Monday, 15 July 2013

अमेरिका, चीन और भारत के संबंधों का एक विश्लेषण.......


अमेरिका और चीन आज दुनिया के दो सर्वाधिक श्क्तिशाली देश हैं। इन दोनों केअंतर्संबंध इतने जटिल हैं कि उनकी सरलता से व्याख्या नहीं की जा सकती। उनके बीच न कोई सांस्कृतिक संबंध है, न सैद्धांतिक, बस शुद्ध स्वार्थ का संबंध है। इसलिए न वे परस्पर शत्रु हैं, न मित्र। इनमें से एक भारत का पड़ोसी है, दूसरा एक नया-नया बना मित्र। पड़ोसी घोर विस्तारवादी व महत्वाकांक्षी है। ऐसे में भारत के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह अमेरिका के साथ अपना गठबंधन मजबूत करे। यह गठबंधन चीन के खिलाफ नहीं होगा, क्योंकि अमेरिका भी न तो चीन से लड़ सकता है और लडऩा चाहता है। लेकिन चीन की बढ़ती शक्ति से आतंकित वह भी है और भारत भी। इसलिए ये दोनों मिलकर अपने हितों की रक्षा अवश्य कर सकते हैं, क्योंकि चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, वह अमेरिका और भारत की संयुक्त शक्ति के पार कभी नहीं जा सकता।
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21वीं शताब्दी के लिए अमेरिका-चीन संबंधों को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि विश्व का 21वीं शताब्दी का स्वरूप अमेरिका चीन संबंधों के स्वरूप पर निर्भर करेगा। भारत के लिए भी आज अमेरिका चीन संबंधों का बहुत महत्व है।

भारत का चीन के साथ संबंध इस समय शत्रुभाव की तरफ झुका हुआ है, जबकि अमेरिका के साथ वह साघन मैत्री की तरफ बढ़ रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका और चीन का संबंध न शत्रुतापूर्ण है न मित्रतापूर्ण। दोनों के आपसी संबंध बहुत ही जटिल ढंग से आपस में गुंथे हुए हैं और दोनों परस्पर प्रतिद्वंद्विता के रास्ते पर अग्रसर है। चीन और अमेरिका के आर्थिक संबंध शायद सर्वाधिक घनिष्ठ है, लेकिन अमेरिका की चिंता यह है कि उनका व्यापारिक संतुलन चीन की तरफ द्ब्राुका हुआ है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ भी चीन ही उठा रहा है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा साहूकार भी है। उसने काफी बड़ी रकम अमेरिका को कर्ज दे रखी है। इस व्यापारिक असंतुलन को सुधारने के लिए अमेरिका सर्वाधिक चिंतित है। इसी चिंतावश पिछले दिनों उसने चीनी इस्पात की पाइपों पर 99 प्रतिशत का आयात कर लगा दिया। उसने चीनी टायरों के आयात पर भी अंकुश लगाया है। चीन अपने माल से अमेरिकी बाजार को पाट रहा है, ससे अमेरिकी सरकार की चिंता बढऩा स्वाभाविक है, क्योंकि इसके कारण अमेरिकी उद्योग प्रभावित हो रहे हैं और युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है। वस्तुत: अमेरिका में चीनी माल सस्ता पड़ता है, जिसके कारण अमेरिकी उपभोक्ता भी उसकी तरफ आकर्षित होते हैं।
वास्तव में चीनी माल के सस्ते होने के तीन बड़े कारण हैं। एक तो चीन में मजदूरी दर कम है। कोई श्रमिक कानून न होने के कारण कर्मचारी कम वेतन में अधिक घंटे काम करके अधिक उत्पादन करते हैं। जबर्दस्त मशीनीकरण का भी इसमें भारी योगदान है। दूसरे वहां कच्चामाल, खनिज, बिजली, पानी सस्ते दर पर उपलब्ध हैं। तीसरे चीन की सरकार ने जान-बूझ कर अपनी मुद्रा का मूल्य कम कर रखा है, जिससे निर्यात को बढ़ावा मिले। अब अमेरिका पहले दो कारणों को लेकर तो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन वह चीन पर इसके लिए दबाव डाल सकता है कि वह अपनी मुद्रा का मूल्य बढ़ाए। चीन सामान्य स्थिति में तो अमेरिका की एक न सुनता, लेकिन वह जनता है कि उसके उत्पादित माल की सर्वाधिक खपत अमेरिका में होती है और यदि अमेरिका ने अपने बाजार उसके लिए बंद कर दिये तो उसे भारी व्यापारिक हानि उठानी पड़ सकती है, इसलिए वह अपनी मुद्रा का मूल्य कुछ बढ़ाने का निर्णय ले सकता है। वैसे यह मसला एकदम एकतरफा नहीं है। व्यापारिक संतुलन भले ही चीन के पक्ष में हो, लेकिन चीन अमेरिकी माल के लिए भी एक बहुत बड़ा बाजार है। आशय यह कि अमेरिका की चीन को जितनी जरूरत है उससे कम जरूरत अमेरिका को चीन की नहीं है। इसीलिए अपनी यात्रा के प्रथम चरण में जापान की राजधानी टोक्यो में बोलते हुए ओबामा ने कहा कि विश्व स्तर पर चीन की बढ़ती भूमिका पर अंकुश लगाने का कोई इरादा नहीं है। इसके विपरीत हम चीन की बड़ी भूमिका का स्वागत करते हैं। क्योंकि इस भूमिका में चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ उसकी जिम्मेदारियां भी जुड़ी हैं। एक समृद्ध व सशक्त चीन का आगे बढऩा पूरे विश्व के हित में हो सकता है। वास्तव में अमेरिका को चीन के सहयोग की जरूरत है, क्योंकि 21वीं सदी की चुनौतियों का कोई भी देश अकेले सामना नहीं कर सकता।
ओबामा का यह चीन पहुंचने पूर्व का बयान है। जाहिर है कि वह इस तरह के बयान के द्वारा चीन के साथ वार्ता की पृष्ठïभूमि तैयार कर रहे हैं। चीन वास्तव में एक नितांत संकीर्ण स्वार्थी देश है। उसने अब तक कोई वैश्विक भूमिका निभाने की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया, न कभी इसकी महत्वाकांक्षा ही व्यक्त की। वह केवल अपनी आर्थिक व सामरिक शक्ति बढ़ाने की एकांत साधना में लगा रहा। अब इन दोनों क्षेत्रों में महाशक्तियों के समकक्ष स्थान पा लेने के बाद वह अपनी वैश्विक भूमिका की तरफ आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी यह वैश्विक भूमिका भी नितांत उसकेआर्थिक व सामरिक हितों से नियंत्रित है। वह दूसरे देशों से संबंध बढ़ा रहा है तो केवल सस्ते कच्चेमाल तथा बाजार की तलाश में। वह यदि कुछ देशों के साथ सामरिक सहयोग कर रहा है तो केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरने तथा अपने शक्ति विस्तार के लिए। उसने कभी मानवाधिकार, रंगभेद, आर्थिक विषमता आदि को विदेश नीति का आधार नहीं बनाया। लोकतंत्र का तो वह स्वयं अनुपालक नहीं है तो दुनिया की लोकतांत्रिक लड़ाई में वह क्यों कोई भाग लेता। उसने केवल अपने राष्ट्रीय हित को विदेश नीति का आधार बनाया। इसलिए उसने तमाम तानाशाही सरकारों के साथ अच्छे संबंध और उसका लाभ उठाया। वह कभी किसी न्याय की लड़ाई का दावा नहीं करता। म्यांमार में लोकतंत्र का दमन हो रहा है या नहीं इससे उसका कोई लेना देना नहीं। उसने वहां लोकतंत्र के विरुद्ध सैनिक 'जुंटा का समर्थन किया तो केवल इसलिए कि इससे उसे वहां के जंगलों की कीमती लकड़ी तथा कच्चा तेल सस्ते में मिल सकता है। इसी तरह का उसका संबंध पाकिस्तान व अन्य देशों के साथ चला आ रहा है। जबकि भारत का रवैया सदा इसके विपरीत रहा है।
सोवियत संघ के बिखरने के बाद दुनिया ने एक ध्रुवीय रूप धारण कर लिया और अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति बन गया, लेकिन सोवियत संघ का भय खत्म होने के साथ ही अमेरिका के साथ मजबूरी में चिपके हुए देश भी अपने को स्वतंत्र महसूस करने लगे। इससे अमेरिका केभी वैश्विक प्रभुत्व में कमी आई। इस वातावरण में चीनी महत्वाकांक्षा का जगना स्वाभाविक था। अब वह बदली दुनिया में अमेरिका को पीछे छोड़कर स्वयं दुनिया की प्रथम महाशक्ति बनना चाहता है। इसके लिए उसने अपनी आर्थिक शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करना शुरू किया। उसने एशियायी देशों पर ही नहीं अफ्रीकी व दक्षिण अमेरिकी देशों पर भी अपना प्रभाव विस्तार कार्यक्रम शुरू किया।
यह अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती है। अमेरिका की प्रशांत क्षेत्र पर सोवियत काल से ही काफी मजबूत पकड़ बनी हुई थी। जापान, ताइवान, हांगकांग, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपिन्स, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर ये सब उसके प्रभाव क्षेत्र वाले देश हैं। यद्यपि विभिन्न राजनीतिक कारणों से इन देशों पर अभी भी अमेरिकी वर्चस्व कायम है, लेकिन वह क्रमश: क्षीण हो रहा है। अब ओबामा के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य है इस क्षेत्र पर अमेरिकी प्रभुत्व को बरकरार रखना।
जापान तो अमेरिकी क्षत्रछाया में ही पल रहा था। उसकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी अमेरिका पर ही है, लेकिन अब जापानी जनता भी चाहती है कि अमेरिका वहां से निकल जाए। जापान के ओकीनावा द्वीप पर अमेरिका का एक मजबूत सैनिक अड्डा था ,जो धीरे-धीरे उपेक्षित हो गया। अब अमेरिका फिर वहां एक श्क्तिशाली अड्डा कायम करना चाहता है तो जापानी उसका विरोध कर रहे हैं।
अमेरिका और चीन इस समय दुनिया को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले देश हैं। वे प्रतिस्पर्धी भी हैं और परस्पर निर्भर भी। चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है तो अमेरिका का स्थान चौथा है, चीन की जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक है तो इस दृष्टिï से अमेरिका का स्थान तीसरा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो दूसरा स्थान चीन का है। ये दोनों देश ही खनिज ईंधन का सर्वाधिक उपयोग करने वाले देश हैं तो ग्रीन हाउस गैसें छोडऩे में भी ये ही दो शीर्ष स्थान पर हैं।
आज दुनिया की जो भी बड़ी समस्याएं हैं उनके समाधान की बात चीन के सहयोग के बिना सोची भी नहीं जा सकती। मामला चाहे पर्यावरण यानी ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव का हो या परमाणु अप्रसार का, विश्व अर्थव्यवस्था का हो या व्यापारिक संतुलन का हर मामले में अमेरिका को चीन की जरूरत है। परमाणु अप्रसार की अमेरिकी नीति को धता बताने में चीन की बड़ी भूमिका रही है। आज यह कोई रहस्य की बात नहीं कि पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने की क्षमता चीन से मिली। अभी बीते हफ्ते की ताजा खबर है कि चीन ने दो परमाणु बम बनाने लायक संवर्धित यूरेनियम पाकिस्तान को दिया। ईरान का परमाणु कार्यक्रम हो या उत्तर कोरिया का, इनको चीनी सहायता के बिना नियंत्रित करना कठिन है। सुरक्षा परिषद में चीन के सहयोग के बिना ईरान या दक्षिण् कोरिया किसी के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता। वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) मामले में कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रश्न पर भी चीनी सहयोग आवश्यक है, क्योंकि ऐसी गैसों के उत्सर्जन में अमेरिका के बाद दूसरा स्थान चीन का ही है। यदि चीन अपने क्षेत्र में कोई कटौती योजना स्वीकार नहीं करता तो कोई भी दूसरा विकासशील देश इसके लिए तैयार नहीं होगा। अमेरिका का व्यापारिक घाटा चीन के साथ उसकी सीधे जुड़ी समस्या है।
ऐसा नहीं है कि ओबामा की इस यात्रा में कोई बड़ा फैसला हो जाएगा या चीन राष्ट्रपति ओबामा के सारे अनुरोधों को मान लेगा, लेकिन इस यात्रा में इन वैश्विक समस्याओं के प्रति चीन का रुख अवश्य स्पष्टï हो जाएगा। चीन अमेरिका के लिए या दुनिया के भविष्य के लिए अपनी महत्वाकांक्षा का मार्ग त्यागने वाला नहीं है, किन्तु वह अमेरिकी बाजार का अधिकतम उपयोग करने के लिए जितना आवश्यक होगा उतना परिवर्तन अवश्य स्वीकार कर लेगा। ओबामा निश्चय ही मानवाधिकारों के मसले भी उठाएंगे, लेकिन वह केवल खानापूरी की बात होगी, क्योंकि चीन मानवाधिकार के मसले को उस तरह कोई महत्व देता ही नहीं, जिस तरह दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देश देते आ रहे हैं।
अब इसके साथ ही भारत की भूमिका भी सामने आएगी। इस महीने की 25 तारीख को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब अमेरिका पहुंचेंगे तब ओबामा की इस करीब एक सप्ताह की एशियायी यात्रा की पृष्ठïभूमि में एशियायी मसलों पर बात हो सकेगी। चीन के बाद भारत एशिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आर्थिक विकास की दृष्टिï से वह चीन के बाद दुनिया में सर्वाधिक तीव्रगति से विकास करने वाला देश है। स्वाभाविक है एशिया में चीन का प्रतिस्पर्धी भारत ही है। चीन और भारत के बीच भी व्यापार तीव्रगति से बढ़ रहा है, किन्तु समस्या यहां भी वही है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। चीन से भारत को निर्यात अधिक है आयात कम। चीन के साथ भारत का सीमा विवाद भी दोनों देशों के बीच खटास का एक बड़ा कारण है। दक्षिण पूर्व एशियायी या प्रशांत सागरीय देशों केसाथ भारत के संबंध विस्तार में चीनी प्रभाव सबसे बड़ा अवरोध है। भारत की एक और बड़ी समस्या है। वह यह है कि, वह लगभग चारों तरफ से चीनी प्रभाव क्षेत्र से घिरा है। उत्तर की तरफ वह स्वयं है। बीच में स्थित नेपाल भौगोलिक दृष्टिï से भारत की गोद में होते हुए भी चीनी प्रभाव से अधिक संचालित होता है। बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान यानी हरतरफ चीनी उपस्थिति से भारत घिरा है। एशियायी क्षेत्र में कोई ऐसा और देश नहीं है जिस पर भारत भरोसा कर सके। मतलब यह है कि भारत के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मजबूत करे और एशियायी क्षेत्र में उसके साथ मिलकर काम करे।
आज के समय में किसी समस्या के समाधान के लिए युद्ध के विकल्प को नहीं चुना जा सकता। मसला चाहे आर्थिक हो या राजनीतिक, सीमा विवाद का हो या व्यापारिक असंतुलन का, केवल कूटनीतिक उपायों से ही इनका समाधान ढूंढ़ा जा सकता है। लेकिन यह कूटनीति भी अपनी राजनीतिक व आर्थिक सामथ्र्य पर निर्भर है। इसलिए भी यह जरूरी है कि नई विश्व व्यवस्था में अमेरिका व भारत जैसे देश परस्पर सहयोग करें।
इस धरती पर अमेरिका, चीन और भारत ही नहीं, बल्कि सभी अन्य देशों के विकास के लिए पर्याप्त अवसर हैं। लेकिन यदि कोई देश किसी अन्य देश की कीमत पर विकास करना चाहे अथवा अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति से किसी की विकासगति को अवरुद्ध करना चाहे तो वहां उस देश पर अंकुश लगाना जरूरी हो जाता है। यह अंकुश बिना शक्ति के नहीं लग सकता। कल को हो सकता है कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक या सामरिक शक्ति बन जाए, अमेरिका दूसरे स्थान पर आ जाए लेकिन यदि भारत और अमेरिका जैसे दो लोकतंत्र एक साथ रहे तो चीन कितना भी शक्तिशाली हो जाए, लेकिन वह भारत व अमेरिका की संयुक्त आर्थिक व सामरिक शक्ति को कभी पार नहीं कर सकता। इसलिए यह भविष्य की आवश्यकता है कि भारत और अमेरिका की मैत्री प्रगाढ़ हो।
यहां उल्लेखनीय है कि चीन के साथ भारत का राजनीतिक संबंध या आर्थिक संबंध 1950 के पूर्व नाममात्र का था लेकिन हमारे सांस्कृतिक संबंध हजारों वर्ष पुराने हैं। इसके विपरीत चीन और अमेरिका की परस्पर आर्थिक निर्भरता तब से है जब से अमेरिका और चीन का परस्पर परिचय हुआ लेकिन उनके बीच कोई सांस्कृतिक संबंध कभी विकसित नहीं हो सका। पुराने जमाने में द्विपक्षीय संबंधों के निर्वाह में प्राय: तीसरे की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन आज की दुनिया में कोई संबंध नितांत द्विपक्षीय हो ही नहीं सकते।
हम पुराने भारत चीन संबंधों की बात करते हैं तो केवल सांस्कृतिक व व्यापारिक संबंधों की चर्चा करते हैं। व्यापारिक संबंधों में भी शायद चीन एकमात्र ऐसा देश था जिसके साथ हमारा व्यापार एकतरफा था। यानी हम चीन से कुछ मंगाते थे, लेकिन वहां भेजते कुछ नहीं थे। हमारे प्राचीन साहित्य चीनी रेशमी वस्त्रों (चीनांशुक) की चर्चा से भरे पड़े हैं। यह शायद चीनी रेशम की लोकप्रियता का प्रभाव था कि भारत व अरब को जाने वाले चीनी व्यापारिक मार्ग का नाम ही 'रेशमीपथ (सिल्क रूट) पड़ गया। लेकिन यह चीन के साथ हमारा कोई सीधा व्यापारिक संबंध नहीं। शायद व्यापारिक दलों के किसी तीसरे माध्यम से यह चीनी वस्त्र भारत आ जाया करता था। हां, चीन और भारत के बुद्धिजीवियों व बौद्ध आचार्यों का आना जाना अवश्य सामान्य था। चीन में शाओलिन के प्रसिद्ध बौद्ध केन्द्र की स्थापना भारत गये बातुओ (464-495 ए.डी.) बौद्ध संत द्वारा की गई। चीनी यात्री फाह्यान , ह्वेंत्सांग (इवान च्वांग), इत्सिंग आदि का नाम तो यहां परिचित है ही। चीन के 'चान व 'जेन मत के आचार्य भी भारत से गये। चीन के पुराने इतिहासज्ञ झान्ग्कियांग (113 बी.सी.)तथा सिमा कियान (145-90 बी.सी.) भारतीयों से परिचित थे। वे भी इन्हें 'सेन्धु का 'सिंधु से स्पष्ट संबंध देख सकते हैं। चीन से आज भी हमारा यह सांस्कृतिक या बौद्धिक संबंध बना रहता और कोई राजनीतिक द्वंद्व न खड़ा होता यदि बीच में तिब्बत का स्वतंत्र राष्ट्र बना रहता।
हमारी चीन के साथ सारी समस्या इसलिए खड़ी हो गई है कि इस तिब्बत पर चीन ने कब्जा कर लिया है और इसके साथ ही हमारी उत्तरी रक्षा प्राचीर (हिमालय की पर्वत श्र्रृंखला) भी चीन के कब्जे में चली गई। अब हमारी उत्तरी सीमा की रक्षा हिमालय से नहीं हमारे अपने शक्ति संतुलन से ही हो सकती है। अब यदि हमारी अकेली शक्ति इसके लिए काफी नहीं है तो हमें ऐसे गठबंधन बनाना चाहिए जिसकी संयुक्त शक्ति चीन की कुल शक्ति से अधिक हो।
अमेरिका और चीन का व्यापारिक संबंध बहुत पुराना है। चीन की वर्तमान उत्पादन व व्यापार की तकनीक भी कोई नई नहीं है। दूसरों की जरूरत समद्ब्राकर उनके लिए माल तैयार करना और उनके बाजार में छा जाना चीन का पुराना कौशल रहा है। अमेरिका के पहले लखपतियों की श्रृंखला उन्हीं की खड़ी हुई जो चीनी माल का व्यापार करते थे। 1784 में पहली बार चीन का एक व्यापारिक जहाज (इंप्रेस आफ चाइना) अमेरिका के कैंटम बंदरगाह पर उतरा था। इसके साथ ही चीन को एक शानदार बाजार मिल गया था। ऐसा नहीं कि अमेरिकियों व यूरोपियों ने भारत की तरह चीन पर कब्जा जमाने की कोशिश नहीं की लेकिन चीनी भारतीयों की तरह सहिष्णु और उदार नहीं थे। हमारे यहां कांग्रेस के गठन के करीब 14 वर्षों बाद 1899 में चीन एक संगठन बना जिसे अंग्रेज इतिहासकारों ने अंग्रेजी में 'सोसायटी आफ राइट एंड हार्मोनियस फिस्ट नाम दिया है। इस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्व रूप कह सकते हैं। इसका लक्ष्य था देश से यूरोपीय विदेशियों व ईसाई मिशनरियों को मार भगाना। इन्हें अंग्रेजों ने 'विद्रोही बाक्सर(बाक्सर रिबेलियन) की भी संज्ञा दी है। इस संगठन के लोगों ने वर्ष 1900 में बीजिंग पर हमला बोल दिया और वहां स्थित यूरोपीय देशों के 230 कूटनीतिज्ञों (डिप्लोमेट्स) व्यापारिक अधिकारियों व मिशनरी नेताओं को मार डाला। उन्होंने उन चीनी नागरिकों पर भी हमला कर दिया जो ईसाई बन गये थे। हजारों की संख्या में ऐसे धर्मांतरित चीनी ईसाई मार डाले गये। ऐसे हमलों ने चीन के भीतरी हिस्सों में यूरोपियनों व अमेरिकियों के पांव उखाड़ दिये। वे केवल समुद्रतटीय इलाकों में ही यत्र-तत्र रह सके। इसीलिए चीन यूरोपियनों का गुलाम होने से बच गया।
खैर, ये सब तो इतिहास की बातें हैं और यह इतिहास बहुत पीछे छूट चुका है, लेकिन हम इतिहास से बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमें अपने इतिहास से भी सबक सीखना चाहिए और दूसरों के इतिहास से भी। हमें अपने अहंकार में जीने के बजाए व्यावहारिक दृष्टिïकोण अपनाना चाहिए। हमें युद्ध के बारे में नहीं सोचना चाहिए किन्तु किसी भी तरह के युद्ध के खतरे के प्रति तैयार रहना चाहिए। यदि हमारा कोई पड़ोसी अधिक शक्तिशाली हो तो शांति से जीने के लिए एक शक्तिशाली मित्र मंडल बनाना चाहिए। हमें किसी दूसरे को दबाने की रणनीति नहीं अपनानी चाहिए लेकिन दूसरों के दबाव से बचने की रणनीति तो अवश्य अपनानी पड़ेगी, अन्यथा हम कुचल दिए जाएंगे।
भारत की चीन से कभी कोई निरपेक्ष मैत्री नहीं हो सकती, क्योंकि चीन एक विस्तारवादी देश है। एशिया में यदि शांति और शक्ति संतुलन को बनाए रखना है तो भारत और अमेरिका को एक मजबूत गठबंधन कायम करना ही होगा। आज की दुनिया में अमेरिका न तो अमेरिका तक सीमित रह कर जी सकता है, न भारत अपनी भारतीय सीमा में सीमित रह कर। इसलिए हमें एक ऐसी विश्व व्यवस्था कायम करने की जरूरत है जिसमें कोई भी देश बिना किसी दूसरे देश के मार्ग का रोड़ा बने विकास कर सके। ऐसा नहीं कि अमेरिका व यूरोप के देश बहुत दूध के धोए हैं। उन्होंने भी दूसरों की कीमत पर अपना विकास किया है। इसलिए उनको सीमा में रखने के लिए रूस और चीन जैसे देशों का विकास आवश्यक था। अब आज यदि चीन हमें दबाने की कोशिश कर रहा है तो हमें अमेरिका और यूरोप के साथ अपने रणनीतिक संबंध विकसित करने में गुरेज नहीं करना चाहिए। यही राजनीति का तकाजा है और यही समय की मांग भी है।

