमजस में डालने वाले है।
इनमें से एक खोज यह है कि जिन समाजों में विवाहिता स्ति्रयों द्वारा गर्भपात तथा शिशुहत्या वर्जित है उनमें पुरूषों के समलैंगिक संबंधों को भी सहन नहीं किया जाता। यह और अन्य खोजें इस दृष्टिकोण की पुष्टि करती है कि ऐसे समाजों में समलैंगिक संबंधों को उचित नहीं माना जाता, जो जनसंख्या ब़ाना चाहते है। समलैंगिकता से ऐसा हो सकता है। ऐसे समाज उन सब चीजों के विरूद्ध होंगे जिनसे जनसंख्या की वृद्धि में रूकावट आए। यदि समलैंगिक संबंधों के कारण विपरीतलिंगी संबंधों में की आए तो समलैंगिकता का इस पर प्रभाव पड़ेगा। विपरीतलिंगी संबंध जितने कम होंगे, गर्भाधान की संभावना भी उतनी कम होती जाएगी। इस प्रकार के प्रतिबंध होने का कारण इसलिए भी पता चलता हैं कि जिन क्षेत्रों में दुर्भिक्ष पडता है उनमें समलैंगिक संबंधों को अनुमति मिलने की अधिक संभावना होनी चाहिए। दुर्भिक्ष तथा भोजन की कमी होने पर जनसंख्या का बोझ संसाधनों पर पड़ता है, इसलिए जनसंख्या में ब़ोत्तरी को रोकने से समलैंगिक संबंधों को सहन करने कीही नहीं बल्कि प्रोत्साहन देने की भी संभावना हो सकती है।
सोवियत संघ के इतिहास से कुछ और उपयुक्त जानकारी मिल सकती है। सन 1917 में क्रांति के कष्टप्रद दिनों में गर्भपात तथा समलैंगिकता को रोकने वाले कानून हटा लिए गए थे और शिशुजन्म को हतोत्साहित किया जाने लगा किंतु 193436 के दौरान इस नीति को बिल्कुल उलट दिया गया। गर्भपात तथ समलैंगिकता को फिर से अवैध करार दिया गया और समलैंगिक संबंध रखने वाले लोगों को गिरफ्तार किया जाने लगा। साथ ही अधिक बालको को जन्म देने वाली माताओं को पुरस्कृत किया जाने लगा।
उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पुरूषों के मध्य समलैंगिक संबंध अधिक खुले हुए होते थे परंतु महिलाओं के बीच इन संबंधों को पूर्णरूपेण गुप्त ही रखा जाता रहा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जिन समाजों में महिलाओं की संख्या कम हो जाती है वहाँ यौन तृप्ति के लिए पुरूषों के मध्य इस प्रकार के संबंध स्थापित होते रहे होंगे। समलैंगिकता के संबंध में यह भी स्पष्ट होता है कि जनसंख्या कम करने के लिए इस प्रकार के संबंध अस्तित्व में आए परंतु जनसंख्या कम करने के कई और भी उपाय हो सकते है इसलिए समलैंगिकता के लिए यह कारण उपयुक्त नहीं लगता है।
आदि समाजों में शिकार के लिए पुरूषों को दूर दूर तक की यात्राएँ करनी पडती थी इस प्रकार पुरूषों और निवास पर अकेली रूकी महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध सामान्य रूप से बन सकते है। यह भी कहा जा सकता है कि केवल समलैंगिक ही नहीं वरन पशुमैथुन संबंध भी सामान्य रहे होंगे।
पुराने समय में भी राजाओं के पास कई महिलाएँ होती थी जिनके साथ उसके शारीरिक संबंध होते थे, राजा सभी महिलाओं के साथ शायद ही कभी एक या दो से अधिक बार संबंध बनाते होगें परंतु यह नियम था कि राजा जिन महिलाओं से शारीरिक संबंध बनाते वे महिलाएँ किसी अन्य पुरूष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बना सकती थी, ऐसी महिलाओं को एक साथ रखा जाता था। यौन असंतुष्टि के कारण यह महिलाएँ आपस में ही समलैंगिक संबंध बनाती रहती। अतृप्त यौन असंतुष्टि भी समलैंगिक संबंधों के बनने का एक मुख्य कारण रहता है।
पुरूषों के मध्य इस प्रकार के संबंध महिलाओं की अपेक्षा अधिक खुले रहे इसका एक कारण यह हो सकता है कि पुरूषसत्तात्मकता में पुरूष अपने पौरूष का परिचय इस प्रकार के संबंधों के माध्यम से भी देते रहे होंगे और महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध इसलिए गुप्त रखे गए होंगे क्योंकि यदि महिलाओं के मध्य इस प्रकार के संबंध बनते होंगे तो यह पुरूषों के लिए बडी शर्म की बात रही होगी कि वह अपनी पत्नी को यौन तृप्ति नहीं दे सके।
कुछ समयपूर्व प्रदर्शित फिल्मों में भी समलैंगिकता पर जोर दिया हैं जिनमें से सबसे अधिक चर्चा में रही ॔फायर’ और दूसरी फिल्म रही ॔गर्लफ्रेंड’ दोनों ही फिल्मों में महिला समलैंगिक संबंधों को दर्शाया गया परंतु दोनों फिल्मों में समलैंगिक संबंध बनने के कारण अलगअलग थे; ॔फायर’ में एक पति से असंतुष्ट पत्नी अपनी ननद के साथ समलैंगिक संबंध बनाती है वहीं ॔गर्लफ्रेंड’ में साथ रह रही दो दोस्तों के बीच इस तरह के संबंध बनते है जिनमें से एक लडकी अपने बचपन से ही पुरूषों से कुछ कारणों से नफरत करती है। ये दोनों ही कारण समलैंगिकता के उपयुक्त कारण हो सकते है। भारतीय समाज में दोनों ही फिल्मों का पुरजोर विरोध किया गया है जबकि समलैंगिकता विरोध या संस्कृति हनन का विषय नहीं है।
समलैंगिकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि समलैंगिक सदस्य बचपन से ही समलिंगियों के मध्य रहा हो। यह शोध का विषय हो सकता है कि केवल भाइयों या केवल बहिन वाले सदस्यों में किस प्रकार से लैंगिक परिवर्तन आते है या यह भी देखा जा सकता है कि कई विपरीत लिंगियों के बीच किस तरह के लैंगिक परिवर्तन आते है। बचपन में हुआ लैंगिक समाजीकरण आगे कितना गहरा प्रभाव छोडता है, इस बात का निष्कर्ष भविष्य में होने वाले सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से निकलेगा। इन विषयों पर शोध होना शेष है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि समलैंगिकता एक मनोसामाजिक तथ्य है जिसके कारण समाज में ही है।