Monday 15 July 2013

वर्तमान में केन्द्र-राज्य और आंतरिक सुरक्षा:एक आंकलन

16, अप्रैल 2012 केन्द्र सरकार के साथ सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक। मुद्दा आंतरिक सुरक्षा का था। पर चर्चा किसी और पर अर्थात केंन्द्र एवं राज्यों के अधिकारों को लेकर हुई। बात शुरु होने से पहले ही ख्तम हो गई। निष्कर्ष या कहें परिणाम शून्य साबित हुआ।

हमारे संविधान में भारत को राज्यों के एक संघ की मान्यता दी गई है। अर्थात UNION OF STATE कहा गया है। UNION शब्द को इटली के संविधान से लिया गया है। जहाँ तक केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकार की बात है,हमारे संविधान के माध्यम से इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। ठीक इसी अनुरुप तीन सूचियाँ बनाई गई हैं ,पहली केन्द्र सूची- जिसमें 97 विषय हैं, दूसरी राज्य सूची- जिसमें 64 विषय है तथा तीसरी समवर्ती सूची- जिसमें 24 विषय सम्मलित हैं। जहां तक समवर्ती सूची का सवाल है इसमें केंन्द्र एवं राज्य दोनों को समान अधिकार प्रदान किया गया है। पर व्यवहारिक रुप से देखा जाए तो इस मसले पर केन्द्र का पलड़ा ज्यादा भारी दिखाई पड़ता है।

अब रही बात कि ऐसे विषय अचानक क्यों उभरकर सामने आ रहे हैं। आज राज्यों को क्यों ऐसा लगने लगा की उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। इनके अधिकारों का अतिक्रमण करने की साजिश रची जा रही है। कुछ मसले हैं जिनको लेकर ऐसे प्रश्न उभरते देखे जा रहे हैं, जैसे अभी हाल में ही चर्चा में आये राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केन्द्र, अर्द्धसैनिक बलों को बिना किसी राज्य की अनुमती लिए प्रदेश में प्रवेश एवं तलाशी का अधिकार, राज्य रेलवे पुलिस बल के सारे अधिकार रेलवे पुलिस बल को सौंपना। इसके अलावा आर्थिक मामलों से जुड़े मसले जैसे- देश में एकल कर प्रणाली आदि।

अगर हम अपने संविधान द्दारा केंन्द्र तथा राज्यों को दिए गए अधिकारों पर सही रुप से आकलन या विशलेषण करें तो विश्वास मानिए कि हमारा संविधान प्रारंभ से ही केन्द्र की ओर ज्यादा झुका दिखाई पड़ता है। देश की आजादी के पश्चात हमारे संविधान विशेषज्ञों ने देश की एकता-अखण्डता को ध्यान में रखते हुऐ एक सशक्त केन्द्रीय शक्ति कि अवधारणा तय की। क्योंकि भारत एक विशाल देश है। इसमें विभन्न प्रकार की सांस्कृतिक, भौगोलिक, क्षेत्रीय, वर्गीय, आर्थिक, सामरिक विशेषताऐं है। इसको आपसी सामंजस्य के साथ-साथ एकजुट रखने के लिए एक सशक्त केन्द्रीय शक्ति का होना अति आवश्यक होगा। समय, स्थान एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुऐ हमारे संविधान विशेषज्ञों द्दारा इस प्रकार की नीतियों को लागू करना बिल्कुल उचित था। हमारा संविधान ना तो ज्यादा लचीला और ना ही ज्यादा कठोर। इसमें समय-समय पर परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुऐ सुधार की व्यापक व्यवस्था की गई है। इसी का परिणाम है कि 65 साल की आजादी के दौरान हमारे संविधान में लगभग 120 सशोंधन किये जा चुके हैं।

सबसे बड़ा प्रश्न जो आज उभरकर सामने आ रहा है वह है संवैधानिक शक्ति का पलड़ा किस ओर ज्यादा झुका रहना चाहिए अर्थात केंन्द्र की ओर या राज्य की ओर। आज इस प्रश्न पर इमारे देश के बुद्धीजीवियों, संविधान विशेषज्ञों के बीच एक प्रकार की चर्चा शुरु हो गई है। सब अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुसार इसके पक्ष-विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं। कोई सशक्त केंन्द्रीय शक्ति की वकालत करता दिख रहा है तो कोई, राज्यों को विशेषाधिकार देऩे की बात कर रहा है।

ये बात सत्य है, भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में कुछ ऐसी घटनाऐं घटी हैं, या फिर कुछ ऐसे अधिकारों का दुरुपयोग किया गया है, जिससे केंन्द्रीय शक्ति की मनमानी की बू आती है। उदाहरण के तौर पर राष्ट्रपति शासन को ही लें। जब तक केंन्द्र पर एकदलीय कांग्रेस की सरकार रही, तब तक इसने राज्यों पर धारा 356 का प्रयोग अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने में किया। लगभग 80 के दशक तक यह क्रम चलता रहा। 1975 का आपातकाल जो 1977 तक चलता रहा, इसी केंन्द्रीय शक्ति के झुकाव का परिणाम है।

आज अधिकार वही हैं, पर राजनीतिक परिस्थितियां बदल गई। गठबन्धन की राजनीति में बिना सबको साथ लिऐ सत्ता की गाड़ी चलाना जरा मुश्किल है।

