Tuesday 16 July 2013

आतंकवाद और गांधीवाद



महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय नजर आता है
तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। जब शहर-दर-शहर बमविस्फोट हो रहे हों और 
निर्दोष तथा अनजान लोगों की जान जा रही हो तथा आतंकवादी समूह इस 
तरह प्रसन्न हो रहे हों जैसे उन्होंनेकिसी  महान काम को अंजाम दे दिया हो
उस वक्त हम गांधी की किस चीज का अनुकरण कर सकते हैंआतंकवाद की 
उग्रतर हो रही समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई
 कार्यक्रम है?
हम जानते हैं कि हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में 
भी गांधी जी को निरुत्तर करने के लिए उनसे इस तरहके सवाल किए 
जाते थे। लेकिन महात्मा के पास सत्य और अहिंसा की ऐसी अचूक दृष्टि 
थी कि वे कभी भी लाजवाब नहीं हुए। उनका कहना था कि अगर किसी 
आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया हैतो हमारा 
कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े 
हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगीअंत में वह इस अहिंसक 
शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करने वाला तथा जिस पर 
आक्रमण हुआ हैवह दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी 
ने इंग्लैंड पर हमला किया थातो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। 
लेकिन इस पर किसी ने अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। 
शायद यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और 
हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है।
      लेकिन आतंकवाद की समस्या तो युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष 
होता हैजब कि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार 
जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाएइस संदर्भ में निवेदन यह 
है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता हैतो इरादा यह 
होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद 
को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है 
कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूंमुझे अपनी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन 
 करना पड़ेतब बताओ कि मेरी बीमारी ठीक करने का नुस्खा तुम्हारे पास क्या है। विनम्र 
उत्तर यह है कि यह कैसे संभव हैस्वास्थ्य लाभ करने के लिए वह जीवनशैली कैसे उपयुक्त 
हो सकती है जिससे बीमारी पैदा हुई हैजिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा हैउन 
परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता हैगांधीवाद तो क्या
किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को 
परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती हैतो यह सलाह दी जाती है कि हमें 
आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।
अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं,
 तो जो समाज हम बनाएंगेउसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद 
के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एककिसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में 
हिंसा की सफलता में विश्वास। दोआबादी की सघनताजिसका लाभ उठा कर विस्फोट के 
द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन 
कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि 
भारी-भारी जमावड़े वाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे
क्योंकि वे निहायत अस्वाभाविक बस्तियां हैंजहां जीवन का रस रोज सूखता जाता है। 
लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानतेहोंगे। स्थानीय उत्पादन 
पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखानेबाजारव्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक 
हो जाएंगे। रेल,वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगाक्योंकि इतनी बड़ी संख्या 
में लोग हर समय तेज वाहनों से आते-जाते रहेंयहपागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। 
वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या 
कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिएतो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता 
और अराजकता  पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी
तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।
लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगाबेशक हिंसा पूरी तरह खत्म 
नहीं होगीलेकिन संगठित हिंसा कीजरूरत नहीं रह जाएगीक्योंकि किसी भी समूह के 
साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। आतंकवादी पागल नहींहोता है। 
वह अपनी समझ से किसी बड़े अन्याय के खिलाफ लड़ रहा होता है। जब ऐसा कोई अन्याय 
होगा ही नहीं और हुआ भी तोतुरंत उसे सुधारा जा सकेगातब आतंकवादी मानसिकता 
क्योंकर बनेगीऐसे समाज में  मुनाफाशोषणदमन आदि क्रमश:इतिहास की वस्तुएं 
बनती जाएंगी। जाहिर हैसत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक
नस्ली या जातिगतविद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा 
को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्यायकरने के बारे में नहीं सोचेगा। 
क्या इस तरह का समाज कभी बन सकेगापता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा 
से अहिंसाकी ओरअन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है
जो वह हैतो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाजबनाने में बड़े पैमाने पर सफलता  मिले जो 
संगठित मुनाफेसंगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित  हो। केंद्रीकरण --
सत्ता काउत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद हैजिसमें 
अन्य प्रकार के आतंकवाद पैदा होते हैं।आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों 
द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेनापुलिसकारपोरेट जगत तथा 
माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता हैजिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-
थलगअसहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।
ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह 
नहीं हैवे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी 
समस्या हैनहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चलारहा 
होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती हैउससे 
और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदाहोती हैंजिनमंे पारिवारिक तथा सामुदायिक 
जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ
आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिएबल्कि उन समस्याओं का भी समाधान 
खोजना चाहिए जिनके परिवार का एकसदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस 
खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगाऐसा गांधीवादियों का अटल विश्वास है।

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