भारतीय विदेश नीति :एक अवलोकन

सन् 1950 के दशक के अंत तक भारतीय विदेश नीति और राजनय अंतरराष्ट्रीय मंच पर असाधारण रूप से सक्रिय और प्रभावशाली रहे थे। भारत नवोदित राज्य था और उसके आर्थिक और सैनिक संसाधन बड़ी शक्तियों की तुलना में नगण्य थे, तब भी गुटनिरपेक्षता का विकल्प सुझा कर भारत ने अफ्रीका और एशिया के देशों के बीच अपनी अलग खास पहचान बना ली थी। नेहरू-युगीन भारत साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध तीसरी दुनिया के संघर्ष में सहज भाव से नेता और पथ प्रदर्शक के रूप में प्रकट हो चुका था। आज आजादी के 65 वर्ष बाद हमारी स्थिति बहुत बदल गयी हैै। नेतृत्व-क्षमता की बात तो छोड़िए, इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक के अंत के बाद का भारत खुद अपनी संप्रभुता और एकता-अखंडता की रक्षा करने में असमर्थ लगता है। इसका दोष सिर्फ अप्रत्याशित रूप से बदले हुए अंतरराष्ट्रीय परिवेश को नहीं दिया जा सकता। विदेश नीति की असमर्थता और कुंठित राजनय का योगदान भी इसमें कम नहीं। सबसे पहले यह याद रखने की जरूरत है कि भारतीय विदेश नीति का श्रीहीन होना किसी एक व्यक्ति विशेष के निकम्मेपन के कारण या किसी एक घटना/दुर्घटना का परिणाम नहीं है। विचारधारा का अभाव और राष्ट्रहित को दूरदर्शी ढंग से परिभाषित करने के बाद कुछ मूल्यों को सामने रख कर लक्ष्य निर्धारित करने की चुनौती से मुंह चुराने के कारण ही यह दुर्दशा हुई है। जब से हमारी सरकार ने आंख मूंद कर आर्थिक सुधारों को अपनाया है और यह मान लिया है कि भूमंडलीकरण का कोई विकल्प नहीं है, तभी से समाजवादी अर्थात् समता-पोषक सपनों को तिलांजलि दे दी गयी है और भारतीय विदेश नीति अपने पथ से बुरी तरह भटक गयी है। आजादी के ठीक बाद से ही भारत ने आर्थिक विकास का जो तरीका अपनाया, वह सोवियत संघ के मॉडल पर आधारित केंद्रीय नियोजित विकास वाला था। भले ही मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर नेहरू की सरकार ने इसमें महत्वपूर्ण संशोधन किया और निजी क्षेत्र की भूमिका को कुछ नियंत्रणों के बाद स्वीकार किया, लेकिन कुल मिलाकर हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति का रुझान समता-पोषक समाजवादी ही रहा। यह रेखांकित करना जरूरी है कि भारत के संदर्भ में समाजवाद का अर्थ किसी भी तरह का साम्यवाद नहीं लगाया जाना चाहिए। नेहरू भले ही अंग्रेजी मिजाज के अंग्रेजपरस्त फेबियन सोशलिस्ट रहे हों, आम हिंदुस्तानी की नजर में समाजवाद का मतलब गरीबों की हिमायत करने वाली नीतियां ही थीं। यह स्थिति कमोबेश इंदिरा गांधी के शासनकाल में भी बनी रही। भले ही एकछत्र निरंकुश शासन की महत्वाकांक्षा के कारण उन्होंने अनेक लोक-लुभावन नारे और नीतियां प्रस्तावित कीं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या रजवाड़ों और शाही थैलियों का उन्मूलन, उनकी सरकार साफ-साफ वंचितों और उत्पीड़ितों के पक्ष में अपने को प्रतिष्ठित करने में लगी रही। इसे मात्र संयोग नहीं समझा जाना चाहिए कि श्रीमती गांधी के शासनकाल में ही भारत की विदेश नीति सर्वाधिक स्वाधीन रही और हमारा राजनय काफी असरदार। सन् 1971 में बांग्लादेश का उदय हो या सन् 1974 में पोखरण में आण्विक विस्फोट, अमेरिका जैसी महाशक्ति के निरंतर बढ़ते दबाव का उन्होंने बखूबी सामना किया। यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि भले ही सोवियत संघ के साथ इस पूरे दौर में भारत के रिश्ते घनिष्ठ मैत्री वाले रहे, इस दोस्ती की वजह से भारत ने कभी विकल्प चुनने की अपनी स्वाधीनता को बंधक नहीं बनने दिया। तत्कालीन सोवियत संघ और चीन के बीच संबंध तनावग्रस्त रहने के बावजूद हमने अपने संबंध क्रमशः सामान्य किये। इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उन दिनों भी अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य बेहद संकटग्रस्त था।दक्षिण-पूर्व एशिया में वियतनाम युद्ध चरम सीमा पर पहुंच चुका था और मध्य पूर्व का संकट कम विकट नहीं था। देश की आंतरिक स्थिति भी सन् 1969-71 के बीच नक्सलवादी विद्रोह के कारण और बाद में खालिस्तानी अलगाववाद के कारण जोखिमों से भरपूर थी। कुछ लोगों को आज भी यह बात याद होगी कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में बगावत पूरे उफान पर थी और एक बार जब इंदिरा गांधी मिजोरम में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं, गोली-बारी निरंतर जारी रही थी। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए यह बात भी समझी जा सकती है कि विदेश नीति और राजनय के क्षेत्र में तत्कालीन उपलब्धियां कितनी महत्वपूर्ण थीं। अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जा था और विश्व भारत के अपवाद को छोड़ उस महाशक्ति के खिलाफ खड़ा था। इन्हीं वर्षों में भारत ने फिलिस्तीनियों के साथ भाईचारा सार्थक ढंग से निभाया और यासिर अराफात और फीदेल कास्त्रो दोनों ही के साथ इंदिरा गांधी के रिश्ते आत्मीय और भारतीय राष्ट्रीय हितों के लिए लाभदायक रहे। इतिहास के इन पन्नों को इस घड़ी पलटना बेहद जरूरी है ताकि विदेश नीति और राजनय के क्षेत्र में विचारधारा और मूल्यों के सर्वोपरि महत्व को ठीक से समझा जा सके। इसके अभाव में समसामयिक भारतीय विदेश नीति और राजनय का मूल्यांकन असंभव है। राजीव गांधी के कार्यकाल में बदलाव शुरू हो चुका था। भले ही आज कुछ लोग इसका पूरा श्रेय गद्दीनशीन मनमोहन सिंह और कभी उनके संरक्षक रहे नरसिंह राव को ही देना चाहते हैं, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत को इक्कीसवीं सदी में ले जाने और इस देश में कॉरपोरेट तबके को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपने वाली परियोजना की रूपरेखा राजीव के काल में ही तैयार की गयी थी। यहां जोड़ने की जरूरत है कि इसके बावजूद राजीव के शासनकाल में विदेश नीति को भारत के राष्ट्रहित पर ही रखने का भरसक प्रयत्न किया गया। इसके कारण कभी-कभी भारतीय राजनय स्वरूप पड़ोसियों को उग्र, विस्तारवादी और आक्रामक तक नजर आने लगा था। श्रीलंका में पहले लिट्टे का प्रशिक्षण, फिर आईपीकेएफ दस्ते का भेजा जाना, नेपाल की नाकेबंदी, मालदीव में हस्तक्षेप इसी का उदाहरण है। राजीव को इस बात को पूरा एहसास था कि स्वदेश में वे निश्चंत शासन तभी कर सकते हैं जब अंतरराष्ट्रीय परिवेश अनुकूल हो। उन्होंने अपने नाना और माता के पदचिह्नों का अनुसरण इसीलिए किया कि अफ्रीका और एशिया की एक जैसी समस्याओं से जूझते देशों का संयुक्त मोर्चा कमजोर न होने पाये। इसीलिए उन्होंने "अफ्रीका फंड' की स्थापना की घोषणा की और छह राष्ट्रीय संवाद द्वारा नाभिकीय ऊर्जा विषयक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को समतापूर्ण बनाने का प्रयास भी किया। दुर्भाग्य से बोफोर्स घोटाले में बदनाम और पंगु होने के बाद राजीव को पदत्याग करना पड़ा और इसके बाद देश में अस्थिर मौकापरस्त सरकारों का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसमें विदेश नीति और राजनय की निरंतर उपेक्षा होती रही। कहने को इंदर कुमार गुजराल विदेश नीति के विशेषज्ञ और वामपंथ- साम्यवादी विचारधारा के समर्थक थे, लेकिन वास्तव में वे जमाने की चाल के साथ चलने वाले "सहयात्री' भर थे। विचारधारा उनके संदर्भ में हाथी के दिखावटी दांत जैसा ही मामला रही। जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली, तभी से अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने की प्रक्रिया तेज हो गयी। आज भले ही इसका पूरा श्रेय जसवंत सिंह अकेला लेना चाहते हों, लेकिन यह याद दिलाना बेहद जरूरी है कि अमेरिका के प्रति झुकाव और आर्थिक सुधारों को लागू कराने के काम नरसिंह राव ने ही शुरू कर दिया था। एक बार आर्थिक हितों का संयोग हो जाने के बाद सामरिक समीकरण खुद-ब-खुद बदलने लगे। यह भी साफ करने की आवश्यकता है कि जब हम आर्थिक हितों की बात करते हैं तो तात्पर्य भारत के आम आदमी के हित नहीं, बल्कि ताकतवर उद्यमियों के तबके के हितों से हैं। भूमंडलीकरण का तर्क जिन हितों के साम्य की बात करता है, उनके बारे में भी यह बात लागू होती है।इसी सबका नतीजा है कि आज भारत की विदेश नीति या तो गतिरोध से ग्रस्त, लाचार या एक ऐसे भंवर में फंसी दिखलाई देती है जो उसे रसातल के गर्त तक ही पहुंचा सकती है। आज भारत बहुत सारे फैसले अमेरिकी विदेश विभाग के दबाव में लेता नजर आता है। यह बात सिर्फ ईरान-बनाम इजरायल तक सीमित नहीं। फिलिस्तीनियों को हम पूरी तरह भुला चुके हैं और अफ्रीका महाद्वीप भी हमें नक्शे में दिखलाई देना बंद हो चुका है। अमेरिकियों के अफगानिस्तान से बेआबरू होकर वापस लौटने के बाद उनके हितों की रखवाली के लिए उस जानलेवा दलदल में धंसने-फंसने के लिए आज भारत उतावला हो रहा है। अमेरिकी नेताओं और खाद्य विश्लेषकों ने भारत को एक घातक मरीचिका में फंसा दिया है। हमें यह बताया जा रहा है कि हम एक उदीयमान शक्ति हैं और हमें बड़ी शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप जिम्मेदारी और खर्च का बोझ स्वीकार करना ही होगा।अफ-पाक मोर्चे पर भारत की गर्दन में फंदा पहनाने के लिए तो भारत अमेरिका को उदीयमान शक्ति नजर आता है, लेकिन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता या परमाणविक हथियारों के स्वामित्व के संदर्भ में भारत की टेक्नोलॉजी के हर प्रयास को बाधित करने के हर संभव प्रयास करता रहा है। इसी का नतीजा है कि भूमंडलीकरण के बहाने अपना माल तो अमेरिका भारत के बाजारों में भेजता रहा है और अब खुदरा व्यापार पर कब्जा करना चाहता है, लेकिन भारतीय उत्पाद सेवाओं और कारीगरों-इंजीनियरों पर कड़े नाजायज प्रतिबंध लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ता।यह बात अमेरिका तक ही सीमित नहीं। चीन ने (जो खुद भूमंडलीकरणवादी व्यवस्था का कट्टर विरोधी है) अनायास भारत का पहले नंबर का आर्थिक साझेदार बनने में सफलता हासिल कर ली है। आज स्थिति यह है कि हमारे प्रधानमंत्री यह फरमाने लगे हैं कि यदि चीन हमारी सीमा का अतिक्रमण करता भी है तो इसे ठंडे दिमाग से विचारकर अनावश्यक तूल नहीं देना चाहिए क्योंकि उस देश के साथ हमारे आर्थिक रिश्ते सीमा विवाद से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो चुके हैं। भारत ने पूरब की ओर देखने की जब पहल की थी, आज उसकी किसी को याद नहीं रह गयी है। और न ही उस गैस-तेल पाइप लाइन की, जिसके बारे में कभी यह कहा जाता था कि जब यह आजरबाइजान- ईरान से बरास्ता अफगानिस्तान-पाकिस्तान भारत तक पहुंचेगी, तो हमारी ऊर्जा सुरक्षा सुदूर भविष्य तक सुरक्षित हो जायेगी। इसी के लिए साइबेरिया में साखालिन में अरबों डॉलर का निवेश भारत सरकार ने ओएनजीसी के जरिये किया था।जबसे मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार दांव पर लगा कर अमेरिकी सरकार के साथ परमाणविक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग वाले करार पर हस्ताक्षर किये, तभी से हमारा ऊर्जा राजनय भी मृतप्राय हो गया है। जब अमेरिका अपने सामरिक हितों के दबाव में अच्छे और बुरे तालिबान में फर्क करने लगता है, तब अचानक हिंदुस्तान को अपने अकेले छूट जाने का एहसास होता है। यह बात जाहिर होती है कि अमेरिका ने दहशतगर्दी के खिलाफ जो जंग छेड़ने का ऐलान किया था उसकी असलियत क्या थी? यानी आर्थिक विकास का पूंजीवादी रास्ता चुनने के बाद भी हम अमेरिका के सहोदर-सगे, अपने नहीं बन सके। हमारे जैसा गरीब देश वास्तव में पूंजीवादी हो भी कैसे सकता है? देश में संपन्न तबका बहुत सीमित शासक वर्ग ही है। वर्तमान विदेश नीति और आंतरिक नीतियां व्यापक राष्ट्रहित में नहीं समझी जा सकतीं। यह सिर्फ अदूरदर्शी ही नहीं, तात्कालिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकती। पड़ोस की तमाम हलचल को अनदेखा कर हमारी विचारधारा के बोझ से मुक्त नीति निर्धारकों की निगाहें दूरस्थ क्षितिज पर ही टिकी रहती हैं। नेपाल, बांगलादेश, म्यांमार या मालदीव, सभी जगह भारतीय विदेश नीति तथा राजनय लकवाग्रस्त दिखाई दे रहा है।भारत की संप्रभुता का जिस तरह अवमूल्यन हुआ है वह भी शर्मनाक है। नॉर्वे में भारतीय दंपती से उनके बच्चे छीनना हो या इटली के जहाज पर सवार निशानेबाजों द्वारा केरल के मछुआरों को मार गिराना, सब यही दर्शाते हैं कि ढुलमुल, मौकापरस्त आचरण के क्या दुष्परिणाम होते हैं। इसके पहले भी ऑस्ट्रेलिया में या ब्रिटेन में नस्लवादी हिंसा के शिकार भारतीय नागरिकों को न्याय दिलाने में हमारी सरकार असमर्थ रही। यह स्थिति अकस्मात पैदा नहीं हुई है। इसके लिए सर्वोच्च नेतृत्व की उदासीनता और पेशेवर राजनयिकों की बिरादरी में रीढ़ की हड्डी का अभाव जिम्मेदार है।