केन्द्र से लेकर राज्यों तक, कुछ राज्यों को छोड़, गठबन्धन का बोलबाला है। आज केन्द्र सरकार की मानसिकता ठीक उसी अनुरुप कार्य कर रही है, जिस अनुरुप उसे संविधान में सशक्त अधिकार मिले हैं। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है वो तो मौन हैं, पर अन्य पार्टियों की सरकार इसका विरोध कर रही हैं।

सबसे विचाराधीन प्रश्न जो इस मशले पर उभरकर आ रहा है वह है क्या राज्यों को कुछ स्वायत्ता मिलनी चाहिए? कुछ अधिकार प्रदान किए जाऐं ताकि राज्य अपना विकास ठीक अपनी सामरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार नीतियां बना कर, योजनाऐं बनाकर कर सके। अगर भारत के सभी राज्यों पर गौर करें तो सभी की मानवीय भौगोलिक, आर्थिक आवश्यकता अलग-अलग है। अब तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल,आंन्ध्रप्रदेश की तुलना बिहार, झारखण्ड, पंजाब, हरियाण, उ.प्रदेश आदि राज्यों से की जाऐ तो खान-पान से लेकर रहन-सहन तक हर मामले में साफ अंतर दिखाई पड़ता है। एक उदारहण से इसको समझा जा सकता है– सरकार पूरे देश में पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिऐ नलकूप लगाने की घोषणा करती है। ठीक इसी अनुरुप प्रति नलकूप 3 हजार रुपये आवंटित किए जाते हैं। अब रही बात कि राजस्थान में पानी का स्तर 200 से 250 फीट पर मिलता है, वहीं बिहार मे 100 से 150 फीट पर। निश्चित तौर पर राजस्थान में एक नलकूप लगाने में ज्यादा पाइप, ज्यादा श्रम लगेगा, ठीक उसी अनुरुप लागत भी बढ़ेगी, वहीं बिहार में कम पाइप, कम श्रम लगेगा और इससे लागत भी कम आएगी।

अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पूरे देश में ऐसी कोई भी योजना किस हद तक सार्थक एवं सफल मानी जाऐगी। अगर समावेशी विकास की कल्पना हम करते हैं तो सर्वप्रथम राज्यों को सारे अधिकार देने होंगे, जिससे वह अपनी आवश्यकता के अनुसार नीतियां बनाऐ तथा कार्ययोजनाऐं तय करें। आखिर कोई भी राज्य कब तक अपनी आर्थिक जरुरतों के लिऐ केंन्द्र के सामने याचक की मुद्रा में खड़ा रहे, इसके लिऐ इन्हें स्वंय आत्मनिर्भर बनाना होगा और केन्द्र सरकार को इसके लिऐ पहल करनी होगी।

1776 में अमेरिका एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। इससे पहले अमेरिका लगभग 13 द्दीपों में विभक्त था। सभी के सांस्कृतिक–आर्थिक आधार अलग-अलग थे। उस समय अमेरिका में सशक्त केन्द्रीय सरकार की कल्पना की गई थी। लगभग 100 साल पश्चात अमेरिका में ऐसी नीतियों के चलते गृहयुद्ध की स्थति उत्पन्न हो गई। तभी निर्णय लिया गया कि केन्द्र के बजाए राज्यों को अधिक स्वायत्ता प्रदान किया जाए। आज अमेरिका में 40 राज्य हैं। इन राज्यों में गर्वनर की नियुक्ति राज्य की जनता स्वंय करती है। राज्य अपने संतुलित विकास को लेकर स्वंय नीतियां बना सकता है केन्द्र इसमें किसी भी प्रकार का वीटो नहीं कर सकती है। आज इसका परिणाम है कि अमेरिका के सभी राज्यों में समावेशी विकास देखने को मिल रहा है। यह बात सत्य है कि हम किसी देश की संवैधानिक गतिविधियों की तुलना के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं कर सकते क्योंकि सबकी अपनी-अपनी आवश्यकताऐं एवं जरुरतें होती हैं।

राज्य एवं केन्द्र दोनो का एक मात्र उद्देश्य है कि किस प्रकार से समावेशी विकास के साथ-साथ देश की एकता-अखण्डता को बनाऐ रखा जाऐ। जहाँ तक आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न है, किसी भी प्रकार की नीतियों को लागू करने का प्रश्न है तो सर्वप्रथम केंन्द्र सरकार को राज्यों से सुलह-मशवरा अवश्य करना चाहिए।

आपसी विचार-विमर्श के साथ अगर जरुरत पड़े तो कुछ संवैधानिक संशोधन के माध्यम से मिलजुल कर नीतियां बनानी एवं लागू करनी चाहिए। आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याऐं आज संपूर्ण राष्ट्र के सामने मुँह बाऐं खड़ी है, इन विकट परिस्थितियों में जरुरत है राज्य एवं केंन्द्र को अपसी सामन्जस्य के साथ साथ एकजुट रहने की। वरना अपने-अपने अधिकार की लड़ाई में कहीं ऐसा ना हो कि देश ही संकट में घिर जाऐ। हम आशा करते हैं कि पुनः  राज्य के मुख्यमंत्रियों एवं केन्द्र के बीच होनेवाली बैठक सार्थक एवं परिणामदायक होगी । 

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