राजनैतिक षड्यंत्र का सिद्धांत:एक विवेचन

षड्यंत्र का सिद्धांत एक ऐसा शब्द है, जो मूलत: किसी नागरिक, आपराधिक या राजनीतिक षड्यंत्र के दावे के एक तटस्थ विवरणक के लिए उपयोग किया जाता है. हालांकि, यह बाद में काफी अपमानजनक हो गया और पूरी तरह सिर्फ हाशिये पर स्थित उस सिद्धांत के लिए प्रयुक्त होने लगा, जो किसी ऐतिहासिक या वर्तमान घटना को लगभग अतिमानवीय शक्ति प्राप्त और चालाक षड़यंत्रकारियों की गुप्त साजिश के परिणाम के रूप में व्याख्यायित करता है.
षड्यंत्र के सिद्धांत को विद्वानों द्वारा संदेह के साथ देखा जाता है, क्योंकि वह शायद ही किसी निर्णायक सबूत द्वारा समर्थित होता है और संस्थागत विश्लेषण के विपरीत होता है, जो सार्वजनिक रूप से ज्ञात संस्थाओं में लोगों के सामूहिक व्यवहार पर केंद्रित होती है और जो ऐतिहासिक और वर्तमान घटनाओं की व्या‍ख्या के लिए विद्वतापूर्ण सामग्रियों और मुख्यधारा की मीडिया रपटों में दर्ज तथ्यों पर आधा‍रित होती है, न कि घटना के मकसद और व्यक्तियों की गुप्त सांठगांठ की कार्रवाइयों की अटकलों पर.
इसलिए यह शब्द अक्सर हल्के रूप से एक विश्वास को चित्रित करने के प्रयास के रूप में प्रयुक्त होता है, जो विचित्र तरह का झूठ हो और सनकी के रूप में चिह्नित किये हुए या उन्मादी प्रकृति के लोगों वाले समूह द्वारा व्यक्त किया गया हो. इस तरह का चित्रण अपने संभावित अनौचित्य और अनुपयुक्तता के कारण अक्सर विवाद का विषय होता है.
राजनी‍ति वैज्ञानिक माइकल बारकुन के मुताबिक षड्यंत्र के सिद्धांत कभी हाशिये पर या कुछ थोड़े लोगों तक सीमित होते थे, पर अब जनप्रचार माध्यमों के लिए आम हो गये हैं. वे तर्क देते हैं कि इसने षड्यंत्रवाद की अवधारणा पैदा होने में योगदान दिया, जो 20 वीं सदी के आखिर और 21 वीं सदी के प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में सांस्कृतिक घटना के रूप में उभरा और जनता के मन में राजनीतिक कार्रवाई के प्रभावी प्रतिमान के रूप में लोकतंत्र के संभावित प्रतिस्थापन के रूप में साजिश को माना गया. मानवविज्ञानी टॉड सैंडर्स और हैरी जी वेस्ट के मुताबिक "सबूत से पता चलता है कि आज अमेरिकियों का एक व्यापक वर्ग ..... षड्यंत्र के कम से कम कुछ सिद्धांतों को सही मानता है." इसलिए षड्यंत्र के सिद्धांतों में विश्वास समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और लोककथाओं के विशेषज्ञों की रुचि का एक विषय हो गया है.
इस अर्थ में "सिद्धांत" शब्द कभी-कभी मुख्यधारा के वैज्ञानिक सिद्धांत के बजाय "अटकल" या "प्राक्कल्पना" के रूप में ज्यादा अनौपचारिक माना जाता है. इसके अलावा साजिश शब्द आम तौर पर शक्तिशाली चेहरों, अक्सर उन प्रतिष्ठानों के लिए प्रयुक्त होता है, जिनपर एक बड़ी जनसंख्या को धोखा देने का विश्वास किया जाता है, जैसे राजनीतिक भ्रष्टाचार. हालांकि कुछ षड्यंत्र वास्तव में सिद्धांत नहीं होते, लेकिन वे अक्सर आम जनता द्वारा इस रूप में चिह्नित कर दिये जाते हैं."षड्यंत्र का सिद्धांत" शब्द सिविल, आपराधिक या राजनीतिक साजिश के किसी वैध या अवैध दावे के लिए एक तटस्थ सूत्रधार हो सकता है. षड्यंत्र करने का मतलब है, "किसी अवैध या गलत कार्य को पूरा करने के लिए एक गुप्त समझौता करना या किसी वैध मकसद को हासिल करने के लिए ऐसे तरीकों का उपयोग करना."  हालांकि, षड्यंत्र के सिद्धांत का प्रयोग एक वर्णनात्मक विधा की ओर इंगित करने के लिए भी होता है, जिसमें बड़े षड्यंत्रों के अस्तित्व के लिए व्यापक तर्कों (जरूरी नहीं कि संबंधित हों) का एक गड़ा चयन शामिल हो.
"षड्यंत्र के सिद्धांत" वाक्यांश का पहला दर्ज उपयोग 1909 से दिखता है. मूलतः यह एक तटस्थ शब्द था, लेकिन 1960 के दशक में हुई राजनीतिक उठापटक के बाद इसने अपने वर्तमान अपमानजनक अर्थ को धारण किया.ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में यह 1997 के आखिर में पूरक के रूप में शामिल हुआ.
"षड्यंत्र सिद्धांत" शब्द विद्वानों और लोकप्रिय संस्कृतियों द्वारा "लोगों" से ताकत, पैसा या आजादी का "हरण करने" के मकसद से की गईं गुप्त सैन्य, बैंकिंग, या राजनीतिक कार्रवाइयों की पहचान के लिए बार बार प्रयोग किया जाता रहा है. कम प्रचलित अर्थ में यह लोककथा और शहरी इतिहास कथा व विविध तरह के व्याख्यात्मक किस्म के कथोपकथन के रूप में प्रयुक्त होता है, जो पौराणिक कथाओं से जुड़े होते हैं. यह शब्द इन दावों को स्वत: खारिज करने के अपमानजनक अर्थ में भी इस्तेमाल होता है, जो हास्यास्पद, नासमझीपूर्ण, पागलपन भरा, निराधार, विचित्र या अतार्किक हो. उदाहरण के लिए "वाटरगेट षड्यंत्र सिद्धांत" शब्द आम तौर पर स्वीकृत अर्थ के लिए नहीं होता है, जिसमें वास्तव में कई प्रतिभागियों को षड्यंत्र के चलते दोषी ठहराया गया और दूसरों को आरोप दर्ज करने से पहले ही माफ़ कर दिया गया, बल्कि इसका वैकल्पिक और अतिरिक्त सिद्धांतों वाले अर्थ के लिए किया जाता है जैसे ये दावे कि "डीप थ्रोट" कहा जाने वाला सूचना स्रोत (स्रोतों) गढ़ा हुआ था.
"एडेप्टेड फ्रॉम ए स्टडी प्रिपेयर्ड फॉर सीआईए" नामक अपने प्रारंभिक लेख में डैनियल पाइप्स ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया, जो 'मानसिकता षडयंत्र' को विचारों के अधिक पारंपरिक पैटर्न से अलग करने में विश्वास जताता है. उन्होंने इसे इस रूप में परिभाषित किया: जो दिखता है, वह धोखा है; षड्यंत्र इतिहास को संचालित करता है; कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है, दुश्मन हमेशा ताकत, शोहरत, पैसा और सेक्स हासिल करता है. 
वेस्ट और सैंडर्स के अनुसार जब वियतनाम युग में षड्यंत्र के बारे में बात की जा रही थी तो पाइप्स ने इसमें हाशिये पर पड़े तत्वों को इस सोच को शामिल किया कि षड्यंत्रों ने प्रमुख राजनीतिक घोटालों और हत्याओं में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसने वियतनाम युग में अमेरिकी राजनीति को हिला दिया. "वह उत्पीड़न के किसी भी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक या सामाजिक-वैज्ञानिक विश्लेषण में उन्मादी शैली को देखते है
प्रकार.......
राजनी‍ति वैज्ञानिक माइकल बारकुन ने चौड़ाई के आरोही क्रम में षड्यंत्र के सिद्धांतों को श्रेणीबद्ध किया है, जो इस प्रकार हैं:
  • घटनात्मक षड्यंत्र के सिद्धांत. षड्यंत्र एक सीमित, अलग घटना या या घटनाओं के समूह के लिए जिम्मेदार होता है. षड़यंत्रकारी शक्तियों को कथित तौर पर अपनी ऊर्जा एक सीमित व अच्छी तरह से परिभाषित उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करना होता है. हाल के भूतकाल में ज्ञात सबसे अच्छा उदाहरण है कैनेडी की हत्या के षड्यंत्र का साहित्य.
  • प्रणालीगत षड्यंत्र के सिद्धांत. माना जाता है कि इस तरह की साजिश में लक्ष्य व्यापक होता है, आमतौर पर इसमें एक देश का नियंत्रण, एक क्षेत्र या यहां तक कि सारी दुनिया हासिल करने की कल्पना की जाती है. हालांकि लक्ष्य बहुत बड़ा होता है, पर आम तौर पर षड्यंत्रकारी मशीनरी सरल होती है: एक एकल, अनिष्टकारी संगठन को मौजूदा संस्थानों में घुसपैठ और उसके विनाश की योजना बनानी पड़ती है. यह उन षड्यंत्र के सिद्धांतों में आम बात है, जिनमें अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद या अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादियों के आधार पर बने सिद्धांतों के साथ यहूदियों, गुप्त सभा के सदस्यों, दिव्य शक्तियों वाले समुदायों के कथित शासन तंत्रों पर ध्यान केंद्रित रखा जाता है.
  • अतिषड्यंत्र के सिद्धांत उस षड़यंत्रपूर्ण तानेबाने, जिसमें ऐसा विश्वास किया जाता है कि कई षड्यंत्रों को एक साथ पदानुक्रम रूप से जोड़ा गया है. घटना और प्रणाली एक जटिल तरीके से शामिल हो गए हैं, इसलिए षड्यंत्रों को एक साथ गूंथा जा सके. षड्यंत्रपूर्ण पदानुक्रम की शिखर बैठक दूर होती है, लेकिन सभी शक्तिशाली अनिष्टकारी ताकतें कम षड़यंत्रपूर्ण कर्ताओं को नियंत्रित करती है. अतिषड्यंत्र के सिद्धांतों को 1980 के दशक के बाद से जिम मार्स, डेविड आइक और मिल्टन विलियम कूपर जैसे लेखकों के कार्य के बाद विशेष रूप से वृद्धि हासिल हुई.      
षड्यंत्रवाद......
एक वैश्विक विचार षड्यंत्र के सिद्धांतों को केंद्रित रूप में इतिहास में कभी-कभी "षड्यंत्रवाद" के रूप में दर्ज करता है. इतिहासकार रिचर्ड होफ्सटैडटर 1964 में प्रकाशित द पैरानॉयड स्टाइल ऑफ अमेरिकन पॉलिटिक्स नाम के निबंध में पूरे अमेरिकी इतिहास में व्यामोह और षड्यंत्रवाद की भूमिका की चर्चा की है. बर्नार्ड बेलिन की शास्त्रीय पुस्तक द आइडियोलॉजिकल ओरिजिन्स ऑफ अमेरिकन रिवोल्युशन (1967) में कहा गया है कि इस तरह की अवधारणा अमेरिकी क्रांति के दौरान पायी जा सकती है. तब षड्यंत्रवाद लोगों के नजरिये और साथ ही षड्यंत्र के सिद्धांतों के उन प्रकारों को चिह्नित करता है, जो अनुपात में ज्यादा वैश्विक और ऐतिहासिक हैं.षड्यंत्रवाद शब्द 1980 के दशक में शिक्षाविद फ्रैंक पी. मिंट्ज द्वारा लोकप्रिय किया गया. षड्यंत्र के सिद्धांतों और षड्यंत्रवाद के संबंध में शैक्षणिक कार्य से विधा के अध्ययन के आधार के रूप में अंशोद्धरण (हाइपोथिसिस) की एक व्यापक श्रेणियां पेश की जा सकी हैं. षड्यंत्रवाद के अग्रणी विद्वानों में शामिल हैं: होफ्सटैडटर, कार्ल पॉपर, माइकल बारकुन, रॉबर्ट एलन गोल्डवर्ग, डैनियल पाइप्स, मार्क फेंस्टर, मिंट्ज, कार्ल सैगन, जॉर्ज जॉनसन और गेराल्ड पोसनर.
मिंट्ज के अनुसार षड्यंत्रवाद एक संकेतक है: "खुले इतिहास में षड्यंत्रों की प्रधानता में विश्वास.":
"षड्यंत्रवाद अमेरिका और अन्य जगहों में विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक समूहों की जरूरत को पूरा करता है. यह संभ्रांत वर्ग की पहचान करता है, उन्हें आर्थिक और सामाजिक महाविपत्ति के लिए दोषी ठहराता है और मानता है कि एक बार लोकप्रिय कार्रवाई के जरिये उन्हें सत्ता के पदों से हटाया जाता तो हालात कुछ अच्छे हो सकते थे. जैसे, षड्यंत्र के सिद्धांत एक खास युगकाल या विचारधारा के प्रकार नहीं बताते."
पूरे मानव इतिहास के दौरान राजनीतिक और आर्थिक नेता सचमुच भारी संख्या में मौतों और आपदा के कारण बने हैं और वे कभी-कभी एक ही समय में अपने लक्ष्यों के बारे में षड्यंत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा देने में शामिल हुए हैं.हिटलर और स्टालिन सबसे प्रमुख् उदाहरणों में से हैं ; अन्य सारे उदाहरण भी हैं. कुछ मामलों में दावों को षड्यंत्र के सिद्धांत कहकर खारिज कर दिया गया, पर बाद में वे सही साबित साबित हुए. इस विचार कि इतिहास खुद बड़े दीर्घावधि तक चले षड्यंत्रों द्वारा नियंत्रित है, को इतिहासकार ब्रूस क्यूमिंग्स द्वारा अस्वीकार कर दिया गया:
"लेकिन अगर षड्यंत्र मौजूद हैं, वे शायद ही कभी इतिहास को बदलते हैं; वे समय-समय पर सीमांत पर फर्क ला सकते हैं, लेकिन उनके रचनाकारों के नियंत्रण के बाहर एक तर्क के अप्रत्याशित परिणामों के साथ: और यही 'षड्यंत्र सिद्धांत' के साथ गलत बात है. इतिहास मानव समूहों की बड़ी ताकतों और व्यापक संरचनाओं द्वारा बदला जाता है." 
षड्यंत्रवाद शब्द का उपयोग माइकेल केली, चिप बर्लेट और मैथ्यू एन. लियोंस के लेखन में हुआ है.
बर्लेट और लियोंस के अनुसार, "षड्यंत्रवाद बलि का बकरा बनाने का एक खास वृतांतात्मक रूप है, जो पैशाचिक दुश्मनों को एक आम तौर पर भले कार्य के खिलाफ बड़ी आंतरिक साजिश में फंसाता है, जबकि यह बलि के उस बकरे को खतरे की घंटी बजाने वाले वाले नायक के रूप में आंकता है." 
आलोचना......
षड्यंत्र के सिद्धांत शिक्षाविदों, राजनेताओं और प्रचार माध्यमों द्वारा व्यापक आलोचना का विषय है.
शायद षड्यंत्र के सिद्धांत का सबसे विवादास्पद पहलू किसी विशेष सिद्धांत के सच को उजागर करने की समस्या है, जिससे इसे रचने वाले और इसका विरोध करने वाले दोनों संतुष्ट हो सकें. षड्यंत्र के कुछ खास आरोप काफी अलग-अलग हो सकते है, लेकिन उनकी संभावित सत्यवादिता के आकलन के लिए प्रत्येक मामले में लागू कुछ आम मानकों को लागू कर सकती है.
  • ओकैम रेजर- क्या वैकल्पिक कहानी मुख्यधारा की कहानी की तुलना में अधिक सबूतों की व्याख्या करता है या यह अधिक जटिल है और इसलिए उसी सबूत का कम उपयोगी स्पष्टीकरण पेश करता है?
  • तर्क- जो सबूत पेश किये गये हैं, क्या वे तर्क के नियमों का पालन करते है या वे सिर्फ तर्क का भ्रम पैदा करते हैं?
  • क्रियाविधि - क्या तर्क के लिए पेश किये गये सबूत सुगठित, जैसे ध्वनि क्रियाविधि का उपयोग, हैं? क्या कोई स्पष्ट मानक है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि कौन सा सबूत सिद्धांत को साबित करेगा या उसका खंडन करेगा?
  • बिगुल बजाने वाले - कितने और किस तरह के लोग वफादार षड्यंत्रकर्ता हैं? कथित षड्यंत्र अगर बड़े दायरे वाला और व्यापक है तो इसे अंजाम देने के लिए अधिक से अधिक संख्या में लोगों की जरूरत होगी.- क्या यह विश्वसनीय है कि इसमें शामिल किसी ने भी मामले को प्रकाश में नहीं लाया?
  • असत्यता - क्या यह निर्धारित करना संभव है कि सिद्धांत के कुछ खास दावे गलत हैं, या उन्हें "असत्य साबित नहीं किया जा सकता?"
संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिष्ठान के शैक्षिक आलोचक नोम चोमस्की षड्यंत्र के सिद्धांत को कम या अधिक संस्थागत विश्लेषण के विपरीत रखा है, जो व्यक्तियों के गुप्त साठगांठ के बदले मुख्यत: जनता, सार्वजनिक रूप से ज्ञात संस्थाओं के दीर्घावधि व्यवहार व मुख्यधारा की मीडिया रपटों पर ज्यादा केंद्रित होती है.
विवाद........
विवाद किन्हीं खास षड़यंत्रपूर्ण दावों की खूबियों से पैदा विवादों से अलग षड्यंत्र के सिद्धांत की आम चर्चा स्वयं कुछ सार्वजनिक सहमति का एक मामला है.
विभिनन पर्यवेक्षकों द्वारा "षड्यंत्र सिद्धांत" शब्द को एक षड्यंत्रपूर्ण दावे का निष्पक्ष वर्णन करार किया गया है, जो एक अपमानजनक शब्द है, जिसका प्रयोग इस तरह के दावे को बिना परीक्षा के खारिज करने के लिए किया जाता है और इस तरह के दावे को बढ़ावा देने वालों द्वारा सकारात्मक समर्थन देने का संकेत करने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. कुछ लोगों द्वारा इस शब्द का प्रयोग वैसे तर्क के लिए किया जा सकता है, जिन पर वे पूरी तरह विश्वास नहीं करते, लेकिन इसे परिवर्तनमूलक और रोमांचक मानते हैं. इस शब्द का सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत अर्थ वह है, जो लोकप्रिय संस्कृति और शैक्षणिक उपयोग के चलन में है और निश्चित रूप से इसका वक्ता की संभावित सत्यवादिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
इंटरनेट पर षड्यंत्र के सिद्धांत अक्सर "हाशिये पर स्थित" समूह बताकर खारिज कर दिये जाते है, लेकिन सबूत से पता चलता है कि आज अमेरिकियों का एक बड़ा हिस्सा, भले ही वे किसी भी जातीय, लिंग, शिक्षा, पेशा और अन्य समूहों के हों- कम से कम कुछ षड्यंत्र सिद्धांतों को विश्वसनीय मानते हैं.
इस शब्द के लोकप्रिय अर्थ को देखते हुए भी इनका वास्तव में ठोस और पूरे सबूतों वाले आरोपों को खारिज करने के साधन के रूप में अवैध रूप से और अनुपयुक्त प्रयोग किया जा सकता है. इसलिए ऐसे हर उपयोग की वैधता कुछ विवादों का विषय होगी. 1996 में माइकल पारेंटी लिखे गये अपने निबंध "द जेकेएफ एसेसिनेशन 2: कांसपिरेसीफोबिया ऑन द लेफ्ट", जिसमें इस शब्द के उपयोग में प्रगतिशील मीडिया भूमिका की परख की गई है, में लिखा गया है,
"यह या तो वाम दलों की दुनिया के लिए है, जो किसी भी तरह की साजिश की जांच से बचने को प्रश्रय देते हैं : आपका राजनीति के प्रति वास्तुवादी दृष्टिकोण हो सकता है या एक 'षड्यंत्रवादी' के रूप में, जो ऐतिहासिक घटनाओं को एक गुप्त दल की दुरभिसंधि तक सीमित कर देते हैं और परिणामस्वरूप हम एक बड़े प्रणालीगत बलों को आंखों से ओझल कर देते हैं." 
वास्तुवादी और संस्थागत विश्लेषण से पता चलता है कि इस शब्द का तब दुरुपयोग किया जाता है, जब वह उन संस्थाओं पर लागू होता है, जो अपने स्वीकृत लक्ष्यों के अनुसार कार्य कर रहे हैं, जैसे मुनाफे में वृद्धि के लिए जब निगमों का एक समूह के मूल्य को स्थिर करने में संलग्न होता है.
यूएफओ जैसी अवधारणाओं के लिए जटिलताएं आ सकती हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है " अनआइडेंटीफायड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट", लेकिन इसका अर्थ एक विदेशी अंतरिक्ष यान के साथ भी जुड़ा हुआ है, जो अवधारणा षड्यंत्र के कुछ सिद्धांतों से जुड़ी हुई है और इस तरह यह कुछ खास सामाजिक कलंक से भी जुड़ा होता है. माइकल पारेंटी इस शब्द के प्रयोग का एक उदाहरण देते हैं, जो इसके खुद के प्रयोग में परस्पर विरोधी दिखता है. वे लिखते हैं,
"अपने अधिकतर ऑपरेशनों में, सीआईए एक साजिश की परिभाषा को गुप्त कार्यों और गुप्त योजनाओं के प्रयोग के रूप में ग्रहण करती है, जिनमें से कई सबसे विवादास्पद होते हैं. अगर षड्यंत्र नहीं है तो गुप्त आपरेशन का क्या मतलब हैं? इसी समय, सीआईए एक संस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा का एक संरचनात्मक हिस्सा है. संक्षेप में, एजेंसी एक संस्थागत षड्यंत्र है."
"षड्यंत्र सिद्धांत" शब्द खुद षड्यंत्र सिद्धांत का एक प्रकार का विषय है, जो यह तर्क देता है कि शब्द का प्रयोग चर्चा के विषय के प्रति दर्शकों के उपेक्षा भाव में जोड़-तोड़ करने के लिए किया जाता है, या तो सच को छुपाने के जानबूझकर किये गये प्रयास के रूप में या जानबूझकर की गई साजिश के छलावे के रूप में.
जब षड्यंत्र के सिद्धांतों को आधिकारिक दावों (एक सरकारी प्राधिकारण से पैदा, जैसे एक खुफिया एजेंसी) के रूप में पेश किया जाता है, तो उन्हें आम तौर पर षड्यंत्र के सिद्धांत के रूप में विचार नहीं किया जाता. उदाहरण के रूप में हाउस अन-अमेरिकन एक्टीविटिज कमेटी की कुछ तय गतिविधियों को षड्यंत्र सिद्धांत को बढ़ावा देने की आधिकारिक कोशिश कहा जा सकता है, हालांकि शायद ही कभी इसके दावों को इस रूप में संदर्भित किया जाता है.
आगे इस शब्द के सिद्धांत की अस्पष्टता से कठिनाइयां पैदा होती हैं. लोकप्रिय उपयोग में, इस शब्द का अक्सर निराधार या कमजोर तथ्यों पर आधारित अटकलों के रूप में उल्लेख किया जाता है, जिससे य‍ह विचार उभरता है कि "अगर यह वास्तव में सच है तो यह एक षड्यंत्र का सिद्धांत नहीं है."
षड्यंत्रवाद का अध्ययन......
1936 में अमेरिकी टीकाकार एच. एल. मेनकेन ने लिखा:
हर मूर्ख का केंद्रीय विश्वास है कि वह अपने आम अधिकारों और वास्तविक योग्यता के खिलाफ एक रहस्यमय साजिश का शिकार है. वह दुनिया में कुछ पाने में विफलता, अपनी जन्मजात अक्षमता और घोर मुर्खता को वाल स्ट्रीट में लगाये गये वेयरवोल्व्स की योजना, या अप्रसिद्धि के कुछ दूसरे अड्डों को उत्तरदायी ठहराता है. 
कम से कम 1960 के दशक के बाद से षड्यंत्र के सिद्धांतों में विश्वास समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और लोककथाओं के विशेषज्ञों के लिए रुचि का एक विषय बन गया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या के बाद अंततः वॉरेन आयोग की रिपोर्ट में दर्ज तथ्यों के आधार पर मामले के सरकारी संस्करण के खिलाफ जनता की एक अभूतपूर्व प्रतिक्रिया आई.

लोकतन्त्र बनाम कोटातन्त्र:एक नजर


आज की राजनीति कुछेक ऐसे सिद्धांतों से शासित हो रही है जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांत से अंतर्विरोध रखते हैं. इसमें से एक महत्वपूर्ण अभिलक्षण कोटे का अधिकाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था में जरूरी होते जाना है. 
 संवैधानिक क्रांति हो रही है. यह लंबे समय से जारी है, किंतु इसकी सच्चाई की परतें अब खुल रही हैं. एक नई तरह की हुकूमत शक्ल ले रही है. शासन प्रणालियों के विभिन्न प्रकारों के जानकार, जैसे प्लेटो, अरस्तू, कौटिल्य और मेडिसन तक को इसकी समझ नहीं थी. नई शासन प्रणाली एकल राजतंत्र, राजशाही, जनतंत्र या फिर लोकतंत्र से भिन्न है. यह है कोटातंत्र! परमानंद का अनुभव कीजिए कि इसका उदय हो चुका है........
 कोटातंत्र के सिद्धांतों को बड़ी सावधानी से समझना होगा. यह लोकतंत्र से उपजते हैं और इसमें गड्डमड्ड हो जाते हैं. किंतु गलती न करें. कोटातंत्र इससे अलग है. लोकतंत्र में चुनाव की अहमियत होती है. वोटर जिसे चाहें चुन सकते हैं. कोटातंत्र में मतदाता विशिष्ट वर्ग में से किसी को चुन सकता है. लोकतंत्र में आम इच्छाशक्ति संभव है. कोटातंत्र में विशिष्ट अर्थ और हित होते हैं जैसे पुरुष के लिए पुरुष, महिला के लिए महिला, जाति के लिए जाति. इस तरह इसमें एक आम धारणा असंभव है.
 मोंटेस्क्यू ने कहा है, ‘प्रत्येक हुकूमत का एक सिद्धांत होता है, जो इसे सर्वश्रेष्ठ रूप में कायम रखता है.’ तानाशाही में यह पहलू भय है, अभिजात्य शासन में मान-सम्मान है और जनतंत्र में श्रेष्ठ गुण हैं. कोटातंत्र का अपना खुद का सिद्धांत हैं-शिकार. इसके बिना कोटातंत्र का अस्तित्व ही नहीं है. नए दावों की व्यापकता प्रताड़ना का बखान है. प्रतिस्पर्धा की धुरी भी बलिदान है. जो इसे हासिल नहीं कर पाते वे व्यथित हैं. लोकतंत्र कभी-कभी अन्याय के निवारण का अपवाद भी पेश करता है. कोटातंत्र में अपवाद ही मानदंड है. अन्य पिछड़ा वर्ग खुद के लिए कोटा चाहता है, लेकिन महिलाओं के लिए नहीं. महिलाएं अपने लिए कोटा चाहती हैं, लेकिन अन्य पिछड़ा जातियों के लिए नहीं. कोई भी  मुसलमानों के लिए कोटा नहीं चाहता. कुछ कहते हैं, ‘महिलाओं को कोटे की क्या आवश्यकता है? पार्टी इन्हें टिकट क्यों नहीं देती हैं?’ किंतु कोटातंत्र में यह सवाल वैधानिक नहीं है. हालांकि जो लोग इस सवाल की वैधानिकता से इनकार करते हैं, वही जब उपकोटे की बात करते हैं, तो इसे तर्क को अपनी दलील बनाते हैं कि ‘कोटे के तहत ओबीसी महिलाओं को टिकट क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?’ किंतु इस पाखंड से भ्रमित न हों. पाखंड केवल लोकतंत्र में विद्यमान रहता है, जहां सच्चाई आदर्श से मेल नहीं खाती.
 लोकतंत्र में वाम और दक्षिण, स्वतंत्रता व समता, पंथनिरपेक्षता व धार्मिकता में विचारधारात्मक अंतरविरोध होता है. कोटातंत्र में सर्वसम्मति होती है. वाम, दक्षिण और मध्य के तमाम विरोध कोटातंत्र में खत्म हो जाते हैं. जो कोटे का विरोध करते हैं उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. कोटातंत्र की न्याय की अपनी ही अवधारणा है. यह समता या योग्यता, या उचित नहीं है. यह सीधे-सीधे अंकगणित है. 33 प्रतिशत इधर, 22 प्रतिशत उधर, 55 प्रतिशत में शेष सभी. और चूंकि अंकगणित में उलझाया जा सकता है, इसलिए इसमें घालमेल और उपविभाजन का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. सामान्य कोटा न्याय के अनुरूप है. लोकतंत्र में ‘आप कहां से आए हैं’ से महत्वपूर्ण है ‘आप कहां जा रहे हैं’. यह अस्मिता पर कम से कम निर्भरता को वैध रूप से न्यायोचित ठहराता है. जबकि कोटातंत्र में इसका उलटा होता है. यह अस्मिता व पहचान पर निर्भरता को कानूनी मान्यता देता है.
 लोकतंत्र व्यक्तित्व को पुरस्कृत करता है, कोटातंत्र सामूहिक सोच को. कोटातंत्र आरोपित किया जाता है. जिस तरह राष्ट्र आपको प्रमाणपत्र देता है, आपको उसी रूप में जाना जाता है-एससी, एसटी या ओबीसी. आप यही हो सकते हैं, इसके बिना कुछ नहीं. लोकतंत्र सत्ता को पहचान देने में संकोची होता है. कोटातंत्र राष्ट्र की शक्तियों के इस्तेमाल से नई पहचान कायम करता है. कोटातंत्र में सत्ता का नया प्रथक्किरण है. ओबीसी को नौकरियों व शिक्षा में आरक्षण मिला हुआ है किंतु राजनीति में इसे आधार नहीं माना गया. महिलाएं लोकसभा में आरक्षण हासिल कर सकती हैं किंतु राज्यसभा में नहीं. महिलाएं राजनीति में  आरक्षण प्राप्त कर सकती हैं, लेकिन नौकरियों में नहीं. विधायिका व प्रशासकीय क्षेत्रों में भी कोटातंत्र भ्रमित है. इस जटिलता के कोटातंत्र के अपने तर्क हैं. टोक्यविले ने कहा है कि लोकतंत्र में समता के औपचारिक मिथक वास्तविक असमानता के भेष में प्रकट होते हैं. कोटातंत्र में यह तथ्य कि कुछ समुदायों से व्यक्तियों का सशक्तिकरण को उस समुदाय के सशक्तिकरण के रूप में लिया जाता है.
 लोकतंत्र ऐतिहासिक परंपराओं पर आधारित है, कोटातंत्र ऐतिहासिक विस्मरण पर. अंग्रेजों ने कहा था कि हम इसलिए अल्पव्यस्क हैं क्योंकि जाति और समुदाय से परे नहीं सोच पाते. कोटातंत्र बांटो और राज करो की नीति को पसंद करता है. इससे यह भी सोच पैदा होती है कि हम स्वशासन के अयोग्य हैं. मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र एकता चाहता है. कोटातंत्र समानताओं के बावजूद विभाजन का पक्षधर है. किंतु लोकतंत्र और कोटातंत्र में बहुत कुछ समान भी है. दोनों ही संपूर्ण नहीं हैं. लोकतंत्र सतत रूप में उत्ताराधिकार को खत्म करता है. कोटातंत्र नए कोटों की रचना में लगा रहता है. लोकतंत्र में सभी समान हैं किंतु कुछ अन्य से अधिक समान हैं. जबकि कोटातंत्र में कुछ वंचित समूह अपनी वंचना की पहचान औरों से अधिक रखते हैं.
 कोटातंत्र वास्तव में क्रांतिकारी है. इस संबंध में कोई गलती न करें. यह तमाम क्रांतियों से अधिक गहन है क्योंकि इसके लिए नए नैतिक शब्दकोश की आवश्यकता पड़ती है. और इसे समझने के लिए नए राजनीति शास्त्र की जरूरत है. कोटातंत्र के युग के लिए तैयार रहें.


आरक्षण व्यवस्था:एक विवेचनात्मक विश्लेषण


सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है.भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है. भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है  और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है.
आम आबादी में उनकी संख्या के अनुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्यस्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ अभिज्ञेय समूहों के लिए प्रवेश मानदंड को नीचे किया गया है. कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदंड जाति है. भारत सरकार द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, हालांकि कम-प्रतिनिधित्व के अन्य अभिज्ञेय मानदंड भी हैं; जैसे कि लिंग (महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है), अधिवास के राज्य (उत्तर पूर्व राज्य, जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कम है), ग्रामीण जनता आदि.
मूलभूत सिद्धांत यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है. भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया. संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही. संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था, उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था. यह अवधि नियमित रूप से अनुवर्ती सरकारों द्वारा बढ़ा दी जाती रही.
बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया. 50% से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी. हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं. उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69% है और तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर यह लागू होता है
परिपाटी का इतिहास........
विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी. महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था. कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी. यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है.
देश भर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान कोई आसान काम नहीं है. इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी. एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि कुछ जातियां/समुदाय जो एक प्रांत में अछूत माने जाते हैं लेकिन अन्य प्रांतों में नहीं. परंपरागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिंदू और गैर-हिंदू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त है. जातियों के सूचीकरण का एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है. मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था. 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई.
पिछड़े वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा. देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी; उन सुधारकों में शामिल हैं रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य.
जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अंतर्विवाही समूहों, या जातियों और उपजातियों में विभाजित है. आरक्षण नीति के समर्थकों का कहना है कि परंपरागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के लिए घोर उत्पीड़न और अलगाव है और शिक्षा समेत उनकी विभिन्न तरह की आजादी सीमित है. "मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना". वर्णाश्रम (वर्ण + आश्रम) के "वर्ण" शब्द के समानार्थक शब्द 'रंग' से भ्रमित नहीं होना चाहिए. भारत में जाति प्रथा ने इस नियम का पालन किया.

    • 1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई. महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की.

    • 1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी.

    • 1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया. सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे.

    • 1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया.

    • 1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.

    • 1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया.

    • 1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.

    • 1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था.

    • 1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए.

    • 1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.

    • 1942 - बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की. उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.

    • 1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया.

    • 1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की. डॉ. अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं. 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं.(हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है).

    • 1947-1950 - संविधान सभा में बहस.

    • 26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ.

    • 1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया. जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया. अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया.

    • 1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया.

    • 1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया.

    • 1979 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया. आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी (OBC)) कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया.

    • 1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की, और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की.2006 के अनुसार  पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है.

    • 1990 मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया. छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की. कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया.

    • 1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया.

    • 1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया. आरक्षण और न्यायपालिका अनुभाग भी देखें

    • 1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला. बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था.

    • 1998- केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32% है. जनगणना के आंकड़ों के साथ समझौ्तावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है. आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मंडल आयोग द्वारा या और राषट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़े से कम है. मंडल आयोग ने आंकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है. राष्ट्रीय सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि बहुत सारे क्षेत्रों में ओबीसी (OBC) की स्थिति की तुलना अगड़ी जाति से की जा सकती है.

    • 12 अगस्त 2005- उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं.

    • 2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया. इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया.

    • 2006- सर्वोच्च न्यायालय के सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया.

    • 2006- से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ. कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया. हाल के विकास भी देखें.

    • 2007- केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी (OBC) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया.

    • 2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है. समर्थन करनेवालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया.
मलाईदार परत को पहचानने के लिए विभिन्न मानदंडों की सिफारिश की गयी, जो इस प्रकार हैं.......
साल में 250,000 रुपये से ऊपर की आय वाले परिवार को मलाईदार परत में शामिल किया जाना चाहिए और उसे आरक्षण कोटे से बाहर रखा गया. इसके अलावा, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, अभिनेता, सलाहकारों, मीडिया पेशेवरों, लेखकों, नौकरशाहों, कर्नल और समकक्ष रैंक या उससे ऊंचे पदों पर आसीन रक्षा विभाग के अधिकारियों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, सभी केंद्र और राज्य सरकारों के ए और बी वर्ग के अधिकारियों के बच्चों को भी इससे बाहर रखा गया. अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है.
आरक्षण और न्यायपालिका........
भारतीय न्यायपालिका ने आरक्षण को जारी रखने के लिए कुछ निर्णय दिए हैं और इसे सही ढंग से लागू करने के लिए के कुछ निर्णय सुनाया है. आरक्षण संबंधी अदालत के अनेक निर्णयों को बाद में भारतीय संसद द्वारा संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बदलाव लाया गया है. भारतीय न्यायपालिका के कुछ फैसलों का राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा उल्लंघन किया गया है. भारतीय अदालतों द्वारा किये गये बड़े फैसलों और उनके कार्यान्वयन की स्थिति नीचे दी जा रही है
वर्षफैसलाकार्यान्वयन विवरण
1951अदालत ने स्पष्ट किया है कि सांप्रदायिक अधिनिर्णय के अनुसार जाति आधारित आरक्षण अनुच्छेद 15 (1) का उल्लंघन है.(मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईरंजन एआईआर (AIR) 1951 SC 226)पहला संवैधानिक संशोधन (अनुच्छेद 15 (4)) फैसले को अमान्य करने के लिए पेश किया गया.
1963एम् आर बालाजी बनाम मैसूर एआईआर (AIR)) 1963 SC 649 में अदालत ने आरक्षण पर 50% की अधिकतम सीमा लगा दीतमिलनाडु (9वीं सूची के तहत 69%) और राजस्थान (2008 की गुज्जर हिंसा के पहले, अगड़ी जातियों के 14% सहित 68% कोटा) को छोड़कर लगभग सभी राज्यों ने 50% की सीमा को पार नहीं किया. तमिलनाडु ने 1980 में सीमा पार की. आंध्र प्रदेश ने 2005 में सीमा पार करने का प्रयास किया, जिसे उच्च न्यायालय द्वारा फिर से रोक दिया गया.
1992इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार (यूनियन ऑफ़ इंडिया) में सर्वोच्च न्यायलय. एआईआर (AIR)) 1993 SC 477 : 1992 Supp (3)SCC 217 ने केंद्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए अलग से आरक्षण लागू करने को सही ठहराया.फैसला लागू हुआ
आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठाने वाले अन्य पिछड़े वर्ग की मलाईदार परत को हटाने का फैसला सुनाया गया.तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने लागू किया. अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों में आरक्षण प्रदान करने के लिए हाल ही के आरक्षण विधेयक से भी कुछ राज्यों में मलाईदार परत को हटाना नहीं शामिल किया गया है. (यह अभी भी स्थायी समिति के विचाराधीन है).
50% की सीमा के अंदर आरक्षणों को सीमाबद्ध करने का फैसला दिया गया.तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने इसका पालन किया.
अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए अलग से आरक्षण को अमान्य कर दिया गया.फैसला लागू हुआ
महाप्रबंधक, दक्षिण रेलवे बनाम रंगचारी एआईआर (AIR)) 1962 SC 36, पंजाब राज्य बनाम हीरालाल 1970(3) SCC 567, अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1981) 1 SCC 246 में फैसला हुआ था कि अनुच्छेद 16(4) के तहत नियुक्तियों या पदों के आरक्षण में प्रोन्नति भी शामिल हैं. इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में इसे नामंजूर कर दिया गया था. एआईआर (AIR)) 1993 SC 477 : 1992 Supp (3) SCC 217 और फैसला हुआ कि प्रोन्नतियों में आरक्षण को लागू नहीं किया जा सकता.यूनियन ऑफ इंडिया बनाम वरपाल सिंह एआईआर (AIR) 1996 SC 448, अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1996 SC 1189, अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य एआईआर (AIR) 1999 SC 3471, एम्.जी. बदप्पन्नावर बनाम कर्नाटक राज्य 2001 (2) SCC 666.अशोक कुमार गुप्ता: विद्यासागर गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य. फैसले को अमान्य करने के लिए 1997 (5) SCC 20177वां संविधान संशोधन (अनुच्छेद 16 (4 ए) व (16 4 बी) लाया गया.एम. नागराज एवं अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया व अन्य. एआईआर (AIR) 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक करार दिया. 1. अनुच्छेद 16(4)(ए) और 16(4)(बी) अनुच्छेद 16(4) से प्रवाहित होते हैं. वो संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 16(4) के ढांचे में परिवर्तन नहीं करते हैं.2. राज्य प्रशासन की समग्र क्षमता को ध्यान में रखते हुए आरक्षण प्रदान करने के लिए पिछडापन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता राज्यों के लिए नियंत्रक/अकाट्य कारण हैं.3. किसी वर्ग/समूह को नौकरियों में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को रोस्टर परिचालन में एक इकाई के रूप में कर्मी क्षमता को लागू करना है. रिक्तियों के आधार पर नहीं बल्कि प्रतिस्थापन की अन्तर्निहित अवधारणा के साथ रोस्टर को पद विशिष्ट होना चाहिए.4. अगर कोई अधिकारी सोचता है कि पिछड़े वर्ग या श्रेणी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए, इसमें सीधी भर्ती प्रदान करना आवश्यक है, तो ऐसा करने के लिए उसे छूट होनी चाहिए.5. बकाया रिक्तियों को एक भिन्न समूह के रूप में देखा जाना चाहिए और इन्हें 50% की सीमा से बाहर रखा गया है.6. अगर आरक्षित श्रेणी का कोई सदस्य सामान्य श्रेणी में चयनित हो जाता है, तो उसके चयन को उसके वर्ग के लिए आरक्षित कोटा सीमा के अंतर्गत नहीं माना जाएगा और आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी के लिए प्रतिस्पर्धा करने के हकदार हैं.7. आरक्षित उम्मीदवार अपने आप में प्रोन्नति के लिए सामान्य उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के हकदार हैं. उनके चयन पर, कर्मियों की सूची के अनुसार उन्हें सामान्य पद में समायोजित किया जाना है और आरक्षित उम्मीदवारों को आरक्षित उम्मीदवारों की कर्मियों की सूची में निश्चित किये गये स्थान में समायोजित किया जाना चाहिए. नियुक्ति के लिए उम्मीदवार की विशेष श्रेणी के लिए प्रत्येक पद को चिह्नित किया जाता है और बाद में कोई भी रिक्त पद को सिर्फ उसी श्रेणी (प्रतिस्थापन सिद्धांत) द्वारा भरा जाना है.आर.के. सभरवाल बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1995 SC 1371 : (1995) 2 SCC 745.कर्मी-क्षमता भरने के लिए रोस्टर का परिचालन खुद ही सुनिश्चित करता है कि आरक्षण 50% सीमा के अंदर हो.
भारतीय संघ बनाम वरपाल सिंह AIR 1996 SC 448 तथा अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य AIR 1996 SC 1189 में फैसला हुआ कि रोस्टर अंक पदोन्नति पाने वाला त्वरित प्रोन्नति का लाभ पाता है उसे अनुवर्ती वरीयता नहीं मिलेगी और प्रोन्नत श्रेणी में आरक्षित श्रेणी उम्मीदवारों तथा सामान्य श्रेणी उम्मीदवारों के बीच वरीयता उनकी पैनल स्थिति से नियंत्रित होंगी. जगदीश लाल व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य (1997) 6 SCC 538 के मामले में इसे नामंजूर कर दिया गया था, निर्णय हुआ कि पद पर लगातार कार्यरत रहने की तारीख को ध्यान में रखा जाना है, अगर ऐसा होता है तो रोस्टर-अंक पदोन्नति पाने वाला निरंतर पद पर कार्यरत रहने के लाभ का हकदार होगा.अजितसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य AIR 1999 SC 3471 ने जगदीशलाल को ख़ारिज कर दिया एम जी बदप्पन्वर बनाम कर्नाटक राज्य 2001(2) SCC 666:AIR 2001 SC 260 ने फैसला किया कि रोस्टर प्रोन्नतियां सिर्फ विभिन्न स्तर पर पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देने के सीमित उद्देश्य के लिए है और इसीलिए ऐसी रोस्टर पदोन्नतियां परिणामस्वरूप रोस्टर अंक पदोन्नति पाने वाले को वरीयता प्रदान नहीं करतीं.85वें संविधान संशोधन द्वारा निर्णय को अमान्य करके परिणामी वरीयता को अनुच्छेद 16(4)(A) में सम्मिलित किया गया था.एम. नागराज व अन्य बनाम भारतीय संघ व अन्य. AIR 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक ठहराया.जगदीश लाल व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य (1997) 6 SCC 538 ने निर्णय सुनाया कि निरंतर पद पर कार्यरत रहने की तारीख को ध्यान में रखा जाना है और अगर ऐसा होता है तो रोस्टर-अंक पदोन्नति पाने वाला निरंतर पद पर कार्यरत रहने के लाभ का हकदार होगा.
एस विनोदकुमार बनाम भारतीय संघ 996 6 SCC 580 के फैसले में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में अर्हता अंकों में और मूल्यांकन के मानक में छूट की अनुमति नहीं दी गयीसंविधान (82वां) संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 335 के अंत में एक प्रावधान डाला गया.एम. नागराज व अन्य बनाम भारतीय संघ व अन्य. AIR 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक बताया.
1994सर्वोच्च न्यायलय ने तमिलनाडु को 50% सीमा का पालन करने की सलाह दीतमिलनाडु आरक्षणों को संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया.एल आर एस द्वारा आई आर कोएल्हो (मृत) बनाम तमिलनाडु राज्य 2007 (2) SCC 1 : 2007 AIR(SC) 861 के फैसले में कहा गया कि नौवीं अनुसूची क़ानून को पहले ही न्यायालय द्वारा वैध ठहराया गया है, सो इस निर्णय द्वारा घोषित सिद्धांतों के आधार पर ऐसे क़ानून को चुनौती नहीं दी जा सकती. हालांकि, अगर कोई क़ानून भाग III में शामिल किसी अधिकार का उल्लंघन करता है तो उसे बाद में 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, इस तरह के उल्लंघन/अतिक्रमण को इस आधार चुनौती दी जा सकती है कि इससे अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 के साथ अनुच्छेद 21 को पढ़े जाने पर बताये गये सिद्धांत और इनके तहत अंतर्निहित सिद्धांतों की बुनियादी संरचना नष्ट या क्षतिग्रस्त होती है. कार्रवाई की गयी और परिणाम के रूप में कार्य-विवरण तय किये गये कि रद्द कानूनों को चुनौती नहीं दी जा सकेगी.
2005उन्नी कृष्णन, जेपी व अन्य बनाम आंध्रप्रदेश राज्य व अन्य (1993 (1) SCC 645), यह निर्णय किया गया कि अनुच्छेद 19(1)(g) के अर्थ के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार न तो कोई व्यापार या कारोबार हो सकता है न ही यह अव्यवसाय हो सकता है. टी.एम.ए. पई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002) 8 SCC 481 में इसे ख़ारिज कर दिया गया था. पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य 2005 AIR(SC) 3226 में सर्वोच्च न्यायलय ने निर्णय किया कि निजी गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को आरक्षण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.93वां संवैधानिक संशोधन ने अनुच्छेद 15(5) पेश किया.अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ 1. जहां तक इसका संबंध सरकारी संस्थानों और सरकारी सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों से है, संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 संविधान के "बुनियादी ढांचा" का उल्लंघन नहीं करता है. जहां तक "निजी गैर-सहायताप्राप्त" शिक्षण संस्थाओं का संबंध है, सवाल है कि क्या संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 इस बारे में संवैधानिक रूप से मान्य हो सकता है या नहीं, इसे एक उपयुक्त मामले में निर्णय के लिए खुला छोड़ रखा गया है.2."पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए मलाईदार परत" सिद्धांत एक पैरामीटर है. इसलिए, विशेष रूप से, "मलाईदार परत" सिद्धांत अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि अजा और अजजा अपने आपमें अलग वर्ग हैं.3. प्राथमिकता के साथ हालात में परिवर्तन पर ध्यान देने के लिए दस वर्षों के बाद एक समीक्षा करनी चाहिए. मात्र एक स्नातक (तकनीकी स्नातक नहीं) या पेशेवर को शैक्षिक रूप से अगड़ा माना जाता है.5. मलाईदार परत के बहिष्करण का सिद्धांत अन्य पिछड़ा वर्ग पर लागू होता है.6. अन्य सामाजिक हितों के साथ संतुलन और उत्कृष्टता के मानकों को बनाए रखने के लिए अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के उम्मीदवारों से संबंधित अंक कटौती के निर्धारण की वांछनीयता की जांच केंद्र सरकार करेगी. यह गुणवत्ता को सुनिश्चित करेगी और योग्यता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा. इन कसौटियों को अपनाने से अगर कोई सीट खाली रह जाती है तो उन्हें सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों द्वारा भरा जाएगा.7. जहां तक पिछड़े वर्गों के निर्धारण की बात है, भारतीय संघ द्वारा एक अधिसूचना जारी की जानी चाहिए. मलाईदार परत के बहिष्करण के बाद ही यह काम किया जा सकता है, जिसके लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित क्षेत्रों से आवश्यक तथ्य प्राप्त किया जाना चाहिए. गलत तरीके से बहिष्करण या समावेशन के आधार पर ऐसी अधिसूचना को चुनौती दी जा सकती है. विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों की अपनी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कसौटियां तय की जानी चाहिए. अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की उचित पहचान जरुरी है. पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए, इंद्र साहनी मामले में इस न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप आयोग का गठन किया जाय, किसीको अधिक प्रभावी ढंग से काम करना चाहिए और महज जातियों के समावेशन या बहिष्करण के लिए आवेदन पत्रों पर फैसला नहीं करना चाहिए. संसद को एक समय सीमा का निर्धारण करना चाहिए कि हर बच्चे तक कब तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पहुंच जाएगी. इसे छह महीने के भीतर किया जाना चाहिए, क्योंकि निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा संभवतः सभी मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद21 ए) में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. क्योंकि शिक्षा के बिना, अन्य मौलिक अधिकारों का उपयोग करना अत्यंत कठिन हो जाता है. केन्द्र सरकार को अगर ऐसे तथ्य दिखाए जाते हैं कि कोई संस्थान केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 (2007 का नंबर 5) की अनुसूची में शामिल होने के योग्य है (वो संस्थान जिन्हें आरक्षण से अलग रखा गया है), तो दिए गये तथ्यों के आधार पर और संबंधित मामलों की जांच करके केंद्र सरकार को उचित निर्णय लेना चाहिए कि वो संस्थान उक्त अधिनियम के अनुभाग 4 में प्रदत्त उक्त अधिनियम की अनुसूची में शामिल होने के योग्य है या नहीं. निर्णय किया गया कि SEBCs का निर्धारण पूरी तरह से जाति के आधार पर नहीं किया गया है और इसलिए SEBCs की पहचान संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन नहीं है.

प्रासंगिक मामले....
  1. भारतीय संविधान की 12, 14, 15, 16, 19, 335 धाराएं देखें.

  2. मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराइरंजन AIR 1951 SC 226

  3. महाप्रबंधक, दक्षिण रेलवे बनाम रंगचारी एआईआर (AIR)) 1962 SC 36

  4. एम आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य एआईआर (AIR) 1963 एससी (SC) 649

  5. टी. वी देवदासन बनाम संघ एआईआर (AIR) 1964 SC 179.

  6. सी. ए. राजेंद्रन बनाम भारतीय संघ एआईआर (AIR) 1965 एससी (SC) 507.

  7. चामाराजा बनाम मैसूर एआईआर (AIR) 1967 मैसूर 21

  8. बेरियम केमिकल्स लिमिटेड बनाम कंपनी लॉ बोर्ड एआईआर (AIR) 1967 एससी (SC) 295

  9. पी. राजेंद्रन बनाम मद्रास राज्य एआईआर (AIR) 1968 SC 1012

  10. त्रिलोकी नाथ बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य एआईआर (AIR) 1969 एससी (SC) 1

  11. बनाम पंजाब राज्य बनाम हीरा लाल 1970(3) 567 एससीसी (SCC)

  12. ए. पी. राज्य बनाम यू.एस.वी. (USV) बलराम एआईआर (AIR) के 1972 एससी (SC) 1375

  13. केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य एआईआर (AIR) 1973 एससी (SC) 1461

  14. केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस एआईआर (AIR) 1976 SC 490 : (1976) 2 एससीसी (SCC) 310

  15. जयश्री बनाम केरल राज्य एआईआर (AIR) के 1976 एससी (SC) 2381

  16. मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम संघ (1980) 3 एससीसी (SCC) 625: एआईआर (AIR) 1980 एससी (SC) 1789

  17. अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब एआईआर (AIR) 1981 एससी (SC) 487

  18. अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ बनाम संघ (1981) 1 एससीसी (SCC) 246

  19. के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक एआईआर (AIR) 1985 एससी (SC) 1495

  20. भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, ज्ञान प्रकाश बनाम के. एस. जग्गन्नाथन (1986) 2 एससीसी (SCC) 679

  21. हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड बनाम ए. पी. राज्य बिजली बोर्ड (1991) 3एससीसी (3SCC) 299

  22. इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारतीय संघ एआईआर (AIR) 1993 अज 477: 1992 पूरक (3) एससीसी (SCC) 217

  23. उन्नी कृष्णन बनाम ए. पी. राज्य एवं अन्य. (1993 (1) एससीसी (SCC) 645

  24. आर.के. सभरवाल बनाम पंजाब एआईआर (AIR) 1995 एससी (SC) 1371: (1995) 2 एससीसी (SCC) 745

  25. भारतीय संघ बनाम वरपाल सिंह एआईआर (AIR) 1996 एससी (SC) 448

  26. अजीतसिंह जानुजा एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1996 एससी (SC) 1189

  27. अशोक कुमार गुप्ता: विद्यासागर गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य. 1997 (5) 201 एससीसी (SCC)

  28. जगदीश लाल एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1997) 6 एससीसी (SCC) 538

  29. चंदर पाल एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1997) 10 एससीसी (SCC) 474

  30. पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एडुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ बनाम फैकल्टी एसोसिएशन 1998 एआईआर (AIR)(एससी(SC)) 1767: 1998 (4) एससीसी (SCC) 1

  31. अजीतसिंह जानुजा एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य एआईआर (AIR) 1999 एससी (SC) 3471

  32. इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ. एआईआर (AIR) 2000 एससी (SC) 498

  33. एमजी बदप्पन्वर बनाम कर्नाटक राज्य 2001(2) एससीसी (SCC) 666: एआईआर (AIR) 2001 एससी (SC) 260

  34. टी. एस. ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002) 8 एससीसी (SCC) 481

  35. एनटीआर युनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंस विजयवाड़ा बनाम जी बाबू राजेंद्र प्रसाद (2003) 5 एससीसी (SCC) 350

  36. इस्लामिक अकाडमी ऑफ एडुकेशन एवं एएनआर. (Anr) बनाम कर्नाटक एवं अन्य. (2003) 6 एससीसी (SCC) 697

  37. सौरभ चौधरी एवं अन्य बनाम भारतीय संघ. (2003) 11 एससीसी (SCC) 146

  38. पी. ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य 2005 एआईआर (AIR) (एसस‍ी (SC)) 3226

  39. आई.आर. चेलो (स्व.) एलआरएस (LRS) द्वारा बनाम तमिलनाडु राज्य 2007 (2) एससीसी (SCC) 1: 2007 एआईआर (AIR)(एससी (SC))861

  40. एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारतीय संघ एवं अन्य. एआईआर (AIR) 2007 (एससी(SC)) 71

  41. अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ. 2008     
आरक्षण के प्रकार .......
शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में सीटें विभिन्न मापदंड के आधार पर आरक्षित होती हैं. विशिष्ट समूह के सदस्यों के लिए सभी संभावित पदों को एक अनुपात में रखते हुए कोटा पद्धति को स्थापित किया जाता है. जो निर्दिष्ट समुदाय के तहत नहीं आते हैं, वे केवल शेष पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जबकि निर्दिष्ट समुदाय के सदस्य सभी संबंधित पदों (आरक्षित और सार्वजनिक) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, रेलवे में जब 10 में से जब 2 कार्मिक पद सेवानिवृत सैनिकों, जो सेना में रह चुके हैं, के लिए आरक्षित होता है तब वे सामान्य श्रेणी के साथ ही साथ विशिष्ट कोटा दोनों ही श्रेणी में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं.
जातिगत आधार........
केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा विभिन्न अनुपात में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों (मुख्यत: जन्मजात जाति के आधार पर) के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं. यह जाति जन्म के आधार पर निर्धारित होती है और कभी भी बदली नहीं जा सकती. जबकि कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कर सकता है और उसकी आर्थिक स्थिति में उतार -चढ़ाव हो सकता है, लेकिन जाति स्थायी होती है.
केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से 22.5% अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%). ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है 10. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में सीटें 14% अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक ग्रहणीय हैं. यहां तक कि संसद और सभी चुनावों में यह अनुपात लागू होता है, जहां कुछ समुदायों के लोगों के लिए चुनाव क्षेत्र निश्चित किये गये हैं. तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए 18% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% है, जो स्थानीय जनसांख्यिकी पर आधारित है. आंध्र प्रदेश में, शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 25%, अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 6% और मुसलमानों के लिए 4% का आरक्षण रखा गया है.
प्रबंधन कोटा......
जाति-समर्थक आरक्षण के पैरोकारों के अनुसार प्रबंधन कोटा सबसे विवादास्पद कोटा है. प्रमुख शिक्षाविदों द्वारा भी इसकी गंभीर आलोचना की गयी है क्योंकि जाति, नस्ल और धर्म पर ध्यान दिए बिना आर्थिक स्थिति के आधार पर यह कोटा है, जिससे जिसके पास भी पैसे हों वह अपने लिए सीट खरीद सकता है. इसमें निजी महाविद्यालय प्रबंधन की अपनी कसौटी के आधार पर तय किये गये विद्यार्थियों के लिए 15% सीट आरक्षित कर सकते हैं. कसौटी में महाविद्यालयों की अपनी प्रवेश परीक्षा या कानूनी तौर पर 10+2 के न्यूनतम प्रतिशत शामिल हैं.
लिंग आधारित.......
महिला आरक्षण महिलाओं को ग्राम पंचायत (जिसका अर्थ है गांव की विधानसभा, जो कि स्थानीय ग्राम सरकार का एक रूप है) और नगर निगम चुनावों में 33% आरक्षण प्राप्त है. संसद और विधानसभाओं तक इस आरक्षण का विस्तार करने की एक दीर्घावधि योजना है. इसके अतिरिक्त, भारत में महिलाओं को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण या अधिमान्य व्यवहार मिलता है. कुछ पुरुषों का मानना है कि भारत में विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश में महिलाओं के साथ यह अधिमान्य व्यवहार उनके खिलाफ भेदभाव है. उदाहरण के लिए, भारत में अनेक कानून के विद्यालयों में महिलाओं के लिए 30% आरक्षण है. भारत में प्रगतिशील राजनीतिक मत महिलाओं के लिए अधिमान्य व्यवहार प्रदान करने का जोरदार समर्थन करता है ताकि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर का निर्माण हो सके.
महिला आरक्षण विधेयक 9 मार्च 2010 को 186 सदस्यों के बहुमत से राज्य सभा में पारित हुआ, इसके खिलाफ सिर्फ एक वोट पड़ा. अब यह लोक सभा में जायेगा और अगर यह वहां पारित हो गया तो इसे लागू किया जाएगा.
धर्म आधारित.....
तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों प्रत्येक के लिए 3.5% सीटें आवंटित की हैं, जिससे ओबीसी आरक्षण 30% से 23% कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया. सरकार की दलील है कि यह उप-कोटा धार्मिक समुदायों के पिछड़ेपन पर आधारित है न कि खुद धर्मों के आधार पर.
आंध्र प्रदेश प्रशासन ने मुसलमानों को 4% आरक्षण देने के लिए एक क़ानून बनाया. इसे अदालत में चुनौती दी गयी. केरल लोक सेवा आयोग ने मुसलमानों को 12% आरक्षण दे रखा है. धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के पास भी अपने विशेष धर्मों के लिए 50% आरक्षण है. केंद्र सरकार ने अनेक मुसलमान समुदायों को पिछड़े मुसलमानों में सूचीबद्ध कर रखा है, इससे वे आरक्षण के हकदार होते हैं.
अधिवासियों के राज्य......
कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उस सरकार के तहत रहने वाले अधिवासियों के लिए आरक्षित होती हैं. पीईसी (PEC) चंडीगढ़ में, पहले 80% सीट चंडीगढ़ के अधिवासियों के लिए आरक्षित थीं और अब यह 50% है.
पूर्वस्नातक महाविद्यालय........
जेआईपीएमईआर (JIPMER) जैसे संस्थानों में स्नातकोत्तर सीट के लिए आरक्षण की नीति उनके लिए है, जिन्होंने जेआईपीएमईआर (JIPMER) से एमबीबीएस (MBBS) पूरा किया है.[एआईआईएमएस] (एम्स) में इसके 120 स्नातकोत्तर सीटों में से 33% सीट 40 पूर्वस्नातक छात्रों के लिए आरक्षित हुआ करती हैं (इसका अर्थ है जिन्होंने एम्स से एमबीबीएस पूरा किया उन प्रत्येक छात्रों को स्नातकोत्तर में सीट मिलना तय है, इसे अदालत द्वारा अवैध करार दिया गया.)

अन्य मानदंड...

कुछ आरक्षण निम्नलिखित के लिए भी बने हैं:
  • स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे/बेटियों/पोते/पोतियों के लिए.

  • शारीरिक रूप से विकलांग.

  • खेल हस्तियों.

  • शैक्षिक संस्थानों में अनिवासी भारतीयों (एनआरआई (NRI)) के लिए छोटे पैमाने पर सीटें आरक्षित होती हैं. उन्हें अधिक शुल्क और विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है (नोट: 2003 में एनआरआई आरक्षण आईआईटी से हटा लिया गया था).

  • विभिन्न संगठनों द्वारा उम्मीदवार प्रायोजित होते हैं.

  • जो सशस्त्र बलों में काम कर चुके हैं (सेवानिवृत सैनिक कोटा), उनके लिए.

  • कार्रवाई में मारे गए सशस्त्र बलों के कर्मियों के आश्रितों के लिए.

  • स्वदेश लौट आनेवालों के लिए.

  • जो अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए हैं.

  • सरकारी उपक्रमों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के विशेष स्कूलों (जैसे सेना स्कूलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के स्कूलों आदि) में उनके कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण.

  • पूजा स्थलों (जैसे तिरूपति (बालाजी) मंदिर, तिरुथानी मुरुगन (बालाजी) मंदिर) में भुगतान मार्ग आरक्षण है.

  • वरिष्ठ नागरिकों/पीएच (PH) के लिए सार्व‍जनिक बस परिवहन में सीट आरक्षण.
छुट् ......
यह एक तथ्य है कि दुनिया में सबसे ज्यदा चुने जाने वाले आईआईएम (IIMs) में से भारत में शीर्ष के बहुत सारे स्नातकोत्तर और स्नातक संस्थानों जैसे आईआईटी (IITs) हैं, यह बहुत चौंकानेवाली बात नहीं है कि उन संस्थानों के लिए ज्यादातर प्रवेशिका परीक्षा के स्तर पर ही आरक्षण के मानदंड के लिए आवेदन पर ही किया जाता है. आरक्षित श्रेणियों के लिए कुछ मापदंड में छूट दे दी जाती है, जबकि कुछ अन्य पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं. इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:
  1. आरक्षित सीटों के लिए उच्च विद्यालय के न्यूनतम अंक के मापदंड पर छूट दिया जाता है.

  2. आयु

  3. शुल्क, छात्रावास में कमरे के किराए आदि पर.
हालांकि यह ध्यान रखना जरूरी है कि किसी संस्थान से स्नातक करने के लिए आवश्यक मापदंड में छूट कभी नहीं दी जाती, यद्यपि कुछ संस्थानों में इन छात्रों की विशेष जरूरत को पूरा करने के लिए बहुत ज्यादातर कार्यक्रमों के भार (जैसा कि आईआईटी (IIT) में किसी के लिए) को कम कर देते हैं.
तमिलनाडु में आरक्षण नीति....
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य....
तमिलनाडु में आरक्षण व्यवस्था शेष भारत से बहुत अलग है; ऐसा आरक्षण के स्वरूप के कारण नहीं, ‍बल्कि इसके इतिहास के कारण है. मई 2006 में जब पहली बार आरक्षण का जबरदस्त विरोध नई दिल्ली में हुआ, तब चेन्नई में इसके विपरीत एकदम विषम शांति देखी गयी थी. बाद में, आरक्षण विरोधी लॉबी को दिल्ली में तरजीह प्राप्त हुई, चेन्नई की शांत गली में आरक्षण की मांग करते हुए विरोध देखा गया. चेन्नई में डॉक्टर्स एसोसिएशन फॉर सोशल इक्विलिटी (डीएएसई (DASE)) समेत सभी डॉक्टर केंद्रीय सरकार द्वारा चलाये जानेवाले उच्च शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण की मांग पर अपना समर्थन जाताने में सबसे आगे रहे.
वर्तमान परंपरा.....
मौजूदा समय में, दिन-प्रतिदिन के अभ्यास में, आरक्षण 69% से कुछ हद तक कम हुआ करता है, यह इस पर निर्भर करता है कि गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों का प्रवेश कितनी अतिउच्च-संख्यांक सीटों में हुआ. अगर 100 सीटें उपलब्ध हैं, तो पहले समुदाय का विचार किये बिना (आरक्षित या अनारक्षित) दो योग्यता सूची तैयार की जाती है, 31 सीटों के लिए एक और 50 सीटों के लिए एक दूसरी, क्रमशः 69% आरक्षण और 50% आरक्षण के अनुरूप. किसी भी गैर-आरक्षित श्रेणी के छात्र को 50 सीट सूची में रखा जाता है और 31 सीट सूची में नहीं रखा जाता तो उन्हें अतिउच्च-संख्यांक कोटा सीटों के तहत (अर्थात) इन विद्यार्थियों के लिए जोड़ी जाने वाली सीटों में प्रवेश दिया जाता है. 31 सीट सूची का गैर-आरक्षित खुले प्रवेश सूची के रूप में प्रयोग किया जाता है और 69% आरक्षण का प्रयोग करके 69 सीटें भरी जाती हैं (30 सीटें अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़े वर्गों के 20 सीटें, 18 सीटें अनुसूचित जाति और 1 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए). प्रभावी आरक्षण प्रतिशत इस पर निर्भर करता है कि कितने गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थी 50 की सूची में आते हैं और न कि 31 सूची में. एक चरम पर, सभी 19 (31 से 50 की सूची बनाने के लिए जोड़ा जाना) गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थी हो सकते हैं, इस मामले में कुल आरक्षण 58%(69/119) हो जाता है; यह भी तर्क दिया जा सकता है कि गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए इसे 19% 'आरक्षण' मानने से यह (69+19)/119 या 74% हो जाता है! दूसरे चरम पर, 31 की सूची में 19 में कोई भी गैर-आरक्षित श्रेणी से नहीं जोड़ा जाता है, तो इस मामले में कोई भी अतिउच्च-संख्यांक सीटों का निर्माण नहीं किया जाएगा और राज्य क़ानून के आदेश के अनुसार 69% आरक्षण किया जाएगा.
आरक्षण के समर्थन और विरोध में अनेक तर्क दिए गये हैं. एक पक्ष की ओर से दिए गये तर्कों को दूसरे पक्ष द्वारा खंडित किया जाता है, जबकि अन्य दोनों पक्षों से सहमत हुए हैं, ताकि दोनों पक्षों को समायोजित करने के लिए एक संभाव्य तीसरा समाधान प्रस्तावित हो.
आरक्षण समर्थकों द्वारा प्रस्तुत तर्क.......
1.आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान की विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभप्रद के रूप में देखता है. सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने और/या बढाने का समर्थन करती हैं. आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी हैं. गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है.
    2.हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कम करती हैं लेकिन फिर भी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीकामलेशियाब्राजील आदि अनेक देशों में सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं काम कर रही हैं. हार्वर्ड विश्वविद्याल में हुए शोध के अनुसार सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं सुविधाहीन लोगों के लिए लाभप्रद साबित हुई हैं.अध्ययनों के अनुसार गोरों की तुलना में कम परीक्षण अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले कालों ने स्नातक के बाद उल्लेखनीय सफलता हासिल की. अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में उन्होंने समान श्रेणी में उन्नत डिग्री अर्जित की हैं. यहां तक कि वे एक ही संस्थाओं से कानून, व्यापार और औषधि में व्यावसायिक डिग्री प्राप्त करने में गोरों की तुलना में जरा अधिक होनहार रहे हैं. वे नागरिक और सामुदायिक गतिविधियों में अपने गोरे सहपाठियों से अधिक सक्रिय हुए हैं.
  • हालांकि आरक्षण योजनाओं से शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है लेकिन विकास करने में और विश्व के प्रमुख उद्योगों में शीर्ष पदों आसीन होने में, अगर सबको नहीं भी तो कमजोर और/या कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अनेक लोगों को सकारात्मक कार्रवाई से मदद मिली है.  शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण एकमात्र समाधान नहीं है, यह सिर्फ कई समाधानों में से एक है. आरक्षण कम प्रतिनिधित्व जाति समूहों का अब तक का प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाला एक साधन है और इस तरह परिसर में विविधता में वृद्धि करता है.
  • हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है. आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा. (लगभग 60% भारतीय आबादी गांवों में रहती है)
  • आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है. प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की "इच्छा" है. अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आपमें मानव जाति से अलगाववाद है. अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है.
  • आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता (meritrocracy) और योग्यता की चिंता है. लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है. पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाय या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाय. उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं. आरक्षण या "प्रतिभावादिता" की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया. आरक्षण ने केवल "अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने" की प्रक्रिया को धीमा किया है. चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं. जापान में, हर कोई बहुत अधित योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है. इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं.
आरक्षण -विरोधियों के तर्क ......
  • जाति आधारित आरक्षण संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक विचार के एक कारक के रूप में समाज में जाति की भावना को कमजोर करने के बजाय उसे बनाये रखता है. आरक्षण संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साधन है.
  • कोटा आवंटन भेदभाव का एक रूप है, जो कि समानता के अधिकार के विपरीत है.
  • आरक्षण ने चुनावों को जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ बदला लेने के गर्त में डाल दिया है और इसने भारतीय समाज को विखंडित कर रखा है. चुनाव जीतने में अपने लिए लाभप्रद देखते हुए समूहों को आरक्षण देना और दंगे की धमकी देना भ्रष्टाचार है और यह राजनीतिक संकल्प की कमी है. यह आरक्षण के पक्ष में कोई तर्क नहीं है.
  • आरक्षण की नीति एक व्यापक सामाजिक या राजनीतिक परीक्षण का विषय कभी नहीं रही. अन्य समूहों को आरक्षण देने से पहले, पूरी नीति की ठीक से जांच करने की जरूरत है, और लगभग 60 वर्षों में इसके लाभ का अनुमान लगाया जाना जरूरी है.
  • शहरी संस्थानों में आरक्षण नहीं, बल्कि भारत का 60% जो कि ग्रामीण है उसे स्कूलों, स्वास्थ्य सेवा और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है.
  • "अगड़ी जातियों" के गरीब लोगों को पिछड़ी जाति के अमीर लोगों से अधिक कोई भी सामाजिक या आर्थिक सुविधा प्राप्त नहीं है. वास्तव में परंपरागत रूप से ब्राह्मण गरीब हुआ करते हैं.
  • आरक्षण के विचार का समर्थन करते समय अनेक लोग मंडल आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हैं. आयोग मंडल के अनुसार, भारतीयों की 52% आबादी ओबीसी श्रेणी की है, जबकि राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना 1999-2000 के अनुसार, यह आंकड़ा सिर्फ 36% है (मुस्लिम ओबीसी को हटाकर 32%).
  • सरकार की इस नीति के कारण पहले से ही प्रतिभा पलायन में वृद्धि हुई है और आगे यह और अधिक बढ़ सकती है. पूर्व स्नातक और स्नातक उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का रुख करेंगे.
  • अमेरिकी शोध पर आधारित आरक्षण-समर्थक तर्क प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि अमेरिकी सकारात्मक कार्रवाई में कोटा या आरक्षण शामिल नहीं है. सुनिश्चित कोटा या आरक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका में अवैध हैं. वास्तव में, यहां तक कि कुछ उम्मीदवारों का पक्ष लेने वाली अंक प्रणाली को भी असंवैधानिक करार दिया गया था. इसके अलावा, सकारात्मक कार्रवाई कैलिफोर्निया, वाशिंगटन, मिशिगन, नेब्रास्का और कनेक्टिकट में अनिवार्य रूप से प्रतिबंधित है. "सकारात्मक कार्रवाई" शब्दों का उपयोग भारतीय व्यवस्था को छिपाने के लिए किया जाता है जबकि दोनों व्यवस्थाओं के बीच बड़ा फर्क है.
  • आधुनिक भारतीय शहरों में व्यापारों के सबसे अधिक अवसर उन लोगों के पास हैं जो ऊंची जातियों के नहीं हैं. किसी शहर में उच्च जाति का होने का कोई फायदा नहीं है.
अन्य उल्लेखनीय सुझाव......
समस्या का समाधान खोजने के लिए नीति में परिवर्तन के सुझाव निम्नलिखित हैं.
सच्चर समिति के सुझाव......
  • सच्चर समिति जिसने भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन का अध्ययन किया है, ने असली पिछड़े और जरूरतमंद लोगों की पहचान के लिए निम्नलिखित योजना की सिफारिश की है.
योग्यता के आधार पर अंक: 60
घरेलू आय पर आधारित (जाति पर ध्यान दिए बिना) अंक : 13
जिला (ग्रामीण/शहरी और क्षेत्र) जहां व्यक्ति ने अध्ययन किया, पर आधारित अंक : 13
पारिवारिक व्यवसाय और जाति के आधार पर अंक : 14
कुल अंक : 100
सच्चर समिति ने बताया कि शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदुओं की उपस्थिति उनकी आबादी के लगभग बराबर/आसपास है.भारतीय मानव संसाधन मंत्री ने भारतीय मुसलमानों पर सच्चर समिति की सिफारिशों के अध्ययन के लिए तुरंत एक समिति नियुक्त कर दी, लेकिन किसी भी अन्य सुझाव पर टिप्पणी नहीं की. इस नुस्खे में जो विसंगति पायी गयी है वो यह कि प्रथम श्रेणी के प्रवेश/नियुक्ति से इंकार की स्थिति भी पैदा हो सकती है, जो कि स्पष्ट रूप से स्वाभाविक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के सुझाव.......
  • यह सुझाव दिया गया है कि यद्यपि भारतीय समाज में काम से बहिष्करण में जाति एक महत्वपूर्ण कारक है; लेकिन लिंग, आर्थिक स्थिति, भौगोलिक असमानताएं और किस तरह की स्कूली शिक्षा प्राप्त हुई; जैसे अन्य कारकों को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता हैं. उदाहरण के लिए, किसी गांव या नगर निगम के स्कूल में पढ़नेवाला बच्चा समाज में उनके समान दर्जा प्राप्त नहीं करता है जिसने अभिजात्य पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की है, भले ही वह किसी भी जाति का हो. कुछ शिक्षाविदों का कहना है कि सकारात्मक कार्रवाई की बेहतर प्रणाली यह हो सकती है कि जो समाज में काम में बहिष्करण के सभी कारकों पर ध्यान दे, जो किसी व्यक्ति की प्रतिस्पर्धी क्षमताओं को प्रतिबंधित करते हैं. इस संबंध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा मल्टीपल इंडेक्स अफर्मटिव एक्शन [एमआईआरएए (MIRAA)] प्रणाली के रूप में और सेंटर फॉर द स्टडी डेवलपिंग सोसाइटीज [सीएसडीएस (CSDS)] के डॉ. योगेंद्र यादव और डॉ. सतीश देशपांडे द्वारा उल्लेखनीय योगदान किया गया है.
अन्य द्वारा दिये गये सुझाव.....
  • आरक्षण का निर्णय उद्देश्य के आधार पर लिया जाना चाहिए.

  • प्राथमिक (और माध्यमिक) शिक्षा पर यथोचित महत्व दिया जाना चाहिए ताकि उच्च शिक्षा संस्थानों में और कार्यस्थलों में अपेक्षाकृत कम प्रतिनिधित्व करनेवाले समूह स्वाभाविक प्रतियोगी बन जाएं.

  • प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों (जैसे आईआईटी (IITs)) में सीटों की संख्या को बढ़ाया जाना चाहिए.

  • आरक्षण समाप्त करने के लिए सरकार को दीर्घकालीन योजना की घोषणा करनी चाहिए.

  • जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना चाहिए, जैसा कि तमिलनाडु द्वारा शुरू किया गया.
ऐसा इस कारण है क्योंकि जाति व्यवस्था की बुनियादी परिभाषिक विशेषता सगोत्रीय विवाह है. ऐसा सुझाव दिया गया है कि अंतर्जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को आरक्षण प्रदान किया जाना समाज में जाति व्यवस्था को कमजोर करने का एक अचूक तरीका होगा.
  • जाति आधारित आरक्षण के बजाए आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण होना चाहिए (लेकिन मध्यम वर्ग जो वेतनभोगी हैं, को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा और सभी जमींदार तथा दिग्गज व्यापारी वर्ग इसका लाभ उठा सकते हैं)

  • वे लोग, जो करदाता हैं या करदाताओं के बच्चों को आरक्षण का पात्र नहीं होना चाहिए. इससे यह सुनिश्चित होता है कि इसका लाभ गरीबों में गरीबतम तक पहुंचे और इससे भारत को सामाजिक न्याय प्राप्त होगा जाएगा. इसका विरोध करनेवाले लोगों का कहना है कि यह लोगों को कर भुगतान न करने के लिए प्रोत्साहित करेगा और यह उनके साथ अन्याय होगा जो ईमानदारी से टैक्स भुगतान करते हैं.

  • आईटी (IT) का उपयोग करना सरकार को जातिगत आबादी, शिक्षा योग्यता, व्यावसायिक उपलब्धियों, संपत्ति आदि का नवीनतम आंकड़ा इकट्ठा करना होगा और इस सूचना को राष्ट्र के सामने पेश करना होगा. अंत में यह देखने के लिए कि इस मुद्दे पर लोग क्या चाहते हैं, जनमत संग्रह करना होगा. लोगों क्या चाहते हैं, इस पर अगर महत्वपूर्ण मतभेद (जैसा कि हम इस विकि में देख सकते हैं) हो तो सरकार हो सकती है विभिन्न जातियों को अपने शैक्षिक संस्थानों चल रहा है और किसी भी सरकार के हस्तक्षेप के बिना रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के द्वारा अपने ही समुदाय की देखभाल कर रहे हैं.